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मंगलवार, 9 अगस्त 2022

संगीता भरद्वाज

पुरोवाक
मैत्री की यात्राएँ : घुमक्कड़ बनाएँ
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
'आदमी मुसाफिर है, आता है, जाता है
आते-जाते रस्ते में, यादें छोड़ जाता है'

                         गीतकार आनंद बख्शी द्वारा लिखित चलचित्र 'अपनापन' में लता-रफ़ी द्वारा गाया गया, अभिनेता सुधीर दलवी, सुलक्षणा पंडित, निवेदिता, जितेंद्र आदि पर चित्रित इस गीत का दूसरा पहलू यह है कि आदमी यादें साथ छोड़ने के साथ-साथ यादें ले भी आता है जो ज़िन्दगी में पाथेय बन जाती हैं। डॉ. संगीता भरद्वाज 'मैत्री' लिखित यह पुस्तक यात्राओं में संजोई गई सुधियों की मंजूषा है, जिसे वे अपने पाठकों के लिए खोल रही हैं। सुखद यात्राओं का सबसे अधिक महत्वपूर्ण तत्व है सहभागिता, सहिष्णुता हुए सद्भाव।

यूँ ही कट जाएगा सफर साथ चलने से
कि मंज़िल आएगी नज़र साथ चलने से

                         समीर, नदीम श्रवण, कुमार सानू और अलका याग्निक इस गीत में यात्राओं को सुखद बनाने का सूत्र बता रहे हैं।'मैत्री' के यात्रा वर्णन सहभागियों के मध्य जिस सहकार, स्नेह हुए सम्मान के भाव से सराबोर हैं काश! वह सियासत और संसद/विधायिकाओं में भी हो तो देश के नवनिर्माण का सफर आम जन के लिए सुखद हो सके।

                         यह पुस्तक सामान्य यात्रा वृत्त होकर रह जाता यदि इसकी भाषा सरस, सरल, सहज न होती। संगीता यात्राओं में घट रही घटनाओं का इतना जीवंत वर्णन करती हैं कि पाठक के मन में उन स्थानों पर जाने की इच्छा उत्पन्न हो जाती है। उनकी यह कला चलचित्र 'मधुमती' (१९५८) मुकेश द्वारा गाए गीत की याद दिलाती है-

सुहाना सफर और ये मौसम हसीं
हमें डर है हम खो न जाएँ कहीं

                         वाल्टर हेगेन कहते हैं- ''न जल्दी करो न परेशान हो क्योंकि आप यहाँ पर एक छोटी सी यात्रा पर हो, इसलिए निश्चिन्त होकर रुको और फूलों की खुशबू का आनंद लो।'' मेरा मत है-

यायावर साँसों मत ठहरो, आसों का दम घुट जाएगा
घाट-घाट जब पग भटकेगा, अपने सपने जी पाएगा
नेह नर्मदा, स्नेह सलिल से सराबोर कलकल करती है
जो कलरव ध्वनि नाद सुनेगा, वह आनंदित हो गाएगा

                         संगीता ने भोपाल, दिल्ली, बागडोगरा, सिलीगुड़ी, गंगटोक, दार्जिलिंग, सियालदह, कोलकाता, पोर्टब्लेयर, अंडमान, पोर्टब्लेयर, चेन्नई, बेंगलुरु, भोपाल यात्रा के पड़ाव-पड़ाव पर प्रकृति माँ से आनंद पाया है। जहाँ जो-जैसा देखा उसे जैसे का तैसा शब्दों में बयान करना आसान नहीं होता, संगीता छोटे से छोटे विवरणों और वर्णनों को शब्दों की माला में इस तरह पिरोती है कि स्थान शब्द में और शब्द स्थान में नीर-क्षीर की तरह घुल-मिल जाते हैं। याद आता है चलचित्र परिचय के लिए  गुलज़ार  लिखित, किशोर दा द्वारा गाया गया,  जितेन्द्र-जया भादुड़ी और बाल कलाकारों पर फिल्माया गया गीत- 

मुसाफिर हूँ यारों, न घर है न ठिकाना 
मुझे चलते जाना है, बस चलते जाना 
एक रह रुक गई तो और जुड़ गई 
मैं मुड़ा तो साथ-साथ राह मुड़ गई  
हवा के परों पर मेरा आशियाना 

