नव गीत:
संजीव 'सलिल'
सागर उथला,
पर्वत गहरा...
*
डाकू तो ईमानदार
पर पाया चोर सिपाही.
सौ पाए तो हैं अयोग्य,
दस पायें वाहा-वाही.
नाली का
पानी बहता है,
नदिया का
जल ठहरा.
सागर उथला,
पर्वत गहरा...
*
अध्यापक को सबक सिखाता
कॉलर पकड़े छात्र.
सत्य-असत्य न जानें-मानें,
लक्ष्य स्वार्थ है मात्र.
बहस कर रहा
है वकील
न्यायालय
गूंगा-बहरा.
सागर उथला,
पर्वत गहरा...
*
मना-मनाकर भारत हारा,
लेकिन पाक न माने.
लातों का जो भूत
बात की भाषा कैसे जाने?
दुर्विचार ने
सद्विचार का
जाना नहीं
ककहरा.
सागर उथला,
पर्वत गहरा...
*
दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
कुल पेज दृश्य
शुक्रवार, 4 दिसंबर 2009
नव गीत: सागर उथला / पर्वत गहरा...
चिप्पियाँ Labels:
-acharya sanjiv 'salil',
Contemporary Hindi Poetry,
geet,
nav geet,
samyik hindi kavita
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
4 टिप्पणियां:
बहुत बढ़िया रचना..चार लाइनें बढ़ाना चाहूँगा..
भीड़ भरा है चारो ओर,
मगर अकेले है सब लोग,
इंसान ही इंसान का दुश्मन,
मार रहें है सब अपने मन,
अपने में जीते मरते है,
फ़िक्र कहाँ किसकी करते है,
झूठ के आगे देखो,
कहाँ आज सच ठहरा!!
सलिल जी
'डाकू तो ईमानदार' पढ़ते ही मुझे शरद जोशी की कहानियों पर आधारित धारावाहिक 'लापतागंज ' याद आ गया . विरोधाभासों के बीच से निकलते व्यंग की धार तीखी है .
सागर उथला,
पर्वत गहरा...
-सारगर्भित गीत!! बधाई.
सागर उथला,
पर्वत गहरा...
--वाह आचार्य जी, आपने मन प्रसन्न कर दिया।
एक टिप्पणी भेजें