नवगीत:
संजीव 'सलिल'
*
डर लगता है
आँख खोलते...
*
कालिख हावी है
उजास पर.
जयी न कोशिश
क्षुधा-प्यास पर.
रुदन हँस रहा
त्रस्त हास पर.
आम प्रताड़ित
मस्त खास पर.
डर लगता है
बोल बोलते.
डर लगता है
आँख खोलते...
*
लूट फूल को
शूल रहा है.
गरल अमिय को
भूल रहा है.
राग- द्वेष का
मूल रहा है.
सर्प दर्प का
झूल रहा है.
डर लगता है
पोल खोलते.
डर लगता है
आँख खोलते...
*
आसमान में
तूफाँ छाया.
कर्कश स्वर में
उल्लू गाया.
मन ने तन को
है भरमाया.
काया का
गायब है साया.
डर लगता है
पंख तोलते.
डर लगता है
आँख खोलते...
*
5 टिप्पणियां:
नमन आपको और आपकी कलम को.
नि:शब्द हूँ. शुभकामनायें.
कलियुगी माया से भ्रमित संसार से में डर ही लगेगा आँख खोलते , पोल खोलते ...!!
Aapkee har rachna anoothee hai..mai comment karne ke sahee me qaabil nahee..sahee kaha Nirmala jee ne...nishabd hun!
मेरी रचना को सराहनीय प्रयास कहने के लिए बहुत धन्यबाद , मेरे लिए यह बहुत बड़ा प्रोत्साहन है। आपकी रचनाये सुन्दर के साथ साथ अति अर्थपूर्ण भी
Dear Salil Ji
I enjoy reading your poems on e-kavita.
I would like to include your poem "Dar Lagta Hai" on my website Geeta-Kavita (www.geeta-kavita.com).
Kindly permit me to do so.
Kind regards
Rajiv K. Saxena
एक टिप्पणी भेजें