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मंगलवार, 6 जुलाई 2021

पुरोवाक 'सपनों की कश्ती' मनोहर चौबे 'आकाश'

पुरोवाक 
गीत सलिला में प्रवाहित 'सपनों की कश्ती'
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
कट्टरतावादी भावधारा से दूर रहते हुए साहित्य एवं कला की अपनी गहरी समझ से यथार्थवाद की प्रामाणिक व्याख्या उपस्थापित करनेवाले दार्शनिक-साहित्यिक हंगेरियन आलोचक जॉर्ज लुकाच के अनुसार - 'गीत-काव्य में केवल महान क्षण रहता है। यह वह क्षण होता है जिसमें प्रकृति और आत्मा की सार्थक एकता या उनका सार्थक लगाव जो आत्मा का सर्वस्वीकृत अकेलापन हुआ करता है, शाश्वत बन जाते हैं। .... गीतमय क्षण में आत्मा की शुद्धतम आभ्यंतरिकता अनिवार्यत: काल से पृथक कर दी जाती है, वस्तुओं की अस्पष्ट विविधता से ऊपर उठा दी जाती है और इस तरह पदार्थ से परिवर्तित कर दी जाती है ताकि चमकते हुए एक प्रतीक में बँध सके। आत्मा और प्रतीक के बीच स्थापित इस संबंध को केवल गीतमय क्षणों में ही निर्मित किया जा सकता है।'

भाई मनोहर चौबे 'आकाश' के गीत संग्रह को पढ़ते हुए जॉर्ज लुकाच के उक्त कथन की अपेक्षा रविरंजन का कथन अधिक सटीक प्रतीत हुआ - 'कविता से एक हद तक भिन्न गीत की एक अलग रचनात्मक शर्त एवं समझ होती है।'

                     हिंदी साहित्य में गीत की रचना देश-काल-परिस्थिति अनुरूप होती रही है। भारतीय आदिवासी समाज और ग्रामीण समाज ने गीत के सहारे दुर्दिनों में आत्मबल और जुझारुपन पाया है तो सुदिनों में आत्मानंद और संतोष की निधि संचित की है। गीत लोकमानस के सुख-दुःख के पलों में धूप-छाँव की तरह  अभिन्न साथी रहा है। व्युत्पत्ति के आधार पर 'गै + क्त' के योग से निर्मित 'गीत' सामान्यत: वह काव्य रचना है जिसे गाया जा सके, गाया गया हो। 'गीर्भि: वरुण सीमहि' - ऋग्वेद। आचार्य हेमचन्द्र कहते हैं 'गीतं शाब्दितगानयो:' . अमरकोश के अनुसार 'गीतं गाननिमे समे'। 'गेय' होना अर्थात 'गाया जा सकना' गीत होने की अनिवार्यता है तो क्या हर तुकबंदी 'गीत' है? ऐसा नहीं है। कहमुकरियाँ, माहिये, तसलीस, दोहा, रोला, सॉनेट, रुबाई आदि में गेयता होने पर भी वे गीत नहीं हैं। 

                     गीत की दूसरी अनिवार्यता उनका छांदस अर्थात छन्दाधारित होना है। यहाँ यह प्रश्न उपस्थित होता है कि क्या हर छंद को गीत कहा जा सकता है?, कदापि नहीं। सर्वमान्य है कि गीत में छंद का प्रयोग किया जाता है, एक छंद का भी और एकाधिक छंदों का भी। कब कहाँ कौन से और कितने छंदों का प्रयोग किया जाए यह गीतकार की छांदस समझ और रचना सामर्थ्य तथा गीत के कथ्य की आवश्यकता पर निर्भर करता है। श्रृंगार गीत में आल्हा छंद का प्रयोग नहीं किया जा सकता। 

                     गीत की तीसरी जरूरत उसका शिल्प है। शिल्पगत रूढ़ता के मद्देनज़र गीत में एक मुखड़ा और कुछ अंतरे होने चाहिए। मुखड़े में पंक्ति संख्या या पंक्तियों में शब्द संख्या का कोई प्रतिबंध नहीं होता। अंतरों की संख्या, अंतरों में पंक्तियों की संख्या या पंक्तियों में शब्दों या वर्णों की संख्या आवश्यकतानुरूप रखी जा सकती हैं। सामान्यत: हर अंतरे का अंत मुखड़े की प्रथम या अंतिम पंक्ति के समान भार की पंक्ति से होता है और उसके बाद अंतरे की समभारिक पंक्ति या पूरा अन्तरा पढ़ा जाता है। वस्तुत: गीतात्मक आंतरिकता की रूपात्मक अभिव्यक्ति ही गीत है। सभी अंतरों में समभारिक समान पंक्ति संख्या साहित्यिक गीतों का अनिवार्य अंग रही है किंतु लोकगीतों और चित्रपटीय गीतों में गीतकार इसका उल्लंघन भी करते रहे हैं। 

