कुल पेज दृश्य

शनिवार, 4 अप्रैल 2020

पुरोवाक लवाही : नवगीत संग्रह - सुनीता सिंह

पुरोवाक
लवाही : नवगीत की नई फसल की उगाही 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 

नवगीत मानवीय अनुभूतियों की जमीन से जुड़ी शब्दावली में काव्यात्मक अभिव्यक्ति है। अनुभूति किसी युग विशेष में सीमित नहीं होती। यह अनादि और अनंत है। मानवेतर जीव इसकी अभिव्यक्ति व्यवस्थित और सर्व ज्ञात विधि से नहीं कर पाते। मानव ने ध्वनि के साथ रस और लय का सम्मिश्रण कर नाद को निनाद में परिवर्तित कर कलकल  और कलरव को शब्द में ढाल दिया। लोकगीतों और शिशुगीतों में पशु-पक्षियों की बोलिओं का समावेश साक्षी है कि गीत की रचना यात्रा में प्रकृति और परिवेश की महती भूमिका रही है। इन बोलिओं में ध्वनि का उतार-चढ़ाव और ध्वनि खंड की आवृत्ति करना सीखने के साथ ही मानव ने सार्थक शब्दों का प्रयोग कर अपनी अनुभूतियों को ही नहीं, भावनाओं को भी लयबद्ध कर वाचिक गीतों को जन्म दिया। आज भी ग्रामीण अंचलों में खेती की तकवारी करते अपरिचित स्त्री-पुरुष संध्या समय में बम्बुलिया लोकगीत गाते हैं। विस्मय यह की छंद शास्त्र से अनभिज्ञ और कभी कभी अनपढ़ भी एक पंक्ति सुनकर उसी लय पर तत्क्षण रची पंक्ति गाते हुए सुर में सुर मिलाते हैं। मेरे पिताश्री जेल अधीक्षक रहे।  हमारा आवास जेल परिसर में ही होता था। जेल की ऊँची दीवारों में कैद बंदी सावन-फागुन, राखी-दीवाली पर स्वजनों की याद में सुबह-शाम इसी तरह गीत गाते और उनमें पंक्तियाँ जोड़ते जाते थे।

'लवाही' के नवगीतों को पूर्वाग्रही दृष्टि के शिकार तथाकथित समीक्षक नवगीत के पूर्व रचित तथाकथित मानकों से भिन्न पाकर नाक-भौं सिकोड़ें यह स्वाभाविक है किन्तु लवाहीकार को इसकी चिंता किये बिना नवगीतों की संरचना में संलग्न रहना चाहिए। कोई  पूर्ववर्ती कलमकार अपनी मान्यताओं के पिंजरे में भावी रचनाधर्मियों को कैद कैसे कर सकता है? हर नया रचनाकार अपनी शैली, अपना भावबोध, अपने प्रतीक, अपने बिम्ब, अपना शब्द विन्यास लेकर गीत रचता है। नवगीत की परिभाषा रचने के जितने प्रयास किये जाते हैं, नवगीत उन्हें बेमानी सिद्ध करते हुए हर बार किसी नई कलम को माध्यम बना कर नव भावमुद्रा के साथ प्रगट होकर सबको चौंका देता है। गीतों की समीक्षा केवल पिंगलीय मानकों के निकष पर करना उचित नहीं है। इनमें भावनाओं की, कामनाओं की, आकांक्षाओं की, अरमानों की, पीड़ा की, एकाकीपन की असंख्य भावधाराएँ समाहित होती हैं। इनमें अदम्य जिजीविषा छिपी होती है, इनमें अगणित सपने बुने जाते हैं, इनमें शब्द-शब्द में भाव, रस, लय का प्रवाह होता है।

नवगीत का उद्भव १९५० के आस पास माननेवाले जब सूर. तुलसी और मीरां की रचनाओं को इसका प्रेरणास्रोत बताते हैं तो उनकी समझ पर हँसा ही जा सकता है क्योंकि वे ही दूसरी श्वास में छायावाद की समस्त रचनाओं को काल बाह्य बताने में संकोच नहीं करते। भक्तिकाल में नवगीत का उत्स खोजने-बतानेवाले आधुनिक गीत के साथ अस्पृश्य की तरह बर्ताव करते हैं। तब कहना पड़ता है "गीत और नवगीत / नहीं हैं भारत-पाकिस्तान।" विकिपीडिया के अनुसार 'गीत और नवगीत में काल (समय) का अन्तर है। आस्वादन के स्तर पर दोनों को विभाजित किया जा सकता है। जैसे आज हम कोई छायावादी गीत रचें तो उसे आज का नहीं मानना चाहिए। उस गीत को छायावादी गीत ही कहा जायेगा। इसी प्रकार निराला के बहुत सारे गीत, नवगीत हैं, जबकि वे नवगीत की स्थापना के पहले के हैं। दूसरा अन्तर दोनों में रूपाकार का है। नवगीत तक आते-आते कई वर्जनायें टूट गईं। नवगीत में कथ्य के स्तर पर रूपाकार बदला जा सकता है। रूपाकार बदलने में लय महत्वपूर्ण 'फण्डा' है। जबकि गीत का छन्द प्रमुख रूपाकार है। तीसरा अन्तर कथ्य और उसकी भाषा का है। नवगीत के कथ्य में समय सापेक्षता है। वह अपने समय की हर चुनौती को स्वीकार करता है। गीत की आत्मा व्यक्ति केन्द्रित है, जबकि नवगीत की आत्मा समग्रता में है। भाषा के स्तर पर नवगीत छायावादी शब्दों से परहेज करता दिखाई देता है। समय के जटिल यथार्थ आदि की वजह से वह छन्द को गढ़ने में लय और गेयता को ज्यादा महत्व देता है।'

