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शुक्रवार, 5 अगस्त 2022

मनोहर चौबे 'आकाश'

पुरोवाक
राष्ट्रीयता की जयकार गुंजाएँ : ''चलो आज आजादी को घर ले आएँ''
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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                        जन्म के साथ ही जीव का जुड़ाव अपने परिवेश, प्रकृति और पर्यावरण के साथ हो जाता है। सृष्टि में मानव सर्वाधिक संजीवित और सचेतन प्राणी है। अत:, स्वाभाविक है कि अपनी जड़ों और जमीन से उसका जुड़ाव अन्य जीवों की तुलना में अधिक हो। सभ्यता और संस्कृति के विकास के साथ, जड़ और जमीन (जंगल भी) के साथ जुड़ाव क्रमश: घर, ग्राम, नगर, प्रान्त, मातृभूमि, देश, विश्व और सृष्टि के साथ जुड़ाव में परिवर्तित होता गया। 'स्व' से 'सर्व' की ओर विकास की यह प्रक्रिया 'व्यष्टि' को 'समष्टि' से जोड़ती है। मानव से महामानव बनने की महायात्रा में इस जुड़ाव की महती भूमिका है। यह भी सत्य है कि यह जुड़ाव किसी एक देश-काल या भूभाग के निवासियों का एकशिकार नहीं हो सकता। यह अधिकार सबका समान है। इस जुड़ाव की नींव सहिष्णुता, सद्भावना, सहकार और समानता पर हो तभी यह कल्याणकारी हो सकता है अन्यथा यह पारपरिक द्वेष का कारण बन कर सर्वनाशी सिद्ध होगा। 

                        राष्ट्र एक ऐसा जनसमूह है जो भौगोलिक सीमा विशेष में, एक निश्चित भूभाग (देश) में रहता है,,जो समान परम्परा, समान हितों तथा समान भावनाओं से बँधा हो और जिसमें एकता के सूत्र में बँधे रहने की उत्सुकता तथा समान राजनैतिक महत्त्वाकांक्षाएँ हों। राष्ट्र आधुनिक संकल्पना है जिसका विकास पुनर्जागरण के बाद अट्ठारहवीं और उन्नीसवीं सदी के यूरोप में राष्ट्र राज्यों के रूप में हुआ।राष्ट्रीय सीमाओं के भीतर रहनेवाले लोगों को अपने-अपने राष्ट्र का अस्तित्व स्वाभाविक, प्राचीन, चिरन्तन, न्यायपूर्ण  और स्थिर लगता है। इस विचार की ताकत का अंदाज़ा इस हकीकत से भी लगाया जा सकता है कि इसके आधार पर बने राष्ट्रीय समुदाय वर्गीय, जातिगत और धार्मिक विभाजनों को भी लाँघ जाते हैं। राष्ट्रवाद के आधार पर बने कार्यक्रम और राजनीतिक परियोजना के हिसाब से जब किसी राष्ट्र-राज्य की स्थापना हो जाती है तो उसकी सीमाओं में रहने वालों से अपेक्षा की जाती है कि वे अपनी विभिन्न अस्मिताओं के ऊपर राष्ट्र के प्रति निष्ठा को ही अहमियत देंगे। वे राष्ट्र के कानून का पालन करेंगे और उसकी आंतरिक और बाह्य सुरक्षा के लिए अपने प्राणों का बलिदान भी दे देंगे। यहाँ यह स्पष्ट कर देना ज़रूरी है कि आपस में कई समानताएँ होने के बावजूद राष्ट्रवाद और देशभक्ति में अंतर है। राष्ट्रवाद अनिवार्य तौर पर किसी न किसी कार्यक्रम और परियोजना का वाहक होता है, जबकि देशभक्ति की भावना ऐसी किसी शर्त की मोहताज नहीं है। राष्ट्रवाद लोगों के समूहों को उनकी इतिहास, परंपरा, भाषा, जातीयता या जातिवाद और संस्कृति के आधार पर उनको एकीकृत करता है।

