लघुकथा:
गरम आँसू
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टप टप टप
चेहरे पर गिरती अश्रु-बूँदों से उसकी नीद खुल गयी, सास को चुपाते हुए कारण पूछा तो उसने कहा- 'बहुरिया! मोय लला से माफी दिला दे रे!मैंने बापे सक करो। परोस का चुन्ना कहत हतो कि लला की आँखें कौनौ से लर गयीं, तुम नें मानीं मने मोरे मन में संका को बीज पर गओ। सिव जी के दरसन खों गई रई तो पंडत जी कैत रए बिस्वास ही फल देत है, संका के दुसमन हैं संकर जी। मोरी सगरी पूजा अकारत भई'।
''नई मइया! ऐसो नें कर, असगुन होत है। तैं अपने मोंडा खों समझत आय। मन में फिकर हती सो संका बन खें सामने आ गई हती। भली भई, मन कौन काँटा निकर गओ। मो खों असीस दे सुहाग सलामत रहे।''
एक दूसरे की बाँहों में लिपटी सास-बहू में माँ-बेटी के गलों और मनों को शीतल कर मुस्कुरा रहे थे गरम आँसू।
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९.३.२०१६
-आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, ९४२५१ ८३२४४, salil.sanjiv@gmail.com
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