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बुधवार, 14 जुलाई 2021

वर्षा मंगल गीत सलिला

वर्षा मंगल गीत सलिला 
*
नरेंद्र शर्मा

नाच रे मयूरा!

खोल कर सहस्त्र नयन,
देख सघन गगन मगन
देख सरस स्वप्न, जो कि
आज हुआ पूरा!
नाच रे मयूरा!

गूँजे दिशि-दिशि मृदंग,
प्रतिपल नव राग-रंग,
रिमझिम के सरगम पर
छिड़े तानपूरा!
नाच रे मयूरा!

सम पर सम, सा पर सा,
उमड़-घुमड़ घन बरसा,
सागर का सजल गान
क्यों रहे अधूरा?
नाच रे मयूरा!

***

पूर्णिमा बर्मन

आज अचानक सड़कों पर दंगा-सा है
साथ हमारे मौसम बेढंगा-सा है

तेज़ हवाएँ बहती हैं टक्कर दे कर
तूफ़ानों ने रोका है चक्कर दे कर
दृढ़ निश्चय फिर भी कंचनजंघा-सा है
झरनों का स्वर मंगलमय गंगा-सा है

निकल पड़े हैं दो दीवाने यों मिलकर
सावन में ज्यों इंद्रधनुष हो धरती पर
उड़ता बादल अंबर में झंडा-सा है
पत्तों पर ठहरा पानी ठंडा-सा है

जान हवाओं में भरती हैं आवाज़ें
दौड़ी रही घाटी के ऊपर बरसातें
हरियाली पर नया रंग रंगा-सा है
दूर हवा में एक चित्र टँगा-सा है

भीगी शाम बड़ी दिलवाली लगती है
चमकती बिजली दीवाली-सी लगती है
बारिश का यह रूप नया चंगा-सा है
मीठा-मीठा दिल में कुछ पंगा-सा है

***

बालकृष्ण शर्मा 'नवीन'

सखि, वन-वन घन गरजे!
श्रवण निनादा-मगन
मन उन्मन
प्राण-पवन-कण
लरजे!

परम अगम प्रियतमा गगन की शंख-ध्वनि आई
मंथर गति रति चरण चारू की चाप गगन में छाई
अंबर कंपित पवन संचारित संसृति अति सरसाई
मंद्र-मंद्र आगमन सूचना हिय में आन समाई
क्षण में प्राण उन्मादी
कौन इन्हें अब बरजे?

मेरा गगन और मम आँगन आज सिहर कर काँपा
मेरी यह आल्हाद बिथा सखि, बना असीम अमापा
आवेंगे वे चरण जिन्होंने इस त्रिलोक को नापा
सखि मैंने ऐसा आमंत्रण-श्रुति स्वर कब आलापा?
लगता है मानो ये बादल कुछ यों ही हैं तरजे!

श्रवण-निनाद-मगन
मन-उन्मन
प्राण-पवन-कण
लरजे!
***

भवानी प्रसाद मिश्र

पी के फूटे आज प्यार के
पानी बरसा री
हरियाली छा गई,
हमारे सावन सरसा री

बादल छाए आसमान में,
धरती फूली री
भरी सुहागिन, आज माँग में
भूली-भूली री
बिजली चमकी भाग सरीखी,
दादुर बोले री
अंध प्रान-सी बही,
उड़े पंछी अनमोले री
छिन-छिन उठी हिलोर
मगन-मन पागल दरसा री

फिसली-सी पगडंडी,
खिसकी आँख लजीली री
इंद्रधनुष रंग-रंगी आज मैं
सहज रंगीली री
रुन-झुन बिछिया आज,
हिला डुल मेरी बेनी री
ऊँचे-ऊँचे पैंग हिंडोला
सरग-नसेनी री
और सखी, सुन मोर विजन
वन दीखे घर-सा री

फुर-फुर उड़ी फुहार
अलक दल मोती छाए री
खड़ी खेत के बीच किसानिन
कजली गाए री
झर-झर झरना झरे
आज मन-प्रान सिहाये री
कौन जनम के पुन्न कि ऐसे
औसर आए री
रात सखी सुन, गात मुदित मन
साजन परसा री
***