                        भारत की सनातन संस्कृति सकल विश्व को एक कुटुंब मानकर राष्ट्रवाद की उदात्त और उदार संकल्पना की वाहक रही है। 'विश्वैक नीड़म्' तथा 'वसुधैव कुटुम्बकम्' जैसे सूत्र बताते हैं कि भारत में सकल विश्व को राष्ट्र के रूप में देखा गया तथापि भारत में ही सत्ता के लिए सुरासुरों तथा मानवों में राज्यों अथवा सत्ता के लिए निरंतर संघर्ष होते रहे जब तक कि देश पराधीन न हो गया। पराधीनता काल में विदेशी आक्रांताओं द्वारा पददलित किये जाने पर भारतीयों में आत्मगौरव का भाव जाग्रत हुआ जिसने संघर्ष, त्याग और बलिदान के विविध मार्गों का अनुसरण कर देश को स्वंतंत्र कराया। विधि की विडंबना कि मात्र ७५ वर्षों में हम स्वतंत्रता का महत्व भूलकर सत्ता के आकर्षण में देह-हितों की बलि देने लगे हैं। कवि नव जागरण का पहरुआ होता है। वह कल-आज और कल के बीच सेतु स्थापित कर शासन-प्रश्न और लोक को चेताकर आजादी के संरक्षण का शंखनाद न करे तो अपने कर्तव्य से च्युत हो जाएगा। सनातन सलिला नर्मदा चिरकाल से साधना भूमि रही है।  इसके किनारे बसी संस्कारधानी जबलपुर के जागरूक गीतकार मनोहर चौबे 'आकाश' वर्तमान संक्रमण काल में जान सामान्य में घटते पारंपरिक सांस्कृतिक प्रेम, बढ़ते पाश्चात्य प्रभाव तथा आतंकी गतिविधियों के मद्देनज़र राष्ट्रीय हिट संरक्षण हेतु चिंतित हों यह सहज स्वाभाविक है। प्रस्तुत कृति उनकी इसी मन:स्थिति का परिणाम है। 

                        यह संग्रह दो भागों में विभक्त है। उत्तरार्ध में राष्ट्र भक्ति भाव से सराबोर ३० गीतों का शब्दहार भारत माँ को समर्पित कर कवि आकाश अपनी लेखनी को धन्य कर सके हैं।  संग्रह के उत्तरार्ध में ग़ज़लकार आकाश ४५ ग़ज़लों की पंखुड़ियों की वर्षा कर भारत माँ का शब्दाभिनन्दन करते हैं। मनोहर चौबे का गीतकार ग़ज़लकार से गलबहियाँ डाले हुए भारत की सनातन सर्व समावेशी-सहिष्णु संस्कृति और गंगो-जमुनी तहजीब को शब्द सेतु से जोड़ते हुए भाव-सलिल से उसका मस्तकाभिषेक करता है। सूर्य और चाँद, दिन और रात, प्रयास और फल की तरह गीतों-ग़ज़लों का यह समन्वय राष्ट्रीय भावधारा से सराबोर है। राष्ट्रीयता का यह अभियान विश्ववाणी हिंदी को संपन्न-समृद्ध तो करता ही है, यह स्वतंत्रता के ७५ वर्ष पूर्ण होने के अवसर पर ७५ रचना सुमनों से राष्ट्र वंदना कर, प्रसंग के अनुकूल  जन-मन को प्रेरित करता है। गीतों का आरंभ भारत वंदना से हुआ है तो ग़ज़लारंभ देव वंदना से है।

