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सोमवार, 22 अगस्त 2022

हरिशंकर परसाई,बघेली मुक्तिका,गणपति,चिरैया,प्रजातंत्र,मुक्तक,नवगीत

हरिशंकर परसाई उवाच 

बिना जाने बेवकूफ बनाना एक अलग और आसान चीज है। कोई भी इसे निभा देता है।

मगर यह जानते हुए कि मैं बेवकूफ बनाया जा रहा हूँ और जो मुझे कहा जा रहा है, वह सब झूठ है- बेवकूफ बनते जाने का एक अपना मजा है। यह तपस्या है। मैं इस तपस्या का मजा लेने का आदी हो गया हूँ। पर यह महँगा मजा है - मानसिक रूप से भी और इस तरह से भी। इसलिए जिनकी हैसियत नहीं है उन्हें यह मजा नहीं लेना चाहिए। इसमें मजा ही मजा नहीं है - करुणा है, मनुष्य की मजबूरियों पर सहानुभूति है, आदमी की पीड़ा की दारुण व्यथा है। यह सस्ता मजा नहीं है। जो हैसियत नहीं रखते उनके लिए दो रास्ते हैं - चिढ़ जाएँ या शुद्ध बेवकूफ बन जाएँ। शुद्ध बेवकूफ एक दैवी वरदान है, मनुष्य जाति को। दुनिया का आधा सुख खत्म हो जाए, अगर शुद्ध बेवकूफ न हों। मैं शुद्ध नहीं, 'अशुद्ध' बेवकूफ हूँ। और शुद्ध बेवकूफ बनने को हमेशा उत्सुक रहता हूँ।

***

बघेली मुक्तिका
गणपति बब्बा
*
रात-रात भर भजन सुनाएन गणपति बब्बा
मंदिर जाएन, दरसन पाएन गणपति बब्बा
कोरोना राच्छस के मारे, बंदी घर मा
खम्हा-दुअरा लड़ दुबराएन गणपति बब्बा
भूख-गरीबी बेकारी बरखा के मारे
देहरी-चौखट छत बिदराएन गणपति बब्बा
छुटकी पोथी अउर पहाड़ा घोट्टा मारिन
फीस बिना रो नाम कटाएन गणपति बब्बा
एक-दूसरे का मुँह देखि, चुरा रए अँखियाँ
कुठला-कुठली गाल फुलाएन गणपति बब्बा
माटी रांध बनाएन मूरत फूल न बाती
आँसू मोदक भोग लगाएन गणपति बब्बा
चुटकी भर परसाद मिलिस बबुआ मुसकाएन
केतना मीठ सपन दिखराएन गणपति बब्बा
२२-८-२०२०