                         हवा के परों पर पहली बार उड़ते हुए दिल्ली से बागडोगरा पहुँचना जितना रोमांचक था उससे अधिक रोमांचक थी सिलीगुड़ी से गंगतोक की यात्रा के बीच रुपहली तीस्ता एयर रणजीत नदियों से नर्मदा सुता की मुलाकात। संगीता की शब्द सामर्थ्य का जादू पाठक को मंत्रमुग्ध कर देता है। भाषा और शब्दों से गलबहियाँ डालकर बातें करना संगीता ने पितृश्री तरुण जी और चाचा द्वय पथिक जी और मधुर जी से सीखा है-  ''हम रास्ते में कई विहंगम दृश्य और निराली नयनाभिराम छटाओं को सदा के लिए अपने कैमरे में कैद करते गए। एक ओर सैंकड़ों फ़ीट गहरी खाइयाँ, घाटियाँ कि जहाँ धरती के दर्शन भी दुर्लभ और दूसरी ओर आकाशीय ऊँचाई लिए पर्वत एवं ऊँचे-ऊँचे सघन वृक्षों की कतारें जो मधुर पवन के साथ लहराते से प्रतीत हो रहे थे हुए अपनी जानी-अनजानी खुशबुओं से हमारे हृदयों को बाँध रहे थे, अपनी और बुला रहे थे। वहीं कल-कल ध्वनि से घाटियों की ख़ामोशी में सुमधुर गीत सा गुनगुनाती 'तीस्ता' चंचल, अल्हड़ नवयौवना की तरह इठलाती सी निरन्तर बढ़ती जा रही थी। उसकी तरलता में हम स्वयं को घुलता हुआ सा महसूस कर रहे थे। छोटी-छोटी पर्वत श्रृंखलाएँ 'फर्न' आदि से लड़ी पड़ी थीं, पुष्पों का  अनोखा संसार सरे वातावरण में  खुशबुओं-सुगंधों का जादू बिखेरता; एक नई मस्ती व तरंग भर रहा था, हम रंगों और तरंगों के आगोश में खुद को गिरफ्तार पा रहे थे ....

                         .....हम हमारी जीवन दायिनी, पापहन्त्री पुनिता माँ नर्मदा जी को याद करने लगे। हमारे मध्य प्रदेश की जीवन रेखा माँ नर्मदा जो सिर्फ नदी नहीं बल्कि हम सबकी जीवनदात्री हैं। रेवा की ेश्वर दात्री, जनदुख हन्त्री, पवित्र धारा सदा हो कल्याणकारी और लोकधर्मिणी रही है हुए उसी पवित्र अनवरत बहती निर्मल धरा के जादुई स्पर्श से अंधियारे गोरे प्रतीत होते हैं, धुप चंदन सी महकती है हुए बैर और गैर का भाव ह्रदय से धूमिल होकर मनुष्य-मनुष्य में स्नेह उपजता है, गैरों में भी अपनेपन की आनंदानुभूति महसूस होती है।'' 

                         ऐसी मनस्थिति में मुसाफिर जाने-अनजाने, चाहे-अनचाहे गुनगुनाने लगता है-

गीत गाता चल ओ साथी गुनगुनाता चल
ओ बंधु रे! हँसते हसाते बीते हर घड़ी हर पल
गीत गाता चल ओ साथी गुनगुनाता चल
(गीत गाता चल, १९७५, गीत-संगीत रविंद्र जैन, गायक सतपाल सिंह। कलाकार सचिन-सारिका)


                         संगीत द्वारा लिखित दुर्लभ क्षणों में 'मंदिर की तस्वीर' उपशीर्षक के अन्तर्गत भारत-चीन सीमा पर अरदास करते मेजर (बाबा) हरभजन सिंह द्वारा अरदास अधूरी छोड़कर शत्रु को मुँह तोड़ उत्तर देते हुए अदृश्य हो जाने का वर्णन रोमांचक है। उनके द्वारा साल के ११ माह उस पोस्ट की रक्षा करना और साल में एक बार अवकाश लेकर घर जाने के समय उनके लिए रेलगाड़ी में शायिका आरक्षित कराई जाना उनकी आसंदी पर कोइ अन्य बैठने के प्रयास करे तो चाँटा लगना आदि पढ़कर स्तब्ध रह जाना पड़ता है। 'जो राह चुनी तूने, उसी राह पे राही चलते जाना रे'' -(गीतकार : एम. जी. हशमत, गायक : किशोर कुमार, संगीतकार : रविन्द्र जैन, चित्रपट : तपस्या,१९७५)