मधु प्रसाद

बिना तुम्हारे कैसे बीते
सावन के पलछिन।

तुमने ही पहले भेजी थी
प्रेम भरी पाती
ढ़ाई आख़र की सुलगाई
अंतर में बाती
गूँज रही हैं दसों दिशाएँ
उत्तर से दक्खिन।

बादल के हाथों सौंपी थी
सपनों-सी आशा
नदिया को पर्वत सिखलाता
जीवन-परिभाषा
मदमाते मौसम के द्वारे
सपने हुए नलिन।

पात-पात सिहरन होती है,
अब तो आहट से
भ्रमर ढूँढ़ता फिरता है निज
घर अकुलाहट से।
पीड़ा के पल कब कटते हैं
वे तो हैं अनगिन।
***

महादेवी वर्मा

कहाँ से आए बादल काले?
कजरारे मतवाले!

शूल भरा जग, धूल भरा नभ, झुलसीं देख दिशाएँ निष्प्रभ,
सागर में क्या सो न सके यह करूणा के रखवाले?
आँसू का तन, विद्युत का मन, प्राणों में वरदानों का प्रण,
धीर पदों से छोड़ चले घर, दुख-पाथेय सँभाले!

लाँघ क्षितिज की अंतिम दहली, भेंट ज्वाल की बेला पहली,
जलते पथ को स्नेह पिला पग-पग पर दीपक वाले!
गर्जन में मधु-लय भर बोले, झंझा पर निधियाँ घर डोले,
आँसू बन उतरे तृण-कण ने मुस्कानों में पाले!

नामों में बाँधे सब सपने रूपों में भर स्पंदन अपने
रंगो के ताने बाने में बीते क्षण बुन डाले
वह जडता हीरों मे डाली यह भरती मोती से थाली
नभ कहता नयनों में बस रज बहती प्राण समा ले!
***

माखनलाल चतुर्वेदी

कैसा छंद बना देती हैं
बरसातें बौछारों वाली,
निगल-निगल जाती हैं बैरिन
नभ की छवियाँ तारों वाली!

गोल-गोल रचती जाती हैं
बिंदु-बिंदु के वृत्त बना कर,
हरी हरी-सी कर देता है
भूमि, श्याम को घना-घना कर।

मैं उसको पृथिवी से देखूँ
वह मुझको देखे अंबर से,
खंभे बना-बना डाले हैं
खड़े हुए हैं आठ पहर से।

सूरज अनदेखा लगता है
छवियाँ नव नभ में लग आतीं,
कितना स्वाद ढकेल रही हैं
ये बरसातें आतीं जातीं?

इनमें श्याम सलोना ढूँढ़ो
छुपा लिया है अपने उर में,
गरज, घुमड़, बरसन, बिजली-सी
फल उठी सारे अंबर में!
***

यश मालवीय

बारिश के दिन आ गए हँसे खेत खपरैल
एक हँसी मे धुल गया मन का सारा मैल

अबरोही बादल भरें फिर घाटी की गोद
बजा रहे हैं डूब कर अमजद अली सरोद

जब से आया गाँव में यह मौसम अवधूत
बादल भी मलने लगे अपने अंग भभूत

बदली हँसती शाम से मुँह पर रख रूमाल
साँसो में सौगंध है आँखें हैं वाचाल

बादल के लच्छे खुले पेड़ कातते सूत
किसी बात का फिर हवा देने लगी सबूत

कठिन गरीबी क्या करे अपना सरल स्वाभाव
छत से पानी रिस रहा जैसे रिसता घाव

मीठे दिन बरसात के खट्टी मीठी याद
एक खुशी के साथ हैं सौ गहरे अवसाद

बिजली चमके रात भर आफ़त में है जान
मैला आँचल भीगता सीला है गोदान

सासों में आसावरी आँखो में कल्यान
सहे किस तरह हैसियत बूँदो वाले बान
***

रमानाथ अवस्थी

याद बन-बनकर गगन पर
साँवले घन छा गए हैं

ये किसी के प्यार का संदेश लाए
या किसी के अश्रु ही परदेश आए।
श्याम अंतर में गला शीशा दबाए
उठ वियोगिनी! देख घर मेहमान आए
धूल धोने पाँव की
सागर गगन पर आ गए हैं

रात ने इनको गले में डालना चाहा
प्यास ने मिटकर इन्हीं को पालना चाहा
बूँद पीकर डालियाँ पत्ते नए लाईं
और बनकर फूल कलियाँ खूब मुस्काईं
प्रीति-रथ पर गीत चढ़कर
रास्ता भरमा गए हैं

श्याम तन में श्याम परियों को लपेटे
घूमते हैं सिंधु का जीवन समेटे
यह किसी जलते हृदय की साधना है
दूरवाले को नयन से बाँधना है
रूप के राजा किसी के
रूप से शरमा गए हैं

***

रामधारी सिंह 'दिनकर'

दूर देश के अतिथि व्योम में
छाए घन काले सजनी,
अंग-अंग पुलकित वसुधा के
शीतल, हरियाले सजनी!

