संशय के शैवाल
दोहा संकलन
डॉ. राजकुमार तिवारी 'सुमित्र'
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'टच' करते ही बदलते, मोबाइल के दृश्य।
राजनीति में सभी कुछ, रहता सदा अदृश्य।।
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नियम सभी पड़ते शिथिल, यदि हों रिश्तेदार।
फ़र्क नहीं तिल भर पड़े, कोई हो सरकार।।
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अच्छे दिन आए नहीं, बुरे जमाए पैर।
साँस सिसककर माँगती, अपने 'जी' की खैर।।
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तरस रही है बूँद को, सूख रही है दूब।
बारिश होगी ख्वाब में, खूब खूब और खूब।।
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आँसू की ताकत तुम्हें, कहाँ पता है यार?
अविरल आँसू धार में, बह जाती सरकार।।
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थी गुलाब सी ज़िंदगी, कैसे हुई बबूल।
निर्वाचन हमने किया, बने विधायक शूल।।
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जिनके खाते में लिखा, लूट फिरौती खून।
वे ही अब करवा रहे, संशोधित कानून।।
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तालाबंदी सत्य की, झूठ फरेब स्वतंत्र।
बच पाएगा क्या भला, बेचारा गणतंत्र।।
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मोर पपीहा कोकिला, खोजें गुमा बसंत।
हा हा हु हू कर रहे, कागा बने महंत।।
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जीना हम भी चाहते, सुख-सुविधा के साथ।
लेकिन वे ही पा रहे, जिनके लंबे हाथ।। १०
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पानी पानी हो गया, जीवन का इतिहास।
रेत भरी है आँख में, होठों पर है प्यास।।
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रावण क्यों जलता नहीं, जला रहे प्रति वर्ष।
शायद बैठा हृदय में, निकल रहा निष्कर्ष।।
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जितने दल हैं देश में, सब हैं सत्यविहीन।
ऊपर ओढ़े धवलता, भीतर माहा मलीन।।
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सूखे सूखे खेत हैं, भूखे हैं खलिहान।
भरे पेट रहते अगर, मरते नहीं किसान।।
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सुलगी बीड़ी हाथ में, गरमा गया किसान।
हाथ-पैर ठंडे पड़े, आया घर का ध्यान।।
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भ्रष्टाचारी जब हँसे, मन में गड़ती कील।
खौल रही आक्रोश से, स्वाभिमान की झील।।
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जो सपने थे आँख में, सभी हुए नीलाम।
लेकिन है मजबूत मन, होगा नहीं गुलाम।।
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उसके पल्ले है पड़ी, गई ज़िंदगी ऊब।
एक नदी घर से निकल, गई नदी में डूब।।
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सत्ताधारी जब रहे, सूजी उनकी दाढ़।
फिर जिनका कब्जा हुआ, डाढ़ें रहें उखाड़।।
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शिक्षा मंत्री बन गए, बाप पढ़े ना पूत।
पढ़े-लिखे की हैसियत, हैंडलूम का सूट।। २०
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जिनकी पूछें कट गईं, रही न पूछ पछोर।
बेचारे अब क्या करें, शोर शोर बस शोर।।
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क्या है उनकी कुंडली, क्या है उनका ज्ञान।
अरे! अरे! मत पूछिए, सुनिए सिर्फ बयान।।
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बहन- बेटियों समझ लो, समय साँड़ बिगड़ैल।
सोच-समझकर निकलिए, राजनीति की गैल।।
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कितना क्या हम सह रहे, किसे बताएँ यार।
जीवन नैया बह रही, बिना किसी पतवार।।
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है शूकर सी ज़िंदगी, जीते हैं इंसान।
फ़ोटो उनकी खींचकर, लोग हुए धनवान।।
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चूहे हैं अच्छे-भले, बदतर हैं इंसान।
चूहेदानी है उन्हें, इनको नहीं मकान।।
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ईश्वर अल्ला एक है, अनगिन पूजा स्थान।
मगर आरती के लिए, मुश्किल एक मकान।।
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अनदेखा भगवान है, सुना नाम ही नाम ।
चाहे जितना लूटिए, ख्वाबों का गोदाम।।