                        राष्ट्रवाद को वरेण्य मानकर सर्वस्व होम करने, प्राणों की बाजी लगानेवाले हुतात्माओं की भारत में कमी नहीं रही है। इसके साथ ही विश्व को परिवार मानकर राष्ट्रीय विचारधारा को संकीर्ण माननेवाले चिंतक भी अनेक हुए हैं। आचार्य चतुरसेन ने अपने एक उपन्यास में राष्ट्रवाद को मानवता का शत्रु निरूपित किया है जिसने अगणित मानवों की बलि ले ली है और मनुष्यों को एक दूसरे का वध करने के लिए प्रेरित किया है। राष्ट्र के अंदर छोटे-छोटे प्रांतों, क्षेत्रों, जातियों, समूहों में खुद को अंतिम मानकर पारस्परिक टकरावों की घटनाएँ भी कम नहीं होती है। स्थानीयता, जातीयता, राष्ट्रीयता और वैश्विकता के चक्रव्यूहों से मानवीय सभ्यता निकल नहीं सकी है जबकि विज्ञान अंतरिक्ष में उपस्थित मानवेतर प्रजातियों से खतरे के प्रति भी आगाह करने लगए है। इस पृष्ठभूमि में आकाश का कवि ह्रदय अपने देश की सुरक्षा के प्रति चिंतित, देश के विकास से उत्साहित और देश के भविष्य के प्रति आशान्वित होकर विविध भाव-भूमियों की गीत लिखकर पाठकों को उनके कर्तव्य के प्रति सचेत करता है। कृति का शीर्षक कवि के स्वस्थ्य दृष्टिकोण का परिचायक है। कवि देश के जन सामान्य का आह्वान करता करता है 'चलो', इसमें आत्मीयतापूर्ण आदेशात्मक ध्वनि निहित है। कवि 'चलिए' कहकर अनुरोध नहीं करता, 'चलो' कहता है। 'आज' से स्पष्ट है कि यह आह्वान वर्तमान के लिए है, अतीत या भविष्य के लिए नहीं। 'आजादी' शब्द की पृष्ठ भूमि 'आजाद थे, आजाद हैं, आजाद रहेंगे' से जुड़कर यह बताती है कि यह आह्वान आजादी को क्षणभंगुरता के खतरे से दूर रखकर सनातन-चिरंतन बनाए रखने हेतु है। 'हम' यह स्पष्ट करता है कि कवि किसी एक या कुछ लोगों से संबोधित नहीं है, वह सभी देशवासियों से संबोधित होकर सबके साथ अपनी चिंता साझा कर रहा है, सबका आह्वान कर रहा है कि वे देश-हितों को सर्व प्राथम्य दें। शीर्षक का अंतिम भाग 'घर ले आएँ' का आशय है कि आजादी अभी तक 'घर' अर्थात आम आदमी तक नहीं पहुँची है, उसे घर तक लाना शेष है। 

                        आजादी मिली और 'घर' तक नहीं आई तो अटक कहाँ गई? आजादी के लिए संघर्ष तो 'घरों' अर्थात घरवासियों ने ही किया था, कार्यालयों और व्यवसायों ने तो अपना हित देखते हुए आजादी के संघर्ष से दूरी बनाये रखी थी। इसलिए कवि की मनोकामना है कि जिन आम जनों ने 'विदेशी तंत्र' के साथ प्राण प्रण से संघर्ष कर, जान की बाजी लगाकर जो आजादी पाई, उसे 'स्वदेशी तंत्र' (शासन-प्रशासन) के कब्जे से मुक्त कराकर घर (आम लोगों के बीच) ले आया जाए अन्यथा वह 'तंत्र' के बन्धनों में कुम्हला जाएगी, मर जाएगी। देशरत्न राजेंद्र बाबू, जननायक  जवाहर, लोकबंधु लालबहादुर शास्त्री, लोकनायक जयप्रकाश और राष्ट्रनायक नरेंद्र मोदी जी आजादी को 'तंत्र' से मुक्त कराकर 'लोक' तक पहुँचाने के लिए सतत सक्रिय रहे हैं। राजेंद्र बाबू का राष्ट्र के सर्वोच्च पद पर आसीन रहने के बाद आश्रम में रहना, जवाहर का हीराकुड बाँध का उद्घाटन एक श्रमिक महिला से कराना, शास्त्री जी द्वारा जय जवान जय किसान का आह्वान, जयप्रकाश जी द्वारा संपूर्ण क्रांति का आह्वान और मोदीजी द्वारा घर घर तिरंगा आजादी को आम जन के घर तक पहुँचाने की महायात्रा के पड़ाव ही हैं। कवि आकाश का यह चिंतन, गहन मनोमंथन के पश्चात् प्राप्त हुआ है। राष्ट्रीय भावधारा के सामान्य गीत संग्रहों में थोथी लिजलिजी भावनाओं का अतिरेक देखने को मिलता है किंतु आकाश का यह संग्रह ठोस वास्तिवकताओं पर आधारित है।