                         चाय बागान, दर्जिलिंग, कंचनजंघा, शिला उद्यान (रॉक गार्डन), तस्करी, हावड़ा पल, ट्राम, विक्टोरिया  मेमोरियल, अंडमान, निकोबार, सिंक आइलैंड, सेल्युलर जेल, भारतीय स्वातंत्र्य शहीदों की पराक्रम कथाएँ, जॉली वाय द्वीप, समुद्र गर्भ का तिलस्मी संसार, हैवलॉक आइलैंड आदि के जीवन वर्णन पठनीय हैं। इन वरबननाओं के साथ संगीता अपनी भावाभिव्यक्ति काव्य पंक्तियों में भी करती हैं जो सोने में सुहागा की तरह है।  संगीता लिखती हैं- 
ए चाँद! तू गगन में है, याकि पानी में 
अभी अपने बचपन में है, याकि जवानी में 
आज सचमुच है पास मेरे या सिर्फ मेरी कहानी में 
लहरों पर सवार है या फिर उसकी रवानी में 

                         इन वर्णनों को पढ़कर याद आता है एक और गीत (गीत-संगीत-गायन किशोर कुमार, दूर गगन की छाँव में)-
 
जहाँ दूर नज़र दौड़ाए, आजाद गगन लहराए 
जहाँ रंग-बिरंगे पंछी आशा का संदेसा लाएँ 
सपनों में पली, हँसती हो कली 
जहाँ शाम सुहानी ढले 
आ चल के तुझे मैं ले के चलूँ 
एक ऐसे गगन के तले 

                         यात्रा संस्मरणों में भांडवगढ़ अभयारण्य जो सफेद शेर के लिए जगत्प्रसिद्ध है, की सैर का वर्णन अनूठा है। 'ये रात ये चाँदनी फिर कहाँ, सुन जा दिल (वन ) की दास्ताँ', इस संस्मरण में विंध्याटवी के प्राकृतिक सौंदर्य, पेड़-पौधों, वन्य पशुओं आदि का जीवंत वर्णन मोहक है। 'जंगल में मोर नाचा किसने देखा' की कहावत अब सत्य नहीं रह गयी है, अब तो यह 'जंगल में मोर नाचा सबने देखा' हो गई है। अधखाया साँप और उसे उदरस्थ कर सुस्ताती चील, शेषशैया में बलुआ पत्थर में तराशे गए शैयाशायी विष्णु प्रतिमा और अंत में वनराज के दर्शन का वर्णन पढ़कर ऐसा लगता है यह आँखों के आगे घट रहा है। 

                         'यात्राओं की तलाश' वास्तव में यात्राओं के माध्यम से अपनी तलाश है, अपने अंदर छिपे गुणों और प्रवृत्तियों (धैर्य, साहस, उत्सुकता, सहिष्णुता आदि) की तलाश।  इस तलाश में संगीता और सभी स्वजन सफल हुआ हैं। अपने प्राप्य रसानंद को सबके साथ बाँटने की भावना से यह संस्मरण लिखे गए हैं। हिंदी वाङ्मय में संस्मरण साहित्य अपेक्षाकृत कम लिखा गया है, जो लिखा गया है उसमें अधिकाँश व्यक्तिपरक है। यात्रा वृत्तों में धार्मिक स्थलों को वरीयता दी जाती है। प्रकृति-वैभव को केंद्र बनाकर रचे गए साहित्य में इन संस्मरणों को सम्मान मिलेगा, ऐसा मेरा विश्वास है। संगीता का संदेश एक गीत (साहिर लुधियानवी, गायक : किशोर कुमार, संगीतकार : सपन चक्रवर्ती, चित्रपट : ज़मीर,१९७५) के माध्यम से अभिव्यक्त हुआ है-  
तुम भी चलो, हम भी चलें, चलती रहे ज़िंदगी 
ना जमीं मंज़िल, न आसमाँ, ज़िंदगी है ज़िंदगी 
***
[संपर्क - विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष: ९४२५१८३२४४, ईमेल: salil.sanjiv@gmail.com ]

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