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शनिवार, 27 अगस्त 2022

सॉनेट,बधाई गीत,लघुकथा , राष्ट्र और राष्ट्रीयता,व्यंग्य लेख, यमक दोहा

सॉनेट

बाँहों में सारा आकाश
बाँध सकूँ देखा है ख्वाब
हो साकार कभी यह काश
बिन काँटों के मिले गुलाब

कोशिश किस्मत सके तराश
हर चेहरा हो बिना नकाब
खुद को खुद ही सकूँ तलाश
तौल सकूँ पर बनूँ उकाब

हम उनकी चाहत हों काश
जिनको पा हम हुए नवाब
अपने ही सपने की लाश
ढोल हम ईसा हुए जनाब

अब हो उनका सत्यानाश
जो करते हैं देश खराब
*
बधाई गीत *
जसुदा ने जायो लला ब्रज में
चलो देख आएँ
*
जसुदा हैं गोरी, नंद बाबा हैं गोरे
गोदी में कान्हा, ज्यों कमलन में भौंरें
चलो देख आएँ
*
अँगना में पलना है, पलना में लल्ला
गलियन में गूँज रहो भारी हो-हल्ला
चलो देख आएँ
*
आई बरसाने से राधा गुजरिया
लाई है मोरपंख, सँगै मुरलिया
चलो देख आएँ
*
गा रहीं सोहर, गोपियाँ नाचें
भाग लला का शिवजी बाँचें
चलो देख आएँ
*
२७-८-२०२१ / ९४२५१८३२४४
*
***
लघुकथा , राष्ट्र और राष्ट्रीयता
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
भारत की स्वतंत्रता के ७५ वर्ष पूर्ण हो गए हैं। साहित्य की विविध विधाओं में स्वतंत्रता के अभिनन्दन हेतु सारस्वत अनुष्ठान किये जा रहे हैं। लघुकथाप्रेमी होने के नाते विचार आया कि राष्ट्रीयभावधारा परक ७५ -७५ लघुकथाओं के संकलन पीडीएफ बनाकर अंतरजाल पर साझा किया जाए । इस विचार को साझा किये कई माह हो गए। संध्या गोयल 'सुगम्या' जी ने संपादन सहयोग की अभिलाषा प्रगट की, उनका स्वागत है। सतत प्रयास के बाद भी पर्याप्त संख्या और गुणवत्तापूर्ण लघुकथाएँ न मिलना विस्मय ही नहीं दुःख का विषय भी है।
क्या लघुकथा या लघुकथाकार राष्ट्र के गौरव, विकास या स्वतंत्रता से विमुख हैं? यदि ऐसा है तो यह शर्म की स्थिति है, यदि नहीं तो मौन क्यों? राष्ट्र और राष्ट्रीयता से मुँह मोड़नेवाली विधा का औचित्य और उपादेयता सदैव संदिग्ध होता है। क्या लघुकथाकार का राष्ट्रीयता से बैर है? यदि नहीं तो राष्ट्र और राष्ट्रीयता से संबंधित कथानक को लेकर लघुकथा क्यों नहीं लिखी जा रहीं?
क्या लघुकथाकारों की दृष्टि कौए की तरह उच्छिष्ट (विसंगति, टकराव, बिखराव) पर ही केंद्रित है? क्या लघुकथाकार शूकर की तरह पंक में लोटकर संतुष्ट है? यदि नहीं तो जीवन के उदात्त भावों, आदर्शों, राष्ट्रीय गौरव आदि की अभिव्यक्ति करनेवाली लघुकथाएँ क्यों नहीं लिखी जा रहीं?
राष्ट्र क्या है?
राष्ट्र सांस्कृतिक अवधारणा, राष्ट्रीयता मानसिक अवधारणा। वर्तमान में राष्ट्र का प्रयोग राज्य के अर्थ में किया जाता है। राष्ट्रीयता से राज्य का ज्ञान नहीं होता । राष्ट्र का आधार राष्ट्रीयता है परंतु राष्ट्रीयता का आधार राष्ट्र नहीं है।
राष्ट्र ऐसा जनसमूह है जो एक भौगोलिक सीमा में, एक निश्चित स्थान पर रहता है, समान परम्परा, समान हितों तथा समान भावनाओं से बँधारहता है और जिसमें एकता के सूत्र में बाँधने की उत्सुकता तथा समान राजनैतिक महत्त्वाकांक्षाएँ पाई जाती हों। राष्ट्रवाद के निर्णायक तत्वों मे राष्ट्रीयता की भावना अर्थात राष्ट्र के सदस्यों (नागरिकों) में उपलब्ध सामुदायिक भावना है जो उनका संगठन सुदृढ़ करती है।
भारत के लम्बे इतिहास में, आधुनिक काल में, भारत में अंग्रेजों के शासनकाल में राष्ट्रीयता की भावना का विशेष रूप से विकास हुआ। भारत में अंग्रेजी शिक्षा के प्रसार से एक ऐसे विशिष्ट वर्ग का निर्माण हुआ जो स्वतन्त्रता को मूल अधिकार समझता था और जिसमें अपने देश को अन्य पाश्चात्य देशों के समकक्ष लाने की प्रेरणा थी। पाश्चात्य देशों का इतिहास पढ़कर उसमें राष्ट्रवादी भावना का विकास हुआ। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि भारत के प्राचीन इतिहास से नई पीढ़ी को राष्ट्रवादी प्रेरणा नहीं मिली है।
भारत की राष्ट्रीय चेतना वेदकाल से अस्तित्वमान है। अथर्ववेद के पृथ्वी सूक्त में धरती माता का यशोगान किया गया हैं। माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः (भूमि माता है और मैं पृथ्वी का पुत्र हूँ)। विष्णुपुराण में तो राष्ट्र के प्रति का श्रद्धाभाव अपने चरमोत्कर्ष पर दिखाई देता है। इस में भारत का यशोगान 'पृथ्वी पर स्वर्ग' के रूप में किया गया है।अत्रापि भारतं श्रेष्ठं जम्बूद्वीपे महागने।यतोहि कर्म भूरेषा ह्यतोऽन्या भोग भूमयः॥गायन्ति देवाः किल गीतकानि धन्यास्तु ते भारत-भूमि भागे।स्वर्गापस्वर्गास्पदमार्गे भूते भवन्ति भूयः पुरुषाः सुरत्वात् ॥
