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शुक्रवार, 26 अगस्त 2022

सूने पड़े सिवान, इसाक अश्क़



कृति चर्चा :
''सूने पड़े सिवान'' : कहता गीत बखान
चर्चाकार : आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*

[कृति विवरण : सूने पड़े सिवान, इसाक अश्क़, वर्ष १९७७, पृष्ठ ११०, चित्रलेखा प्रकाशन, १४७ सोहबतिया बाग़, इलाहाबाद ६]

हिंदी गीत और उर्दू शायरी के दो अश्वों को की लगाम समान सामर्थ्य से साधकर उन्हें सरपट दौड़ाने का कमाल जिन चंद साहित्यकारों ने वर्षों-वर्ष किया और दोनों जगह मान्यता भी पायी उनमें मालवांचल के गीतकार-प्रकाशक इसाक अश्क़ उल्लेखनीय हैं। नर्मदांचल के गीतकारों ने नवगीत का गीत से भिन्न अस्तित्व स्वीकार नहीं किया, उनमें इसाक अश्क़ हैं बावजूद इसके कि वे मूलत: उर्दू रचनाकार हैं और उनके गीतों में वे सब तत्व और प्रवृत्तियाँ हैं जिन्हें उन गीतों के रचनाकाल में नवगीत हेतु आवश्यक कहा जाता रहा तथापि उन्हें न नवगीतकार माना गया, न इसाक अश्क़ जी ने इस हेतु प्रयास किया। इसका कारण सम्भवत: यह रहा कि नर्मदांचल साधना भूमि है। यहाँ के रचनाकारों में खेमेबाजी, मठाधीशी और अपने आपको नायक बनाने की प्रवृत्ति बिहार-उत्तर प्रदेश-पंजाब क्षेत्र की तुलना में नगण्य है। 'सूने पड़े सिवान' इसाक अश्क का प्रथम और सम्भवत: एकमात्र गीत संकलन है। इसके अतिरिक्त 'फिर गुलाब चटके', 'काश हम भी पेड़ होते' तथा 'लहरों के सर्पदंश' तीन कविता संग्रह हैं। 'सूने पड़े सिवान' को मध्य प्रदेश शासन के खेल-कूद एवं युवा कल्याण मंत्रालय द्वारा वर्ष १९७६-७७ में राज्य स्तर पर ७०० रु. के द्वितीय पुरस्कार से पुरस्कृत किया जान उस समय की उल्लेखनीय उपलब्धि है। लगभग ४५ वर्ष पूर्व लिखे गए ५१ गीतों के इस एक मात्र गीत संग्रह से इसाक अश्क़ जी को गीतकार के रूप में आज तक याद किया जाना, उनकी रचना सामर्थ्य और गीतों की सार्थकता को खरा प्रमाणित करता है।


हिंदी के सरस गीतकार स्व. नरेंद्र शर्मा के शब्दों में "गद्य जब असमर्थ हो जाता है, तब कविता जन्म लेती है और कविता जब असमर्थ हो जाती है तब गीत जन्म लेता है।" नवगीतकार कहते हैं कि गीतकार जब 'स्व' से मुक्त होकर 'सर्व' को अनुभूत और अभिव्यक्त करता है तब नवगीत जन्म लेता है। इसके साथ एक प्रश्न भी- क्या कोई अनुभूति नितांत व्यक्तिगत होती है, इतनी व्यक्तिगत कि वैसी अनुभूति पहले किसी को न हुई हो बाद में किसी को न हो? यह भी कि क्या कोई सार्वजनिक अनुभूति ऐसी हो सकती है जिसे व्यक्तिगत स्तर पर अनुभव नहीं किया गया हो? इन दोनों ही प्रश्नों का उत्तर 'नहीं' ही हो सकता है। स्पष्ट है कि गीत को ही नवगीत के नाम से नवगीतकार परोसते और खुद को नवविधा का पैरोकार समझकर खुश होते रहे हैं।


