मुक्तिका
कजलियाँ
*
जोड़ती हैं मन को मन से कजलियाँ
मिटाती हैं अपरिचय को कजलियाँ
*
सुनातीं हैं हौसलों के गीत भी
मुश्किलों को जीत जातीं कजलियाँ
*
उदासी हावी न होने दो कभी
कहें बम्बुलियाँ सुनातीं कजलियाँ
*
तृषित धरती की मिटे जब प्यास तो
अंकुरित हो मुस्कुराती कजलियाँ
*
कान में खोंसे बड़े आशीष दे
विरासत को हँस जिलातीं कजलियाँ
*
धरा को रखना हरा सन्देश दे
सेतु रिश्तों का बनातीं कजलियाँ
*
'सलिल' माटी में मिले हो अंकुरित
बीज को उगना सिखातीं कजलियाँ
*
***
मुकरी / कहमुकरी
*
आँखमिचौली खेले पल-पल
ज्यों जलधार बह रही कलकल
हँस प्रकाश का साथ निभाया
क्या सखि माया?, नहिं सखि छाया
*
मनमोहक हर रचना करती
गुणग्राहक का मन झट हरती
नित्य निखर जग जय कर लीना
है सखि बीना?, ना सखि मीना
*
हर मन चाहे मिलना रोज
अगर न पाता करता खोज
चाह रहे सब उसकी गोद
क्या सखि बिस्तर?, नहीं विनोद
*
सृष्टि रचे प्रभु खेल कर रहा
नित्य अशुभ-शुभ मेल कर रहा
रसवर्षा ही है अरमान
आसमान है?, नहिं अभियान
१९-८-२०२०
***
शूद्र नहीं अस्पृश्य
सुरेश चौधरी
*
अक्सर तथाकथित बुद्धिजीवी यह आक्षेप लगाते रहते हैं कि हमारे शास्त्रों में वेदपाठ शूद्रों के लिए वर्जित है, इनको बताना चाहता हूं कि हमारे शास्त्रों में तो सभी ग्रंथों को सब लोगों के लिए पठनीय बताया है, यजुर्वेद के श्लोक 26/2 में साफ साफ लिखा है:
यथेमा वाचं कल्याणीमावदानि जाणेभ्यः । ब्रह्मराजानाभ्या शुद्राय चार्याय च स्वाय चारणाय च । प्रियो देवानां दक्षिणायै दातुरिह भूयासमयः में कामः स्मृध्याह्तामुप मादो नमतु।।
“शब्दार्थ: परमेश्वर मनुष्यों को आदेश देते हैं जिस प्रकार मैं इस कल्याणकारी वेदवाणी को मनुष्यमात्र के लिए उपदेश करूँ, वैसे ही तुम भी उपदेश किया करो । किस किसके लिए उपदेश करो । ब्राह्मणों तथा क्षत्रियों के लिए, शूद्रों के लिए और वैश्यों के लिए, अपनो के लिए, अपने प्रिय लगने वालों के लिए, देशवासियों के लिए, शत्रुओं के लिए, विदेशियों के लिए, सभी के लिए उपदेश करो। वेदोपदेश करते हुए मैं इस संसार मे विद्वानों का प्रेमपात्र बन जाऊं दक्षिणा देने वालों का भी प्यारा होऊं, मेरी यह कामना पूर्ण हो, मेरी वह पूर्व कामना मुझे प्राप्त हो।“
इस श्लोक से हमे यह ज्ञात होता है कि हमारे शास्त्र वेदों के ज्ञान को न सिर्फ ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र को देने की स्वीकृति करते हैं बल्कि इसका विस्तार तो इतना बड़ा है की यह देश की सीमा से भी परे विश्व भर को ज्ञान को उपलब्ध करने की बात करते हैं यहाँ तक की शत्रु भी इस ज्ञान को प्राप्त करें ताकि उसमे से शत्रुता का नाश हो, यह कहा जाना की अगर वेदवाक्य शुद्र के कानों में चलें जायं तो गर्म गर्म तेल डाल देना चाहिए यह सब तथाकथित ब्राह्मणवाद का या वेदों को बदनाम करने की साजिश मात्र है. वेदों की शिक्षा सर्वग्राह्य है.