वायुपुराण में भारत को अद्वितीय कर्मभूमि बताया है। भागवतपुराण में तो भारतभूमि को सम्पूर्ण विश्व में 'सबसे पवित्र भूमि' कहा है। इस पवित्र भारतभूमि पर तो देवता भी जन्म धारण करने की अभिलाषा रखते हैं, ताकि सत्कर्म करके वैकुण्ठधाम प्राप्त कर सकें।कदा वयं हि लप्स्यामो जन्म भारत-भूतले।कदा पुण्येन महता प्राप्यस्यामः परमं पदम्।
महाभारत के भीष्मपर्व में भारतवर्ष की महिमा का गान इस प्रकार किया गया है;अत्र ते कीर्तिष्यामि वर्ष भारत भारतम्प्रियमिन्द्रस्य देवस्य मनोवैवस्वतस्य।अन्येषां च महाराजक्षत्रियारणां बलीयसाम्।सर्वेषामेव राजेन्द्र प्रियं भारत भारताम्॥
गरुड पुराण में राष्ट्रीय स्वतन्त्रता की अभिलाषा कुछ इस प्रकार व्यक्त हुई है-स्वाधीन वृत्तः साफल्यं न पराधीनवृत्तिता।ये पराधीनकर्माणो जीवन्तोऽपि ते मृताः॥
रामायण में रावणवध के पश्चात राम, लक्ष्मण से कहते हैं-अपि स्वर्णमयी लङ्का न मे लक्ष्मण रोचते ।जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ॥
(अर्थ : हे लक्ष्मण! यद्यपि यह लंका स्वर्णमयी है, तथापि मुझे इसमें रुचि नहीं है। (क्योंकि) जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी महान हैं। जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी देखें)
राष्ट्रवाद
राष्ट्रवाद के उदय की प्रक्रिया अत्यन्त जटिल और बहुमुखी होती है। पराधीनता के पूर्व भारत में ऐसी सामाजिक संरचना थी जो संसार में कहीं कहीं और नहीं थी। वह पूर्व मध्यकालीन यूरोपीय समाजों से आर्थिक दृष्टि से भिन्न थी। भारत विविध भाषा-भाषी और अनेक धर्मों के अनुयायियों वाले विशाल जनसंख्या का देश है। सामाजिक दृष्टि से हिन्दू समाज जो कि देश की जनसंख्या का सबसे बड़ा भाग है, विभिन्न जातियों और उपजातियों में विभाजित रहा है। हिन्दू पन्थ किसी विशिष्ट पूजा-पद्धति का नाम नहीं है। उसमें अनेक दर्शन और पूजा पद्धतियाँ सम्मिलित है, वह अनेक सामाजिक और धार्मिक विभागों में बँटा हुआ है। भारत की सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक संरचना तथा विशाल आकार के कारण यहाँ पर आधुनिक राष्ट्रीयता का उदय अन्य देशों की तुलना में विलंब तथा कठिनाई से हुआ।
सर जॉन स्ट्रेची के अनुसार "भारतवर्ष के विषय में सर्वप्रथम महत्त्वपूर्ण जानने योग्य बात यह है कि भारतवर्ष न कभी राष्ट्र था, और न है, और न उसमें यूरोपीय विचारों के अनुसार किसी प्रकार की भौगोलिक, राजनैतिक, सामाजिक अथवा धार्मिक एकता थी, न कोई भारतीय राष्ट्र और न कोई भारतीय ही था जिसके विषय में हम बहुत अधिक सुनते हैं।"
सर जॉन शिले का कहना है कि "यह विचार कि भारतवर्ष एक राष्ट्र है, उस मूल पर आधारित है जिसको राजनीति शास्त्र स्वीकार नहीं करता और दूर करने का प्रयत्न करता है। भारतवर्ष एक राजनीतिक नाम नही हैं, वरन एक भौगोलिक नाम है जिस प्रकार यूरोप या अफ़्रीका।"
भारत में राष्ट्रवाद का उदय और विकास उन परिस्थितियों में हुआ जो राष्ट्रवाद के मार्ग में सहायता प्रदान करने के स्थान पर बाधाएँ पैदा करती है। भारतीय समाज की विभिन्नताओं में मौलिक एकता सदैव विद्यमान रही है और समय-समय पर राजनीतिक एकता की भावना भी उदय होती रही है। वी॰ए॰ स्मिथ के शब्दों में "भारतवर्ष की एकता उसकी विभिन्नताओं में ही निहित है।" ब्रिटिश शासन की स्थापना से भारतीय समाज में नये विचारों तथा नई व्यवस्थाओं को जन्म मिला है इन विचारों तथा व्यवस्थाओं के बीच हुई क्रियाओं और प्रतिक्रियाओं के परिणामस्वरूप भारत में राष्ट्रीय विचारों को जन्म दिया।
राष्ट्रीयता
राष्ट्रीयता का अर्थ किसी व्यक्ति और किसी संप्रभु राज्य (देश) के बीच के क़ानूनी संबंध है। राष्ट्रीयता उस राज्य को उस व्यक्ति के ऊपर कुछ अधिकार देती है और बदले में उस व्यक्ति को राज्य सुरक्षा व अन्य सुविधाएँ लेने का अधिकार देता है। इन लिये व दिये जाने वाले अधिकारों की परिभाषा अलग-अलग राज्यों में भिन्न होती है। आम तौर पर परम्परा व अंतरराष्ट्रीय समझौते हर राज्य को यह तय करने का अधिकार देते हैं कि कौन व्यक्ति उस राज्य की राष्ट्रीयता रखता है और कौन नहीं। साधारणतया राष्ट्रीयता निर्धारित करने के नियम राष्ट्रीयता क़ानून में लिखे जाते हैं। राष्ट्रीयता