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रविवार, 11 जुलाई 2021

गीता अध्याय १०, ११

ॐ 
गीता अध्याय १० 
यथावत हिंदी काव्यान्तरण
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
हरि बोले फिर निश्चय ही  हे ! महाबाहु सुन मेरी बात। 
जो तुमको प्रिय मान कहूँ मैं, हितकारी तुझको यह तात ।१। 
*
नहीं जानते मेरा उद्भव, सुरगण या कि महा ऋषि भी। 
मैं ही आदिमूल देवों का, और महर्षि गणों का भी।२। 
*
जो मुझको बिन जन्म-आदि भी, जाने लोक महेश्वर ही।  
असम्मूढ़ वह मर्त्य जनों में, सब पापों से मुक्ति मिली।३। 
*
बुद्धि ज्ञान असम्मोह क्षमा सत, इन्द्रिय दमन मनोनिग्रह। 
सुख-दुख; भाव-अभाव; भय भी अरु, अभय भाव भी बिन संशय ।४। 
*
भाव अहिंसा समता तप संतुष्टि दान यश अरु अपयश। 
होते भाव प्राणियों के सब, मुझसे ही तो पृथक-पृथक।५। 
*
सात महर्षि; पूर्व के चारों सनक और चौदह मनु भी। 
मुझमें भाव मनस से उपजे, जिनकी जग में प्रजा सभी।६। 
*
इस सारे ऐश्वर्य योग को, मेरे जो जानता सही।
वह निश्चय ही भक्ति लीन हो, तनिक यहाँ संदेह नहीं।७। 
*
मैं सबका उत्पत्ति हेतु हूँ, मुझसे सब उद्भूत हुए। 
ऐसा जान भजें मुझको मतिमान भाव संयुक्त हुए।८। 
*
मुझमें रमे मुझे अर्पित जो, दें उपदेश परस्पर वे। 
कथन करें मेरे बारे में, सतत प्रसन्न रहें रमते।९। 
*
सतत लीन रहनेवाले वे, प्रीतिसहित जो भजते हैं। 
देता बुद्धियोग जिससे वे, मुझको ही पा सकते हैं।१०। 
*
उन पर निश्चय अनुकंपा कर, मैं अज्ञान जनित तम को।
हरता उस में बसे ज्ञान के, दीपक  द्वारा भासवित हो।११। 
*
अर्जुन बोला 'परम् ब्रह्म हैं, परम धाम पावन भी हैं। 
पुरुष शाश्वत दिव्य आदि सुर, आप अजन्मा विभु भी हैं।१२।
*
कहें आपको ऋषिगण सारे, देवों के  ऋषि नारद भी।  
असित व देवल व्यास आप भी, यही बताते हैं मुझको'।१३।    
*
इस सब सच को मान रहा जो, मुझसे कहते हो केशव!
कभी न भगवन रूप आपका, जान सकें सुर या दानव।१४। 
*
खुद ही खुद के खुद को जानें, हे पुरुषों में उत्तम आप। 
भूत-रुचिर हे!; भूत नाथ हे!, देव-देव जगस्वामी आप।१५। 
*
कहने योग्य अशेष आप ही, दैवी अपनी विभूतियाँ।
जिस विभूति से सब लोकों में, आप व्याप्त हो स्थित भी हैं।१६। 
*
कैसे जानूँ हे योगी मैं, सदा सतत चिंतन करता। 
किन किन रूपों में पल पल मैं, याद आपकी हूँ करता।१७। 
विस्तार से निज योग शक्ति को, विभूतियों को जन-अर्दन। 
फिर कहिए संतुष्टि श्रवण कर, हुई न मेरी अमृत को।१८। 
*
श्री बोले - 'हाँ, तुम्हें कहूँगा, दैवी निज ऐश्वर्यों को। 
प्रमुख रूप से; हे कुरु उत्तम!, अंत न विस्तारों का है।१९। 
*
मैं ही आत्मा हूँ हे अर्जुन!, सब जीवों के हृदय बसा।
मैं उद्गम भी और मध्य भी, अंत सकल जीवों का हूँ।२०। 
*
आदित्यों में मैं हूँ विष्णु, द्युतियों में रवि अंशुमान। 
