दोहा सलिला
सूर्य घूमता केंद्र पर...
संजीव 'सलिल'
*
*
सूर्य घूमता केंद्र पर, होता निकट न दूर.
चंचल धरती नाचती, ज्यों सुर-पुर में हूर..
*
सन्नाटा छाया यहाँ, सब मुर्दों से मौन.
रवि सोचे चुप ही रहूँ, सत्य सुनेगा कौन..
*
सूर्य कृष्ण दो गोपियाँ, ऊषा-संध्या नाम.
एक कराती काम औ', दूजी दे आराम.
*
छाया-पीछे दौड़ता, सूरज सके न थाम.
यह आया तो वह गयी, हुआ विधाता वाम.
*
मन सूरज का मोहता, है वसुधा का रूप.
याचक बनकर घूमता, नित त्रिभुवन का भूप..
*
आता खाली हाथ है, जाता खाली हाथ.
दिन भर बाँटे उजाला, रवि न झुकाए माथ..
*
देख मनुज की हरकतें, सूरज करता क्रोध.
कब त्यागेगा स्वार्थ यह?, कब जागेगा बोध.
*
पाप मनुज के बढ़ाते, जब धरती का ताप.
रवि बरसाता अश्रु तब, वर्षा कहते आप..
*
आठ-आठ गृह अश्व बन, घूमें चारों ओर.
रथपति कसकर थामता, संबंधों की डोर..
*
रश्मि गोपियाँ अनगिनत, हर पल रचती रास.
सूर्य न जाने किस तरह, रहता हर के पास..
*
नेह नर्मदा में नहा, दिनकर जाता झूम.
स्नेह-सलिल का पान कर, थकन न हो मालूम..
*
सूरज दिनपति बन गया, लगा नहीं प्रतिबन्ध.
नर का नर से यों हुआ, चिरकालिक अनुबंध..
*
भास्कर भास्वर हो 'सलिल', पुजा जगत में खूब.
भोग पुजारी खा गये, गया त्रस्त हो डूब..
*
उदय-अस्त दोनों समय, लोग लगाते भीड़.
शेष समय खाली रहे, क्यों सूरज का नीड़..
*
रमा रहा मन रमा में, किसको याद रमेश.
बलिहारी है समय की, दिया जलायें दिनेश..
*
Acharya Sanjiv verma 'Salil'
http://divyanarmada.blogspot. com
http://hindihindi.in
सूर्य घूमता केंद्र पर...
संजीव 'सलिल'
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सूर्य घूमता केंद्र पर, होता निकट न दूर.
चंचल धरती नाचती, ज्यों सुर-पुर में हूर..
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सन्नाटा छाया यहाँ, सब मुर्दों से मौन.
रवि सोचे चुप ही रहूँ, सत्य सुनेगा कौन..
*
सूर्य कृष्ण दो गोपियाँ, ऊषा-संध्या नाम.
एक कराती काम औ', दूजी दे आराम.
*
छाया-पीछे दौड़ता, सूरज सके न थाम.
यह आया तो वह गयी, हुआ विधाता वाम.
*
मन सूरज का मोहता, है वसुधा का रूप.
याचक बनकर घूमता, नित त्रिभुवन का भूप..
*
आता खाली हाथ है, जाता खाली हाथ.
दिन भर बाँटे उजाला, रवि न झुकाए माथ..
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देख मनुज की हरकतें, सूरज करता क्रोध.
कब त्यागेगा स्वार्थ यह?, कब जागेगा बोध.
*
पाप मनुज के बढ़ाते, जब धरती का ताप.
रवि बरसाता अश्रु तब, वर्षा कहते आप..
*
आठ-आठ गृह अश्व बन, घूमें चारों ओर.
रथपति कसकर थामता, संबंधों की डोर..
*
रश्मि गोपियाँ अनगिनत, हर पल रचती रास.
सूर्य न जाने किस तरह, रहता हर के पास..
*
नेह नर्मदा में नहा, दिनकर जाता झूम.
स्नेह-सलिल का पान कर, थकन न हो मालूम..
*
सूरज दिनपति बन गया, लगा नहीं प्रतिबन्ध.
नर का नर से यों हुआ, चिरकालिक अनुबंध..
*
भास्कर भास्वर हो 'सलिल', पुजा जगत में खूब.
भोग पुजारी खा गये, गया त्रस्त हो डूब..
*
उदय-अस्त दोनों समय, लोग लगाते भीड़.
शेष समय खाली रहे, क्यों सूरज का नीड़..
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रमा रहा मन रमा में, किसको याद रमेश.
बलिहारी है समय की, दिया जलायें दिनेश..