एक निश्चित, भू-भाग में रहने वाले, जातीयता के बंधन में बंधे, एकता की भावना से युक्त, समान संस्कृति, धर्म, भाषा, साहित्य, कला, परम्परा, रीति-रिवाज, आचार-विचार, अतीत के प्रति गौरव-अगौरव और सुख-दु:ख की समान अनुभूति वाले विशाल जनसमुदाय में पायी जाने वाली एक ऐसी अनुभूति है जो विषयीगत होने के साथ-साथ स्वत: प्रेरित भी है। यह आध्यात्मिकता से युक्त एक मनोवैज्ञानिक निर्मित है जो उस जनसमुदाय को ऊँच-नीच और आर्थिक भेदभाव से ऊपर उठाकर एकता के सूत्र में बाँधती है। प्रामाणिक हिन्दी कोश के अनुसार ‘राष्ट्रीयता, किसी राष्ट्र के विशेष गुण, अपने देश या राष्ट्र के प्रति उत्कट प्रेम है।’
इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका के अनुसार - ‘राष्ट्रीयता मस्तिष्क की स्थिति विशेष है, जिसमें मनुष्य को सर्वोत्तम निष्ठा राष्ट्र के प्रति होती है।” ‘राष्ट्रीयता मनुष्यों के समूह का एक गुण अथवा विभिन्न गुणों का एक संश्लिष्ट रूप है, जो उसे एक राष्ट्र के रूप में संगठित करता है। इस प्रकार संगठित व्यक्तियों में यह गुण विभिन्न मात्राओं में परिलक्षित होता है’।श्री अरविन्द के अनुसार - “राष्ट्र में भागवत एकता के साक्षात्कार की भावनापूर्ण आकांक्षा की राष्ट्रीयता है। यह एक ऐसी एकता है जिसमें सभी अवयवभूत व्यक्ति, चाहे उनके कार्य राजनीतिक, सामाजिक या आर्थिक तत्त्वों के कारण कितने ही विभिन्न और आपतत: असमान प्रतीत होते हों, वस्तुत: तथा आधारभूत रूप से एक और समान है।”
डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी - ‘राष्ट्रीयता का अर्थ यह है कि प्रत्येक व्यक्ति राष्ट्र का एक अंश है और उस राष्ट्र की सेवा के लिए उसे धन-धान्य से समृद्ध बनाने के लिए उसके प्रत्येक नागरिक को सुखी और सम्पन्न बनाने के लिए प्रत्येक व्यक्ति को सब प्रकार के त्याग और कष्ट को स्वीकार करना चाहिए।’
रामधारी सिंह ‘दिनकर’ के अनुसार- ‘उत्तर को आर्यो का देश और दक्षिण को द्रविड़ का देश समझने का भाव यहाँ कभी नहीं पनपा, क्योंकि आर्य और द्रविड़ नाम से दो जातियों का विभेद हुआ ही नहीं था। समुद्र से उत्तर और हिमालय से दक्षिण वाला भाग हमेशा एक देश रहा है।’
बाबू गुलाबराय के मतानुसार - ‘एक सम्मिलित राजनीतिक ध्येय में बँधे हुए किसी विशिष्ट भौगोलिक इकाई के जन समुदाय के पारस्परिक सहयोग और उन्नति की अभिलाषा से प्रेरित उस भू-भाग के लिए प्रेम और गर्व की भावना को राष्ट्रीयता कहते हैं।
डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल के अनुसार ‘राष्ट्रीयता विषयीगत होने के कारण एक ऐसी मनोवैज्ञानिक स्थिति है जो अधिकार कर्तव्य अनुभूति और विचार की दृष्टि से जीवन की एक पद्धति बन जाती है यह जन के भीतर के भेदभाव को दबाकर एकता की भावना के रूप में अभिव्यक्ति पाती है। राष्ट्र की यह एकता इतिहास के दीर्घकालीन उतार-चढ़ाव के भीतर पिरोई हुई मिलती है।’
गिलक्राइस्ट के शब्दों में - ‘राष्ट्रीयता एक आध्यात्मिक भावना अथवा सिद्धान्त है जिसकी उत्पत्ति उन लोगों में होती है जो साधारणतया एक जाति के होते हैं जो एक भू-खण्ड पर रहते हैं, जिनकी एक भाषा, एक धर्म, एक सा इतिहास, एक-सी परम्पराएँ एवं सामान्य हित होते हैं तथा जिनके एक से राजनीतिक समुदाय राजनीतिक एकता के एक से आदर्श होते हैं।”
हैराल्ड लास्की ने ‘राष्ट्रीयता को मूलत: भावनात्मक माना है उनके अनुसार जिसके द्वारा उन सभी में विशिष्ट एकता सम्पन्न हो जाती है, जो अपने को अन्य मानवों से उस समानता का परिणाय होती हैं, जिसकी प्राप्ति संसृष्ट प्रयत्नों के फलस्वरूप हुई है।”
गैंटल ने राष्ट्रीयता के बारे में कहा हैं - ‘राष्ट्रीयता मुख्य रूप से वह मनोवैज्ञानिक भावना है जो उन लोगों में ही उत्पन्न होती है जिनके सामान्य गौरव विपत्तियाँ हो। जिनको सामान्य परम्परा हो तथा पैतृक सम्पत्तियाँ एक ही हो।’ इनके अनुसार जिनमें एक-सी प्रवृत्तियाँ हो व उनके प्रति गौरव की भावना हो।
वी जोजफ का कहना है कि “राष्ट्रीयता का अर्थ उस एक सार्वलौकिक उन्नत भावना के प्रति भक्ति तथा स्थिरता है जो भूतकाल के गौरव व निराशा की अपेक्षा स्वतंत्रता, समानता की भावना से युक्त व्यापक भविष्य की ओर उन्मुख होती है।” राष्ट्रीय एक आध्यात्मिक भावना है यह मन की वह स्थिति है जिसमें राष्ट्र के प्रति व्यक्ति की परमनिष्ठा का पता लगता है। सामान्य भाषा, व्यवहार, धर्म आदि के संयोग से राष्ट्रीयता की भावना विकसित होती है। बर्गस के अनुसार “राष्ट्रीयता किसी राज्य में रहने वाली सम्पूर्ण जनसंख्या का एक विशेष अल्पसंख्यक समुदाय है जोकि सामाजिक एवं नस्ल के आधार पर संगठित है।”
