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बुधवार, 31 मई 2023

काव्य समीक्षा, सुमित्र, सलिल

जा काव्य समीक्षा

आदमी तोता नहीं : खोकर भी खोता नहीं
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
*
[आदमी तोता नहीं, काव्य संग्रह, डॉ. राजकुमार तिवारी 'सुमित्र', प्रथम संस्करण २०२२, पृष्ठ ७२, मूल्य १५०/-, आईएसबीएन ९७८-९३-९२८५०-१२-७, पाथेय प्रकाशन जबलपुर]
*

महाकवि नीरज कहते हैं-
'मानव होना भाग्य है
कवि होना सौभाग्य।'

कवि कौन?
वह जो करता है कविता।

कविता क्या है?
काव्य 'रमणीय अर्थ प्रतिपादक'।
'ध्वनि आत्मा', कविता की वाहक।
'वाक्य रसात्मक' ही कविता है।
'ग्राह्य कल्पना' भी कविता है।
'भाव प्रवाह' काव्य अनुशीलन।
'रस उद्रेक' काव्य अवगाहन।
कविता है 'अनुभूति सत्य की'।
कविता है 'यथार्थ का वर्णन'।
कविता है 'रेवा कल्याणी'।
कविता है 'सुमित्र की वाणी'।
*
कवि सुमित्र की कविता 'लड़की'
पाए नहीं मगर खत लिखती। 
कविता होती विगत 'डोरिया' 
दादा जिसे बुना करते थे, 
जिस पर कवि सोता आया है 
दादा जी को नमन-याद कर। 
अब के बेटे-पोते वंचित 
निधि से जो कल की थी संचित 
कल को कैसे दे पाएँगे?
कल की कल कैसे पाएँगे?
*
कवि की भाषा नदी सरीखी
करे धवलता की पहुनाई। 
'शब्द दीप' जाते उस तट तक 
जहाँ उदासी तम सन्नाटा।  
अधरांगन बुहारकर खिलता 
कवि मन कमल निष्कलुष खाँटा।
'त्याज्य न सब परंपरा' कवि मत 
व्यर्थ न कोसो, शोध सुधारो' 
'खोज' देश की गाँधीमय जो   
'काश!' बने ऊसर उपजाऊ। 
'रिश्ते' रिसने लगे घाव सम 
है आहत विश्वास कहो क्यों?
समझ भंगिमा पाषाणों की 
बच सकता है 'गुमा आदमी'।
है सरकार समुद जल खारा 
कैसे मिटे प्यास जनगण की?
*
कवि चिंता- रो रहे, रुला क्यों?
जाति-धर्म लेबिल चस्पा कर। 
कवि भावों का शब्द कोश है। 
शब्द सनातन, निज न पराए। 
'संस्कार' कवि को प्रिय बेहद 
नहिं स्वच्छंद आचरण भाए। 
'कवि मंचीय श्रमिक बँधुआ जो  
चाट रहे चिपचिपी चाशनी 
समझौतों की, स्वाभिमान तज।'
कह सुमित्र कवि-धर्म निभाते। 
कभी निराला ने नेहरू को 
कवि-पाती लिखकर थी भेजी।
बहिन इंदिरा को सुमित्र ने 
कवि-पाती लिख सहज सहेजी।  
*
'मनु स्मृति' विवाद बेमानी 
कहता है सुमित्र का चिंतक। 
'युद्ध' नहीं होते दीनों-हित 
हित साधें व्यापारी साधक।
रुदन न तिया निधन पर हो क्यों?
 'प्रथा' निकष पर खरी नहीं यह। 
'हद है' नेक न सांसद मंत्री 
'अद्वितीय वह; समझे खुद को। 
मंशाराम! बताओ मंशा 
क्या संपादक की थी जिसने 
लिखा नहीं संपादकीय था 
आपातकाल हुआ जब घोषित? 
*
युगद्रष्टा होता है कवि ही 
कहती हर कविता सुमित्र की। 
शब्द कैमरे देख सके छवि 
विषयवस्तु जो थी न चित्र की। 
भूखा सोता लकड़ीवाला 
ढोता बोझ बुभुक्षा का जो 
भारी अधिक वही लकड़ी से'
सार कहे कविता सुमित्र की। 
तोड़ रहा जंजीर शब्द हर 
गोड़ जमीन कड़ी सत्यों की 
कोई न जाने कितना लावा 
है सुमित्र के अंतर्मन में? 
चलें कुल्हाड़ी, गिरें डालियाँ 
'क्या बदला है?' समय बताए। 
पेड़ न तोता अंतरिक्ष में 
ध्वनि न रंग, न रस तरंग ही। 
*
ये कविताएँ शब्द दूत हैं । 
भाषा सरल, सटीक शब्द हैं। 
सिंधु बिंदु में सहज न भरना 
किंतु सहज है यह सुमित्र को। 
बिंब प्रतीक अर्थगर्भित हैं। 
नवचिंतन मन को झकझोरे। 
पाठक मनन करे तो पाता 
समय साक्षी है सुमित्र कवि। 
बात बेहिचक कहता निर्भय 
रूठे कौन?, प्रसन्न कौन हो?
कब चिंता करते हैं चिंतक?
पत्रकार हँस आँख मिलाते। 
शब्द-शब्द में जिजीविषा है, 
परिवर्तन हित आकुलता है। 
सार्थक काव्य संकलन पढ़ना 
युग-सच पाठक पा सकता है। 
सम्हल न खोटा रहे आदमी।  
सपने बोता रहे आदमी। 
पाकर खोता रहे आदमी। 
होनी होता रहे आदमी। 
जब तक सोता नहीं आदमी।
तब तक तोता नहीं आदमी 
२९-५-२०२३ 
***
काव्य समीक्षा