भींग रहीं अलकें संध्या की,
रिमझिम बरस रही जलधर,
फूट रहे बुलबुले याकि
मेरे दिल के छाले सजनी!

किसका मातम? कौन बिखेरे
बाल आज नभ पर आई?
रोई यों जी खोल, चले बह
आँसू के नाले सजनी!

आई याद आज अलका की,
किंतु, पंथ का ज्ञान नहीं,
विस्मृत पथ पर चले मेघ
दामिनी-दीप बाले सजनी!

चिर-नवीन कवि-स्वप्न, यक्ष के
अब भी दीन, सजल लोचन,
उत्कंठित विरहिणी खड़ी
अब भी झूला डाले सजनी!

बुझती नहीं जलन अंतर की,
बरसें दृग, बरसें जलधर,
मैंने भी क्या हाय, हृदय में
अंगारे पाले सजनी!

धुलकर हँसा विश्व का तृण-तृण,
मेरी ही चिंता न धुली,
पल-भर को भी हाय, व्यथाएँ
टलीं नहीं टाले सजनी!

किंतु, आज क्षिति का मंगल-क्षण,
यह मेरा क्रंदन कैसा?
गीत-मग्न घन-गगन, आज
तू भी मल्हार गा ले सजनी!
***

रामेश्वर शुक्ल 'अंचल'

जा रहे वर्षांत के बादल

हैं बिछुड़ते वर्ष भर को नील जलनिधि से,
स्निग्ध कज्जलिनी निशा की उर्मियों से,
स्नेह-गीतों की कड़ी-सी राग रंजित उर्मियों से,
गगन की शृंगार-सज्जित अप्सराओं से,
जा रहे वर्षांत के बादल

किस महावन को चले
अब न रुकते अब न रुकते ये गगनचारी
नींद आँखों में बसी गति में शिथिलता
किस गुफ़ा में लीन होंगे-
सांध्य-विहगों से थके डैने लिए भारी

साथ इनके जा रहा
अगणित विरहिणी विरहियों का दाह
दे रही अनिमेष नयनों से हरित वसुधा विदाई
किस सुदूर निभृत कुटी में-
शुजिता सुधि की इन्हें फिर याद आई
भर गई आ रिक्त कानों में
किस कमल वन में अनिदित
शारदीया की करुण चंचल रुलाई
जा रहे अलोक-पथ से मंद गति
वर्षांत के बादल

हैं सलिल प्लावित नदी-नद-ताल-पोखर
वेग-विह्वल झर रहे गिरि-स्रोत निर्झर
दे भरे मन से विदा कर कुसुम किरणों से नमन
छोड़कर अंकुरित नूतन फुल्ल खेत
छोड़ उत्सुक बंधुओं के नेत्रों का प्यार
छोड़ लघु पौधे व्यथातुर शस्य शालि अपार
जा रहे वर्षांत के बादल

खोह अंजन की कहाँ वह गुरु गहन
आगार वह विश्राम-मुग्ध विराम की
जा रहे जिसमें चले थे थके वन-पशु से
प्यास होठों पर लिए किसके मिलन की
भर जगत में नव्य जीवन
जा रहे किस प्रिया की सुधि से घिरे
नयी आकांक्षा भरे वर्षांत के बादल
जा रहे वर्षांत के बादल।
***

शिवमंगल सिंह 'सुमन'

मैं अकेला और पानी बरसता है

प्रीती पनिहारिन गई लूटी कहीं है,
गगन की गगरी भरी फूटी कहीं है,
एक हफ्ते से झड़ी टूटी नहीं है,
संगिनी फिर यक्ष की छूटी कहीं है,
फिर किसी अलकापुरी के शून्य नभ में
कामनाओं का अँधेरा सिहरता है।