राष्ट्रीयतापरक लघुकथा
राष्ट्रीय भावधारा की लघुकथा राष्ट्र के प्रति प्रेम, गौरव, त्याग, बलिदान, निरमन और विकास को केंद्र में रखकर लिखी जा सकती है। ऐसी लघुकथा सामान्यत: सामाजिक विसंगति को केंद्र में रखकर लिखी जाती लघुकथा से भिन्न होगी। वह बनी बनाई लीक को तोड़कर लिखी जाएगी। ऐसी लघुकथा पाठक के मन में राष्ट्र के प्रति गौरव, संतोष और त्याग की भावना उत्पन्न करेगी। समर्थ लघुकथाकारों के लिए स्वर्णिम अवसर है अपने लेखन को प्रकाश में लाने का, अपनी राह खुद बनाने का, अपनी भिन्न पहचान स्थापित करने का।
इस संकलन हेतु लघुकथाएँ भेजने की अंतिम तिथि १५ सितंबर है। तत्पश्चात मैं और संध्या जी मिलकर ७५ लघुकथाएँ लिखकर संकलन प्रकाशित कर लेंगे।
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कवि-मन की बात
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कैसा राष्ट्रवाद यह जिसमें अपराधी संरक्षित?
रहें न बाकी कहीं विपक्षी, सत्ता हेतु बुभुक्षित.
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गूँगे अफसर, अंधे नेता, लोकतंत्र बेहोश.
बिना मौत मरती है जनता, गरजो धरकर जोश.
*
परंपरा धृतराष्ट्र की, खट्टर कर निर्वाह.
चीर-हरण जनतंत्र का, करवाते कह 'वाह'
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राज कौरवी हुआ नपुंसक, अँधा हुआ प्रशासन.
न्यायी विदुर उपेक्षित उनकी, बात न माने शासन.
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अंधभक्ति ने देशभक्ति का, आज किया है खून.
नाकारा सरकार-प्रशासन, शेर बिना नाखून.
*
भारतमाता के दामन पर, लगा रहे हैं कीच.
देश डायर बाबा-चेले, हद दर्जे के नीच.
*
राज-धर्म ही नहीं जानते, राज कर रहे कैसे लोग?
सत्य-न्याय की नीलामी कर, देशभक्ति का करते ढोंग.
*
लोग न भूलो, याद रखो यह, फिर आयेंगे द्ववार पर.
इन्हें न चुनना, मार भागना, लोकतंत्र से प्यार कर.
*
अंधभक्त घर जाकर सोचे, क्या पाया है क्या खोया?
आड़ धर्म की, दुराचार का, बीज आप ही क्यों बोया??
***
छंद चर्चा-
बूझो यह कौन सा छंद है और इसका विधान क्या है? छंद का नाम बताएं, इस छंद में अपनी रचना प्रस्तुत करें.
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श्री गणेश ऋद्धि-सिद्धि दाता,
घर आओ सुनाथ.
शीश झुका, माथ हूँ नवाता,
मत छोडो अनाथ.
देव घिरा देश संकटों से,
रिपुओं का विनाश-
नाथ! करो प्रजा हर्ष पाए,
शुभ का हो प्रकाश.
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व्यंग्य लेख
दही हांडी और सर्वोच्च न्यायालय
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दही-हांडी बाँधता-फोड़ता और देखकर आनंदित होते आम आदमी के में भंग करने का महान कार्य कर खुद को जनहित के प्रति संवेदनशील दिखनेवाला निर्णय सौ चूहे खाकर बिल्ली के हज जाने की तरह शांतिप्रिय सनातनधर्मियों के अनुष्ठान में अयाचित और अनावश्यक हस्तक्षेप करने के कदमों की कड़ी है। हांड़ी की ऊँचाई उन्हें तोड़ने के प्रयासों को रोमांचक बनाती है। ऊँचाई को प्रतिबंधित करने के निर्णय का आधार, दुर्घटनाओं को बताया गया है कइँती यह कैसे सुनिश्चित किया गया कि निर्धारित ऊँचाई से दुर्घटना नहीं होगी? इस निर्णय की पृष्ठभूमि किसी प्राण-घातक दुर्घटना और जान-जीवन की रक्षा कहा जा रहा है। यदि न्यायलय इतना संवेदनशील है तो मुहर्रम में जलाते अलावों पर चलने, मुंह में छेदना, उन पर कूदने और अपने आप पर घातक शास्त्रों से वार करने की परंपरा हानिहीन कैसे कही जा सकती है? क्या बकरीद पर लाखों बकरों का कत्ल अधिक जघन्य नहीं है? न्यायालय यह जानता नहीं या इसे प्रतिबन्धयोग्य मानता नहीं या सनातन धर्मियों को सॉफ्ट टारगेट मानकर उनके धार्मिक अनुष्ठानों में हस्तक्षेप करना अपना जान सिद्ध अधिकार समझता है? सिख जुलूसों में भी शस्त्र तथा युद्ध-कला प्रदर्शनों की परंपरा है जिससे किसी की हताहत होने को सम्भावना नकारी नहीं जा सकती।