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Acharya Sanjiv verma 'Salil'
http://divyanarmada.blogspot.
http://hindihindi.in
10 टिप्पणियां:
sn Sharma ✆ द्वारा yahoogroups.com
kavyadhara
आ० आचार्य जी,
सूर्य पर मनोहारी दोहों के किये आभारी हूँ |
विशेष-
सूर्य कृष्ण दो गोपियाँ, ऊषा-संध्या नाम.
एक कराती काम औ', दूजी दे आराम.
भास्कर भास्वर हो 'सलिल', पुजा जगत में खूब.
भोग पुजारी खा गये, गया त्रस्त हो डूब..
सादर,
कमल
- chandawarkarsm@gmail.com
आचार्य संजीव जी,
सूर्य पर लिखे आप के दोहे और अन्य रचनाएं मुझे हमेशा बहुत सुन्दर लगती हैं।
यह सुन कर कि सूर्योपासना से दृष्टिदोष दूर हो जाते हैं, मेरे अनुज ने मुझे कवि मयूर रचित ’सूर्यशतकम्’ चेन्नै से मंगवा देने की बिनति की थी।
कहते हैं कि कवि मयूर कवि बाण के समकालीन थे।
मेरी आप से प्रार्थना है कि आप भी ’सूर्यशतकम्’ पढें और कवि मयूर की कल्पना की उडान का आनंद उठाएं। इसे प्राप्त करने का पता:
Shri Pithukuli Murugadas,
Shri Devi Nilayam, 87, V.M.Street, Mylapore,
Chennai 600 004. Telephone:(044)28474437.
सस्नेह
सीताराम चंदावरकर
vijay2@comcast.net द्वारा yahoogroups.com ekavita
आ० ’सलिल’ जी,
बहुत मनोहारी !
विजय
- pranavabharti@gmail.com
आ. आचार्य जी ,
आपको शत शत प्रणाम
आपके दोहों का तो कोई सानी नहीं |
एक दोहा समर्पित.......
सूरज ने तो सब दिया ,दिया उजाला ताप,
हमने द्वार ढुका दिए ,भर मन में संताप||
सादर
प्रणव भारती
- manjumahimab8@gmail.com
अद्भुत...बड़ा ही मनोहारी चित्रं खीचा है आपने सूरज और धरती के संबंधों का..गागर में सागर भर दिया है..अभिनन्दन..
सादर
मंजु महिमा
--
शुभेच्छु
मंजु
'तुलसी क्यारे सी हिन्दी को,
हर आँगन में रोपना है.
यह वह पौधा है जिसे हमें,
नई पीढ़ी को सौंपना है. '
---मंजु महिमा
यदि आप हिन्दी में ज़वाब देना चाहते हैं तो हिन्दी में लिखने के लिए एक आसान तरीका , कृपया इस लिंक की सहायता लें
http://www.google.com/transliterate/indic
सम्पर्क-+91 9925220177
achalkumar44@yahoo.com ekavita
आ. आचार्य जी ,
क्या खूब रची कविता , कवि ने
दिल झूम गया जिसको पढ़कर ।
हर एक पंक्ति में ज्योति मिली
हर जगह हमें भाए दिनकर ।।
सीताराम जी, अचल जी, मंजु जी, विजय जी, प्रणव भारती जी
आप सबका हार्दिक आभार.
सूर्य शतकम हेतु संपर्क करता हूँ. आपके लिये सूर्याष्टक शीघ्र ही ईकविता में प्रस्तुत करने का प्रयास है.
भारती की आरती, सूरज उतारे धन्य हो.
मंजु भारत भूमि से, ज्यादा न ज्यादा अन्य हो..
पा विजय कर जोड़ सीताराम बोलें हो अचल.
हर्ष-दुःख दोनों में होते 'सलिल' के नयना सजल..
drdeepti25@yahoo.co.in द्वारा yahoogroups.com kavyadhara
आदरणीय संजीव जी,
'दिवाकर' पर रचे सार्थक दोहों के लिए ढेर सराहना स्वीकारें ...
आता खाली हाथ है, जाता खाली हाथ.
दिन भर बाँटे उजाला, रवि न झुकाए माथ..
*
सादर,
दीप्ति
Santosh Bhauwala ✆ yahoogroups.com kavyadhara
आदरणीय आचार्य जी ,सूर्य पर इतने सुंदर दोहे पहली बार पढ़े हैं नमन !!
संतोष भाऊवाला
shar_j_n@yahoo.com
ekavita
आ. आचार्य सलिल जी,
सुन्दर!
ये विशेष:
उदय-अस्त दोनों समय, लोग लगाते भीड़.
शेष समय खाली रहे, क्यों सूरज का नीड़..
सादर शार्दुला
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