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रंग रँगी थी ज़िंदगी, हुई आज बदरंग।
रिश्ते-नाते काटते, जैसे जूता तंग।।
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उद्घाटन की लालसा, करती गई कमाल।
पाँच बरस में खुल गई, रुपयों की टकसाल।। ३०
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हवामहल में बैठकर, देखा करें जमीन।
जिनको समझ साधु सा, निकले वही कमीन।।
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राजनीति के पंक में, लिपटे राज्य रंक।
एक ध्येय सबका यही, मिले पुष्प पर्यंक।।
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किसका कितना भरोसा, कितना क्या विश्वास।
बनी हुई है झोपड़ी ,गत करियो के पास।।
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दल के दल में फँसी, चुनी हुई सरकार।
चुने चुनाए बिक रहे, अब तो हाट बाजार।।
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कैसे क्या खाएँ जिएँ, पिएँ कौन सा नीर।
भक्तों ने तो बदल दी, नदियों की तासीर।।
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मत कोई बाबा कहो, मत बोलो महराज।
गाली से बदतर हुआ राम रहीमी ताज।
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जेल खेल सा हो गया, लगता है पाखंड।
वी.आई.पी. ठाठ से, पेल रहे हैं दंड।।
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उसने जो कुछ कहा था, सब है मुझको याद।
लेकिन उसने क्या कहा, उसे नहीं है याद।।
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रुपया पैसा प्रतिष्ठा, सभी हाथ का मैल।
उसी मेल के मोल पर, दुनिया बनी रखैल।।
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क्या देखा अल्लाह को, या देखा भगवान।
अरे मूर्खो! पूज लो, प्रभु रूपी इंसान।। ४०
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प्रभु प्रमाण से परे हैं, होता है आभास।
मिलता है बस उसे ही, जिसको हो विश्वास।।
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सब कुछ तुमको मिलेगा, जो कुछ होगी चाह।
लेकिन तुम भी तो करो, औरों की परवाह।।
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तुम तक पहुंचेगी नहीं, अब तो मेरी बात।
सोच सोच कर बात, यह करती सारी रात।।
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सत्ता दल के प्रवक्ता, शेखी रहे बघार।
उनकी मुद्रा कह रही, दिल्ली में दमदार।।
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हाय! पटकनी खा गए, बहे धार ही धार।
किता आत्म विश्वास ने, ऐसा बंटाधार।।
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नारे लगे विरोध में, किए रस्ते जाम।
लेन देन पक्का हुआ, मिल जुल बैठे शाम।।
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राजनीति की चाल को, समझ न पाए आप।
बेटा भी कहने लगा, हमीं तुम्हारे बाप।।
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मूर्ति लगाई इन्होंने, चढ़े गले में हार।
बाँह चढ़ा वे आ गए, करने को मिस्मार।।
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शुद्ध हरामी रहे थे, और बहुत बदनाम।
दल बदला तो हो गए, पावन सीताराम।।
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अच्छे दिन आए नहीं, शुरू बुरे का दौर।
कुआ खाई के बीच में, नहीं ठिकाना ठौर।। ४०
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भूमंडल की बाँसुरी, सुनी हुए बेहोश।
जिनको समझे बैद्य जी, निकले उम्र फरोश।।
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सपने देखे आँख ने, मन भी हुआ प्रसन्न।
लेकिन थी सारी ख़ुशी, गरम तवे पर छन्न।।
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इंकलाब की बोलियाँ, हुईं सभी खामोश।
आई सत्ता शेरनी, चुप साधे खरगोश।।
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फिल्म नहीं है ज़िंदगी, सीढ़ी सच्ची बात।
क्या बतलाऊँ दर्द का कितना है अनुपात।।
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कंप्यूटर हम है नहीं, थोड़ी बहुत डिमांड।
किन्तु सहन हमको नहीं, माउस करे कमांड।।
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माना पुरखे विदेशी, ह्रदय बसा अब देश।
सभी लोग अब मानते, संविधान आदेश।।
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स्वार्थ पूर्ति की जुगत में, कितने रचे उपाय।
जाने किसको ख़ुशी दी, जाने किसकी है।.