वस्तुत: दही-हांड़ी का आयोजन हो या न हो? हो तो कहाँ हो?, ऊँचाई कितनी हो?, कितने लोग भाग लें?, किस प्रकार मटकी फोड़ें? आदि प्रश्न न्यायालय नहीं प्रशासन हेतु विचार के बिंदु हैं। भारत के न्यायालय बीसों साल से लंबित लाखों वाद प्रकरणों, न्यायाधीशों की कमी, कर्मचारियों में व्यापक भ्रष्टाचार, वकीलों की मनमानी आदि समस्याओं के बोझ तले कराह रहे हैं। दम तोडती न्याय व्यवस्था को लेकर सर्वोच्च न्यायाधिपति सार्वजनिक रूप से आँसू बहा चुके हैं। लंबित लाखों मुकदमों में फैसले की जल्दी नहीं है किन्तु सनातन धर्मियों के धार्मिक अनुष्ठान से जुड़े मामले में असाधारणशीघ्रता और जन भावनाओं के निरादर का औचित्य समझ से परे है। न्यायलय को आम आदमी की जान की इतनी ही चिता है तो दीपा कर्माकर द्वारा प्रदर्शित जिम्नास्ट खेल में निहित सर्वाधिक जान का खतरा अनदेखा कैसे किया जा सकता है? खतरे के कारण ही उसमें सर्वाधिक अंक हैं। क्या न्यायालय उसे भी रोक देगा? क्या पर्वतारोहण और अन्य रोमांचक खेल (एडवेंचर गेम्स) भी बन्द किये जाएँ? यथार्थ में यह निर्णय उतना ही गलत है जितना गंभीर अपराधों के बाद भी फिल्म अभिनेताओं को बरी किया जाना। जनता ने न उस फैसले का सम्मान किया, न इसका करेगी।
इस सन्दर्भ में विचारणीय है कि-
१. विधि निर्माण का दायित्व संसद का है। न्यायिक सक्रियता (ज्यूडिशियल एक्टिविज्म) अत्यंत ग़ंभीऱ और अपरिहार्य स्थितियों में ही अपेक्षित है। सामान्य प्रकरणों और स्थितियों में इस तरह के निर्णय संसद के अधिकार क्षेत्र में प्रत्यक्ष हस्तक्षेप है।
२. कार्यपालिका का कार्य विधि का पालन करना और कराना है। किसी विधि का हर समय, हर स्थिति में शत-प्रतिशत पालन नहीं किया जा सकता। स्थानीय अधिकारियों को व्यावहारिकता और जन-भावनाओं का ध्यान भी रखना होता है। अत:, अन्य आयोजनों की तरह इस संबंध में भी निर्णय लेने का अधिकार स्थानीय प्रशासन के हाथों में देना समुचित विकल्प होता।
३. न्यायालय की भूमिका सबसे अंत में विधि का पालन न होने पर दोषियों को दण्ड देने मात्र तक सीमित है, जिसमें वह विविध कारणों से असमर्थ हो रहा है। असहनीय अनिर्णीत वाद प्रकरणों का बोझ, न्यायाधीशों की अत्यधिक कमी, वकीलों का अनुत्तरदायित्व और दुराचरण, कर्मचारियों में व्याप्त भ्रष्टाचार के कारण दम तोड़ती न्याय व्यवस्था खुद में सुधार लाने के स्थान पर अनावश्यक प्रकरणों में नाक घुसेड़ कर अपनी हेठी करा रही है।
मटकी फोड़ने के मामलों में स्वतंत्रता के बाद से अब तक हुई मौतों के आंकड़ों का मिलान, बाढ़ में डूब कर मरनेवालों, दंगों में मरनेवालों, समय पर चिकित्सा न मिलने से मरनेवालों, सरकारी और निजी अस्पतालों में चिकित्सकों के न होने से मरनेवालों के आँकड़ों के साथ किया जाए तो स्थिति स्पष्ट होगी यह अंतर कुछ सौ और कई लाखों का है।
यह कानून को धर्म की दृष्टि से देखने का नहीं, धर्म में कानून के अनुचित और अवांछित हस्तक्षेप का मामला है। धार्मिक यात्राएँ / अनुष्ठान ( शिवरात्रि, राम जन्म, जन्माष्टमी, दशहरा, हरछट, गुरु पूर्णिमा, मुहर्रम, क्रिसमस आदि) जन भावनाओं से जुड़े मामले हैं जिसमें दीर्घकालिक परंपराएँ और लाखों लोगों की भूमिका होती है। प्रशासन को उन्हें नियंत्रित इस प्रकार करना होता है कि भावनाएँ न भड़कें, जान-असन्तोष न हो, मानवाधिकार का उल्लंघन न हो। हर जगह प्रशासनिक बल सीमित होता है। यदि न्यायालय घटनास्थल की पृष्भूमि से परिचित हुए बिना कक्ष में बैठकर सबको एक डंडे से हाँकने की कोशिश करेगा तो जनगण के पास कानून की और अधिकारियों के सामने कानून भंग की अनदेखी करने के अलावा कोई चारा शेष न रहेगा। यह स्थिति विधि और शांति पूर्ण व्यवस्था की संकल्पना और क्रियान्वयन दोनों दृष्टियों से घातक होगी।
इस निर्णय का एक पक्ष और भी है। निर्धारित ऊँचाई की मटकी फोड़ने के प्रयास में मौत न होगी क्या न्यायालय इससे संतुष्ट है? यदि मौत होगी तो कौन जवाबदेह होगा? मौत का कारण सिर्फ ऊँचाई कैसे हो सकती है। अपेक्षाकृत कम ऊँचाई की मटकी फोड़ने के प्रयास में दुर्घटना और अधिक ऊँचाई की मटकी बिना दुर्घटना फोड़ने के से स्पष्ट है की दुर्घटना का कारण ऊँचाई नहीं फोडनेवालों की दक्षता, कुशलता और निपुणता में कमी होती है। मटकी फोड़ने संबंधी दुर्घटनाएँ न हों, कम से कम हों, कम गंभीर हों तथा दुर्घटना होने पर न्यूनतम हानि हो इसके लिए भिन्न आदेशों और व्यवस्थाओं की आवश्यकता है -
