एक अगीत:
बिक रहा ईमान है
__संजीव 'सलिल'
कौन कहता है कि...
मंहगाई अधिक है?
बहुत सस्ता
बिक रहा ईमान है.
जहाँ जाओगे
सहज ही देख लोगे.
बिक रहा
बेदाम ही इंसान है.
कहो जनमत का
यहाँ कुछ मोल है?
नहीं, देखो जहाँ
भारी पोल है.
कर रहा है न्याय
अंधा ले तराजू.
व्यवस्था में हर कहीं
बस झोल है.
आँख का आँसू,
हृदय की भावनाएँ.
हौसला अरमान सपने
समर्पण की कामनाएँ.
देश-भक्ति, त्याग को
किस मोल लोगे?
कहो इबादत को
कैसे तौल लोगे?
आँख के आँसू,
हया लज्जा शरम.
मुफ्त बिकते
कहो सच है या भरम?
क्या कभी इससे सस्ते
बिक़े होंगे मूल्य.
बिक रहे हैं
आज जो निर्मूल्य?
मौन हो अर्थात
सहमत बात से हो.
मान लेता हूँ कि
आदम जात से हो.
जात औ' औकात निज
बिकने न देना.
मुनाफाखोरों को
अब टिकने न देना.
भाव जिनके अधिक हैं
उनको घटाओ.
और जो बेभाव हैं
उनको बढाओ.
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4 टिप्पणियां:
सामयिक और सटीक रचना.
बड़ी ही सरलता से सब कुछ कह दिया आपने.
१५ दिसम्बर २००९ ७:१२ AM
इस रचना को पुन; पढ़ लिआ।
हमारे मन की बात को आपने अपने शब्दो मे ढाला है।
बधाई।
kanhaiyakrishna@hotmail.com की छवियां हमेशा प्रदर्शित करें
आदरणीय आचार्य जी,
बहुत ही सरल और भावपूर्ण रचना है
अपने ईकविता के मंच को एक नया आयाम दिया है
बहुत-बहुत बधाई हो
आदरणीय आचार्य जी,
एक अनोखी कल्पना और बड़े सशक्त शब्दों में
प्रभावी अभिव्यंजना ! आपकी प्रतिभा को नमन !
सादर,
कमल
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