***
समीक्षा-
"काल है संक्रांति का" आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' की अनुपम नवगीत कृति
- इंजी. संतोष कुमार माथुर, लखनऊ
*
एक कुशल अभियंता, मूर्धन्य साहित्यकार, निष्णात संपादक, प्रसिद्ध समीक्षक, कुशल छंदशास्त्री, समर्पित समाजसेवी पर्यावरणप्रेमी, वास्तुविद अर्थात बहुमुखी प्रतिभा के धनी आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' जी की नवीनतम पुस्तक "काल है संक्रांति का" पढ़ने का सुअवसर मिला। गीत-नवगीत का यह संग्रह अनेक दृष्टियों से अनुपम है।
'संक्रांति' का अर्थ है एक क्षेत्र, एक पद्धति अथवा एक व्यवस्था से दूसरे क्षेत्र, व्यवस्था अथवा पद्धति में पदार्पण। इंजी. सलिल की यह कृति सही अर्थों में संक्रांति की द्योतक है।
प्रथम संक्रांति- गीति
सामान्यत: किसी भी कविता संग्रह के आरम्भ में भूमिका के रूप में किसी विद्वान द्वारा कृति का मूल्यांकन एवं तदोपरांत रचनाकार का आत्म निवेदन अथवा कथन होता है। इस पुस्तक में इस प्रथा को छोड़कर नई प्रथा स्थापित करते हुए गद्य के स्थान पर पद्य रूप में कवि ने 'वंदन', 'स्मरण', 'समर्पण' और 'कथन' सम्मिलित करते हुए गीत / नवगीत के शिल्प और कथ्य के लक्षण इंगित किये हैं -
'नव्यता संप्रेषणों में जान भरती
गेयता संवेदनों का गान करती
कथ्य होता तथ्य का आधार खाँटा
सधी गति-यति अंतरों का मान बनती
अंतरों के बाद मुखड़ा आ विहँसता
.
छंद से संबंध दिखता या न दिखता
किंतु बन आरोह या अवरोह पलता'
.
'स्मरण' के अंतर्गत सृष्टि आरम्भ से अब तक अपने पूर्व हुए सभी पूर्वजों को प्रणिपात कर सलिल धरती के हिंदी-धाम होने की कामना करने के साथ-साथ नवरचनाकारों को अपना स्वजन मानते हुए उनसे जुड़कर मार्गदर्शन करने का विचार व्यक्त करते हैं-
'मिटा दूरियाँ, गले लगाना
नवरचनाकारों को ठानें
कलश नहीं, आधार बन सकें
भू हो हिंदी धाम'
'समर्पण' में सलिल जी ने यह संग्रह अनंत शक्ति स्वरूपा नारी के भगिनी रूप को समर्पित किया है। नारी शोषण की प्रवृत्ति को समाप्त कर नारी सशक्तिकरण के इस युग में यह प्रवृत्ति अभिनंदनीय है।
'बनीं अग्रजा या अनुजा तुम
तुमने जीवन सरस बनाया
अर्पित शब्द-सुमन स्वीकारे
नेहिल नाता मन को भाया'
द्वितीय संक्रांति-विधा
बहुधा काव्य संग्रह या तो पारंपरिक छंदों में रचित 'गीत संग्रह' होता है, या नये छंदों में रचित 'नवगीत संग्रह' अथवा छंदहीन कविताओं का संग्रह होता है। इंजी. सलिल जी ने पुस्तक के शीर्षक के साथ ही गीत-नवगीत लिखकर एक नयी प्रथा में पदार्पण किया है कि गीत-नवगीत एक दूसरे से सर्वथा भिन्न नहीं, एक दूसरे के पूरक हैं और इसलिए एक घर में रहते पिता-पुत्र की तरह उन्हें एक संकलन में रखा जा सकता हैं। उनके इस कदम का भविष्य में अन्यों द्वारा अनुकरण होगा।