मोर काम-विभोर गाने लगा गाना,
विधुर झिल्ली ने नया छेड़ा तराना,
निर्झरों की केलि का भी क्या ठिकाना,
सरि-सरोवर में उमंगों का उठाना,
मुखर हरियाली धरा पर छा गई जो
यह तुम्हारे ही हृदय की सरसता है।

हरहराते पात तन का थरथराना,
रिमझिमाती रात मन का गुनगुनाना,
क्या बनाऊँ मैं भला तुमसे बहाना,
भेद पी की कामना का आज जाना,
क्यों युगों से प्यास का उल्लास साधे
भरे भादों में पपीहा तरसता है।
मैं अकेला और पानी बरसता है।
***

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना

मेघ आए
बड़े बन ठन के सँवर के।

आगे-आगे नाचती-गाती बयार चली,
दरवाज़े खिड़कियाँ खुलने लगीं गली-गली,
पाहुन ज्यों आए हों गाँव में शहर के
मेघ आए
बडे बन-ठन के सँवर के।

पेड़ झुक झाँकने लगे गरदन उचकाए,
आँधी चली, धूल भागी घाघरा उठाए,
बाँकी चितवन उठा, नदी ठिठकी घूँघट सरके
मेघ आए
बड़े बन-ठन के सँवर के।

बूढे पीपल ने आगे बढ़ जुहार की,
बरस बाद सुधि लीन्हीं
बोली अकुलाई लता ओट हो किवार की,
हरसाया ताल, लाया पानी परात भर के
मेघ आए
बडे बन-ठन के सँवर के।

क्षितिज-अटारी गहराई दामिनी दमकी,
'क्षमा करो गाँठ खुल गई अब भरम की',
बाँधा टूटा झर-झर मिलन के अश्रु ढरके
मेघ आए
बड़े बन-ठन के सँवर के।

***

सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'


अलि घिर आए घन पावस के

लख ये काले-काले बादल
नील सिंधु में खिले कमल दल
हरित ज्योति चपला अति चंचल
सौरभ के रस के

द्रुम समीर कंपित थर-थर-थर
झरती धाराएँ झर-झर-झर
जगती के प्राणों में स्मर शर
बेध गए कस के

हरियाली ने अलि हर ली श्री
अखिल विश्व के नवयौवन की
मंद गंध कुसुमों में लिख दी
लिपि जय की हंस के

छोड़ गए गृह जब से प्रियतम
बीते कितने दृश्य मनोरम
क्या मैं ऐसी ही हूँ अक्षम
जो न रहे बस के
***


संजीव वर्मा 'सलिल'

दोहे बूँदाबाँदी के:
*
झरझर बूँदे झर रहीं, करें पवन सँग नृत्य।
पत्ते ताली बजाते, मनुज हुए कृतकृत्य।।
*
माटी की सौंधी महक, दे तन-मन को स्फूर्ति।
संप्राणित चैतन्य है, वसुंधरा की मूर्ति।।
*
पानी पानीदार है, पानी-पानी ऊष्म।
बिन पानी सूना न हो, धरती जाओ ग्रीष्म।।
*
कुहू-कुहू कोयल करे, प्रेम-पत्रिका बाँच।
पी कहँ पूछे पपीहा, झुलस विरह की आँच।।
*
नभ-शिव नेहिल नर्मदा, निर्मल वर्षा-धार।
पल में आतप दूर हो, नहा; न जा मँझधार।।
*
जल की बूँदे अमिय सम, हरें धरा का ताप।
ढाँक न माटी रे मनुज!, पछताएगा आप।।
*
माटी पानी सोखकर, भरती जल-भंडार।
जी न सकेगा मनुज यदि, सूखे जल-आगार।।
*
हरियाली ओढ़े धरा, जड़ें जमा ले दूब।
बीरबहूटी जब दिखे, तब खुशियाँ हों खूब।।
*
पौधे अगिन लगाइए, पालें ज्यों संतान।
संतति माँगे संपदा, पेड़ करें धनवान।।
*
पूत लगाता आग पर, पेड़ जलें खुद साथ।
उसके पालें; काटते, क्यों इसको मनु-हाथ।।
*
बूँद-बूँद जल बचाओ, बची रहेगी सृष्टि।
आँखें रहते अंध क्यों?, मानव! पूछे वृष्टि।।
***


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