मरीचि हूँ मरुतों में मैं ही, नक्षत्रों में मैं रजनीश।२१। 
*
वेदों में मैं सामवेद हूँ, देवों में वासव हूँ मैं।     
और इन्द्रियों में मन हूँ मैं, जीवों में चेतना कहो।२२। 
*
रुद्रों में शंकर हूँ मैं अरु, यक्षों में कुबेर मैं हूँ । 
वसुओं में पावक हूँ मैं अरु, शिखरों में सुमेरु गिरि हूँ।२३। 
*
पुरोहितों में मुखिया हूँ मैं, पार्थ बृहस्पति मैं जानो। 
सेनापतियों में स्कन्द कहो, जलाशयों में सिंधु कहो।२४। 
*
महर्षियों में भृगु ऋषि, शब्दों में एकाक्षर ॐ कहो। 
यज्ञों में जप यज्ञ और हूँ सभी स्थिरों में हिम आलय।२५। 
*
पीपल सब वृक्षों में हूँ मैं, हूँ सुर-ऋषियों में नारद। 
सब गंधर्वों में हूँ चित्ररथ, सिद्धजनों में कपिल मुनि।२६। 
*
उच्चैःश्रवा सभी घोड़ों में, जानो मुझे जलधि उत्पन्न।
ऐरावत गजराजों में मैं, तथा मनुष्यों में राजन।२७। 
*
अस्त्रों में मैं वज्र अजय हूँ, कामधेनु हूँ गायों में। 
प्रजनन में हूँ कामदेव मैं, सब साँपों में वासुकि हूँ।२८। 
*
हूँ अनंत मैं सब नागों में, वरुण देव जल-जीवों में। 
पितर गणों में जान अर्यमा, यम नियमनकर्ताओं में।२९। 
*
हूँ प्रह्लाद राक्षसों में मैं, काल दमनकर्ताओं में। 
पशुओं में मृग इंद्र शेर हूँ, गरुण पंछियों में  हूँ मैं।३०। 
वायु शुद्ध करनेवालों में, राम शस्त्रधारियों में। 
मत्स्य जीव में मगर और मैं, नदियों में जाह्नवी नदी।३१। 
*
सृष्टि आदि हूँ, मध्य-अंत भी, निश्चय ही मैं हे अर्जुन!
हूँ आध्यात्म ज्ञान विद्या में, वाद सभी तर्कों में मैं।३२। 
*
सभी अक्षरों में अकार मैं, हूँ मैं द्वन्द समासों में। 
निश्चय मैं हूँ काल सनातन, सृष्टा मैं ही हूँ ब्रह्मा।३३। 
*
मृत्यु सर्वभक्षी भी हूँ मैं, मैं ही सृष्टि भविष्यों की। 
यश ऐश्वर्य वाक् नारी मैं, याद बुद्धि दृढ़ता धृति भी।३४। 
*
वृहत्साम साम गीतों में, गायत्री छंदों में मैं। 
माहों में हूँ मार्गशीर्ष मैं, ऋतुओं में कुसुमाकर हूँ।३५। 
*
द्युत सभी छलियों में हूँ मैं, तेज जान तेजस्वियों में। 
जय सब व्यवसायों में मैं ही, एसटीवी सत्ववादियों का मैं।३६। 
*
वृष्णिवंश में वासुदेव हूँ, और पांडवों में अर्जुन। 
मुनियों में हूँ व्यासदेव मैं, कवियों में उष्ण कवि हूँ।३७। 
*
दंड दमन साधन में हूँ मैं, नीति विजय आकांक्षी में।
मौन रहस्यों में मैं ही हूँ, ज्ञान ज्ञानियों में हूँ मैं।३८। 
*
जो भी संभव सब भूतों में, बीज वही मैं हूँ अर्जुन। 
है ही नहीं बिना मेरे जो, जीव चर-अचर-जड़ न कहीं।३९। 
*
नहीं अंत है मम विभूति का, जो कि दिव्य है अरिजेता। 
यह सब लेकिन उदाहरणवत, किया विभूति विशद वर्णन।४०। 
*
जो विभूतियुत सत्व श्रीमयी, तेजस्वी निश्चय ही वह। 
जानो तुम मेरे तेजस को, अंशभाग से है उत्पन्न।४१। 
*
यह अनेक विध इसे जानकर, क्या पाएगा रे अर्जुन!