नर्मदांचल के गीतकारों ने नवगीत का गीत से भिन्न अस्तित्व स्वीकार नहीं किया। नर्मदांचल के सशक्त गीतकारों ठाकुर जगमोहन सिंह (४.८.१८५७-४.३.१८९९), माखन लाल चतुर्वेदी (४.४.१९८८-३०.१.१९६८), ठाकुर लक्ष्मण सिंह चौहान (१८९४-३०.८.१९५३), रामानुज लाल श्रीवास्तव 'ऊँट बिलहरीवी' (२८.८.१८९८-२६-४-१९७६), केशव प्रसाद पाठक (अप्रैल १९०४-३.१०.१९५६), सुभद्रा कुमारी चौहान (१४.८.१९०४-१५.२.१९४८), ज्वालाप्रसाद ज्योतिषी (१४.३१९०८-१०.९.१९९७), भवानी प्रसाद तिवारी (१२.२.१९१२-१३.१२.१९७७), भवानी प्रसाद मिश्र (२९.३.१९१३-२०.२.१९८५), नर्मदा प्रसाद खरे (६.१०.१९१३-१२.१२.१९७५), गोविन्द प्रसाद तिवारी (६.२.१९१४-९.८.१९७९), रामेश्वर शुक्ल 'अंचल' (१.५.१९१५-१२.१०.१९९५), पन्नालाल श्रीवास्तव 'नूर' (५.१२.१९१५-११.११.१९९१), डॉ. चंद्रप्रकाश वर्मा (६.१.१९१७-२६.१२.१९९७), इंद्रबहादुर खरे (१६.१२.१९२१-१४.१२.१९५२), रामकृष्ण श्रीवास्तव (४.१०.१९२६-२९.९.१९६७), यतीन्द्रनाथ राही (३१.१२.१९२६), रामकृष्ण दीक्षित 'विश्व' (५.१२.१९२७-१०.६.२००३), सुरेंद्र शुक्ल 'मृण्मय', (१.१२.१९२९-१७.१.२०१०), जवाहरलाल चौरसिया 'तरुण' (१५.१२.१९३२-६.१२.१९१६), मधुकर खरे, डॉ. रामशंकर मिश्र (१३.८.१९३३-), चन्द्रसेन 'विराट' (३.१२.१९३६-१६.११.२०१८), डॉ. गार्गीशरण मिश्र 'मराल (४.१२.१९३६-१९अक्टूबर २०१८), कृष्ण कुमार चौरसिया 'पथिक' (५.५.१९३७), डॉ. राजकुमार तिवारी 'सुमित्र' (२५.१.१९३८), कृष्ण कुमार श्रीवास्तव 'श्याम' (१८.४.१९४१-२८.११.२००८) आदि ने गीत से भिन्न नवगीत का अस्तित्व स्वीकार ही नहीं किया। इनकी बहुत सी गीति रचनाओं में नवगीतात्मकता होने के बावजूद इनकी मान्यता थी कि नवगीत स्वतंत्र विधा नहीं है। सांगली महाराष्ट्र में स्नातकोत्तर महाविद्यालय में हिंदी के विभागाध्यक्ष रहे डॉ. विजय महादेव गाड़े के शब्दों में "नवगीत तथा ग़ज़ल को काव्य मानें या न मानें , इस पर समीक्षकों में गंभीर मतभेद हैं.नवगीत एवं ग़ज़ल को काव्य मानने के लिये बहुत सारे आलोचक तैयार नहीं हैं। १ नर्मदांचल की परंपरा अनुसार मुझे भी गीत और नवगीत का पार्थक्य स्वीकार नहीं है- 'गीत और / नवगीत नहीं हैं / भारत पाकिस्तान' । इसीलिए मेरे संकलनों 'काल है संक्रांति का' और 'सड़क पर' पर 'गीत-नवगीत संग्रह' लिखा गया है। लगभग १२० वर्ष की नर्मदांचली गीत परंपरा के बीच में रचित ''सूने पड़े सिवान'' पर इसाक अश्क़ जी ने यह भी नहीं लिखा।