शब्द अब नहीं रहे शब्द :  अर्थ खो हुए निशब्द 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
*
[शब्द अब नहीं रहे शब्द, काव्य संग्रह, डॉ. राजकुमार तिवारी 'सुमित्र', प्रथम संस्करण २०२२, पृष्ठ १०४, मूल्य २५०/-, आईएसबीएन ९७८-९३-९२८५०-१८-९, पाथेय प्रकाशन जबलपुर]
*

कविता क्या है?

कविता है 
आत्मानुभूत सत्य की 
सौ टंच खरी शब्दाभिव्यक्ति। 

कविता है 
मन-दर्पण में 
देश और समाज को  
गत और आगत को
सत और असत को 
निरख-परखकर 
कवि-दृष्टि से 
मूल्यांकित कार 
सत-शिव-सुंदर को तलाशना। 

कविता है 
कल और कल के 
दो किनारों के बीच 
बहते वर्तमान की 
सलिल-धार का  
आलोड़न-विलोड़न। 

कविता है 
'स्व' में 'सर्व' की अनुभूति 
'खंड' से 'अखंड' की प्रतीति 
'क्षर' से 'अक्षर' आराधना 
शब्द की शब्द से 
निशब्द साधना। 
*
कवि है 
अपनी रचना सृष्टि का 
स्वयंभू परम ब्रह्म
'कविर्मनीषी परिभू स्वयंभू'

कवि चाहे तो 
जले को जिला दे।
पल भर में   
शुभ को अमृत 
अशुभ को गरल पिला दे।
किंतु 
बलिहारी इस समय की 
अनय को अभय की 
लालिमा पर 
कालिमा की जय की। 

कवि की ठिठकी कलम 
जानती ही नहीं 
मानती भी है कि 
'शब्द अब नहीं रहे शब्द।'

शब्द हो गए हैं 
सत्ता का अहंकार 
पद का प्रतिकार     
अनधिकारी का अधिकार 
घृणा और द्वेष का प्रचार
सबल का अनाचार 
निर्बल का हाहाकार। 