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कितना मैं सहयोग दूँ, कितने मीठे बोल।
किन्तु सदा वे उगलते, कडुवाहट के घोल।।
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बंदी कब तक रखोगे, तुम मेरी आवाज़।
बार बार मैं कहूँगा, छोड़ो रीति रिवाज़।।
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मन तो तुममें ही सदा, रहता है तल्लीन।
यादें ऐसी उछलतीं, जैसे जल में मीन।। ५०
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ऐसे मन का क्या करूँ, कसती नहीं लगाम।
मालिक था मैं हो गया, उसका क्रीत गुलाम।।
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ठुमक ठुमक यादें चलीं, छाया का अनुमान।
मेघों से आच्छन्न नभ, दिखे नहीं दिनमान।।
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यादें कच्ची निबौली, जो थीं कभी रसाल।
आँखें भी अब हो गईं, यादों की टकसाल।।
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अभी याद को याद है, कल तक थे खुशहाल।
पल भर में ही हो गया, शहंशाह कंगाल।।
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यादें मर मर जी रहीं, होकर नित्य नवीन।
यादों में साँसें बसीं, करना पड़ा यकीन।।
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सिसक सिसक यादें कहें, झेल रहे संत्रास।
जीवन भर का मिल गया, हमको तो वनवास।।
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दाल गलाने की जुगत, सबकी पतली दाल।
सरकारों के हाथ में, आश्वासन टकसाल।। मुहावरा
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दाल गलाएँ किस तरह, सबकी पतली दाल।
आश्वासन की खोल दी, सत्ता ने टकसाल।।
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मँहगाई की मार से, सभी लोग बेहाल।
ढेर-ढेर भूसा दिखे, खिंचे हमारी खाल।।
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गाँवों की क्या ज़िंदगी, कैसे जीते लोग।
बिना सहे कैसे पता, क्या होता दुःख भोग।। ६०
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जो थी दशा किसान की, लगभग वैसी आज।
हाड़ तोड़ मेहनत करे, जुटता नहीं अनाज।। मात्राधिक्य
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देता ने है सुख दिया, बाँट रहे दुःख आप।
मीठी बानी बोलकर, हरें ह्रदय संताप।।
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राजनीति से प्रदूषित, हरा भरा संसार।
अब अपनों का प्यार भी, लगता है व्यापार।।
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किसको अपना मानिए, किसे पराया यार।
घटनाओं से है भरा, जीवन का अखबार।।
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कवि लेखक हैं बाप जी, क्या कुछ लिया उखाड़।
नहीं लगाकर हैं गए , वे रुपयों का झाड़।।
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मूरख मन जाने नहीं, आया कैसा दौर।
कविता फ़विता छोड़ दे, मिले न रोटी कौर।।
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वंशवृक्ष है कीमती, माने नहीं फिजूल।
वृक्ष बता देता हमें, कितना गहरा मूल।।
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कौन सही या है गलत, कैसे हो अहसास।
जिनकी जो प्रतिबद्धता, लिखें वही इतिहास।।
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जीतने दल हैं देश में, सब हैं सत्यविहीन।
ऊपर पढ़े धवलता, भीतर माहा मलीन।।
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फटी पुरानी पुस्तकें, या फिर मूल्य विचार।
सबकी हालत एक सी, ज्यों रद्दी अखबार।। ७०
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दाल गलाने की जुगत, सबकी पतली दाल।
सरकारों के हाथ में, आश्वासन की ढाल।।
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दाल गलाएँ किस तरह, सबकी पतली दाल।
आश्वासन की खोल दी, सत्ता ने टकसाल।।
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मँहगाई की मार से, सभी लोग बहाल।
ढेर ढेर भूसा दिखे, खींचे हमारी खाल।।
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महापुरुष थे तो रहें, हमसे क्या संबंध।
इस युग में तो स्वार्थ से होते हैं अनुबंध।।
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सभी पुरानी कवि हुए, पाठ्यकर्मों से गोल।
नए नवाड़े रच रहे, समकालिक भूगोल।।
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तुलसी सूर कबीर को, पढ़ें न समझें लोग।
बस इतना जानें पढ़ें, है समाधि संभोग।।