१. मटकी स्थापना हेतु इच्छुक समिति निकट रहवासी नागरिकों की लिखित सहमति सहित आवेदन देकर स्थानीय प्रशासनिक अधिकारी से अनुमति ले और उसकी लिखित सूचना थाना, अस्पताल, लोक निर्माण विभाग, बिजली विभाग व नगर निगम को देना अनिवार्य हो।
२. मटकी की ऊँचाई समीपस्थ भवनों की ऊँचाई, विद्युत् तारों की ऊँचाई, होर्डिंग्स की स्थिति, अस्पताल जैसे संवेदनशील और शांत स्थलों से दूरी आदि देखकर प्रशासनिक अधिकारियों और स्थानीय जनप्रतिनिधियों की समिति तय करे।
३. तय की गयी ऊँचाई के परिप्रेक्ष्य में अग्नि, विद्युत्, वर्षा, तूफ़ान, भूकंप जैसी प्राकृतिक आपदाओं तथा गिरने की संभावना का पूर्वाकलन कर अग्निशमन यन्त्र, विद्युत् कर्मचारी, श्रमिक, चिकित्साकर्मी आदि की सम्यक और समुचित व्यवस्था हो अथवा व्यवस्थाओं के अनुसार ऊँचाई निर्धारित हो।
४. इन व्यवस्थों को करने में समितियों का भी सहयोग लिया जाए। उन्हें मटकी स्थापना-व्यवस्था पर आ रहे खर्च की आंशिक पूर्ति हेतु भी नियम बनाया जा सकता है। ऐसे नियम हर धर्म, हर सम्प्रदाय, हर पर्व, हर आयोजन के लिये सामान्यत: सामान होने चाहिए ताकि किसी को भेदभाव की शिकायत न हो।
५. ऐसे आयोजनों का बीमा काबरा सामियितों का दायित्व हो ताकि मानवीय नियंत्रण के बाहर दुर्घटना होने पर हताहतों की क्षतिपूर्ति की जा सके।
प्रकरण में उक्त या अन्य तरह के निर्देश देकर न्यायालय अपनी गरिमा, नागरिकों की प्राणरक्षा तथा सामाजिक, धार्मिक, प्रशासनिक व्यावहारिकताओं के प्रति संवेदनशील हो सकता था किन्तु वह विफल रहा। यह वास्तव में चिता और चिंतन का विषय है।
समाचार है कि सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय की अवहेलना कर सार्वजनिक रूप से मुम्बई में ४४ फुट ऊँची मटकी बाँधी और फोड़ी गयी। ऐसा अन्य अनेक जगहों पर हुआ होगा और हर वर्ष होगा। पुलिस को नेताओं का संरक्षण करने से फुरसत नहीं है। वह ग़ंभीऱ आपराधिक प्रकरणों की जाँच तो कर नहीं पाती फिर ऐसे प्रकरणों में कोई कार्यवाही कर सके यह संभव नहीं दिखता। इससे आम जान को प्रताड़ना और रिश्वत का शिकार होना होगा। अपवाद स्वरूप कोई मामला न्यायालय में पहुँच भी जाए तो फैसला होने तक किशोर अपराधी वृद्ध हो चुका होगा। अपराधी फिल्म अभिनेता, नेता पुत्र या महिला हुई तब तो उसका छूटना तय है। इस तरह के अनावश्यक और विवादस्पद निर्णय देकर अपनी अवमानना कराने का शौक़ीन न्यायालय आम आदमी में निर्णयों की अवहेलना करने की आदत डाल रहा है जो घातक सिद्ध होगी। बेहतर हो न्यायालय यह निर्णय वापिस ले ले।
२७-८-२०१७
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कृति चर्चा:
'थोड़ा लिखा समझना ज्यादा' : सामयिक विसंगतियों का दस्तावेज
*
[कृति विवरण: थोड़ा लिखा समझना ज्यादा, नवगीत संग्रह, जय चक्रवर्ती, २०१५, आकार डिमाई, आवरण सजिल्द, बहुरंगी, जैकेट सहित, पृष्ठ ११९, ३००/-, उत्तरायण प्रकाशन लखनऊ, संपर्क: एम १/१४९ जवाहर विहार रायबरेली २२९०१० चलभाष ९८३९६६५६९१, ईमेल: jai.chakrawarti@gmail.com ]
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'बचपन में अक्सर दिन भर के कामों से निवृत्त होकर शाम को पिता जी मुझे अपने पास बिठाते और कबीर, तुलसी, मीरा के भजन तथा उस समय की फिल्मों के चर्चित धार्मिक गीत सुनाते.… गीतों में घुले पिता जी के स्वर आज उनके निधन के पच्चीस वर्षों बाद भी मेरे कान में ज्यों के त्यों गूँजते हैं.' १५ नवंबर १९५८ को जन्मे यांत्रिकी अभियंत्रण तथा हिंदी साहित्य से सुशिक्षित जय चक्रवर्ती पितृ ऋण चुकाने का सारस्वत अनुष्ठान इन नवगीतों के माध्यम से कर रहे हैं. दोहा संग्रह 'संदर्भों की आग' के माध्यम से समकालिक रचनाकारों में अपनी पहचान बना चुके जय की यह दूसरी कृति उन्हें साहित्य क्षेत्र में चक्रवर्तित्व की प्रतिष्ठा दिलाने की दिशा में एक और कदम है. निस्संदेह अभी ऐसे कई कदम उन्हें उठाने हैं.