गत सात दशक से आजादी निर्वासित सी 
रहती संसद, स्कूलों और परेडों में 
सरकारी भवनों के लंबे गलियारों में 
ध्वज आरोहण, भाषण की मीनारों में 
केवल सिद्धांतों अधर्षों के आडंबर 
गूंजा करते स्पीकर में बन करके स्वर 
राजने दें अंग्रेजों की कलुषित गाथाएँ 
चलो आज अजादो को हम घर ले आएँ 

                        राष्ट्रीय भावधारा के अनेक आयाम हैं। आकाश जी के गीतों में विविध अंतरों अथवा एक ही गीत की विविध पंक्तियों में अलग-अलग आयाम इस तरह संगुफित हैं कि इनगीतों का तात्विक वर्गीकरण संभव नहीं है। राष्ट्रीय भावधारा का प्रथम आयाम राष्ट्र के प्रति आराधना का भाव है। राष्ट्रप्रेमी राष्ट्र की आराधना उपास्य देव या देवी, माँ या पिता मानकर करते हैं। विश्व के अन्य देशवासी जहाँ अपने देश को पिता मानते हैं, वहाँ भारतवासी भारत को माता मानते हैं। शिशु पिता की छत्रछाया में पलने पर भी माँ की ममता को पहले पहचानता है। आकाश लिखते हैं -

ओ भारती माँ!, ओ प्यारी माँ!!
हम तेरा पूजन करते हैं, हम तेरा अर्चन करते हैं  
हे माता! हम मिलकर, तेरे चरणों में शीश झुकाते हैं  
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गुंजित है ब्रह्माण्ड में श्री गणेश का नाम / सार्थकता के; श्रेष्ठता के अनुपम आयाम   
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                        बकौल कविवर सुमित्रानंदन पंत 'भारत माता ग्रामवासिनी'। आकाश भारत वर्ष को तम मिटाकर प्रकाश फैलानेवाले दिव्य रूप में देखते हैं- 

स्वागत भारत वर्ष तुम्हारा / आओ दूर करो अँधियारा .... 
.... गाँव-शहर के सब घर-आँगन, 
गलियाँ चौबारे झोपड़ियाँ 
करते बैठे सतत प्रतीक्षा, 
तुम आओ तो शायद पूरी 
हो पाए युग-युग से चलती 
व्याकुल जन की कठिन परीक्षा ....
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हँसता हुआ ये प्यारा वतन देख रहा हूँ / खुशबु से मुअत्तर ये चमन देख रहा हूँ 
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                        भारत माँ का हर बेटा, देश पर न केवल गर्व करता है अपितु हर कीमत पर देश के गौरव और महिमा की वृद्धि करना चाहता है, यह राष्ट्रीय भावधारा का दूसरा आयाम है-  