तृतीय संक्रांति- भाषा
एक संकलन में अपनी रचनाओं हेतु कवि बहुधा एक भाषा-रूप का चयन कर उसी में कविता रचते हैं। सलिल जी ने केवल 'खड़ी बोली' की रचनाएँ सम्मिलित न कर 'बुंदेली' तथा लोकगीतों के उपयुक्त देशज भाषा-रूप में रचित गीति रचनाएँ भी इस संकलन में सम्मिलित की हैं तथा तदनुसार ही छन्द-विधान का पालन किया है। यह एक नयी सोच और परंपरा की शुरुआत है। इस संग्रह की भाषा मुख्यत: सहज एवं समर्थ खड़ी बोली है जिसमें आवश्यकतानुसार उर्दू, अंग्रेजी एवं बुंदेली के बोलचाल में प्रचलित शब्दों का निस्संकोच समावेश किया गया है।
प्रयोग के रूप में पंजाब के दुल्ला भट्टी को याद करते हुई गाये जानेवाले लोकगीतों की तर्ज पीर 'सुंदरिये मुंदरिये होय' रचना सम्मिलित की गयी है। इसी प्रकार बुंदेली भाषा में भी तीन रचनाएँ जिसमें 'आल्हा' की तर्ज पर लिखी गयी रचना भी है, इस संग्रह में संग्रहीत हैं।
इस संग्रह में काव्यात्मक 'समर्पण' एवं 'कथन' को छोड़कर ६३ रचनाएँ हैं।यह एक सुखद संयोग ही है कि इस पुस्तक के प्रकाशन के समय कविवर सलिल जी की आयु भी ६३ वर्ष ही है।
चतुर्थ संक्रांति- विश्वात्म दृष्टि और विज्ञान
कवि ने आरम्भ में निराकार परात्पर परब्रम्ह का 'वन्दन' करते हुए महानाद के विस्फोट से व्युत्पन्न ध्वनि तरंगों के सम्मिलन-घर्षण के परिणामस्वरूप बने सूक्ष्म कणों से सृष्टि सृजन के वैज्ञानिक सत्य को इंगित कर उसे भारतीय दर्शन के अनुसार अनादि-अनंत, अक्षय-अक्षर कहते हुए सुख-दुःख के प्रति समभाव की कामना की है-
'आदि-अंत, क्षय-क्षर विहीन हे!
असि-मसि, कलम-तूलिका हो तुम
गैर न कोई सब अपने हैं-
काया में हैं आत्म सभी हम
जन्म-मरण, यश-अपयश चक्रित
छाया-माया, सुख-दुःख हो सम'
पंचम संक्रांति- छंद वैविध्य
कवि ने अपनी नवगीत रचनाओं में छन्द एवं लयबद्धता का विशेष ध्यान रखा है जिससे हर रचना में एक अविकल भाषिक प्रवाह परिलक्षित होता है। प्रचलित छन्दों यथा दोहा-सोरठा के अतिरिक्त कवि ने कतिपय कम प्रचलित छंदों में भी रचनाएँ प्रस्तुत की हैं। आचार्यत्व का निर्वहन करते हुए कवि ने जहाँ विशिष्ट छंदों का उपयोग किया है वहाँ जिज्ञासु पाठकों एवं छात्रों के हितार्थ उनका स्पष्ट उल्लेख भी रचना के अंत में नीचे कर दिया है। यथा महाभागवत जातीय सार छंद, हरिगीतिका छंद, आल्हा छंद, मात्रिक करुणाकर छंद, वार्णिक सुप्रतिष्ठा छंद आदि। कुछ रचनाओं में कवि ने एकाधिक छन्दों का प्रयोग कर अपनी असाधारण प्रतिभा का परिचय दिया है। यथा एक रचना में मात्रिक करुणाकर तथा वार्णिक सुप्रतिष्ठा छंद दोनों के मानकों का पालन किया है जबकि दो अन्य रचनाओं में मुखड़े में दोहा तथा अंतरे में सोरठा छंद का समन्वय किया है।
