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सोमवार, 28 दिसंबर 2009

सामयिक दोहे संजीव 'सलिल'

सामयिक दोहे

संजीव 'सलिल'

पत्थर से हर शहर में मिलते मकां हजारों.

मैं ढूंढ-ढूंढ हरा, घर एक नहीं मिलता..



रश्मि रथी की रश्मि के दर्शन कर जग धन्य.

तुम्हीं चन्द्र की ज्योत्सना, सचमुच दिव्य अनन्य..



राज सियारों का हुआ, सिंह का मिटा भविष्य.

लोकतंत्र के यज्ञ में, काबिल हुआ हविष्य..



कहता है इतिहास यह, राक्षस थे बलवान.

जिसने उनको मिटाया, वे सब थे इंसान..

इस राक्षस राठोड का होगा सत्यानाश.

साक्षी होंगे आप-हम, धरती जल आकाश..



नारायण के नाम पर, सचमुच लगा कलंक.

मैली चादर हो गयी, चुभा कुयश का डंक..



फंसे वासना पंक में, श्री नारायण दत्त.

जैसे मरने जा रहा, कीचड में गज मत्त.

कीचड में गज मत्त, लाज क्यों इन्हें न आयी.

कभी उठाई थी चप्पल. अब चप्पल खाई..

******************
Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

6 टिप्‍पणियां:

संजय भास्‍कर ने कहा…

बहुत ही सुन्‍दर प्रस्‍तुति ।

सीताराम चंदावरकर ने कहा…

smchandawarkar@yahoo.com

आचार्य जी,

अति सुन्दर!

सस्नेह
सीताराम चंदावरकर

- प्रतिभा. ने कहा…

- pratibha_saksena@yahoo.com

आपकी तत्वपूर्ण रचनायं जीवन को नया बोध प्रदान करती हैं । तदर्थ आभार !
- प्रतिभा.

रचना दीक्षित ने कहा…

सर!
ये तो कुछ ही नाम हैं एस एतो अनगिनत भरे पड़े हैं. जिनका हमें पता भी नहीं चलता और हो सकता है हम उन पर बहुत विश्वास भी करते हों पर सच तो जब दिखाई दे तभी समझ में आता है.

उड़न तश्तरी ने कहा…

सामयिक दोहे.

परमजीत बाली ने कहा…

बढ़िया सामयिक दोहे है. बधाई.