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शुक्रवार, 9 जुलाई 2021

मुक्तिका

 एक मुक्तिका:

महापौराणिक जातीय, सुमेरु छंद
विधान: १९ मात्रिक, यति १०-९, पदांत यगण
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न जिंदा है; न मुर्दा अधमरी है.
यहाँ जम्हूरियत गिरवी धरी है.
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चली खोटी; हुई बाज़ार-बाहर
वही मुद्रा हमेशा जो खरी है.
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किये थे वायदे; जुमला बताते
दलों ने घास सत्ता की चरी है.
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हरी थी टौरिया; कर नष्ट दी अब
तपी धरती; हुई तबियत हरी है.
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हवेली गाँव की; हम छोड़ आए.
कुठरिया शहर में, उन्नति करी है.
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न खाओ सब्जियाँ जो चाहता दिल.
भरा है जहर दिखती भर हरी है.
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न बीबी अप्सरा से मन भरा है
पड़ोसन पूतना लगती परी है.
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९.७.२०१८, ७९९९५५९६१८

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