''सूने पड़े सिवान'' में गीतकार प्रथम गीत 'मधुमास' से 'स्व' से 'सर्व' की ओर जो यात्रा आरंभ करता है वह अंतिम गीत 'चुभन' तक अबाध जारी रहती है। अच्छे से अच्छा चीर-फाड़ विशेषज्ञ भी गीत पदों और गीत पंक्तियों में से 'स्व' और 'सर्व' को अलग-अलग नहीं कर सकेगा, वस्तुत: ये भिन्न प्रतीत होते हुए भी अभिन्न हैं।


गीतों से मुखरित कर डालें (अरिल्ल)

चलों प्यार की प्यास को

इस नीले आकाश को

अपनों के इतिहास को

जीवन के उपहास को

पेड़ों की मदभरी साँवली (सायक )

शाखाओं पर डोलती

सूरज की रंगीन किरण कुछ (अड़िल्ला)

संकेतों में बोलती

सागर में प्रतिबिंबित होती (अरिल्ल)

तट की मौन तलाश की

जग के हास-विलास को

श्वासों के विश्वास को

इंद्रधनुष जैसी इच्छाएँ (अरिल्लवत)

अपने मन में साधकर

यौवन की हर एक बात को (सिंहवत)

फिर धीरे से याद कर

पश्चिम से छन-छन कर आती (अरिल्ल)

इठलाती वातास को

सुमनों के अधिवास को

क्षण भर के मधुमास को

कलियों के भुजपाश को


यह गीत (शेष भी) शिल्प की दृष्टि से चमत्कृत करता है। इसे लिखनेवाला गीतकार उर्दू की पारिवारिक और मालवी की सामाजिक पृष्ठभूमि से है। गीत में प्रयुक्त हिंदी की शुद्धता अपनी मिसाल आप है। आज से ४-५ दशक पूर्व इसे रचा गया, मुखड़े में ही 'प्यार की प्यास' को वैयक्तिकता से मुक्त कर 'अपनों के इतिहास' से जोड़ते हुए 'जीवन के उपहास' तक ले जाना असाधारण है।


प्रथम अंतरे में सांवली शाखाओं पर डोलती रंगीन सूर्य किरण, सागर की गरजती लहरों में प्रतिबिम्बित होती, तट की मौन तलाश, जग के हास-विलास और श्वासों के विश्वास को व्यक्त करती है। दूसरे अंतरे में गीतकार इंद्रधनुष जैसी सतरंगी इच्छाओं, यौवन की स्मृतियों, पश्चिम से आती इठलाती वातास, कलियों के भुजपाश, सुमनों के अधिवास और क्षणिक मधुमास को जोड़ता है। यहाँ 'पश्चिम' शब्द का प्रयोग बहुत कुछ बिना कहे कह जाता है, इसे बदल कर 'पूरब' करते ही वह अनकहा नष्ट हो जाता है। गीतकार की परिपक्वता यही है कि हर शब्द अपने स्थान पर आभूषण में नग की तरह जड़ा हुआ है, जिसे हटाते ही सौंदर्य में न्यूनता हो। गीत का आरम्भ १६-१३ पर यति लिए एक पंक्ति से है, जिसके साथ १३-१३ मात्रिक ३ पंक्तियाँ संलग्न हैं। १३ मात्रिक पंक्तियाँ उल्लाला छंद की हैं जिनमें ग्यारहवीं मात्रा लघु रखने के विधान का पालन है। संस्कारी जातीय १६ मात्रिक पंक्तियों में अरिल्ल, अड़िल्ला तथा सायक छंदों के साथ अप्रचलित अरिल्लवत तथा सिंहवत छन्दों का प्रयोग है। अनुप्रास अलंकार की मनोहर छटा पूरे गीत में व्याप्त सरसता में वृद्धि करती है। 'सुमनों' में श्लेष अलंकार की सुंदर प्रस्तुति है। 'छन-छन' में पुनरुक्ति अलंकार है। कलियों के भुजपाश, सुमनों के अधिवास, इठलाती वातास, श्वासों के विश्वास, प्यार की प्यास आदि अभिव्यक्तियों में ध्वनि-खंड की आवृत्ति नाद सौंदर्य की प्रतीति कराता है। कुल मिलाकर पूरा गीत रस-माधुर्य की सलिला प्रवाहित करता है।