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है प्रसिद्धि का शॉर्टकट, लिख दें होकर बोल्ड।
वरना लेखन व्यर्थ है, होगा सब अनसोल्ड।।
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अगर चाहते शीघ्र ही होना तुम मशहूर।
जिस सीढ़ी से हो चढ़े, उसे फेंक दो दूर।।
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शरुद्ध या विश्वास से, रहो दूर ही दूर।
मस्तक को ऊँचा रखो, रक्खो गर्व जरूर।।
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रिश्तों का क्या मूल्य अब, पैसा रक्खो पास।
पैसे हैं तो है सुलभ, बंधु बांधवी दास।। ८०
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जन्म दिया माँ बाप ने, किया नहीं अहसान।
कहते सुत हमसे मिली उन्हें नई पहचान।।
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कहाँ भाव की माधुरी, कहाँ प्रेम के बैन।
लगते मुँह के बोल यान, जैसे लगे कुनैन।।
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मूल्यहीन है जिंदगी, मूल्यवान बाजार।
बुद्धिमान भी बिक रहे, अब रुपए में चार।।
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दूषित भाषा रच रही, टीखर तेज बयान।
पाणिनि अब कैसे कहें, मेरा देश महान।।
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रूखी सुखी रोटियाँ, पतली बासी दाल।
बिना प्याज के खा रहे बाबू वंशीलाल।।
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देखी मैंने चिरमिरी, दहकी कोल खदान।
धधक रहा है आज ज्यों, मेरा हिंदुस्तान।।
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कंबल कीड़ा रेंगता, चले बिना आवाज।
लच्छन ऐसे दिख रहे, गिरी हार की गाज।।
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घर में सब है खैरियत, तबीयत मगर उदास।
लेबनान में ईद को, दिया गया वनवास।।
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दुनिया में उत्पात का बड़ा सबब है तेल।
डाकू मीर फकीर में, हो जाता है मेल।।
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दोहा क्या सुनिए जरा, मल्लाहिन की नाव।
पहुँचाएगी घाट पर, लेती हुई घुमाव।। ९०
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दोहा है मेरे लोए, ज्यों अनहद का नाद।
बिना तार के तार से, होता है संवाद।।
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दर्द हमारा मित्र है, दौलत शत्रु समान।
दर्द जगत सगापन, दौलत दे अभिमान।।
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विज्ञापन का दौर है, चमक दमक भरपूर।
छलकाते हैं शब्द छल, सच से कोसों दूर।।
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भाषा की रक्षा करो, उसका रखो अचार।
भाषा की टकसाल वह, जिसको कहें बाजार।।
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मन व्याकुल होने लगे, पाकर देह सुगंध।
समय कसौटी पर सभी, टूट गए अनुबंध।।
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उसके पल्ले है पड़ी, गई जिंदगी ऊब।
एक नदी घर से निकल, गई नदी में डूब।।
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सूखे सूखे खेत हैं, भूखे हैं खलिहान।
भरे पेट रहते अगर, मरते नहेने किसान।।
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सुलगी बीड़ी हाथ में, गरमा गया किसान।
हाथ -पैर ठंडे पड़े, आया घर का ध्यान।।
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भ्रष्टाचारी जब हँसे, मन में गड़ती कील।
खौल रही आक्रोश से, स्वाभिमान की झील।।
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जो सपने थे आँख में, सभी हुए नीलाम।
लेकिन है मजबूत मन, होगा नहीं गुलाम।। १००
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देवालय पर क्या भला, चल किसी का जोर।
दिल दहलता रोज ही, विहीयपन का शोर।।
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कोई सरबस ले अगर, तो ले ले भगवान।
मगर पास में छोड़ दे, बच्चों की मुस्कान।।
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गायत्री के विरह से, होता हृदय अधीर।
किन्तु प्रियम को देखकर, मन पाता है धीर।।
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सेवा से बीटा बहु, रक्खे हैं जीवंत।
ह्रदय वेदना का नहीं, हो पता है अंत।।
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सत्ताधारी जब रहे, सूजी उनकी दाढ़।
फिर जिनका कब्जा हुआ, डाढ़ें रहे उखाड़।।
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