                     मनोहर चौबे 'आकाश  गीत के पारंपरिक विधानों का पालन करनेवाले गीतकार हैं। शिवशंकर मिश्र भले ही 'गेयता' को गीत की शर्त न मानें या ठाकुर प्रसाद सिंह कहें 'गीत, कुल मिलाकर गेयता का प्रभाव मन पर छोड़ता है, लेकिन यह गेयता भी बाहरी न होकर भीतरी तत्व है।' आकाश और मैं भी देवेंद्र कुमार से सहमत हैं -'अनुशासन से अलग गीत की संभावना हो ही नहीं सकती।' गीत में मुखड़ा-अंतरों का शैल्पिक अनुशासन,  छांदस अभिव्यक्ति और लयात्मकता का कथ्यानुशासन स्वैच्छिक नहीं अपरिहार्य है। कार्ल मार्क्स के अनुसार कविता  'मनुष्यता की मातृभाषा है' तो मेरे मत में 'गीत मानवात्मा की प्रकृतिजन्य अभिव्यक्ति है।' जर्मन दार्शनिक थियोडोर अडोर्नो की दृष्टि में 'गीत मनुष्य सभ्यता की धूप घड़ी है।' मुझे गीत के संबंध में सर्वाधिक सटीक अभिव्यक्ति बुआश्री महीयसी महादेवी जी की प्रतीत होती है - 'साधारणत: गीत व्यक्तिगत सीमा में तीव्र सुख-दुखात्मक अनुभूतियों का वह शब्द-रूप है जो अपनी ध्वन्यात्मकता में गेय हो सके। अनुभूति को तीव्र रखने के लिए तथा उसे दूसरे तक पहुँचाने के लिए कुछ संयम आवश्यक है।' इन गीतों के प्रकाश में गीतकार आकाश भी मुझे महीयसी के अनुगामी प्रतीत होते हैं।

                     आनुभूतिक आवेगों-संवेगों की लहरों-प्रतिलहरों के आघात-प्रतिघात, आरोह-अवरोह निरंतर सुनें तो उनमें गति-यति की प्रतीति, लय का आभास और गीत का अहसास होता है। गीतकार का तन कहीं भी रहे किन्तु मन जब-जब प्रकृति के अंचल का स्पर्श पाता है तब उसका अंतरमन गीत गा उठता है-

तुमने तो देखा नहीं था 
छा रहे नील नभ पर 
जब अँधेरी शाम के 
दीप जलने लग गए थे 
दिवस के विश्राम के 
तुमने तो देखा नहीं था 
मैं वहीं था, मैं वहीं था

                     हर अनुभूति की अभिव्यक्ति गीत नहीं हो सकती किन्तु जिन अनुभूतियों से प्राण संप्राणित होता है, उनकी अभिव्यक्ति स्वत: गीत में ढल जाती है। गीतकार आकाश के अनुसार -

अर्थ भावनाओं के जिनके शब्दों में ढल जाते हैं।  
अंतरतम के वे संवेदन, मीत! गीत बन जाते हैं ......
इस मन से उस मन तक जाते 
इंद्रधनुष से सेतु नए 
इस सुंदर धरती पर रहते 
जीवन के सब रूपों के 
कविजन चित्र बनाते इससे सूरज-चाँद-सितारों के 
सुधिजन को संभावनाओं के सब आकाश दिखाते हैं 

                     अपने साहित्यिक उपनाम को उसके शब्दकोशीय अर्थ में प्रयोग कवि आकाश की रचना सामर्थ्य का परिचायक है। गीत में छंदहीनता के लिए कोई  स्थान नहीं है। वस्तुत: गीत क्या जिंदगी में भी छंदहीनता की कोई जगह नहीं है। 

जीवन छंदहीन कविता बन डूब रहा है 
साथी से जाने क्यों इतना ऊब रहा है?

                     छंदहीन गीत प्रभातीविहीन भोर की तरह बदरंग और नीरस हो जाता है। भोर बिना प्रभाती और प्रभाती बिना भोर दोनों खोई-खोई सी प्रतीत होती हैं। गीत और प्रीत का संबंध अन्योन्याश्रित है। प्रीत हो तो गीत फुट पड़े या गीत फूट पड़े तो प्रीत का वातावरण बन जाए दोनों स्थितियां अपनी-अपनी जगह सत्य हैं। सामने होते हुए भी ओझल रहना और ओझल रहते हुए भी संभावना का पाश बन जाना उसी के  लिए संभव है जो गीत को ओढ़ता-बिछाता रहा हो। दुष्यंत कहते हैं- 'मैं जिसे ओढ़ता-बिछाता हूँ / वह ग़ज़ल आपको सुनाता हूँ।' आकाश गीत को ओढते-बिछाते ही नहीं श्वास हुए आस की तरह, जीते हैं - 