विषयवस्तु-
विषय की दृष्टि से कवि की रचनाओं यथा 'इतिहास लिखें हम', 'मन्ज़िल आकर' एवं 'तुम बन्दूक चलाओ' में आशावादिता स्पष्ट परिलक्षित होती है।
'समाजवादी', 'अगले जनम', 'लोकतन्त्र का पंछी', 'ग्रंथि श्रेष्ठता की', 'जिम्मेदार नहीं हैं नेता' एवं 'सच की अर्थी' में व्यवस्था के प्रति आक्रोश है। जीवन का कड़वा सच 'मिली दिहाड़ी' एवं 'वेश सन्त का' जैसी रचनाओं में भी उजागर हुआ है। 'राम बचाये' एवं 'हाथों में मोबाइल' रचनाएँ आधुनिक जीवनशैली पर कटाक्ष हैं। 'समर्पण' एवं 'काम तमाम' में नारी-प्रतिभा को उजागर किया गया है। कुछ रचनाओं यथा 'छोड़ो हाहाकार मियाँ', 'खों-खों करते' तथा 'लेटा हूँ' आदि में तीखे व्यंग्य बाण भी छोड़े गये हैं। सामयिक घटनाओं से प्रभावित होकर कवि ने 'ओबामा आते', पेशावर के नरपिशाच' एवं 'मैं लड़ूँगा' जैसी रचनाएँ भी लिपिबद्ध की हैं।
विषयवस्तु के संबंध में कवि की विलक्षण प्रतिभा का उदाहरण है एक ही विषय 'सूरज' पर लिखे सात तथा अन्य विषय 'नव वर्ष' पर रचित पाँच नवगीत। इस रचनाओं में यद्यपि एकरसता परिलक्षित नहीं होती तथापि लगातार एक ही विषय पर अनेक रचनाएँ पाठक को विषय की पुनरावृत्ति का अभ्यास अवश्य कराती हैं।
कुछ अन्य रचनाओं में भी शब्दों की पुरावृत्ति दृष्टिगोचर होती है। उदाहरणार्थ पृष्ठ १८ पर 'उठो पाखी' के प्रथम छंद में 'शराफत' शब्द का प्रयोग खटकता है। पृष्ठ ४३ पर 'सिर्फ सच' की १० वीं व ११ वीं पंक्ति में 'फेंक दे' की पुनरावृत्ति छपाई की भूल है।
कुल मिलाकर कवि-आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' का यह संग्रह अनेक प्रकार से सराहनीय है। ज्ञात हुआ है कि संग्रह की अनेक रचनाएँ अंतर्जाल पर बहुप्रशंसित और बहुचर्चित हो चुकी हैं। सलिल जी ने अंतरजाल पर हिंदी भाषा, व्याकरण और पिंगल के प्रसार-प्रचार और युवाओं में छन्द के प्रति आकर्षण जगाने की दिशा में सराहनीय प्रयास किया है। छन्द एवं विषय वैविध्य, प्रयोगधर्मिता, अभिनव प्रयोगात्मक गीतों-नवगीतों से सुसज्जित इस संग्रह 'काल है संक्रांति का' के प्रकाशन हेतु इंजी, कवि आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' बधाई के पात्र हैं।
*****
समीक्षक सम्पर्क- अभियंता संतोष कुमार माथुर, कवि-गीतकार, सेवा निवृत्त मुख्य अभियंता, लखनऊ।
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पुस्तक सलिला
"खेतों ने खत लिखा" गीतिकाव्य के नाम
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[पुस्तक विवरण- खेतों ने खत लिखा, गीत-नवगीत, कल्पना रामानी, वर्ष २०१६ ISBN ९७८-८१-७४०८-८६९-७, आवरण सजिल्द बहुरंगी जैकेट सहित, आकार डिमाई, पृष्ठ १०४, मूल्य २००/-, अयन प्रकाशन १/२० महरौली, नई दिल्ली ११००३०, लेखिका संपर्क ६०१/५ हेक्स ब्लॉक, सेक्टर १०, खारघर, नवी मुम्बई ४१०२१०, चलभाष ७४९८८४२०७२, ईमेल kalpanasramani@gmail.com]