'संगमरमर' शीर्षक गीत में श्रृंगार की सरसता के साथ ओंठ की टेसू से तुलना मौलिक अछूती उपमा है-

'ओंठ टेसू से खिले

जब बात कोई बोलते हैं

एक खुशबू सी हवा में

और मन में घोलते हैं।'


नवगीतों का वैशिष्ट्य 'व्यंजना' कही जाती है। 'फूल शीर्षक समूचा गीत ही व्यंजनात्मकता से परिपूर्ण है। कुछ पंक्तियाँ का आनंद लें-


उनको हम कैसे दें गुलाब के फूल-सुर्ख

पतझारों से जिनका कोई संबंध नहीं

जिनने जीवन के गमलों में

केवल बबूल ही बोए हों

जिनने अवसर की गंगा में

काले-कलुषित कर धोए हों

उनको हम कैसे दें बहाव में साथ आज

मँझधारों से जिनका कोई संबंध नहीं


इसाक अश्क़ जी मौलिक अभिव्यक्ति सामर्थ्य के धनी हैं। वे शब्दों का संयोजन इस तरह करते हैं कि बात दूर तलक चली जाती है। सामान्य शब्दों को विशिष्ट अर्थ और भाव से संपन्न करने में उनका सानी नहीं है। बतौर बानगी - बंद नयनों में चकित-विस्मित गगन, मुँहजोर आवारा अँधेरे, होठों की मुँहजली प्यास, सुहास के छंद-गीत, रेगिस्तानी प्यास होंठ की, रूप-रस-गंध के तीज-त्यौहार, हँसी तुम्हारी हंस कुमुदनी, शब्द रहे अक्सर संकोची, स्वप्न-मिट्टी के खिलौने, दुर्दशा पर व्योम विहँसा-मुस्कुराया,रोम-रोम से गंध विदेही, बिजुरी की स्वर्णाभ चमक, अन्तर में घनानंद / होंठ पर बिहारी, अलस्सुबह की धूप छरेरी, तुम पूनो के सुभग चाँद सी, मन के मरु, दानवी दुराव, कलकण्ठी सा कंठ, चुप्पी के चंग, गंधायित फेरे, सुधियों के फेरे, तितलीवत उम्र, गीत-विहग, विरहिन का विगलन, जुगनू की लड़ी, दिशियों के दिवस, मादल की थापें मदमाती, श्वासों की विव्हल सितार आदि का उल्लेख किया जा सकता है।


इन गीतों में जगह-जगह जन-जीवन में प्रचलित हिंदी मुहावरे बहुत खूबसूरती के साथ प्रयोग हुए हैं।

'जिस जगह हो

भीड़ बुद्धिहीन फ़ैली

उस जगह मुँह खोलना

बिलकुल मना है',

या -

'उनने ज़ख्म

छुए ऊँगली से

नमक छुलाया',

अथवा-

'जिसको छुआ हुआ वह मिट्टी तिल सबके सब ताड़ हो गए'

और

'हम इतने उन्मुक्त कहाँ जो

सच डंके की चोट कह सकें' आदि दृष्टव्य हैं।


इन गीतों में विविध भाषाओँ के शब्दों का प्रयोग पूरी स्वाभाविकता के साथ सही अर्थ में किया जाना गीतकार की शब्द सामर्थ्य का परिचायक है। संस्कृत निष्ठ शब्दों में अधिवास, वातास, सुरभि, अयाचित, उद्दाम, समीचीन, अन्तस्, ग्रहणशील, गंधाश्रित, अंतस्तल, मलयानिल, निद्रित आदि के साथ गुला, छुवन, बरजोरी, जैसे देशज शब्दों का गंगो-जमुनी मिश्रण पाठकानंद में वृद्धि करता है। लोक में प्रचलित अन्य भाषाओँ अरबी (अलस्सुबह, आदमकद, औकात, इम्तहान, कद्दावर, काफी, कैद, खातिर, ग़ज़ल, बिसात, महक, लिहाज, वक़्त, हक़, हैरानी आदि) फ़ारसी (आसान, खुद, खुशबू, ख़ुशी, खामोश, ज़ख्म, ज़हर, तल्ख, नादानी, नाराज, रोशनदान, सुर्ख, साजिशें आदि) का प्रयोग इसाक अश्क़ बेहिचक करते हैं। उल्लेखनीय बात यह है कि अंग्रेजी का एक भी शब्द प्रयोग नहीं किया गया है।


