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मंगलवार, 16 अगस्त 2022

सॉनेट, अंजली,गीत,मुक्तिका, नवगीत,

सॉनेट
अंजली
अंजली खाली मेरे ईश!
सब कुछ तेरा, क्या दूँ तुझको?
क्या मेरा कुछ?, बतला मुझको
विकल पूछता तेरा शीश

यह धन-दौलत, रिश्ते-नाते
तुम देते, तुम ही ले लेते
भ्रभ होता हम नैया खेते
तुम ही नैया पार लगाते

हम से तुम या तुम से हैं हम?
हम या तुम उपजाते सुख-गम
जान न पाते हो जाते गुम

प्रभु! यह अंजली भी तेरी है
कुछ दूँ, बुद्धि नहीं मेरी है
यही समर्पित बिन देरी है
१६-८-२०२३
•••
गीत
*
किसके-किसके नाम करूँ मैं, अपने गीत बताओ रे!
किसके-किसके हाथ पिऊँ मैं, जीवन-जाम बताओ रे!!
*
चंद्रमुखी थी जो उसने हो, सूर्यमुखी धमकाया है
करी पंखुड़ी बंद भ्रमर को, निज पौरुष दिखलाया है
''माँगा है दहेज'' कह-कहकर, मिथ्या सत्य बनाया है
किसके-किसके कर जोड़ूँ, आ मेरी जान बचाओ रे!
किसके-किसके नाम करूँ मैं, अपनी पीर बताओ रे!!
*
''तुम पुरुषों ने की रंगरेली, अब नारी की बारी है
एक बाँह में, एक चाह में, एक राह में यारी है
नर निश-दिन पछतायेगा क्यों की उसने गद्दारी है?''
सत्यवान हूँ हरिश्चंद्र, कोई आकर समझाओ रे!
किसके-किसके नाम करूँ कवि की जागीर बताओ रे!!
*
महिलायें क्यों करें प्रशंसा?, पूछ-पूछ कर रूठ रही
खुद सवाल कर, खुद जवाब दे, विषम पहेली बूझ रही
द्रुपदसुता-सीता का बदला, लेने की क्यों सूझ रही?
झाड़ू, चिमटा, बेलन, सोंटा कोई दूर हटाओ रे!
किसके-किसके नाम करूँ अपनी तकदीर बताओ रे!!
*
देवदास पारो को समझ न पाया, तो क्यों प्यार किया?
'एक घाट-घर रहे न जो, दे दगा', कहे कर वार नया
'सलिल बहे पर रहता निर्मल', समझाकर मैं हार गया
पंचम सुर में 'आल्हा' गाए, 'कजरी' याद दिलाओ रे!
किसके-किसके नाम करूँ जिव्हा-शमशीर बताओ रे!!
*
कुसुम, सुमन, नीलू, अमिता, पूर्णिमा, नीरजा आएँगी
'पत्नी को परमेश्वर मानो', सबको पाठ पढ़ाएँगी
पत्नीव्रती न जो कवि होगा, उससे कलम छुड़ाएँगी
कोई भी मौसम हो तुम गुण पत्नी के ही गाओ रे!
किसके-किसके नाम करूँ कवि आहत वीर बताओ रे!!
***
मुक्तिका
*
रवि आ भा
छिप जाता
अनकहनी
कहवाता
माटी भी
है माता
जो खोता
वह पाता
मत तोड़ो
मन नाता
जो आता
वह जाता
पथ-भूला
समझाता
१६-८-२०२०

