ॐ
गीता अध्याय १०
यथावत हिंदी काव्यान्तरण
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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यथावत हिंदी काव्यान्तरण
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
हरि बोले फिर निश्चय ही हे ! महाबाहु सुन मेरी बात।
जो तुमको प्रिय मान कहूँ मैं, हितकारी तुझको यह तात ।१।
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नहीं जानते मेरा उद्भव, सुरगण या कि महा ऋषि भी।
मैं ही आदिमूल देवों का, और महर्षि गणों का भी।२।
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जो मुझको बिन जन्म-आदि भी, जाने लोक महेश्वर ही।
असम्मूढ़ वह मर्त्य जनों में, सब पापों से मुक्ति मिली।३।
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बुद्धि ज्ञान असम्मोह क्षमा सत, इन्द्रिय दमन मनोनिग्रह।
सुख-दुख; भाव-अभाव; भय भी अरु, अभय भाव भी बिन संशय ।४।
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भाव अहिंसा समता तप संतुष्टि दान यश अरु अपयश।
होते भाव प्राणियों के सब, मुझसे ही तो पृथक-पृथक।५।
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सात महर्षि; पूर्व के चारों सनक और चौदह मनु भी।
मुझमें भाव मनस से उपजे, जिनकी जग में प्रजा सभी।६।
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इस सारे ऐश्वर्य योग को, मेरे जो जानता सही।
वह निश्चय ही भक्ति लीन हो, तनिक यहाँ संदेह नहीं।७।
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मैं सबका उत्पत्ति हेतु हूँ, मुझसे सब उद्भूत हुए।
ऐसा जान भजें मुझको मतिमान भाव संयुक्त हुए।८।
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मुझमें रमे मुझे अर्पित जो, दें उपदेश परस्पर वे।
कथन करें मेरे बारे में, सतत प्रसन्न रहें रमते।९।
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सतत लीन रहनेवाले वे, प्रीतिसहित जो भजते हैं।
देता बुद्धियोग जिससे वे, मुझको ही पा सकते हैं।१०।
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उन पर निश्चय अनुकंपा कर, मैं अज्ञान जनित तम को।
हरता उस में बसे ज्ञान के, दीपक द्वारा भासवित हो।११।
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अर्जुन बोला 'परम् ब्रह्म हैं, परम धाम पावन भी हैं।
पुरुष शाश्वत दिव्य आदि सुर, आप अजन्मा विभु भी हैं।१२।
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कहें आपको ऋषिगण सारे, देवों के ऋषि नारद भी।
असित व देवल व्यास आप भी, यही बताते हैं मुझको'।१३।
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इस सब सच को मान रहा जो, मुझसे कहते हो केशव!
कभी न भगवन रूप आपका, जान सकें सुर या दानव।१४।
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खुद ही खुद के खुद को जानें, हे पुरुषों में उत्तम आप।
भूत-रुचिर हे!; भूत नाथ हे!, देव-देव जगस्वामी आप।१५।
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कहने योग्य अशेष आप ही, दैवी अपनी विभूतियाँ।
जिस विभूति से सब लोकों में, आप व्याप्त हो स्थित भी हैं।१६।
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कैसे जानूँ हे योगी मैं, सदा सतत चिंतन करता।
किन किन रूपों में पल पल मैं, याद आपकी हूँ करता।१७।
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विस्तार से निज योग शक्ति को, विभूतियों को जन-अर्दन।
फिर कहिए संतुष्टि श्रवण कर, हुई न मेरी अमृत को।१८।
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श्री बोले - 'हाँ, तुम्हें कहूँगा, दैवी निज ऐश्वर्यों को।
प्रमुख रूप से; हे कुरु उत्तम!, अंत न विस्तारों का है।१९।
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मैं ही आत्मा हूँ हे अर्जुन!, सब जीवों के हृदय बसा।
मैं उद्गम भी और मध्य भी, अंत सकल जीवों का हूँ।२०।
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आदित्यों में मैं हूँ विष्णु, द्युतियों में रवि अंशुमान।
