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शनिवार, 5 मई 2012

गीत: सँग समय के... --संजीव 'सलिल'

गीत:
सँग समय के...
संजीव 'सलिल'
*
सँग समय के चलती रहती सतत घड़ी.
रहे अखंडित काल-चक्र की मौन कड़ी...
*
छोटी-छोटी खुशियाँ कैसे जी पायें?
पीर-दर्द सह, आँसू कैसे पी पायें?
सभी युगों में लगी दृगों से रही झड़ी...
*
अंकुर पल्लव कली फूल फल बीज बना.
सीख न पाया झुकना तरुवर रहा तना.
तूफां ने आ शीश झुकाया, व्यथा बड़ी...
*
दूब ड़ूब जाती पानी में हरियाती.
जड़ें जमा माटी-रक्षक बन मुस्काती.
बरगद बब्बा बोलें रखना जड़ें गड़ी... 
*
वृक्ष मौलश्री किसको हेरे एकाकी.
ध्यान लगा खो गया, न कुछ भी है बाकी.
ओ! सो मत ओशो कहते 'तज सोच सड़ी'...
*
शैशव-यौवन सँग बुढ़ापा टहल रहा.
मचल रही अभिलाषा देखे बहल रहा.
रुक-झुक-चुक मत आगे बढ़, ले 'सलिल' छडी...
***
Sanjiv verma 'Salil'
http://divyanarmada.blogspot.com
http://hindihindi.in

1 टिप्पणी:

sn Sharma ✆ ahutee@gmail.com ने कहा…

sn Sharma ✆ ahutee@gmail.com द्वारा yahoogroups.com kavyadhara


आ० आचार्य जी,
इस गीत में आपने गागर में सागर भर दिया|थोड़े शब्दों में बहुत कुछ कह गये| आपकी लेखनी को पुनः नमन| अंतिम तो बहुत ही सही कहा कि बुढापे में तो छडी लेकर ही आगे बढ़ना संभव है |

" शैशव-यौवन सँग बुढ़ापा टहल रहा.
मचल रही अभिलाषा देखे बहल रहा.
रुक-झुक-चुक मत आगे बढ़, ले 'सलिल' छडी..." वाह !
सादर,
कमल