*
गीत-नवगीत के मध्य भारत-पकिस्तान की तरह सरहद खींचने पर उतारू और एक को दूसरे से श्रेष्ठ सिद्ध करने के दुष्प्रयास में जुटे समीक्षक समूह की अनदेखी कर मौन भाव से सतत सृजन साधना में निमग्न रहकर अपनी रचनाओं के माध्यम से उत्तर देने में विश्वास रखनेवाली कल्पना रामानी का यह दूसरा गीत-नवगीत संग्रह आद्योपांत प्रकृति और पर्यावरण की व्यथा-कथा कहता है। आवरण पर अंकित धरती के तिमिर को चीरता-उजास बिखेरता आशा-सूर्य और झूमती हुई बालें आश्वस्त करती हैं कि नवगीत प्रकृति और प्रकृतिपुत्र के बीच संवाद स्थापितकर निराश में आशा का संचार कर सकने में समर्थ है। अपने नवगीत संग्रह 'काल है संक्रांति का' में सूर्य की विविध भाव-भंगिमाओं पर ८ तथा नए साल पर ६ रचनाएँ देने के बाद इस संकलन में सूर्य तथा नव वर्ष पर केंद्रित ३-३ रचनाएँ पाकर सुख हुआ। एक ही समय में समान अनुभूतियों से गुजरते दो रचनाकारों की भावसृष्टि में साम्य होते हुए भी अनुभति और अभिव्यक्ति में विविधता स्वाभाविक है। कल्पना जी ने 'शत-शत वंदन सूर्य तुम्हारा', 'सूरज संक्रांति क्रांति से' तथा 'भक्ति-भाव का सूर्य उगा' रचकर तिमिरांतक के प्रति आभार व्यक्त किया है। 'नव वर्ष आया', 'शुभारंभ है नए साल का' तथा 'नए साल की सुबह' में परिवर्तन की मांगल्यवाहकता तथा भविष्य के प्रति नवाशा का संकेत है।
सूरज की संक्रांति क्रांति से / जन-जन नीरज वदन हुआ
*
एक अंकुर प्रात फूटा / हर अँगन में प्रीत बनकर
नींद से बोला- 'उठो / नव वर्ष आया
कल्पना जी ने अपने प्रथम नवगीत संग्रह से अपने लेखन के प्रति आशा जगाई है।जंगल, हरियाली, बाग़-बगीचे, गुलमोहर, रातरानी, बेल, हरसिंगार, चंपा, बाँस, गुलकनेर, बसन्त, पंछी, कौआ, कोयल, सावन, फागुन, बरखा, मेघ, प्रात, दिन, सन्ध्या, धूप, शीत आदि के माध्यम से गीत-गीत में प्रकृति से साक्षात कराती यह कृति अधिक परिपक्व रचनाएँ समाहित किये है। मौसम के बदलते रंग जन-जीवन को प्रभावित करते हैं-
धड़क उठेंगी फिर से साँसें / ज्यों मौसम बदलेगा चोला
*
देखो उस टपरी में अम्मा / तन को तन से ताप रही है
आधी उधड़ी ओढ़ रजाई / खींच-खींचकर नाप रही है
जर्जर गात, कुहासा कथरी / वेध रहा बनकर हथगोला
*
'बेबस कमली' की व्यथा-कथा कल्पना जी की रचना सामर्थ्य की बानगी है। एक दिन बिना नहाये काम पर जाने का दंड उससे काम छुड़ाकर दिया जाता है-
रूठी किस्मत, टूटी हिम्मत / ध्वस्त हुए कमली के ख्वाब
काम गया क्या दे पायेगी / बच्चों को वो सही जवाब?
