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बुधवार, 3 अगस्त 2022

हरिशंकर परसाई,लघुकथा,मुक्तक,गीत,नागपंचमी,दोहा,उर्दू शब्दों के बहुवचन

विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर
इंजीनियर्स फोरम (भारत) जबलपुर,
इंडियन जिओटेक्नीकल सोसायटी जबलपुर चैप्टर
४०१ विजय अपार्टमेंट,नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष - ९४२५१८३२४४, ईमेल - salil.sanjiv@gmail.com
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रचनाधर्मी अभियंता - २०२२-२३
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बंधुओं!
वंदे भारत-भारती।
'रचनाधर्मी अभियंता - २०२२-२३ ' में ७५ श्रेष्ठ-सक्रिय-समाजसेवी अभियंताओं-आर्किटेक्ट के व्यक्तित्व-कृतित्व की संक्षिप्त जानकारी संकलित की जा रही है।
उन सभी मित्रों का आभार जिन्होंने उत्साहपूर्वक सामग्री उपलब्ध कराई है।
संकलन हेतु ऐसे अभियंताओं/वास्तुविदों को वरीयता दी जाएगी जिन्होंने अपने सामान्य व्यावसायिक/विभागीय कार्यों के अतिरिक्त देश व समाज के हित में कुछ असाधारण कार्य किए हों।
कृपया, पुस्तक हेतु जिन्हें आप उपयुक्त समझें उन अभियंताओं संबंधी निम्न विवरण मुझे ९४२५१ ८३२४४ पर या salil.sanjiv@gmail.com पर ईमेल से अविलंब भेजिए।
प्राप्त सामग्री को अंतिम रूप दिया जा रहा है। विलंब से प्राप्त सामग्री का समायोजन करना संभव न होगा।
आप सबके सहयोग हेतु आभार।
(संजीव वर्मा 'सलिल')
संयोजक
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(यह जानकारी ९४२५१ ८३२४४ पर वाट्स ऐप या salil.sanjiv@gmail.com पर ईमेल से अविलंब भेजिए।)
१. नाम-उपनाम -
२. जन्मतिथि, जन्मस्थान -
३. माता-पिता के नाम -
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१२. पासपार्ट आकार का चित्र -
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विमर्श
यह भी जानें : उर्दू शब्दों के बहुवचन  
उर्दू में लफ़्ज़ का बहुवचन अल्फ़ाज़ है। हिंदी में 'लफ़्ज़ों' या 'अल्फ़ाज़' दोनों का प्रयोग किया जा सकता है किंतु 'अल्फ़ाज़ों' कहना व्याकरणिक दृष्टी से पूरी तरह गलत है।  
फ़ारसी शब्द 'जान' का अर्थ महिला या स्त्री है जिसका बहुवचन ज़नान (महिलाएँ, स्त्रियाँ) है। जननियों या ज़नानियाँ कहना भी सही नहीं है। 
वाक़या का बहुवचन वाक़यात है, वाक़्यातों कहना गलत है।  
हालत का बहुवचन हालात है, हालातों कहना गलत है। 
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दोहा सलिला
*
लिखा बिन लिखे आज कुछ, पढ़ा बिन पढ़े आज
केर-बेर के संग से, सधे न साधे काज

सही करो तो गलत क्यों, समझें-मानें लोग?
गलत करो तो सही, कह; बढ़ा रहे हैं रोग

दिल के दिल में क्या छिपा, बेदिल से मत बोल
संग न सँगदिल का करो, रह जाएगी झोल

प्राण गए तो देह के, अंग दीजिए दान
जो मरते जी सकेंगे, ऐसे कुछ इंसान

कंकर भी शंकर बने, कर विराट का संग
रंग नहीं बदरंग हो, अगर करो सत्संग

कृष्णा-कृष्णा सब करें, कृष्ण हँस रहे देख
द्रुपदसुता का नाम ले, क्यों मेरा उल्लेख?