***
नवगीत
*
पीटो ढोल
बजाओ मँजीरा
*
भाग गया परदेशी शासन
गूँज रहे निज देशी भाषण
वीर शहीद स्वर्ग से हेरें
मँहगा होता जाता राशन
रँगे सियार शीर्ष पर बैठे
मालिक बेबस नौकर ऐंठे
कद बौने, लंबी परछाई
सूरज लज्जित, जुगनू ऐंठे
सेठों की बन आयी, भाई
मतदाता की शामत आई
प्रतिनिधि हैं कुबेर, मतदाता
हुआ सुदामा, प्रीत न भायी
मन ने चाही मन की बातें
मन आहत पा पल-पल घातें
तब-अब चुप्पी-बहस निरर्थक
तब भी, अब भी काली रातें
ढोंग कर रहे
संत फकीरा
पीटो ढोल
बजाओ मँजीरा
*
जनसेवा का व्रत लेते जो
धन-सुविधा पा क्षय होते वो
जनमत की करते अवहेला
जनहित बेच-खरीद गये सो
जनहित खातिर नित्य ग्रहण बन
जन संसद को चुभे दहन सम
बन दलाल दल करते दलदल
फैलाते केवल तम-मातम
सरहद पर उग आये कंटक
हर दल को पर दल है संकट
नाग, साँप, बिच्छू दल आये
किसको चुनें-तजें, है झंझट
क्यों कोई उम्मीदवार हो?
जन पर क्यों बंदिश-प्रहार हो?
हर जन जिसको चाहे चुन ले
इतना ही अब तो सुधार हो
मत मतदाता
बने जमूरा?
पीटो ढोल
बजाओ मँजीरा
*
चयनित प्रतिनिधि चुन लें मंत्री
शासक नहीं, देश के संत्री
नहीं विपक्षी, नहीं विरोधी
हटें दूर पाखंडी तंत्री
अधिकारी सेवक मनमानी
करें न, हों विषयों के ज्ञानी
पुलिस न नेता, जन-हित रक्षक
हो, तब ऊगे भोर सुहानी
पारदर्शितामय पंचायत
निर्माणों की रचकर आयत
कंकर से शंकर गढ़ पाये
सब समान की बिछा बिछायत
उच्छृंखलता तनिक नहीं हो
चित्र गुप्त अपना उज्जवल हो
गौरवमय कल कभी रहा जो
उससे ज्यादा उज्जवल कल हो
पूरा हो
हर स्वप्न अधूरा
पीटो ढोल
बजाओ मँजीरा
***
गीत :
*
अरमानों की फसलें हर दिन ही कुदरत बोती है
कुछ करने के लिए कभी भी देर नहीं होती है
उठ आशीष दीजिए छोटों को महके फुलवारी
नमन ईश को करें दूर हों चिंता पल में सारी
गीत ग़ज़ल कवितायेँ पोयम मंत्र श्लोक कुछ गा लें
मन की दुनिया जब जैसी चाहें रच खूब मजा लें
धरती हर दुःख सह देती है खूब न पर रोती है
कुछ करने के लिए कभी भी देर नहीं होती है
देश-विदेश कहाँ कैसा क्या भला-बुरा बतलायें
हम न जहाँ जा पाये पढ़कर ही आनंद मनायें
मौसम लोग, रीतियाँ कैसी? कैसा ताना-बाना
भारत की छवि कैसी? क्या वे चाहें भारत आना?
हरे अँधेरा मौन चाँदनी, नील गगन धोती है
कुछ करने के लिए कभी भी देर नहीं होती है
१६-८-२०१५
***
मुक्तक सलिला :
*
नयन में शत सपने सुकुमार
अधर का गीत करे श्रृंगार
दंत शोभित ज्यों मुक्तामाल
केश नागिन नर्तित बलिहार
*
भौंह ज्यों प्रत्यंचा ली तान
दृष्टि पत्थर में फूंके जान
नासिका ऊँची रहे सदैव
भाल का किंचित घटे न मान
*
सुराही कंठ बोल अनमोल
कर्ण में मिसरी सी दे घोल
कपोलों पर गुलाब खिल लाल
रहे नपनों-सपनों को तोल

१६-८-२०१४

***

एक कविता :

होता था घर एक.

*

शायद बच्चे पढेंगे'

होता था घर एक.'

शब्द चित्र अंकित किया

मित्र कार्य यह नेक.

अब नगरों में फ्लैट हैं,

बंगले औ' डुप्लेक्स.

फार्म हाउस का समय है

मिलते मल्टीप्लेक्स.

बेघर खुद को कर रहे

तोड़-तोड़ घर आज.

इसीलिये गायब खुशी

हर कोई नाराज़.

घर न इमारत-भवन है

घर होता सम्बन्ध.

नाते निभाते हैं जहाँ

बिना किसी अनुबंध.

बना फेसबुक भी 'सलिल'

घर की नयी मिसाल.

नाते नव नित बन रहे

देखें आप कमाल.

बिना मिले भी मन मिले,

होती जब तकरार.

दूजे पल ही बिखरता

निर्मल-निश्छल प्यार.

मतभेदों को हम नहीं

बना रहे मन-भेद.

लगे किसी को ठेस तो

सबको होता खेद.

नेह नर्मदा निरंतर

रहे प्रवाहित मित्र.

'फेसबुक' घर का बने

'सलिल' सनातन चित्र..

१६-८-२०१०

*

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