व्याप्त हुआ मैं सकल विश्व में, एक अंश के ही द्वारा।४२। 
***
ॐ 
गीता अध्याय ११ 
यथावत हिंदी काव्यान्तरण
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
अर्जुन बोला 'कृपा करी है, गुह्याध्यात्मिक विषय कहा। 
जो भी तुमने शब्द कहे हैं, उनसे मोह मिटा मेरा।१। 
*
प्रगट-प्रलय निश्चय ही सारे जीवों का मैं जान गया। 
कमलनयन महिमा भी जानी, मैं ने मैंने तुमसे अविनाशी।२। 
*
ऐसे जैसे कहा तुम्हीं ने, खुद को खुद ही परमेश्वर। 
देख सकूँ इच्छा है मेरी, रूप तुम्हारा पुरुषोत्तम।३। 
*
सोच रहे यदि शक्य मुझे है, देख सकूँ मैं हे प्रभुवर!
योगेश्वर! तब मुझे दिखाएँ, अपने रूप संतान को'।४। 
*
प्रभु बोले 'देखो मेरा हे पार्थ! रूप ऐश्वर्यमयी। 
नाना रूप-दिव्य ; रंग नाना, आकृतियाँ अनगिन देखो।५। 
लख आदित्य वसू रुद्रों को, द्व्य अश्विनी; मरुत को भी।
अगिन अदेखे इसके पहले, देख अचरजों को भारत!६। 
*
इसमें एक जगह जग देखो पूरा, सहित चर-अचर सब। 
मेरे तन में गुडाकेश हे!, जो भी अन्य देखना हो।७। 
*
कभी नहीं लेकिन मुझको तुम, देख सकोगे आँखों से। 
दिव्य दे रहा तुम्हें चक्षु मैं, देखो मेरा योगैश्वर्य। ८। 
*
संजय बोला हे राजन! तब, महायोगशाली हरि ने।
दिखलाया अर्जुन को अपना, दिव्य रूप ऐश्वर्य सभी।९। 
*
आनन अगणित नैन अनेकों, दिव्य दृश्य अगणित अद्भुत । 
दिव्य अलौकिक अलंकार बहु, विविध शस्त्र दिव्य अनुपम।१०। 
*
दैवी माला, वसन सुशोभित, दिव्य सुगंधि विलेपित भी।
अचरज पूर्ण प्रकाशयुक्त छवि, सीमाहीन सर्वव्यापी।११। 
*
आसमान में सूर्य सहस्त्रों, एक साथ ही दमक उठें। 
यदि; प्रकाश संभव सदृश्य हो, उस महात्म के तेज सदृश।१२। 
*
वहाँ इकठ्ठा एक जगह में, सारी दुनिया बँट अनेक में। 
देख सका देवाधिदेव के, तन में पांडव अर्जुन तब।१३। 
*
तब आश्चर्यचकित अतिशय हो, हुआ हर्ष विव्हल अर्जुन। 
कर प्रणाम सिर से भगवन को, हाथ जोड़ मंतव्य कहा।१४। 
*
अर्जुन बोला- देव! देखता, सब सुर तन में जीव सभी। 
विधि शिव कमलासनधारी ऋषि, सभी दिव्य सर्पों को भी।१५। 
*
कई भुजाएँ उदर मुख नयन, देख रहा सर्वत्र अनंत।
अंत न मध्य न आदि आपका, दिखा विश्वरूप जगदीश।१६।
है किरीट अरु गदा-तेज भी, चारों ओर प्रकाश किए। 
देख देखने में अति दुष्कर, अग्नि सूर्य द्युति अंत बिना।१७। 
*
अक्षर परम जानने काबिल, तुम्हीं जग के परमाधार।
अव्यय शाश्वत धर्म गोप्ता, आप सनातन मेरा मत।१८। 
*
है अनादि मध्यांत असीमित, अगिन बाहु शशि रवि नैना। 
देखूँ दीप्त अग्नि तव मुख से, रही तेज से विश्व तपा।१९। 
*
नभ से भू तक और बीच में, व्याप्त आपसे दिशा सभी। 
देखें अद्भुत रूप भयानक, तीन लोक भयभीत प्रभो!२०। 
*
वे सुर संघ जा रहे तुममें, भीत कर जोड़ करें स्तवन।
