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शुक्रवार, 26 अगस्त 2022

छंद, दोहा, नव गीत,

छंद
छाया है सब सृष्टि पर, निहित सभी में छंद।
हो प्रतीति जिसको नहीं, जानें वह मतिमंद।।
छंद अनाहद नाद है, करे सृष्टि उत्पन्न।
ध्वनि तरंग मिल बिछुड़ते, वर्तुल हों व्युत्पन्न।।
हो आकर्षण विकर्षण, संघर्षण भी नित्य।
संकर्षण ध्वनि-खंड का, हो कण सूक्ष्म अनित्य।।
मिल-टकराते-बिछुड़ते, कण गहते कुछ भार।
वर्तुल परिपथ हो बढ़े, सतत सृष्टि व्यापार।।
ध्वनि की लय; गति-यति सहज, करती कण संयुक्त।
ऋषि कणाद कण खोजकर, कहें यही अविभक्त।।
कण पदार्थ का सृजनकर, बनते गृह-नक्षत्र।
तल पर यही प्रतीत हो, आसमान है छत्र।।
अनिल अनल भू नभ सलिल, पंचतत्व का मेल।
माटी माटी का मिलन, माटी करती खेल।।
जल-थल-नभचर प्रगट हों, जीव बने चैतन्य।
नियति नटी मति दे कहे, तुझ सा कहीं न अन्य।।
जीव बने संजीव मिल, बिछुड़ बने निर्जीव।
रुदन-हास समभाव से, देखें करुणासींव।।
समय पटल पर देव-दनु, प्रगटें करने युद्घ।
भिन्न असुर-सुर हैं-नहीं, बाँधव स्नेह न शुद्ध।।
निज प्रभुत्व का चाह ही, नाशक कहें प्रबुद्ध।
परिग्रह तज कर समन्वय, कहें संत जिन बुद्ध।।
'मोहन' 'मोह' 'न' कर तजें, राधा-गोकुल धाम।
मन स्थिर कर विरह सह, लीला करें ललाम।।
'मो' अर्थात घमंड को, 'हन' करते दें मात।
कौरव 'रव' कर-कर मिटे, हो जग में कुख्यात।।
'रव' कर रावण जन्म ले, मरे अहं से ग्रस्त।।
'रव' कर रेवा तार-तर, रहें आप संन्यस्त।।
तत्व एक 'रव' किंतु हैं, भिन्न-भिन्न परिणाम।
कर्म फले होता नहीं, विधि अनुकूल; न वाम।।
कृष्ण-कथा देती हमें, 'कर सुकर्म' संदेश।
मोह न कर परिणाम प्रति, लेश ईश आदेश।।
२६-८-२०१९
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दोहा सलिला
सत्य ईश है, शीश ईश के सम्मुख नत करना है।
मानवता के लिए समर्पण, कर मराल बनना है।।
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गुरु तो गुरु हैं, बहती निर्मल नेह-नर्मदा धारा।
चौकस रहकर करें साधना, शांति-पंथ चलना है।।
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पाता है जस वीर तभी जब संत सुशील रहा हो।
पारस सैम लोहे को कंचन कर कुछ नाम गहा हो।।
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करे वंदना जग दिनेश की, परमजीत तम हरता।
राधा ने आराधा हरि को, जो गोवर्धन धरता।।
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गो-वर्धन हित वन, तरुवर हों, सरवर पंछी कलरव।
पौध लगाये, वृक्ष बनाये, नित नव पीढ़ी संभव।।
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राज दिलों पर करने जब राजेन्द्र स्वच्छता वरता।
चंद्र कांत उतरे धरती पर, रूप राह नव गढ़ता।।
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वाणी वीणा-स्वर बनकर जब करे अर्चना मनहर।
मन-मंदिर को रश्मि विनीता, करे प्रकाशित सस्वर।।
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तुल सी गयी आस्था-निष्ठा, डिग यदि गया मनोबल।
तुलसी-चौरा दीप बाल कर जोड़ मना शुभ हर पल।।
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चंचल-चपल चेतना जब बन सलिल-धार बहती है।
तब नरेश दीक्षित गौतम हो संजीवनी तहती है।।
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'बुके नहीं बुक' की संस्कृति गढ़ वाल बनायें दृढ़ हम।
पुस्तक के प्रति नया चाव ला, मूल्य रचें नव उत्तम।।
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संजय सम सच देख बता, हम दुनिया नयी बनायें।
इतना सुख हो, प्रभु भारत में, रहने फिर-फिर आयें।।
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हिंदी भाषा बोलिए, उर्दू मोयन डाल।
सलिल संस्कृत सान दे, पूड़ी बने कमाल।।
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जन्म ब्याह राखी तिलक, गृह-प्रवेश त्यौहार।
सलिल बचा पौधे लगा, दें पुस्तक उपहार ।।
नव गीत-
लेकिन संध्या खिन्न न होती
*
उषा सहित आ,
दे उजास फिर
खुद ही ढल जाता है सूरज,
लेकिन संध्या खिन्न न होती
चंदा की अगवानी करती।
*
जन-मन परवश होकर
खुद ही जब निज घर में
आग लगाता।
कुटिल शकुनि-संचालित
सत्तातंत्र नाश देख
हँसता-मुस्काता।
विवश भीष्म
अन्याय-न्याय की
परिभाषा दे रहे कागज़ी-
अपराधी बनकर महंत,
हा! दैव
रँगीला भी पुज जाता ,
नारी की इज्जत खुद नारी
लूट जाए, परवाह न करती।
उषा सहित आ,
दे उजास फिर
खुद ही ढल जाता है सूरज,
लेकिन संध्या खिन्न न होती
चंदा की अगवानी करती।
*
गुरुघंटालों ने गुरु बनकर
शिष्याओं को
जब-जब लूटा।
वक्र हो गया भाग्य तभी
दुष्कर्मों का घट
भरकर फूटा।
मौन भले पर
मूक न जनगण
आज नहीं तो कल जागेगा।
समय क्षमा किसको कब करता?
युग-युग तक
हिसाब माँगेगा।
समय हताशा का जब तब भी
धरती धैर्य न तजती, धरती।
उषा सहित आ,
दे उजास फिर
खुद ही ढल जाता है सूरज,
लेकिन संध्या खिन्न न होती
चंदा की अगवानी करती।
२६-८-२०१७

दोहा सलिला

निवेदिता निष्ठा रही, प्रार्थी था विश्वास
श्री वास्तव में पा सका, सत शिव जनित प्रयास
*
भट नागर संघर्ष कर, रच दे मंजुल मूल्य
चित्र गुप्त तब प्रगट हो, मिलता सत्य अमूल्य
२६-८-२०१५
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