मटक-मटक जो फिर रहे, अटक रहे हर ठौर
सटके; फटक न सफलता, अटकें; करिए गौर
***
गीत
बारिश तो अब भी होती है
लेकिन बच्चे नहीं खेलते
*
नाव बनाना
कौन सिखाए?
बहे जा रहे समय नदी में,
समय न मिलता रिक्त सदी में
काम न कोई
किसी के आए
अपना संकट आप झेलते
बारिश तो अब भी होती है
लेकिन बच्चे नहीं खेलते
*
डेंगू से भय-
भीत सभी हैं
नहीं भरोसा शेष रहा है
कोई न अपना सगा रहा है
चेहरे सबके
पीत अभी हैं
कितने पापड़ विवश बेलते
बारिश तो अब भी होती है
लेकिन बच्चे नहीं खेलते
*
उतर गया
चेहरे का पानी
दो से दो न सम्हाले जाते
कुत्ते-गाय न रोटी पाते
कहीं न बाकी
दादी-नानी
चूहे भूखे दंड पेलते
बारिश तो अब भी होती है
लेकिन बच्चे नहीं खेलते
***
लेख :
नाग को नमन :
*
नागपंचमी आई और गई... वन विभागकर्मियों और पुलिसवालोंने वन्य जीव रक्षाके नामपर सपेरों को पकड़ा, आजीविका कमाने से वंचित किया और जम कर वसूली वसूले बिना नहीं छोड़ा, जो न दे सके वे बंदी। खाकी की चाँदी हो गई, सावन में दीवाली मन गई। यह कोई नई बात नहीं है, किसी न किसी बहाने हर हफ्ते-पखवाड़े में दिवाली मनाना इनका जन्म सिद्ध अधिकार है।
पारम्परिक पेशे से वंचित किये गए ये सपेरे अब आजीविका कहाँ से कमाएँगे? वे शिक्षित-प्रशिक्षित तो हैं नहीं, खेती या उद्योग के मालिक भी नहीं हैं. अतः, उन्हें अपराध करने की राह पर ला खड़ा करनेका कार्य शासन-प्रशासन और तथाकथित जीवरक्षण के पक्षधरताओं ने किया है।
जिस देश में पूज्य गाय, उपयोगी बैल, भैंस, बकरी आदिका निर्दयतापूर्वक कत्ल कर उनका मांस लटकाने, बेचने और खाने पर प्रतिबंध नहीं है, वहाँ जहरीले और प्रतिवर्ष लगभग ५०,००० मृत्युओं का कारण बननेवाले साँपों को मात्र एक दिन पूजने पर दुग्धपान से साँपों की मृत्यु की बात, तिल को ताड़ बनाकर लाखों सपेरों को आजीविका से वंचित करने का पराक्रम प्रशासन नई किया और चारण पत्रकारों ने जय-जयकार कर कृपा दृष्टि प्राप्त की।
दूरदर्शनी चैनलों पर विशेषज्ञ और पत्रकार टी.आर.पी. के चक्करमें तथाकथित विशेषज्ञों और पंडितों के साथ बैठकर घंटों निरर्थक बहसें करते रहे। इस चर्चाओं में सर्प पूजा के मूल में अन्तर्निहित आर्य और अनार्य (नाग आदि) सभ्यताओं के सामाजिक सम्मिलन, सहकार, समझ और सहिष्णुता की कोई बात नहीं की गई। आदिवासियों और शहरवासियों के बीच सांस्कृतिक सेतु के रूप में नाग और नाग पंचमी जैसे लोक पर्वों की भूमिका, अरबों रुपयों की फसलें और खाद्यान्न चाट करते चूहों के विनाश में नाग की उपयोगिता, जन-मन से नाग के प्रति भय कम कर नाग को बचाने में नागपंचमी जैसे पर्वों की उपयोगिता को एकतरफा नकार दिया गया। हो भी क्यों न? आजकल राजनैतिक चूहों द्वारा लोकतंत्रीय संविधान सम्मत निर्वाचित सरकारों को कुतरकर गिराने में व्यस्त महामहिमों को मूषक आराध्य ही प्रतीत हो रहे होंगे। उअन्के वश चले तो वे मूषक जयन्ती धून धाम से मनाने लगें।