मरीचि हूँ मरुतों में मैं ही, नक्षत्रों में मैं रजनीश।२१।
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वेदों में मैं सामवेद हूँ, देवों में वासव हूँ मैं।
और इन्द्रियों में मन हूँ मैं, जीवों में चेतना कहो।२२।
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रुद्रों में शंकर हूँ मैं अरु, यक्षों में कुबेर मैं हूँ ।
वसुओं में पावक हूँ मैं अरु, शिखरों में सुमेरु गिरि हूँ।२३।
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पुरोहितों में मुखिया हूँ मैं, पार्थ बृहस्पति मैं जानो।
सेनापतियों में स्कन्द कहो, जलाशयों में सिंधु कहो।२४।
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महर्षियों में भृगु ऋषि, शब्दों में एकाक्षर ॐ कहो।
यज्ञों में जप यज्ञ और हूँ सभी स्थिरों में हिम आलय।२५।
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पीपल सब वृक्षों में हूँ मैं, हूँ सुर-ऋषियों में नारद।
सब गंधर्वों में हूँ चित्ररथ, सिद्धजनों में कपिल मुनि।२६।
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उच्चैःश्रवा सभी घोड़ों में, जानो मुझे जलधि उत्पन्न।
ऐरावत गजराजों में मैं, तथा मनुष्यों में राजन।२७।
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अस्त्रों में मैं वज्र अजय हूँ, कामधेनु हूँ गायों में।
प्रजनन में हूँ कामदेव मैं, सब साँपों में वासुकि हूँ।२८।
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हूँ अनंत मैं सब नागों में, वरुण देव जल-जीवों में।
पितर गणों में जान अर्यमा, यम नियमनकर्ताओं में।२९।
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हूँ प्रह्लाद राक्षसों में मैं, काल दमनकर्ताओं में।
पशुओं में मृग इंद्र शेर हूँ, गरुण पंछियों में हूँ मैं।३०।
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वायु शुद्ध करनेवालों में, राम शस्त्रधारियों में।
मत्स्य जीव में मगर और मैं, नदियों में जाह्नवी नदी।३१।
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सृष्टि आदि हूँ, मध्य-अंत भी, निश्चय ही मैं हे अर्जुन!
हूँ आध्यात्म ज्ञान विद्या में, वाद सभी तर्कों में मैं।३२।
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सभी अक्षरों में अकार मैं, हूँ मैं द्वन्द समासों में।
निश्चय मैं हूँ काल सनातन, सृष्टा मैं ही हूँ ब्रह्मा।३३।
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मृत्यु सर्वभक्षी भी हूँ मैं, मैं ही सृष्टि भविष्यों की।
यश ऐश्वर्य वाक् नारी मैं, याद बुद्धि दृढ़ता धृति भी।३४।
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वृहत्साम साम गीतों में, गायत्री छंदों में मैं।
माहों में हूँ मार्गशीर्ष मैं, ऋतुओं में कुसुमाकर हूँ।३५।
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द्युत सभी छलियों में हूँ मैं, तेज जान तेजस्वियों में।
जय सब व्यवसायों में मैं ही, एसटीवी सत्ववादियों का मैं।३६।
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वृष्णिवंश में वासुदेव हूँ, और पांडवों में अर्जुन।
मुनियों में हूँ व्यासदेव मैं, कवियों में उष्ण कवि हूँ।३७।
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दंड दमन साधन में हूँ मैं, नीति विजय आकांक्षी में।
मौन रहस्यों में मैं ही हूँ, ज्ञान ज्ञानियों में हूँ मैं।३८।
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जो भी संभव सब भूतों में, बीज वही मैं हूँ अर्जुन।
है ही नहीं बिना मेरे जो, जीव चर-अचर-जड़ न कहीं।३९।
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नहीं अंत है मम विभूति का, जो कि दिव्य है अरिजेता।
यह सब लेकिन उदाहरणवत, किया विभूति विशद वर्णन।४०।
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जो विभूतियुत सत्व श्रीमयी, तेजस्वी निश्चय ही वह।
जानो तुम मेरे तेजस को, अंशभाग से है उत्पन्न।४१।
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यह अनेक विध इसे जानकर, क्या पाएगा रे अर्जुन!