नवगीत समय के सफे पर धड़कते अक्षरों-शब्दों में जन-गण के हृदयों की धड़कनों को संवेदित कर पाठकों-श्रोताओं के मर्म को स्पर्श ही नहीं करता अपितु उनमें अन्तर्निहित सुप्त संवेदनाओं को जाग्रत-जीवंत कर चैतन्यता की प्रतीति भी कराता है. इन नवगीतों में पाठक-श्रोता अपनी अकही वेदना की अभिव्यक्ति पाकर चकित कम, अभिभूत अधिक होता है. नवगीत आम आदमी की अनुभूति को शब्द-शब्द, पंक्ति-पंक्ति में अभिव्यक्त करता है. इसलिए नवगीत को न तो क्लिष्ट-आभिजात्य संस्कार संपन्न भाषा की आवश्यकता होती है, न ही वह आम जन की समझ से परे परदेशी भाषा के व्याल जाल को खुद पर हावी होने देता है. नवगीत के लिये भाषा, भाव की अभिव्यक्ति का माध्यम मात्र है. भाव की प्रतीति करने के लिये नवगीत देशज-विदेशज, तत्सम,-तद्भव, नये-पुराने, प्रचलित-अल्प प्रचलित शब्दों को बिना किसी भेद-भाव के अंगीकार करता है. विद्वान लक्षण-व्यंजना के चक्रव्यूह रचते रहे किन्तु नवगीत जमीन से जुड़े कवि की कलम से निकलकर सीधे जन-मन में पैठ गया. गीत के निधन की घोषणा करनेवाले महामहिमों का निधन हो गया किन्तु गीत-नवगीत समय और परिवेश के अनुरूप चोला बदलकर जी गया. नवगीत के उद्भव-काल के समय की भंगिमा को अंतिम मानकर उसके दुहराव के प्रति अति आग्रही कठघरों की बाड़ तोड़कर नवगीत को जमीन से आकाश के मध्य विचरण करने में सहायक कलमों में से एक जय की भी है. ' पेशे से अभियंता अपना काम करे, क्या खाला का घर समझकर नवगीत में घुस आता है?' ऐसी धारणाओं की निस्सारता जय चक्रवर्ती के इन नवगीतों से प्रगट होती है.
अपनी अम्मा-पिताजी को समर्पित इन ५१ नवगीतों को अवधी-कन्नौजी अंचल की माटी की सौंधी महक से सुवासित कर जय ने जमीनी जड़ें होने का प्रमाण दिया है. जय जनानुभूतियों के नवगीतकार हैं.
'तुम्हारी दृष्टि को छूकर / फिरे दिन / फिर गुलाबों के
तुम्हारा स्पर्श पाकर / तन हवाओं का / हुआ चंदन
लगे फिर देखने सपने / कुँवारी / खुशबुओं के मन
फ़िज़ाओं में / छिड़े चर्चे / सवालों के-जवाबों के '
यौगिक जातीय छंद में रचित इस नवगीत में कवि हिंदी-उर्दू शब्दों के गंगो-जमुनी प्रवाह से अपनी बात कहता है.जीवन के मूल श्रृंगार रस से आप्लावित इस नवगीत में जय की भाषा का सौंदर्य किसी अंकुर और कली के निर्मल लगाव और आकांक्षा की कथा को सर्वग्राही बनाता है.
'लिखे खत तितलियों को / फूल ने / अपनी कहानी के
खनक कर पढ़ गये / कुछ छंद / कंगन रातरानी के
तुम्हारी आहटों से / पर खुले / मासूम ख्वाबों के'
जय के नवगीत माता-पिता को सुमिरकर माँ जैसा होना, पिता तथा खुद से हारे मगर पिता आदि नवगीतों में वात्सल्य रस की नेह-नर्मदा प्रवाहित करते हैं. इनमें कहीं भी लिजलिजी भावुकता या अतिरेकी महत्ता थोपने का प्रयास नहीं है. ये गीत बिम्बों और प्रतीकों का ऐसा ताना-बाना बुनते हैं जिसमें आत्मज की क्षणिक स्मृतियों की तात्विक अभिव्यक्ति सनातनता की प्रतीति कर पाती है:
'माँ होना ही / हो सकता है / माँ जैसा होना' में जय माँ की प्रशंसा में बिना कुछ कहे भी उसे सर्वोपरि कह देते हैं. यह बिना कहे कह दें की कला सहज साध्य नहीं होती.
धरती , नदिया, / धूप, चाँदनी, खुशबू, / शीतलता
धैर्य, क्षमा, करुणा, / ममता, / शुचि-स्नेहिल वत्सलता
किसके हिस्से है / उपमा का / यह अनुपम दोना
माँ को विशेषणों से न नवाज़कर उससे प्राप्त विरासत का उल्लेख करते हुए जय महाभागवत छंद में रचित इस नवगीत के अंत में और किसे आता है / सपनों में / सपने बोना' कहकर बिना कहे ही जय माँ को सृष्टि में अद्वितीय कह देते हैं.
पिता को समर्पित नव गीत में जय 'दुनिया भर से जीते / खुद से- / हारे मगर पिता', 'घर की खातिर / बेघर भटके / सारी उमर पिता', 'किसे दिखाते / चिंदी-चिंदी / अपना जिगर पिता' आदि अभिव्यक्तियों में सिर्फ अंतर्विरोध के शब्द चित्र उपस्थित नहीं करते अपितु पिता से अपेक्षित भूमिका और उस भूमिका के निर्वहन में झेली गयी त्रासदियों के इंगित बिना विस्तार में गये, पाठक को समझने के लिये छोड़ देते हैं. 'चिंदी-चिंदी' शब्द का प्रयोग सामान्यत: कपड़े के साथ किया जाता है, 'जिगर' के साथ 'टुकड़े-टुकड़े' शब्द अधिक उपयुक्त होता।
सजावट, बनावट और दिखावट की त्रित्रासदियों से आहत इस युग की विडम्बनाओं और विसंगतियों से हम सबको प्राय: दिन दो-चार होना होता है. जय गीत के माध्यम से उन्हें चुनौती हैं:
मौत से मत डराओ मुझे / गीत हूँ मैं / मरूँगा नहीं
जन्म जब से हुआ / सृष्टि का
मैं सृजन में हूँ, विध्वंस में / वास मेरा है हर
सांस में / मैं पला दर्द के वंश में
आँखें दिखाओ मुझे / गीत हूँ मैं / डरूँगा नहीं
समय से सवाल करनेवाला गीतकार अपने आप को भी नहीं बख़्शता. वह गीतकार बिरादरी से भी सवाल करता है की जो वे लिख रहे हैं वह वास्तव में देखा है अथवा नहीं? स्पष्ट है की गीतकार कोरी लफ़्फ़ाज़ी को रचनाओं में नहीं चाहता।
आपने जितना लिखा, / दिखा? / सच-सच बताना
शब्द ही तो थे / गये ले आपको / जो व्योम की ऊँचाईयों पर