'सूखे पड़े सिवान' में कुछ मुहावरों का उपयोग किया गया है। मुहावरों को ज्यों का त्यों उपयोग न कर, उन्हें गीत की लय में ढालने के लिए आवश्यक परिवर्तन किये गए हैं। इससे मुहावरे का मूल अर्थ यथावत रहते हुए सरसता वृद्धि हुई है। कुछ उदाहरण देखें- 'जिसको छुआ हुआ वह मिट्टी' (छूते ही मिट्टी होना), 'तिल सबके सब ताड़ हो गए' (तिल का ताड़) अथवा हम इतने उन्मुक्त कहाँ जो / सच डंके की चोट कह सकें (डंके की चोट) आदि।


इन गीतों में पुनरुक्ति अलंकार का प्रयोग प्रचुरता से है। सुख-सुख, सूख-सूख, ख़ुशी-ख्सुशी, खोल-खोल, बहुत-बहुत, ऊंचे-ऊंचे, कटे-कटे, थका-थका, कटे-कटे, थर-थर, चहका-चहका, अंग-अंग, महका-महका, छलक-छलक, रोम-रोम, पुलक-पुलक, खिल-खिल, दिप-दिप, कोना-कोना, बड़ी-बड़ी, मुद-मुद, शब्द-शब्द, पोर-पोर, युग-युग, गाँव-गाँव, शिरा-शिरा, रग-रग, अनु-अनु, लीक-लीक, उमग-उमग, दूर-दूर, के-के, आँगन-आँगन, दिशा-दिशा, पग-पग, डग-डग, लौट-लौट आदि। इनमें से कुछ बहु प्रचलित हैं, कुछ नए हैं, कुछ प्रश्न वाचक भी हैं। इनके प्रयोग से एक और सरसता वृद्धि हुई है दूसरी और कथ्य भी स्पष्ट और सबल हुआ है। विरोधाभास अलंकार - इंगितों के मुखर-मौन संसार का, कहने को स्वाधीन भले हम / लेकिन हम स्वाधीन नहीं हैं, अनजाना-अजनबी हमारा / अपना हमें शहर लगता है, खुद पाँव चले / पंगु मौसम, खुद हार / जीत को वर लाये आदि में दृष्टव्य है।