संयोगवश दूरदर्शन पर महाभारत श्रृंखला में पांडवों द्वारा खांडवप्रस्थ में नागों को निकलने तक का समय न देकर जिन्दा जलाने का अद्भुत पराक्रम करने वाले अर्जुन की द्वारा उनकी बस्तियों को खाक करने और भूमि छीनने, फलतः नागों द्वारा विद्रोह करने, नागराजा द्वारा अर्जुन से बदला लेने के लिए कर्ण के बाण पर बैठकर अर्जुन की हत्या का प्रस्ताव, जैसे प्रसंग दिखाए भी गए किन्तु इन तथाकथित विद्वानों और पत्रकारों ने नागपंचमी, नागप्रजाजनों (सपेरों - आदिवासियों) के साथ विकास के नाम पर अब तक हुए अत्याचार की ओर ध्यान नहीं दिया। मूल वनवासियों के हिट संरक्षण की बात करने पर कोई कोटा, पुरस्कार या अवसर तो मिलना नहीं है, तो उसके प्रतिकार की बात कैसे करें?
इस प्रसंग में एक दुर्भाग्यपूर्ण पक्ष यह भी है कि इस देशमें बुद्धिजीवी माने जानेवाले कायस्थ समाज ने भी यह भुला दिया कि नागराजा वासुकि की कन्या इरावती (दक्षिणा) उनके मूलपुरुष चित्रगुप्त जी की धर्मपत्नी हैं तथा चित्रगुप्त जी के १२ पुत्रों में से ८ का जन्म इन्हीं मातुश्री से हुआ है। यह भी कि चित्रगुप्त जी के बारह पुत्रों को कोई देव/ब्राह्मण कन्या नहीं विवहि गई, सभी १२ भाइयों के विवाह नाग कन्याओं से हुए जिनसे वर्तमान कायस्थ उत्पन्न हुए। अपने मूल पुखों और ननिहाल पक्ष की उपेक्षा के कारण कायस्थों का पराभव होता गया। मातृ ऋण से उऋण न होने के कारण जहाँ वे सम्राट, महामंत्री, राजवैद्य आदि थे, वहीं पटवारी और कोटवार बनने के लिए विवश हो गए।
पद्म पुराण में वर्णित इस पौराणिक कथा का वर्ष में कई बार पाठ करने के बाद भी कायस्थ आदिवासी समाज से अपने ननिहाल होने के संबंध को याद नहीं रख सके, निभाने की बात तो दूर है। फलतः, खुद राजसत्ता गँवाकर आमजन हो गए। यदि कायस्थ अपने ननिहाल पक्ष के साथ प्राण-प्राण से जुड़े होते, उनके साथ रोटी-बेटी संबंध में बंधे होते तो आज न केवल उनके नाती-नातिनें आरक्षण का लाभ पाते, वे लोकतंत्र में बहुमत पाकर सत्तासीन भी होते।
स्वस्थ्य दृष्टि से देखें तो नागपंचमी वनवासियों के साथ नगरवासी कायस्थ समाज का भी महापर्व है और नाग पूजन उनकी अपनी परंपरा है जहाँ विष को भी अमृत में बदलकर, उपयोगी बनाने की सामर्थ्य पैदा की जाती है। विष को कण्ठ में धारणकर अनार्य देवता निन्गादेव (बड़ादेव, महादेव) नीलकंठ बनकर अमरकंटक और धूपगढ़ (पचमढ़ी) से काशी और कैलाश पहुँचकर आर्यों के भी पूज्य हो जाते हैं। विधि की विडंबना है कि शिवभक्तों और शैव संतों को भी नागपंचमी पर्व की कोई धार्मिक, आध्यात्मिक, सामाजिक उपयोगिता नज़र नहीं आई।