समय आ गया है 
कवि को देश-समाज-विश्व का 
भविष्य उज्जवल गढ़ने के लिए 
कहना ही होगा शब्द से  
'उत्तिष्ठ, जाग्रत, प्राप्य वरान्निबोधत'
उठो, जागो, बोध पाओ और दो 
तुम महज शब्द ही नहीं हो 
यूं ही 'शब्द को ब्रह्म नहीं कहा गया है।'३   
*
'बचाव कैसे?'४ 
किसका-किससे? 
क्या किसी के पास है 
इस कालिया के काटे का मंत्र?
आखिर कब तक चलेगा  
यह 'अधिनायकवादी प्रजातन्त्र?'१५ 
'जहाँ प्रतिष्ठा हो गई है अंडरगारमेंट 
किसी के लिए उतरी हुई कमीज।'१६ 
'जिंदगी कतार हो गई' १७ 
'मूर्तियाँ चुप हैं' १८
लेकिन 'पूछता है यक्ष'१९ प्रश्न 
मौन और भौंचक है 
'खंडित मूर्तियों का देश।'१९ 
*
हम आदमी नहीं हैं 
हम हैं 'ग्रेनाइट की चट्टानें'२० 
'देखती है संतान 
फिर कैसे हो संस्कारवान?'२१ 
मुझ कवि को 
'अपने बुद्धिजीवी होने पर 
घिन आती है।'२३ 
'कैसे हो गए हैं लोग? 
बनकर रह गए हैं
अर्थहीन संख्याएँ।२४
*
रिश्ता 
मेरा और तुम्हारा 
गूंगे के गुड़ की तरह।२६ 
'मैं भी सन्ना सकता हूँ पत्थर२८ 
तुम भी भुना सकते हो अवसर,
लेकिन दोस्त!
कोई उम्मीद मत करो 
नाउम्मीद करने-होने के लिए। २९  
तुमने  
शब्दों को आकार दे दिया   
और मैं 
शब्दों को चबाता रहा। ३० 
किस्से कहता-
'मैं भी जमीन तोड़ता हूँ,
मैं कलम चलाता हूँ।३१ 
*
मैं 
शब्दों को नहीं करता व्यर्थ। 
उनमें भरता हूँ नित्य नए अर्थ। 
मैं कवि हूँ 
जानता हूँ 
'जब रेखा खिंचती है३२ 
देश और दिलों के बीच 
कोई नहीं रहता नगीच।' 
रेखा विस्तार है बिंदु का 
रेखा संसार है सिंधु का 
बिंदु का स्वामी है कलाकार।'३३  
चाहो तो पूछ लो 
'ये कौन चित्रकार है ये कौन चित्रकार?'
 समयसाक्षी कवि जानता है 
'भ्रष्टाचार विरोधी जुलूस में 
वे खड़े हैं सबसे आगे 
जो थामे हैं भ्रष्टाचार की वल्गा। 
वे लगा रहे हैं सत्य के पोस्टर 
जो झूठ के कर्मकांडी हैं।३६ 
*
लड़कियाँ चला रही हैं 
मोटर, गाड़ी, ट्रक, एंजिन 
और हवाई जहाज। 
वे कर रही हैं अंतरिक्ष की यात्रा, 
चढ़ रही हैं राजनीति की पायदान 
कर रही हैं व्यापार-व्यवसाय 
और पुरुष?
आश्वस्त हैं अपने उदारवाद पर।३७
क्या उन्हें मालूम है कि 
वे बनते जा रहे हैं स्टेपनी?
उनकी शख्सियत 
होती जा रही है नामाकूल फनी।  
*  
मैं कवि हूँ, 
मेरी कविता कल्पना नहीं 
जमीनी सचाई है।   
प्रमाण? 
पेश हैं कुछ शब्द चित्र 
देखिए-समझिए मित्र!
ये मेरी ही नहीं 
हर ऐरे गैरे नत्थू खैरे और 
ख़ास-उल-खास की 
जिंदगी के सफे हैं।  

'जी में आया  
उसे गाली देकर 
धक्के मारकर निकाल दूँ 
मगर मैंने कहा- आइए! बैठिए।४४   

वे कौन थे 
वे कहाँ गए 
वे जो 
धरती को माँ 
और आकाश को पिता कहते थे?  

दिल्ली में 
राष्ट्रपति भवन है,
मेरे शहर में 
गुरंदी बाजार है।४७  

कलम चलते-चलते सोचती है 
काश! मैं 
अख्तियार कर सकती 
बंदूक की शक्ल।

मेरे शब्द 
हो गए हैं व्यर्थ। 
तुम नहीं समझ पाए 
उनका अर्थ। ५२

आज का सपना 
कल हकीकत में तब्दील होगा 
जरूर होगा।५३ 

हे दलों के दलदल से घिरे देश!
तुम्हारी जय हो।  
ओ अतीत के देश 
ओ भविष्य के देश
तुम्हारी जय हो। 
*
ये कविताएँ 
सिर्फ कविताएँ नहीं हैं, 
ये जिंदगी के 
जीवंत दस्तावेज हैं।  
ये आम आदमी की 
जद्दोजहद के साक्षी हैं। 
इनमें रची-बसी हैं 
साँसें और सपने 
पराए और अपने 
इनके शब्द शब्द से 
झाँकता है आदमी।  
ये ख़बरदार करती हैं कि 
होते जा रहे हैं 
अर्थ खोकर निशब्द, 
शब्द अब नहीं रहे शब्द। 
१६-५-२०२३ 
*** 

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