सामने हूँ किन्तु इसके बाद भी 
आँख से ओझल रहा आभास हूँ। 
मैं कहीं छूटी हुई, भूली हुई 
प्यार की संभावना का पाश हूँ 

                     अंग्रेजी कहावत है 'फर्स्ट इम्प्रेशन इस द लास्ट इम्प्रेशन', यह प्रथम प्रभाव साहित्यकारों विशेषकर गीतकारों के मानस पट पर अमिट छाप छोड़ जाया करता है। यह छाप मनोहर हो तब तो कहना ही क्या -

प्रथम मिलन का वह मधु स्मित 
वह स्नेहिल परिचय अपना 
नहीं मान सकता मैं सपना 
मैं उसको सच 
मान चुका हूँ 
और उसे पहचान चुका हूँ 

                     गीतकार का प्रेमी मन चाहता तो बहुत कुछ है पर सत्य यह है की एक किरण मात्र शेष है जबकि आपदाएँ अशेष हैं-

आकाश चाहता था, चंदा सूरज का देश 
पर सच ने कहा कि लो, बस एक किरण है शेष....
.... हैं अगिन आपदाएँ, जन्मों तक अभी अशेष 

                     ये अगिन आपदाएँ जिन दर्दों की भेंट देते देते नहीं थकतीं, वे दर्द, उनसे उपजी पीड़ा और पीड़ा से उपजी मधुरता गीतों में विरह श्रृंगार की करुणा घोल देती है।  

आज गूँथने बैठा हूँ जब, गठरी खोल देखता हूँ सब 
बने हुए निर्माल्य रखे हैं, गंधहीन मुरझाए हैं 

वैसे तो हर जीवन होता अपनी अपनी एक कहानी 
डुबा गया पर मेरा जीवन, मेरी ही आँखों का पानी 
टीस रहा है आज ह्रदय फिर कोई तरस खा रहा मुझ पर 
किन्तु नहीं स्नेह दे सकी मुझे किसी की दृष्टि अजानी 

                     गीत सलिला में सतत अवगाहन करते आकाश को मनोहरता इस तरह मुग्ध करती है कि हतप्रभ होकर अपनी बात कहकर भी नहीं कह पाता - 

जगमग रूप तुम्हारा, मेरे मन का सुंदर ताजमहल है 
प्यार भरी आँखें काशी हैं, नेह तुम्हारा गंगाजल है 

युग से बाट जोहते मेरे 
मन ने  जबसे तुमको पाया 
अचिर अतृप्त तृषा ने मेरी 
अनुपम मधुर सुधारस पाया 
विस्मित नयन तुम्हारी सूरत, 
हतप्रभ होकर रहे देखते 
चाहा मन ने बहुत मगर वह, 
अपनी बात नहीं कह पाया  

ह्रदय आज तक भी यह मेरा, नहीं कर सका कभी पहल है
जगमग रूप तुम्हारा, मेरे मन का सुंदर ताजमहल है 

                     गीत और गीतकार के अंतरसंबंध को अभियक्त करना जितना दुष्कर है, आकाश उसे उतनी ही सहजता से शब्द दे पाते हैं। बकौल ग़ालिब 'कहते हैं कि ग़ालिब जा अंदाज़े बयां और',  आकाश का अंदाज़े बयां 'और' नहीं 'ख़ास' है, और यह खासियत उसका 'आम' होना है। सरलता, सरसता और सहजता की त्रिवेणी प्रवाहित होती है इस गीत शतक में। आजकल जिस तरह लघु गीतों की पंक्तियाँ हर यति पर विभक्त कर संकलन प्रकाशित करने का चलन है, उसके अनुसार यह एक गीत संग्रह ही पाँच संग्रहों की सामग्री समेटे है। यह संकलन संख्या ही नहीं, गुणवत्ता की दृष्टि से भी वजनदार है। 

                     एक साथ रहते हुए भी दूर रहने की त्रासदी जनित पीड़ा किसी भी संवेदनशील ह्रदय को तोड़ सकती है पर आकाश इस  विषमता में भी चिरंतनता का प्रबल स्रोत पा लेते हैं-  

तुम मेरे अवचेतन में हो 
तुम मेरे अंतर्मन में हो 
किन्तु योजना की दूरी है  
कई युगों के अंतर पर हो 
तुम प्रतीक हो असामर्थ्य के 
दुर्भाग्यों के, परवशता के 
इस मेरी नश्वर काया की 
दो पल की क्षणभंगुरता के 
पर फिर भी आधार रहे हो 
औ' जीवंत प्रमाण रहे हो 
मेरी प्रबल चिरंतनता को 
जिससे स्रोत मिला वह तुम हो 