भारत उसका भारत भू को / जो देता माता का मान 
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देश हमारा इस धरती पर, सबसे अधिक महान है 
हमें हमारी मातृभूमि पर, सदा रहा अभिमान है 
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वेदों की पावन अवतारी, ज्ञानदायिनी भूमि हमारी 
श्रेष्ठ गुरुजनों की शिक्षा की, पथ प्रदायिनी भूमि हमारी 
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वह भारत जिसके माथे पर, जड़े हिमशिखर बनकर तारे 
और सदा से ही सागर ने, जिसके आकर पाँव पखारे 
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                        'आज' के भवन का निर्माण 'कल' की नीव पर ही होता है। राष्ट्रीय भावधारा के तृतीय सोपान पर कवि आकाश में देश के अतीत और इतिहास के प्रति गर्व की प्रगाढ़ भावना है। वे संग्रह के कई गीतों में देवासुर संग्राम, त्रेता, द्वापर, से आरम्भ कर वर्त्तमान तक विविध कालखंडों में घटित घटनाचक्रों के महानायकों का स्मरण करते हैं, उन्हें मिथकों की तरह उसके उदात्त जीवन मूल्यों के लिए प्रयोग करते हैं। इस माध्यम से वे भावी पीढ़ी को अतीत पर गर्व करने के साथ अतीत में हुई त्रुटियों से शिक्षा लेकर भविष्य को उज्जवल बनाने का संदेश देते हैं। उनके गीतों में राम, कृष्ण, भीष्म, शकुनि, हस्तिनापुर, गांधार, गांधारी, दु:शासन, द्रोण, कृप, विदुर आदि विषय और प्रसंगों सहित सम्मिलित हैं। 

                        राष्ट्रीय भावधारा का चौथा चरण बलिदानी आत्मोत्सर्गियों की वीरगाथाओं का गायन है। हर देश में यह परंपरा है किन्तु भारत में एक परंपरा राज्याश्रय से अधिक लोकाश्रय में पाली-बढ़ी है। विदेशों में शोकगीत रचकर श्रद्धांजलि देने के विपरीत भारत में पराक्रम और बलिदान को स्मरण कर गर्वानुभव कर वीर गाथाएँ गाने की लोक परंपरा बुंदेलखंड में आल्हा, राजस्थान में रासो, पंजाब में वीर काव्य आदि में सहज दृष्टव्य है। कवि आकाश की कलम राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी, वीरांगना लक्ष्मीबाई, नेताजी सुभाष चंद्र बोस, महारानी दुर्गावती, अमर शहीद तात्या टोपे, महावीर राणा प्रताप, जनप्रिय अटल जी आदि के प्रति शब्द सुमन समर्पित कर स्वयं को धन्य करते हैं। भावातिरेक में वे इसके आविर्भाव के कर्म का पालन भी आवश्यक नहीं मानते।

                        राष्ट्रीय भावधारा की पाँचवी सीढ़ी विसंगतियों पर दृष्टिपात करना है। जिस तरह आत्मोन्नयन का पथ आत्मावलोकन तथा आत्मालोचन से हो होकर जाता है, उसी तरह राष्ट्रोन्नयन का लक्ष्य बिना राष्ट्रालोकन और राष्ट्रालोचन के नहीं पाया जा सकता। कवि आकाश अनेक गीतों-ग़ज़लों में विसंगतियों का उल्लेख करते हैं- 

कहते हों चाहे हिन्दू है मादरे वतन ये 
एहसान नहीं इसका हक मानते हम अपना 
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लेकिन तुमने जिन पुत्रों से प्यार किया था 
जो थे रूठ-रूठकर तुमसे तुम्हें मनाते 
पल भर को तुम आज यहाँ आकर यह देखो 
तुमसे पाई आजादी किस तरह बिताते?     
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अब जंगल का राज बन चुकी है स्वतंत्रता 
यह जनतंत्र नहीं है, केवल भीड़तंत्र है 
नेता, सत्ता स्वार्थपूर्ण स्वच्छंद हर जगह 
देश चेतना बैठी होकर अब अतन्त्र है   
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हँसते-हँसते कटा दिए बलिवेदी पर शीश / भारत माँ से पा लिए पुत्रों ने आशीष 
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हृदय में संत्रास की नूतन फसल पलती रही / पीर की लौ घुप अंधेरों में सतत जलती रही 
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चल रही है बहस लेकिन मुद्दआ कोई नहीं है / नतीजों के निकलने का सिलसिला कोई नहीं है 
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जिन दिलों में प्यार था; विश्वास था, उन दिलों में बसा अब आक्रोश है 
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मंज़िल नहीं मिली है, ताबीर की किसी को / ख्वाबों के सारे बादल, अश्कों में ढल गए हैं 
                        राष्ट्रीय भावधारा का सातवाँ दीपक विसंगति निवारण, नव निर्माण, राष्ट्र विकास और नवाशा का उजाला बिखेरता है। इस प्रकाश में उज्जवल भविष्य के सपनों को साकार किया जा सकता है - 