व्याप्त हुआ मैं सकल विश्व में, एक अंश के ही द्वारा।४२।
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ॐ
गीता अध्याय ११
यथावत हिंदी काव्यान्तरण
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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यथावत हिंदी काव्यान्तरण
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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अर्जुन बोला 'कृपा करी है, गुह्याध्यात्मिक विषय कहा।
जो भी तुमने शब्द कहे हैं, उनसे मोह मिटा मेरा।१।
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प्रगट-प्रलय निश्चय ही सारे जीवों का मैं जान गया।
कमलनयन महिमा भी जानी, मैं ने मैंने तुमसे अविनाशी।२।
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ऐसे जैसे कहा तुम्हीं ने, खुद को खुद ही परमेश्वर।
देख सकूँ इच्छा है मेरी, रूप तुम्हारा पुरुषोत्तम।३।
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सोच रहे यदि शक्य मुझे है, देख सकूँ मैं हे प्रभुवर!
योगेश्वर! तब मुझे दिखाएँ, अपने रूप संतान को'।४।
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प्रभु बोले 'देखो मेरा हे पार्थ! रूप ऐश्वर्यमयी।
नाना रूप-दिव्य ; रंग नाना, आकृतियाँ अनगिन देखो।५।
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लख आदित्य वसू रुद्रों को, द्व्य अश्विनी; मरुत को भी।
अगिन अदेखे इसके पहले, देख अचरजों को भारत!६।
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इसमें एक जगह जग देखो पूरा, सहित चर-अचर सब।
मेरे तन में गुडाकेश हे!, जो भी अन्य देखना हो।७।
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कभी नहीं लेकिन मुझको तुम, देख सकोगे आँखों से।
दिव्य दे रहा तुम्हें चक्षु मैं, देखो मेरा योगैश्वर्य। ८।
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संजय बोला हे राजन! तब, महायोगशाली हरि ने।
दिखलाया अर्जुन को अपना, दिव्य रूप ऐश्वर्य सभी।९।
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आनन अगणित नैन अनेकों, दिव्य दृश्य अगणित अद्भुत ।
दिव्य अलौकिक अलंकार बहु, विविध शस्त्र दिव्य अनुपम।१०।
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दैवी माला, वसन सुशोभित, दिव्य सुगंधि विलेपित भी।
अचरज पूर्ण प्रकाशयुक्त छवि, सीमाहीन सर्वव्यापी।११।
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आसमान में सूर्य सहस्त्रों, एक साथ ही दमक उठें।
यदि; प्रकाश संभव सदृश्य हो, उस महात्म के तेज सदृश।१२।
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वहाँ इकठ्ठा एक जगह में, सारी दुनिया बँट अनेक में।
देख सका देवाधिदेव के, तन में पांडव अर्जुन तब।१३।
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तब आश्चर्यचकित अतिशय हो, हुआ हर्ष विव्हल अर्जुन।
कर प्रणाम सिर से भगवन को, हाथ जोड़ मंतव्य कहा।१४।
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अर्जुन बोला- देव! देखता, सब सुर तन में जीव सभी।
विधि शिव कमलासनधारी ऋषि, सभी दिव्य सर्पों को भी।१५।
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कई भुजाएँ उदर मुख नयन, देख रहा सर्वत्र अनंत।
अंत न मध्य न आदि आपका, दिखा विश्वरूप जगदीश।१६।
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है किरीट अरु गदा-तेज भी, चारों ओर प्रकाश किए।
देख देखने में अति दुष्कर, अग्नि सूर्य द्युति अंत बिना।१७।
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अक्षर परम जानने काबिल, तुम्हीं जग के परमाधार।
अव्यय शाश्वत धर्म गोप्ता, आप सनातन मेरा मत।१८।
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है अनादि मध्यांत असीमित, अगिन बाहु शशि रवि नैना।
देखूँ दीप्त अग्नि तव मुख से, रही तेज से विश्व तपा।१९।
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नभ से भू तक और बीच में, व्याप्त आपसे दिशा सभी।
देखें अद्भुत रूप भयानक, तीन लोक भयभीत प्रभो!२०।