                     'इस अनुरागी मन का सोना जग में माटी मोल कहाया', 'निश-दिन नए विरागी स्वर / बहा रहा मन का निर्झर, बरसात नहीं है लेकिन / हैं फूट रहे आँखों के / जंगल में कितने झरने', 'कब तक और कल्पनाओं के प्रेमगीत मैं रचता जाऊँ', 'जब तक अभी रात बाकी है / तब तक मुझको जगना है', 'जब कोइ अनजान मिला है / एक नया संधान मिला है', 'मन करता है / दूर-दूर तक इन फैले अँधियारों में / सुख का सूरज बनकर आज उभर आऊँ' आदि अभवयक्तियाँ आकाश की कलम की सामर्थ्य की साक्षी हैं। 

                     युगीन विसंगतियाँ भी आकाश की दृष्टि से ओझल नहीं रह सकी हैं। वे नवगीतीय तेवर में विडंबनाओं पर शब्दाघात करते समय व्यंजना का प्रयोग करते हैं - 

हो रही गूंगों की अब आलोचना 
जान कर भी सत्य कह सकते नहीं 

                     वस्तुत: 'सपनों की कश्ती' गीतों की बगिया है जिसमें विविध सुरभियों के सुमन मन को सुवासित कर रहे हैं। इस गीत सलिला में बारंबार अवगाहन करने का मन होना ही गीतकार की सफलता है। आकाश का यह प्रथम गीत संकलन (प्रथम कृति भी) प्रकाशित होने के पूर्व ही संस्कारधानी में चिरकाल से प्रवाहित हो आ रही गीत परंपरा में उनका नाम प्रतिष्ठित हो चुका है। विश्वास है कि यह संकलन लंबे समय से बाट जोह रहे उनके प्रशंसकों को आश्वस्ति देने के साथ-साथ अगले संग्रह की प्रतीक्षा हेतु उकसाएगा। 
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संपर्क : विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१,  अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, 
चलभाष : ९४२५१ ९८३२४४, ईमेल : salil.sanjiv@gmail.com 
  
 


  
  






आलोचना

आलोचना या समालोचना (Criticism) किसी वस्तु/विषय की, उसके लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए, उसके गुण-दोषों एवं उपयुक्ततता का विवेचन करने वालि साहित्यिक विधा है। हिंदी आलोचना की शुरुआत १९वीं सदी के उत्तरार्ध में भारतेन्दु युग से ही मानी जाती है। 'समालोचना' का शाब्दिक अर्थ है - 'अच्छी तरह देखना'। 'आलोचना' शब्द 'लुच' धातु से बना है। 'लुच' का अर्थ है 'देखना'। समीक्षा और समालोचना शब्दों का भी यही अर्थ है। अंग्रेजी के 'क्रिटिसिज्म' शब्द के समानार्थी रूप में 'आलोचना' का व्यवहार होता है। संस्कृत में प्रचलित 'टीका-व्याख्या' और 'काव्य-सिद्धान्तनिरूपण' के लिए भी आलोचना शब्द का प्रयोग कर लिया जाता है किन्तु आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का स्पष्ट मत है कि आधुनिक आलोचना, संस्कृत के काव्य-सिद्धान्तनिरूपण से स्वतंत्र चीज़ है। आलोचना का कार्य है किसी साहित्यक रचना की अच्छी तरह परीक्षा करके उसके रूप, गणु और अर्थव्यस्था का निर्धारण करना। डॉक्टर श्यामसुन्दर दास ने आलोचना की परिभाषा इन शब्दों में दी है: अर्थात् आलोचना का कर्तव्य साहित्यक कृति की विश्लेषण परक व्याख्या है। साहित्यकार जीवन और अनभुव के जिन तत्वों के संश्लेषण से साहित्य रचना करता है, आलोचना उन्हीं तत्वों का विश्लेषण करती है। साहित्य में जहाँ रागतत्व प्रधान है वहाँ आलोचना में बुद्धि तत्व। आलोचना ऐतिहासिक, सामाजिक, राजनीतिक परिस्थितियों और शिस्तयों का भी आकलन करती है और साहित्य पर उनके पड़ने वाले प्रभावों की विवेचना करती है। व्यक्तिगत रुचि के आधार पर किसी कृति की निन्दा या प्रशंसा करना आलोचना का धर्म नहीं है। कृति की व्याख्या और विश्लेषण के लिए आलोचना में पद्धति और प्रणाली का महत्त्व होता है। आलोचना करते समय आलोचक अपने व्यक्तिगत राग-द्वेष, रुचि-अरुचि से तभी बच सकता है जब पद्धति का अनुसरण करे, वह तभी वस्तुनिष्ठ होकर साहित्य के प्रति न्याय कर सकता है। इस दृष्टि से हिन्दी में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल को सर्वश्रेष्ठ आलोचक माना जाता है।



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आलोचना

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