कहकर स्वस्ति महर्षि-सिद्ध गण, करें प्रार्थना स्रोतों से।२१।
*
रुद्र सूर्य वसु साध्य जगाश्विन, मरुत पितर गंधर्व सहित। 
यक्ष असुर सुरसंघ देखते, तुम्हें चकित हो निश्चय सब।२२। 
*
रूप विशाल कई मुख आँखें, महाबाहु! भुज-बाँह-चरण।
कई उदर बहु दंत भयानक, देख लोक विचलित मैं भी।२३। 
*
तुम नभ छू दीपित बहुरंगी, खुला मुँह दीप्त बड़े चक्षु।
देख तुम्हें विचलित मन-आत्मा, धैर्य न प्राप्त शांति बिष्णो।२४। 
*
दाँत कराल; तुम्हारे मुख को, लख कालाग्नि लखी मानो।  
दिशा और आनंद न जानूँ, हों प्रसन्न  स्वामी जानो।२५।
ये धृतराष्ट्र पुत्र सारे ही, सहित वीर राजाओं के। 
भीष्म द्रोण सारथी तनय सह, योद्धा मुख्य हमारे भी।२६। 
*
मुख में तेरे गति से जाते, दाँत कराल भयानक हैं। 
कुछ दाँतों के बीच फँस गए, दीखते चूर्ण हुए सर से।२७। 
*
ज्यों नदियों की अगिन तरंगें, सागर ओर दौड़ती हैं। 
त्यों ही ये सब राजा तेरे, 'ज्वलित मुखों में जाते हैं।२८। 
ज्यों परवाने ज्वलित अग्नि में, घुसें विनाश हेतु गति से।      
त्यों विनाश के लिए घुस रहे, सब तेरे मुख में गति से।२९। 
*
चाट निगलते सभी ओर से, लोगों को जलते मुख से। 
तेजाच्छादित जगत सकल को, किरणें झुलसाती विष्णो।३०। 
*
कहें मुझे हैं कौन उग्र प्रभु, नमन सुरोत्तम खुश होवें। 
चाह जान लूँ आदि तुम्हें मैं, नहीं ज्ञात तेरा उद्देश्य।३१। 
*
प्रभु बोले - हूँ काल लोक का नाशक; नाश प्रवृत्त हुआ। 
बिन तेरे ये कभी न होंगे, जो विपक्ष में सैनिक हैं।३२। 
*
अत: तुम उठो, यश पा, अरि-जय कर समृद्ध राज्य भोगो। 
मेरे द्वारा हत पहले ही, कारण बनो सव्यसाची।३३। 
*
द्रोण भीष्म जयद्रथ व कर्ण अरु, अन्य महान लड़ाके भी।
मैंने पहले ही मारे, तुम मारो मत विचलित होओ।३४। 
*
संजय कहे- बात सुन हरि की, हाथ जोड़ कंपित अर्जुन। 
नमस्कार कर बोला हरि से, गद्गद भीत नमन करके।३५। 
*
अर्जुन कहे- इंद्रि-स्वामी तव, यश-हर्षित जग है अनुरक्त। 
असुर भीत; सब दिशा-भागते, नमन कर रहे सिद्ध पुरुष।३६। 
*
क्यों न नमित हों तुम्हें महात्मा!, श्रेष्ठ ब्रम्ह से आदि सृजक।
हे अनंत देवेश जगाश्रय, अक्षर दिव्य सतासत तुम।३७। 
*
आदि देव तुम पुरुष सनातन, सकल जगत के परमाश्रय।
ज्ञानी ज्ञेय व परम धाम, हो जग में व्याप्त अनन्तरूप।३८। 
*
अनिल यम अनल जल शशांक तुम, प्रजापति व प्रपितामह हो। 
नमन फिर नमन तुम्हें हजारों, फिर फिर नमन; नमन फिर से।३९। 
*
नमन सामने से पीछे से, सब दिश से सर्वस्व तुम्हीं। 
अनंतवीर्य हे अमित विक्रमी, सर्वाच्छादक हो सब कुछ।४०। 
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संजीव 
९४२५१८३२४४ / ७९९९५५९६१८ 
विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर

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