और धरती से / मिला आशीष चिर सम्मान का / अक्षय-अनश्वर
आपको जितना मिला / उतना दिया? / सच-सच बताना
विशव के पुरातनतम और श्रेष्ठतम संस्कृति का वाहक देश सिर्फ सबसे बड़ा बाजार बनकर इससे अधिक दुखद और क्या हो सकता है? सकल देश के सामाजिक वातावरण को उपभोक्तावाद की गिरफ्त में देखकर जय भी विक्षुब्ध हैं:
लगीं सजने कोक, पेप्सी / ब्रेड, बर्गर और पिज्जा की दुकानें
पसरे हुए हैं / स्वप्न मायावी प्रकृति के / छात्र ताने
आधुनिकता का बिछा है / जाल मेरे गाँव में
लोकतंत्र में लोक की सतत उपेक्षा और प्रतिनिधियों का मनमाना आचरण चिंतनीय है. जब माली और बाड़ ही फसल काटने-खाने लगें तो रक्षा कौन करे?
किसकी कौन सुने / लंका में / सब बावन गज के
राजा जी की / मसनद है / परजा छाती पर
रजधानी का / भाग बाँचते / चारण और किन्नर
ध्वज का विक्रय-पत्र / लिए है / रखवाले ध्वज के
पोर-पोर से बिंधी / हुयी हैं / दहशत की पर्तें
स्वीकृतियों का ताज / सम्हाले / साँपों की शर्तें
अँधियारों की / मुट्ठी में हैं / वंशज सूरज के
शासकों का 'मस्त रहो मस्ती में, आग लगे बस्ती में' वाला रवैया गीतकार को उद्वेलित करता है.
वृन्दावन / आग में दहे / कान्हा जी रास में मगन
चाँद ने / चुरा लीं रोटियाँ / पानी खुद पी गयी नदी
ध्वंस-बीज / लिये कोख में / झूमती है बदचलन नदी
वृन्दावन / भूख से मरे / कान्हा जी जीमते रतन
'कान्हा जी जयंती रातें जीमते रतन' में तथ्य-दोष है. रतन को जीमा (खाया) नहीं जा सकता, रत्न को सजाया या जोड़ा-छिपाया जाता है.
संविधान प्रदत्त मताधिकार के बेमानी होते जाने ने भी कवि को चिंतित किया है. वह नागनाथ-साँपनाथ उम्मीदवारी को प्रश्न के कटघरे में खड़ा करता है:
कहो रामफल / इस चुनाव में / किसे वोट दोगे?
इस टोपी को / उस कुर्ते को / इस-उड़ झंडे को
दिल्ली दुखिया / झेल रही है / हर हथकंडे को
सड़सठ बरसों तक / देखा है / कब तक कब तक देखोगे?
खंड-खंड होती / आशाएँ / धुआँ - धुआँ सपने
जलते पेट / ठिठुरते चूल्हे / खासम-खास बने
गणित लगाना / आज़ादी के / क्या-क्या सुख भोगे?
चलो रैली में, खतरा बहुत नज़दीक है, लोकतंत्र है यहाँ, राजाजी हैं धन्य, ज़ख्म जो परसाल थे, लोकतंत्र के कान्हा, सब के सब नंगे, वाह मालिक ,फिर आयी सरकार नयी आदि नवगीत तंत्र कार्यपद्धति पर कटाक्ष करते हैं.
डॉ. भारतेंदु मिश्र इन नवगीतों में नए तुकांत, नई संवेदना की पड़ताल, नए कथ्य और नयी संवेदना ठीक ही रेखांकित करते हैं. डॉ. ओमप्रकाश सिंह मुहावरों, नए , नए बिम्बों को सराहते हैं. स्वयं कवि 'ज़िंदगी की जद्दोजहद में रोजाना सुबह से शाम तक जो भोगा उसे कागज़ पर उतारते समय इन गीतों के अर्थ ज़ेहन में पहले आने और शब्द बाद में देने' ईमानदार अभिव्यक्ति कर अपनी रचना प्रक्रिया का संकेत करता है. यही कारण है कि जय चक्रवर्ती के ये नवगीत किसी व्याख्या के मोहताज़ नहीं हैं. जय अपने प्रथम नवगीत संग्रह के माध्यम से सफे पर निशान छोड़ने के कामयाब सफर पर गीत-दर-गीत आगे कदम बढ़ाते हुए उम्मीद जगाते हैं.
२७-८-२०१५

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दोहा सलिला: यमक का रंग दोहे के संग

मनुज नगर में दीन

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मत लब पर मुस्कान रख, जब मतलब हो यार.

हित-अनहित देखे बिना, कर ले सच्चा प्यार..

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अमरस, बतरस, काव्यरस, नित करते जो पान.

पान मान का ग्रहणकर, अधर बनें श्री-वान..

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आ राधा ने कृष्ण को, आराधा दिन-रैन.

अ-धर अधर पर बाँसुरी, कृष्ण हुए बेचैन..

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जल सा घर कोई नहीं, कहें पुलककर मीन.

जलसा-घर को खोजते, मनुज नगर में दीन..

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खुश बू से होते नहीं, खुशबू सबकी चाह.

मिले काव्य पर वाह- कर, श्रोता की परवाह..

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छतरी पानी से बचा, भीगें वसन न आज.

छत री मत चू आ रही, प्रिया बचा ले लाज..

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हम दम लेते किस तरह?, हमदम जब बेचैन.

उन्हें मनायें किस तरह, आये हम बे-चैन..

२७-८-२०११

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