लातों से अब होगी खिदमत / मुआ मरद है क्रूर / कसाई
*
हिंदी, संस्कृत, अंग्रेजी, उर्दू के कटघरों से मुक्त कल्पना जी कथ्य की आवश्यकतानुसार शब्दों का प्रयोग करती हैं।इन नवगीतों में जलावतन, वृंत, जर्जर, सन्निकट, वृद्धाश्रम, वसन, कन्दरा, आम्र, पीतवर्णी, स्पंदित, उद्घोष, मृदु, श्वेताभ जैसे तत्सम शब्द आखर, बतरस, बतियाते, चौरा, बिसरा, हुरियारों, पैंजन, ठेस, मारग, चौबारे, पुरवाई, अगवानी, सुमरन, जोगन आदि तद्भव शब्दों के साथ गलबहियाँ डाले हैं तो खत, ज़िंदा, हलक, नज़ारा, आशियां, कारवां, खौफ, रहगुजर, क़ातिल, फ़क़ीर, इनायत, रसूल, खुशबू आदि उर्दू शब्द कोर्ट, डी जे, पास, इंजीनियर, डॉक्टर जैसे अंग्रेजी शब्दों के साथ आँख मिचौली खेल रहे हैं।
कल्पना जी परंपरा का अनुसरण करने के साथ-साथ नव भाषिक प्रयोग कर पाठकों-श्रोताओं का अभिव्यक्ति सामर्थ्य बढ़ाती हैं। सरसों की धड़कन, ओस चाटकर सोई बगिया, लातों से अब होगी खिदमत, मुआ मरद है क्रूर कसाई, ख़ौफ़ ही बेख़ौफ़ होकर अब विचरता जंगलों में, अंजुरी अनन्त की, देव! छोड़ दो अब तो होना / पल में माशा पल में तोला, उनके घर का नमक न खाना, लहरें आँख दिखाएँ तो भी / आँख मिला उन पर पग धरना, 'पल में माशा, पल में तोला' जैसे मुहावरे, 'घड़ा देखकर प्यासा कौआ / चला चोंच में पत्थर लेकर' जैसी बाल कथाएँ, गुणा-भाग, कर्म-कलम, छान-छप्पर, लेख-जोखा, बिगड़ते-बनते, जोड़-तोड़, रूखी-सूखी, हल-बैल-बक्खर, काया-कल्प, उमड़-घुमड़, गिल्ली-डंडा, सुख-दुःख, सूखे-भीगे, चाक-चौबंद, झील-ताल, तिल-गुड़, शिकवे-गिले, दान-पुण्य आदि शब्द युग्म तथा दिनकर दीदे फाड़ रहा, सून सकोरा, सूखी खुरचन, जूते चित्र बनाते आये, जोग न ले अमराई, घने पेड़ का छायाघर, सूरज ने अरजी लौटाई, अमराई को अमिय पिलाओ, घिरे अचानक श्याम घन घने, खोल गाँठें गुत्थियों की, तिल-तिल बढ़ता दिन बंजारा, खेतों ने खत लिखा, पालकी बसन्त की, दिन बसन्ती ख्वाब पाले, रात आई रातरानी ख्वाब पाले, गीत कोकिला गाती रहना, बेला महके कहाँ उगाऊँ हरसिंगार, गुलकनेर यादों में छाया, हमें बुलाते बाग़-बगीचे, धान की फसल पुकारे, कभी न होना धूमिल चंदा जैसे सरस प्रयोग मन में चाशनी सी घोल देते हैं।
'खेतों ने खत लिखा सूर्य को', 'नज़रें नूर बदन नूरानी', 'सर्प सारे सर उठा, अर्ध्य अर्पित अर्चना का', 'कन्दरा से कोकिला का मौन बोला', आदि में अनुप्रास की मोहक छटा यत्र-तत्र दर्शनीय है। 'देखो उस टपरी में अम्मा / तन को तन से ताप रही है' में पुनरावृत्ति अलंकार, 'चाट गया जल जलता तापक', 'रात आई रातरानी' आदि में यमक अलंकार, 'कर्म कलम', 'दिन भट्टी' आदि में रूपक अलंकार हैं।
'एक मन्त्र दें वृक्षारोपण' कहते समय यह तथ्य अनदेखा हुआ है कि वृक्ष नहीं, पौधा रोपा जाता है। 'साथ चमकता पथ जब चलता' में तथ्य दोष है क्योंकि पथ नहीं पथिक चलता है। 'उगी पुनः नयी प्रभात' के स्थान पर 'उगा पुनः नया प्रभात' होना था। 'माँ होती हैं जाँ बच्चों की' के सन्दर्भ में स्मरणीय है कि किसी शब्द के अंत में 'न' आने पर एक मात्रा कम करने के लिए उसे पूर्व के दीर्घाक्षर में समाहित कर दीर्घाक्षर पर बिंदी लगाई जाती है। 'जान' के स्थान पर 'जां' होगा 'जाँ' नहीं।