लोकपर्व नागपंचमी पर्व मल्ल विद्या साधकों का महापर्व है लेकिन तमाम अखाड़े मौन हैं। बावजूद इस सत्य के कि विश्व स्तरीय क्रीड़ा प्रतियोगिताओं में मल्लों की दम पर ही भारत सर उठाकर खड़ा हो पाता है। कॉमनवेल्थ खेलों में भारत पहलवानों की डीएम पर ही पदक सूची में खड़ा और बढ़ा है। वैलेंटाइन जैसे विदेशी पर्व के समर्थक इससे दूर हैं यह तो समझा जा सकता है किन्तु वेलेंटाइन का विरोध करनेवाले समूह कहाँ हैं? वे नागपंचमी को युवा शौर्य-पराक्रम का महापर्व क्यों नहीं बना देते जबकि उन्हीं के समर्थक राजनैतिक दल राज्यों और केंद्र में सत्ता पर काबिज हैं?
महाराष्ट्र से अन्य राज्यवासियों को बाहर करने के प्रति उत्सुक नेता और दल नागपंचमी को महाराष्ट्र की मल्लखम्ब विधा का महापर्व क्यों कहीं बनाते? क्यों नहीं यह खेल भी विश्व प्रतियोगिताओं में शामिल कराया जाए और भारत के खाते में कुछ और पदक आएँ?
अंत में सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथ्य यह कि जिन सपेरों को अनावश्यक और अपराधी कहा जा रहा है, उनके नागरिक अधिकार की रक्षाकर उन्हें पारम्परिक पेशे से वंचित करने के स्थान पर उनके ज्ञान और सामर्थ्य का उपयोग कर सर्प संरक्षण केंद्र खोले जाएँ जहाँ सर्प पालन कर औषधि निर्माण हेतु सर्प विष का व्यावसायिक उत्पादन हो। सपेरों को यहाँ रोजगार मिले, वे दर-दर भटकने के बजाय सम्मानित नागरिक का जीवन जी सकें। सर्प विष से बचाव के उनके पारम्परिक ज्ञान मन्त्रों और जड़ी-बूटियों पर शोध हो।
क्या विश्व नायक माननीय महामहिम जी अपने देश के ग्रामीणों में सर्वाधिक विपन्न और मरणासन्न सँपेरे समाज की ओर कृपा दृष्टि करेंगे?
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मुक्तक
बह्रर 2122-2122-2122-212
*
हो गए हैं धन्य हम तो आपका दीदार कर
थे अधूरे आपके बिन पूर्ण हैं दिल हार कर
दे दिया दिल आपको, दिल आपसे है ले लिया
जी गए हैं आप पर खुद को 'सलिल' हम वार कर
*
बोलिये भी, मौन रहकर दूर कब शिकवे हुए
तोलिये भी, बात कह-सुन आप-मैं अपने हुए
मैं सही हूँ, तू गलत है, यह नज़रिया ही गलत
जो दिलों को जोड़ दें, वो ही सही नपने हुए
***
लघुकथा :
सोई आत्मा
*
मदरसे जाने से मना करने पर उसे रोज डाँट पड़ती। एक दिन डरते-डरते उसने पिता को हक़ीक़त बता ही दी कि उस्ताद अकेले में.....
वालिद गुस्से में जाने को हुए तो वालिदा ने टोंका गुस्से में कुछ ऐसा-वैसा क़दम न उठा लेना उसकी पहुँच ऊपर तक है।
फ़िक्र न करो, मैं नज़दीक छिपा रहूँगा और आज जैसे ही उस्ताद किसी बच्चे के साथ गलत हरकत करेगा उसकी वीडियो फिल्म बनाकर पुलिस ठाणे और अखबार नवीस के साथ उस्ताद की बीबी और बेटी को भी भेज दूँगा।
सब मिलकर उस्ताद की खाट खड़ी करेंगे तो जाग जायेगी उसकी सोई आत्मा।