आँधी-तूफ़ान खड़े बहुत से / माझी चला रहे पर नाव 
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वो रावण बने दस सिरों के अगर / खड़े राम बन हम मचलते हुए 
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चाँटा सहकर गाल दूसरा आगे नहीं किया / अब भारत ने गाँधी-पथ पर चलना छोड़ दिया 
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पूरित दिशा-दिगंत हैं, हर मन में उत्साह / खड़े रहें संकल्प बन, करने हर निर्वाह 
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राहों को रोककर खड़े पर्वत ढहा दिए / मिलकर नई आशाओं के दीपक जला दिए 
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माता से मातृभूमि से उसको बहुत है प्यार / करता है सबके सामने हर बार ही स्वीकार 
हों पैर माँ के या रहें संसद की सीढ़ियाँ / उसने झुका के सर सदा सम्मान किया है
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                        'चलो! आज आजादी को हम घर ले आएँ' सनातन सलिला नर्मदा के सलिलामृत से विश्ववाणी हिंदी के राष्ट्रभक्ति साहित्य का अभिषेक ही नहीं करता अपितु उसे अधिक समृद्ध भी करता है। कहीं-अखीं किसी व्यक्ति, दल या विचारधारा विशेष के प्रति लगाव दर्शाती चंद रचनाओं/पंक्तियों का परायण उसी भावभूमि में किया जाना अभीष्ट है जिसमें इसका प्रणयन हुआ है। पक्षधरता विशेष से मुक्त रहकर राष्ट्रीय भावधारा सर्व स्वीकार्य होती है। ऐसी कृतियों की दिव्यता का दर्शन छिद्रान्वेषणी मनोभूमि से नहीं किया जा सकता। मनोहर रचनाओं से संपन्न यह कृति बच्चों, किशोरों, युवाओं ही नहीं प्रौढ़ों और वृद्धों के लिए भी पत्नी है। लोकतंत्री भारत के जनप्रतिनिधियों और प्रशासनिक अधिकारियों को इसका पारायण नित्य प्रति करना चाहिए। प्रजातन्त्री भारत की प्रजा के संवैधानिक अधिकारों का संरक्षण और संवर्धन इन रचनाओं में अन्तर्निहित है। गणतंत्री भारत के विविध गणों (प्रांतों) का सम्मिलित महिमा गायन कल से कल तक के संदर्भों में अनुभव किया जाना चाहिए। सारत:, 'इन' सेवी 'तंत्र' तभी संभव है जब 'जनप्रतिनिधि' स्वयं 'जनसेवक' होकर गौरवान्वित हो। यदि 'जनप्रतिनिधि' 'जनस्वामी' बनने की राह पर जाएगा तो 'तंत्र' 'तानाशाही' की और उन्मुख होने लगेगा। कवि आकाश यह मुखर होकर स्पष्ट रूप से यह नहीं कहते पर ऐतिहासिक और वर्तमान प्रांगण और घटनाओं का उल्लेख कर परोक्षत: संकेतित करते हैं। कवि और कविता के लिए यही अभीष्ट भी है। इस सार्थक और सर्वोपयोगी सारस्वत अनुष्ठान हेतु कवि मनोहर चौबे जी और उनकी सहयोगिनी सहधर्मिणी शीला जी को साधुवाद। इस कृति निश्चय ही लोकप्रिय होगी। 
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संपर्क- विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१
चलभाष: ९४२५१८३२४४, ईमेल: salil.sanjiv@gmail.com
       

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