गीतों की भाषा को मुहावरेदार चाशनी में पागने के लिए शब्द-युग्मों का प्रयोग यथावश्यक किया गया है। ये शब्द युग्म विविध प्रकारों के हैं। काले-कलुषित, नख-शिख, सलज-सुर्ख, तीज-त्यौहार, सुख-सपनों, रचने-बुनने, विहँसे-झूमे, कुशल-क्षेम, फले-फूले, लिपे-पुते, घर-आँगन, 'कड़वी-तल्ख', 'रास्ते-गली', 'हाट-बाजार' आदि में द्वितीय पद प्रथम पद का पूरक है। 'साधु-संत', 'शैल-शिखर', 'हार-जीत', 'दूर-पास', 'कुठाँव-ठाँव', 'यश-अपयश', 'डूबा-उतराया' आदि में दोनों शब्द परस्पर विरोधी हैं। 'घर-आँगन' जैसे युग्म के दोनों पर पदार्थवाचक संज्ञाएँ हैं। 'मादल-मृदंग' दो वाद्य यंत्र हैं। 'जाना-समझा', 'रची-बसी' आदि में दो भिन्न क्रियाएँ हैं। 'पसंद-रूचि', 'निरर्थक-बेमानी', 'सौध-भवन', 'भूली-बिसरी' आदि पर्यायवाची शब्दों का युग्म है।'दौड़-धूप' तथा 'चहल-पहल' में दोनों शब्दों के मूल अर्थ विलुप्त होकर दोनों मिलकर भिन्नार्थ की प्रतीति करा रहे हैं। 'आपा-धापी' में पहले शब्द 'आपा' का अर्थ आत्म-नियंत्रण (हिंदी) तथा बड़ी बहिन (उर्दू) दोनों लुप्त हो गये हैं, 'धापी' शब्द निरर्थक है किन्तु दोनों मिलकर सर्वथा भिन्नार्थ की प्रतीति करा रहे हैं। 'धूल-धुएँ' के दोनों पद पर्यावरण प्रदूषण से संबद्ध हैं। 'दीन-हीन' व्यक्ति की दरिद्रता को इंगित करते हैं। 'ठीक-ठाक' में उत्तर पद निरर्थक है। 'जोड़-तोड़' के दोनों पद विपरीत अर्थ खोकर तीसरी भिन्न क्रिया का संकेत कर रहे हैं। 'अधखुले-खुले' तथा 'रख-रखाव' में क्रिया प्रथम पद से आरंभ होकर द्वितीय पद में पूर्ण हो रही है। 'भूख-बेकारी' में पहला शब्द दूसरे शब्द का परिणाम है अर्थात क्रम दोष है। 'रास्ते-गली' में पहला पद बड़ा दूसरा छोटा है जबकि 'हाट-बाजार' में पहला पद छोटा दूसरा बड़ा है। तीन शब्दों के युग्म 'रूप-रस-गंध', खुद-ब-खुद आदि अपेक्षाकृत कम हैं। इसाक अश्क़ जी ने इन गीतों में कुछ ऐसे शब्द-युग्म भी प्रयोग किये हैं जो उस समय अल्प प्रचलित थे अथवा उन्होंने खुद गढ़े हों। 'अनुप्रेरित-अनुस्यूत', 'मुखर-मौन', 'मन-मानस', ग्रहणशील-श्रवणशील, उनमान-उदास-अवसन्न, पनघट-पगडंडी, रेगिस्तानी प्यास, काव्य-जुन्हाई जैसे अप्रचलित और मौलिक शब्दयुग्मों ऐसे ही हैं। कृति में भिन्न शब्द रूप होने का दोष भिन्नता के दोष ओंठ और होंठ दोनों का प्रयोग होने से हो गया है जिसे सहजता से दूर किया जा सकता है।


इसाक अश्क़ जी की अनूठी अभिव्यक्तियाँ 'सूने पड़े सिवान' की जान हैं। मन के मरू, चिड़ियों जैसे दिल, चुप्पी के चंग, हिमकर सा इठलाना, मन की मुंडेर, सुधियों के दीप, विरहन का विगलन, नवोढ़ा की नाईं आदि पाठक के रसानंद में माधुर्य वृद्धि करते हैं। 'सूखे पड़े सिवान' के गीत प्रगतिशील कविता के ग्राम में पड़े सूखे (रस के अकाल) को समाप्त कर गीत की रसवंती प्राणवायु का संचार करते हैं। जिस समय 'गीत के मरण' की घोषणा की जा रही थी तब इसाक अश्क़ जैसे गीतकार अपनी मातृभाषा उर्दू के स्थान पर हिंदी गीत के मुरझाते पौधे को अपनी सृजन ऊर्जा से सींचकर नव पल्लवन में सहायक हो रहे थे। इस अभूतपूर्व योगदान के लिए वर्तमान हिंदी गीतकारों को उनके प्रति कृतज्ञ होना चाहिए और यह भी स्मरण रखना होगा कि हिंदी के उन्नयन के इस सारस्वत यज्ञ में अभियंता-गीतकार चन्द्रसेन 'विराट' इसाक अश्क़ के परामर्शक और प्रेरणास्रोत थे। इन दोनों मित्रों ने मालवा की उर्वर भूमि में हिंदी गीतों की फसल उगाई जो बालकवि बैरागी जैसे मधुर और लोकप्रिय मालवी गीतकार की आंधी में भी लहलहाती रह सकी।

संदर्भ :

१. समीक्षा के अभिनव सोपान, सं. डॉ. पशुपतिनाथ उपाध्याय , पृष्ठ ६८।

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संपर्क: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष : ९४२५१८३२४४, ७९९९५५९६१८, ईमेल: salil.sanjiv@gmail.com

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