हिंदी के आदि कवि अमीर खुसरो को प्रिय किंतु आजकल अल्प प्रचलित 'मुकरी' विधा की रचनाओं का नवगीत में होना असामान्य है। बेहतर होता कि समतुकांती मुकरियों का प्रयोग अंतरे के रूप में करते हुए कुछ नवगीत रचे जाते। ऐसा प्रयोग रोचक और विचारणीय होता।
नवगीत को लेकर कल्पना जी की संवेदनशीलता कुछ पंक्तियों में व्यक्त हुई है- 'दिनचर्या के गुणा-भाग से / रधिया ने नवगीत रचा', 'रच लो जीवन-गीत, कर्म की / कलम गहो हलधर', 'भाव, भाषा, छंद, रस-लय / साथ सब ये गीत माँगें', 'गीत सलोने बिखरे चारों ओर', 'गर्दिशों के भूलकर शिकवे-गिले / फिर उमंगों के / चलो नवगीत गायें'। नवगीत को सामाजिक विसंगतियों, विडंबनाओं, त्रासदियों और टकरावों से उपजे दर्द, पीड़ा और हताश का पर्याय मानने-बतानेवाले साम्यवादी चिन्तन से जुड़े समीक्षकों को नवगीत के सम्बन्ध में कल्पना जी की सोच से असहमति और उनके नवगीतों को स्वीकारने में संकोच हो सकता है किन्तु इन्हीं तत्वों से सराबोर नयी कविता को जनगण द्वारा ठुकराया जाना और इन्हीं प्रगतिवादियों द्वारा गीत के मरण की घोषणा के बाद भी गीत की लोकप्रियता बढ़ती जाना सिद्ध करता है नवगीत के कथ्य और कहन के सम्बन्ध में पुनर्विचार कर उसे उद्भव कालीं दमघोंटू और सामाजिक बिखरावजनित मान्यताओं से मुक्त कर उत्सवधर्मी नवाशा से संयुक्त किया जाना समय की माँग है। इस संग्रह के गीत-नवगीत यह करने में समर्थ हैं।
'बाँस की कुर्सी', 'पालकी बसन्त की', दिन बसन्ती ख्वाबवाले', 'मन जोगी मत बन', 'कलम गहो हलधर' आदि गीत इस संग्रह की उपलब्धि हैं। सारत:, कल्पना जी के ये गीत अपनी मधुरता, सरसता, सामयिकता, सरलता और पर्यावरणीय चेतना के लिए पसंद किये जाएंगे। इन गीतों में स्थान-स्थान पर सटीक बिम्ब और प्रतीक अन्तर्निहित हैं। 'सर्प सारे सिर उठा चढ़ते गए / दबती रहीं ये सीढ़ियाँ', 'एक अंकुर प्रात फूटा / हर अँगन में प्रीत बनकर', घने पेड़ के छाया घर में / आये आज शरण में इसकी / ज़ख़्मी जूते भर दुपहर में', दाहक रहे दिन भाटी बन / भून रहे बेख़ता प्राण-मन', 'बनी रहें इनायतें रसूल दानवन्त की / जमीं पे आई व्योम वेध पालकी बसन्त की', 'क्रूर मौसम के किले को तोड़कर फिर / लौट आये दिन बसन्ती ख्वाबवाले' जैसी अभिव्यक्तियाँ पाठक के साथ रह जाती हैं। कल्पना जी के मधुर गीत-नवगीत फिर-फिर पढ़ने की इच्छा शेष रह जाना और अतृप्ति की अनुभूति होना ही इस संग्रह की सफलता है।
१९-८-२०१६
***
मुक्तक
पल-पल नया जन्म होता है, क्षण-क्षण करे मृत्यु आलिंगन
सीधी रेखा में पग रखकर, बढ़ें सदा यह सलिल अकिंचन
दें आशीष फेस जब भी यम बुक में दर्ज करें हो उज्जवल
सलिल सींच कुछ पौधे कर दे तनिक सुवासित कविता उपवन
१९-८-२०१४
***
गीत :
मैं अकेली लड़ रही थी
*
मैं अकेली लड़ रही थी
पर न तुम पहचान पाये.....
