नवगीत सलिला:
सीमा हरि शर्मा
१.
ढूँढता हल बावरा मन
ढूँढता हल बावरा मन
प्रश्न के बाजार में ।
जीतकर हारा कभी यह
जीत जाता हार में
मौड़ कैसा भी कठिन हो
ज़िन्दगी ये कब थमी
है नटी की तरह चलना
नभ धरा रस्सी वही ।
हल कभी भी हो न पाए
कुछ गणित संसार में ।
ढूँढता हल बावरा मन
प्रश्न के बाजार में ।
मौन दिखती जल सतह, पर
हलचलों का वास है
मिट रही बन लहर हर जो
अनकहे इतिहास है
चाहती कोई लहर
थम कर रहे इस धार में
ढूँढता हल बावरा मन
प्रश्न के बाजार में
धूल मुखड़े पर जमी थी
साफ दर्पण ही किया।
अनसुना अक्सर किया वो
जो कभी मन ने कहा ।
तन उलझता ही रहा यह
जगत के व्यापार में
ढूंढता हल बावरा मन
प्रश्न के बाजार में ।
प्रेम विस्तृत नभ कभी यह
है धरा सा धैर्य भी ।
रूह का अहसास पावन
नाद है ओंकार की ।
क्यों उलझ कर रह गया बस
देह के अभिसार में ।
ढूँढता हल बावरा मन
प्रश्न के बाजार में ।
जीतकर हारा कभी यह
जीत जाता हार में
*
२.
संस्कृत बृज अवधी से सुवासित,
मैं हिंदी हूँ हिन्द की शान।
बीते सात दशक आजादी,
अब तक क्यों ना
मिली पहचान।
दुनियाँ के सारे देशों में,
मातृभाषा का प्रथमस्थान।
उर्दू, आंग्ल, फ़ारसी सबको,
आत्मसात कर दिया है मान।
हिंदी दिवस मनाता
अब तक
देखो मेरा हिन्दुस्तान....बीते सात
स्वामिनी कैसी मैं घर की,
भाषा पराई करती राज।
लज्जा आती मुझे बोलकर,
इंगलिश के सर धरतेताज।
सारे भारत अलख जगाओ
भरत खंड की आर्य
सन्तान।.......बीते सात
है सम्पन्न व्याकरण मेरा
नहीं दिला पाया क्यों मान।
विद्यालयों की खस्ता हालत
कान्वेंटो की जगमग शान
बैर न किसी भाषा बोली से
मूल बिना ना सकल
उत्थान...
बीते सात दशक आजादी,
अब तक क्यों ना
मिली पहचान।...
*
३.
यही गीत ऐसा भी.....
हिन्द की शान (पूरा गीत)
हिंदी दिवस पर एक नवगीत (14 सितम्बर)
संस्कृत बृज अवधी से सुवासित,
मैं हिंदी हूँ हिन्द की शान
बीते सात दशक आजादी,
अब तक क्यों ना
मिली पहचान।
दुनियाँ के सारे देशों में,
मातृभाषा का प्रथमस्थान।
उर्दू, आंग्ल, फ़ारसीसबको,
आत्मसात कर दिया है मान।
हिंदी दिवस मनाता
अब भी,
मेरा लाडला हिन्दुस्तान....बीते सात
कैसी स्वामिनी अपनेघर की,
भाषा पराई करती राज।
लज्जा आती मुझे बोलकर,
इंगलिश के सर धरतेताज।
मातृभाषा भले
तुम्हारी,
करते इंगलिश का सम्मान।..बीते सात
उच्च पढाई अंग्रेजी में,
कैसे हो मेरा विस्तार?
समृद्ध सबसे व्याकरणमेरा,
बना न प्रान्तों का आधार
बैर न किसी भाषा
बोली से,
मूल बिना ना सकल उत्थान।..बीते सात
जाने बिना दवाई खाते,
जो इंगलिश से है अनजान।
विद्यालयों की खस्ता हालत,
कान्वेंटों की जगमग शान।
सारे भारत अलख
जगाओ,
भरतखंड की आर्य सन्तान।
बीते सात दशक आजादी,
अब तक क्यों ना
मिली पहचान।
*
४.
भीगे भीगे कोए ....
शब्दों के सैलाब उमड़ते
अधरों पर आ खोए।
नयनों से मुखरित हों कैसे
भीगे भीगे कोए।
झुलस रही ज्वालामुखियों में
जल की शीतल धारा।
मीठी नदियाँ रहीं सिमटकर
सागर का जल खारा।
मृदु मधु झरना अन्तस् कलकल
जल खारा बन रोए।
नयनों से मुखरित हों कैसे
भीगे भीगे कोए।
आडम्बर के छद्म आवरण
अंत:करण गंधाते।
अनुबंधों के शिखर सजीले
चुपके से ढह जाते।
सदियों से सब देव जगाए
मनुज अभी तक सोए।
नयनों से मुखरित हों कैसे
भीगे भीगे कोए।
सीमा हरि शर्मा
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