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वे सुर संघ जा रहे तुममें, भीत कर जोड़ करें स्तवन।
कहकर स्वस्ति महर्षि-सिद्ध गण, करें प्रार्थना स्रोतों से।२१।
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रुद्र सूर्य वसु साध्य जगाश्विन, मरुत पितर गंधर्व सहित।
यक्ष असुर सुरसंघ देखते, तुम्हें चकित हो निश्चय सब।२२।
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रूप विशाल कई मुख आँखें, महाबाहु! भुज-बाँह-चरण।
कई उदर बहु दंत भयानक, देख लोक विचलित मैं भी।२३।
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तुम नभ छू दीपित बहुरंगी, खुला मुँह दीप्त बड़े चक्षु।
देख तुम्हें विचलित मन-आत्मा, धैर्य न प्राप्त शांति बिष्णो।२४।
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दाँत कराल; तुम्हारे मुख को, लख कालाग्नि लखी मानो।
दिशा और आनंद न जानूँ, हों प्रसन्न स्वामी जानो।२५।
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ये धृतराष्ट्र पुत्र सारे ही, सहित वीर राजाओं के।
भीष्म द्रोण सारथी तनय सह, योद्धा मुख्य हमारे भी।२६।
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मुख में तेरे गति से जाते, दाँत कराल भयानक हैं।
कुछ दाँतों के बीच फँस गए, दीखते चूर्ण हुए सर से।२७।
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ज्यों नदियों की अगिन तरंगें, सागर ओर दौड़ती हैं।
त्यों ही ये सब राजा तेरे, 'ज्वलित मुखों में जाते हैं।२८।
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ज्यों परवाने ज्वलित अग्नि में, घुसें विनाश हेतु गति से।
त्यों विनाश के लिए घुस रहे, सब तेरे मुख में गति से।२९।
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चाट निगलते सभी ओर से, लोगों को जलते मुख से।
तेजाच्छादित जगत सकल को, किरणें झुलसाती विष्णो।३०।
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कहें मुझे हैं कौन उग्र प्रभु, नमन सुरोत्तम खुश होवें।
चाह जान लूँ आदि तुम्हें मैं, नहीं ज्ञात तेरा उद्देश्य।३१।
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प्रभु बोले - हूँ काल लोक का नाशक; नाश प्रवृत्त हुआ।
बिन तेरे ये कभी न होंगे, जो विपक्ष में सैनिक हैं।३२।
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अत: तुम उठो, यश पा, अरि-जय कर समृद्ध राज्य भोगो।
मेरे द्वारा हत पहले ही, कारण बनो सव्यसाची।३३।
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द्रोण भीष्म जयद्रथ व कर्ण अरु, अन्य महान लड़ाके भी।
मैंने पहले ही मारे, तुम मारो मत विचलित होओ।३४।
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संजय कहे- बात सुन हरि की, हाथ जोड़ कंपित अर्जुन।
नमस्कार कर बोला हरि से, गद्गद भीत नमन करके।३५।
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अर्जुन कहे- इंद्रि-स्वामी तव, यश-हर्षित जग है अनुरक्त।
असुर भीत; सब दिशा-भागते, नमन कर रहे सिद्ध पुरुष।३६।
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क्यों न नमित हों तुम्हें महात्मा!, श्रेष्ठ ब्रम्ह से आदि सृजक।
हे अनंत देवेश जगाश्रय, अक्षर दिव्य सतासत तुम।३७।
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आदि देव तुम पुरुष सनातन, सकल जगत के परमाश्रय।
ज्ञानी ज्ञेय व परम धाम, हो जग में व्याप्त अनन्तरूप।३८।
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अनिल यम अनल जल शशांक तुम, प्रजापति व प्रपितामह हो।
नमन फिर नमन तुम्हें हजारों, फिर फिर नमन; नमन फिर से।३९।
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नमन सामने से पीछे से, सब दिश से सर्वस्व तुम्हीं।
अनंतवीर्य हे अमित विक्रमी, सर्वाच्छादक हो सब कुछ।४०।
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संजीव
९४२५१८३२४४ / ७९९९५५९६१८
विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर
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