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गीत 

चिरैया!
आ, चहचहा
*
द्वार सूना
टेरता है।
राह तोता
हेरता है।
बाज कपटी
ताक नभ से-
डाल फंदा
घेरता है।
सँभलकर चल
लगा पाए,
ना जमाना
कहकहा।
चिरैया!
आ, चहचहा
*
चिरैया
माँ की निशानी
चिरैया
माँ की कहानी
कह रही
बदले समय में
चिरैया
कर निगहबानी
मनो रमा है
मन हमेशा
याद सिरहाने
तहा
चिरैया!
आ चहचहा
*
तौल री पर
हारना मत।
हौसलों को
मारना मत।
मत ठिठकना,
मत बहकना-
ख्वाब अपने
गाड़ना मत।
ज्योत्सना
सँग महमहा
चिरैया!
आ, चहचहा
*
२१-८-२०१९
७९९९५५९६१८
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नवगीत
*
प्रजातंत्र का अर्थ हो गया
केर-बेर का संग
*
संविधान कर प्रावधान
जो देता, लेता छीन
सर्वशक्ति संपन्न जनता
केवल बेबस-दीन
नाग-साँप-बिच्छू चुनाव लड़
बाँट-फूट डालें
विजयी हों, मिल जन-धन लूटें
जन-गण हो निर्धन
लोकतंत्र का पोस्टर करती
राजनीति बदरंग
प्रजातंत्र का अर्थ हो गया
केर-बेर का संग
*
आश्वासन दें, जीतें चुनाव, कह
जुमला जाते भूल
कहें गरीबी पर गरीब को
मिटा, करें निर्मूल
खुद की मूरत लगा पहनते,
पहनाते खुद हार
लूट-खसोट करें व्यापारी
अधिकारी बटमार
भीख , पा पुरस्कार
लौटा करते हुड़दंग
प्रजातंत्र का अर्थ हो गया
केर-बेर का संग
*
गौरक्षा का नाम, स्वार्थ ही
साध रहे हैं खूब
कब्ज़ा शिक्षा-संस्थान पर
कर शराब में डूब
दुश्मन के झंडे लहराते
दें सेना को दोष
बिन मेहनत पा सकें न रोटी
तब आएगा होश
जनगण जागे, गलत दिखे जो
करे उसी से जंग
प्रजातंत्र का अर्थ हो गया
केर-बेर का संग
***
मुक्तक
राकेशी चंदनी चाँदनी, बिम्बित हुई सलिल में जब-जब
श्री प्रकाश महिमा सुरेंद्र सँग, निरख गए आकर महेश तब
कुसुम-सुमन की गीत-अंजुरी, पिंगल नाग सुने हर्षाए
बरसाए अमृत धरती पर, गगन-मेघ हँस बलि-बलि जाए
२२-८-२०१६
***
नव गीत:
*
मानव !क्यों हो जाते
जीवन संध्या में
एकाकी?
*
कलम नहीं
पेडों की रहती
कभी पेड़ के साथ.
झाड़ न लेकिन
झुके-झुकाता
रोकर अपना माथ.
आजीवन फल-
फूल लुटाता
कभी न रोके हाथ
गम न करे
न कभी भटकता
थामे प्याला-साकी
मानव! क्यों हो जाते
जीवन संध्या में
एकाकी?
*
तिनके चुन-चुन
नीड बनाते
लाकर चुग्गा-दाना।
जिन्हें खिलाते
वे उड़ जाते
पंछी तजें न गाना।
आह न भरते
नहीं जानते
दुःख कर अश्रु बहाना
दोष नहीं
विधना को देते,
जियें ज़िंदगी बाकी
मानव !क्यों हो जाते
जीवन संध्या में
एकाकी?
*
जैसा बोये
वैसा काटे
नादां मनुज अकेला
सुख दे, दुःख ले
जिया न जीवन
कह सम्बन्ध झमेला.
सीखा, नहीं सिखाया
पाया, नहीं
लुटाना जाना।
जोड़ा, काम न आया
आखिर छोड़ी
ताका-ताकी
मानव !क्यों हो जाते
जीवन संध्या में
एकाकी?
***
एक गीति रचना :
*
मात्र कर्म अधिकार है'
बता गये हैं ईश।
मर्म कर्म का चाहकर
बूझ न सके मनीष।
'जब आये संतोष धन
सब धन धूरि समान'
अगर सत्य तो कर्म क्यों
करे कहें इंसान?
कर्म करें तो मिलेगा
निश्चय ही परिणाम।
निष्फल कर्म न वरेगा
कोई भी प्रतिमान।
धर्म कर्म है अगर तो
जो न कर रहे कर्म
जीभर भरते पेट नित
आजीवन बेशर्म
क्यों न उन्हें दंडित करे
धर्म, समाज, विधान?
पूजक, अफसर, सेठ या
नेता दुर्गुणवान।
श्रम उत्पादक हो तभी
देश बने संपन्न।
अनुत्पादक श्रम अगर
होगा देश विपन्न।
जो जितना पैदा करे
खर्च करे कम मीत
तभी जुड़े कुछ, विपद में
उपयोगी हो, रीत।
हर जन हो निष्काम तो
निकल जाएगी जान
रहे सकाम बढ़े तभी
जीवन ले सच मान।
***
मुक्तिका:
*
तन माटी सा, मन सोना हो
नभ चादर, धरा बिछौना हो
साँसों की बहू नवेली का
आसों के वर सँग गौना हो
पछुआ लय, रस पुरवैया हो
मलयानिल छंद सलोना हो
खुशियाँ सरसों फूलें बरसों
मृग गीत, मुक्तिका छौना हो
मधुबन में कवि मन झूम उठे
करतल ध्वनि जादू-टोना हो
२२-८-२०१५
***

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