***
लघुकथा
बीज का अंकुर
*
चौकीदार के बेटे ने सिविल सर्विस परीक्षा उत्तीर्ण कर ली। समाचार पाकर कमिश्नर साहब रुआंसे हो आये। मन की बात छिपा न सके और पत्नी से बोले बीज का अंकुर बीज जैसा क्यों नहीं होता?
अंकुर तो बीज जैसा ही होता है पर जरूरत सेज्यादा खाद-पानी रोज दिया जाए तो सड़ जाता है बीज का अंकुर।
***
व्यंग्य लेखांश :
‘भगत की गत’
हरिशंकर परसाई जी
*
...एक भगत ने मरने के बाद भगवान के पास जाकर स्वर्ग की डिमांड की, फिर क्या हुआ ......
प्रभु ने कहा- तुमने ऐसा क्या किया है, जो तुम्हें स्वर्ग मिले?
भगतजी को इस प्रश्न से चोट लगी। जिसके लिए इतना किया, वही पूछता है कि तुमने ऐसा क्या किया! भगवान पर क्रोध करने से क्या फायदा- यह सोचकर भगतजी गुस्सा पी गये। दीनभव से बोले- मैं रोज आपका भजन करता रहा।
भगवान ने पूछा- लेकिन लाउड-स्पीकर क्यों लगाते थे?
भगतजी सहज भव से बोले- उधर सभी लाउड-स्पीकर लगाते हैं। सिनेमावाले, मिठाईवाले, काजल बेचने वाले- सभी उसका उपयोग करते हैं, तो मैंने भी कर लिया।
भगवान ने कहा- वे तो अपनी चीज का विज्ञापन करते हैं। तुम क्या मेरा विज्ञापन करते थे? मैं क्या कोई बिकाऊ माल हूं।
भगतजी सन्न रह गये। सोचा, भगवान होकर कैसी बातें करते हैं।
भगवान ने पूछा- मुझे तुम अन्तर्यामी मानते हो न?
भगतजी बोले- जी हां!
भगवान ने कहा- फिर अन्तर्यामी को सुनाने के लिए लाउड-स्पीकर क्यों लगाते थे? क्या मैं बहरा हूं? यहां सब देवता मेरी हंसी उड़ाते हैं। मेरी पत्नी मजाक करती है कि यह भगत तुम्हें बहरा समझता है।
भगतजी जवाब नहीं दे सके।
भगवान को और गुस्सा आया। वे कहने लगे- तुमने कई साल तक सारे मुहल्ले के लोगों को तंग किया। तुम्हारे कोलाहल के मारे वे न काम कर सकते थे, न चैन से बैठ सकते थे और न सो सकते थे। उनमें से आधे तो मुझसे घृणा करने लगे हैं। सोचते हैं, अगर भगवान न होता तो यह भगत इतना हल्ला न मचाता। तुमने मुझे कितना बदनाम किया है!
भगत ने साहस बटोरकर कहा- भगवान आपका नाम लोंगों के कानों में जाता था, यह तो उनके लिए अच्छा ही था। उन्हें अनायास पुण्य मिल जाता था।
भगवान को भगत की मूर्खता पर तरस आया। बोले- पता नहीं यह परंपरा कैसे चली कि भक्त का मूर्ख होना जरूरी है। और किसने तुमसे कहा कि मैं चापलूसी पसंद करता हूं? तुम क्या यह समझते हो कि तुम मेरी स्तुति करोगे तो मैं किसी बेवकूफ अफसर की तरह खुश हो जाऊंगा? मैं इतना बेवकूफ नहीं हूं भगतजी कि तुम जैसे मूर्ख मुझे चला लें। मैं चापलूसी से खुश नहीं होता कर्म देखता हूं।
टीप: वे भगवान् अवश्य परात्पर परमब्रह्म कर्मदेव चित्रगुप्त रहे होंगे। 
***
३-८-२०१७

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