*
सामने सागर मिला तो, थम गये थे पग तुम्हारे.
सिया को खोकर कहो सच, हुए थे कितने बिचारे?
जो मिला सब खो दिया, जब रजक का आरोप माना-
डूब सरयू में गये, क्यों रुक न पाये पग किनारे?
छूट मर्यादा गयी कब
क्यों नहीं अनुमान पाये???.....
*
समय को तुमने सदा, निज प्रशंसा ही सुनायी है.
जान यह पाये नहीं कि, हुई जग में हँसायी है..
सामने तो द्रुपदसुत थे, किन्तु पीछे थे धनञ्जय.
विधिनियंता थे-न थे पर, राह उनने दिखायी है..
जानते थे सच न क्यों
सच का कभी कर गान पाये.....
*
हथेली पर जान लेकर, क्रांति जो नित रहे करते.
विदेशी आक्रान्ता को मारकर जो रहे मरते..
नींव उनकी थी इमारत तुमने अपनी है बनायी-
हाय होकर बागबां खेती रहे खुद आप चरते..
श्रम-समर्पण का न प्रण क्यों
देश के हित ठान पाये.....
*
'आम' के प्रतिनिधि बने पर, 'खास' की खातिर जिए हो.
चीन्ह् कर बाँटी हमेशा, रेवड़ी- पद-मद पिए हो..
सत्य कर नीलाम सत्ता वरी, धन आराध्य माना.
झूठ हर पल बोलते हो, सच की खातिर लब सिये हो..
बन मियाँ मिट्ठू प्रशंसा के
स्वयं ही गान गाये......
*
मैं तुम्हारी अस्मिता हूँ, आस्था-निष्ठा अजय हूँ.
आत्मा हूँ अमर-अक्षय, सृजन संधारण प्रलय हूँ.
पवन धरती अग्नि नभ हूँ, 'सलिल' हूँ संचेतना मैं-
द्वैत मैं, अद्वैत मैं, परमात्म में होती विलय हूँ..
कर सके साक्षात् मुझसे
तीर कब संधान पाए?.....
*
मैं अकेली लड़ रही थी
पर न तुम पहचान पाये.....
१९-८-२०११
**
गीत:
मंजिल मिलने तक चल अविचल.....
*
लिखें गीत हम नित्य न भूलें, है कोई लिखवानेवाला.
कौन मौन रह मुखर हो रहा?, वह मन्वन्तर और वही पल.....
*
दुविधाओं से दूर रही है, प्रणय कथा कलियों-गंधों की.
भँवरों की गुन-गुन पर हँसतीं, प्रतिबंधों की व्यथा-कथाएँ.
सत्य-तथ्य से नहीं कथ्य ने तनिक निभाया रिश्ता-नाता
पुजे सत्य नारायण लेकिन, सत्भाषी सीता वन जाएँ.
धोबी ने ही निर्मलता को लांछित किया, पंक को पाला
तब भी, अब भी सच-साँचे में असच न जाने क्यों पाया ढल.....
*
रीत-नीत को बिना प्रीत के, निभते देख हुआ उन्मन जो
वही गीत मनमीत-जीतकर, हार गया ज्यों साँझ हो ढली.
रजनी के आँसू समेटकर, तुहिन-कणों की भेंट उषा को-
दे मुस्का श्रम करे दिवस भर, संध्या हँसती पुलक मनचली.
मेघदूत के पूत पूछते, मोबाइल क्यों नहीं कर दिया?
यक्ष-यक्षिणी बैकवर्ड थे, चैट न क्यों करते थे पल-पल?.....
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कविता-गीत पराये लगते, पोयम-राइम जिनको भाते.
ब्रेक डांस के उन दीवानों को अनजानी लचक नृत्य की.
सिक्कों की खन-खन में खोये, नहीं मंजीरे सुने-बजाये
वे क्या जानें कल से कल तक चले श्रंखला आज-कृत्य की.
मानक अगर अमानक हैं तो, चालक अगर कुचालक हैं तो
मति-गति , देश-दिशा को साधे, मंजिल मिलने तक चल अविचल.....
१९-८-२०१०
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