देवकीनन्दन 'शांत' अपने नवगीत संग्रह 'नवता' में यही प्रश्न उठाते हैं कि गीत से नवगीत तक आते-आते जब कई वर्जनायें टूटीं तो नवगीत के उद्भव से ७० वर्ष बाद आ रहे नवगीतकार कुछ वर्जनाएँ तोड़ रहे हैं तो आपत्ति क्यों? 'लवाही' के नवगीत पढ़कर भी यही प्रतीत होगा कि ये  नवगीत निर्धारित मानकों के अनुरूप नहीं हैं। मेरा प्रश्न यही है कि हर नयी रचना को पुराने मानकों के अनुरूप क्यों होना चाहिए? नवता को गढ़ने का अधिकार नये को क्यों नहीं मिलना चाहिए? मानक के नाम पर पुराने अपनी दृष्टि क्यों थोपते रहें? वे, उन्हें अमान्य करनेवाली कलमों को अमान्य किस अधिकार से करते रहें? भारतीय पिंगल शास्त्रीय परंपरा कृति का आरंभ ईश वंदना से करना श्रेयस्कर मानती है। लवाहीकार सुनीता सिंह इसका अंधानुकरण नहीं करतीं, वे ईश को प्रेम और प्रकाश का पर्याय मानकर प्रेम और सूर्य पर केंद्रित रचनाओं को आरम्भ में रखती हैं, परंपरा को नवता का बाना पहनाती हैं। 'दीनानाथ' और 'दीनबंधु' एक ही तो हैं,  उन्हें दैन्य भाव नहीं, सखा भाव अधिक रुचता है इसलिए सुनीता सूर्य को बंधु कहती हैं- 


कमी नहीं   

अब रही नमी की 
सूरज प्यारे दिखो निकलकर 
अब तो प्रगटो, धूप तिहारी 
सब सीलन में सना बंधुवर!

सर्दी में  सूर्य 'संक्रान्ति' अर्थात अर्थात परिवर्तन का वाहक होता है। इसी भावभूमि पर मेरे गीत-नवगीत संग्रह "काल है संक्रांति का" में ९ नवगीतों में सूर्य को केंद्र में रखा गया था। सुनीता सिंह सूर्य को लोक से जोड़ते हुए गुड़. लैया, तिल के लड्डू, दही-चूड़ा, मूँगफली, लक्ठा, आलू, बथुआ-चना-सरसों के साग, चाय-सूप-कॉफी, ज्वार-बाजरे-मक्के की रोटी, स्वेटर-जैकेट-शाल से जोड़ते हुए मुफ़लिस की झोपड़ी तक पहुँचाने में देर नहीं लगातीं। 'प्रीत की नक्काशियाँ' शीर्षक गीत में 'मन-भवन की देहरी पर प्रीत की नक्काशियाँ' जैसी प्रांजल अभिव्यक्ति गीतकार में छिपी संभावनाओं का संकेत करती है। इस गीत में अलंकारों की मनहर छटा अवलोकनीय है- 

रूह करती, रूह से मिल 
चाहतों की बारिशें 
शुष्क सहसा हो धरा फिर 
बूंदों की गुजारिशें   (यमक अलंकार ) 

घने कारे घिरे बदरा घेर लें दुश्वारियाँ (अनुप्रास अलंकार )

सूरज प्यारे दिखो निकलकर (उपमा अलंकार)

मन-भवन की देहरी पर  (रूपक अलंकार)

मकर संक्रांति शीर्षक गीत में कवयित्री विविध प्रदेशों में भिन्न-भिन्न नामों का उल्लेख करते हुए बिना कहे राष्ट्रीय एकता का भाव उपजाने में समर्थ है। 
सुरभित मति है जन मानस की 
क्या अगड़ी, क्या पिछड़ी?
तिल गुड़ लैया की सौंधी सी 
देख रही है तिकड़ी 

नवधनाढय वर्ग में अत्याधुनिकता के आडंबरों पर आक्षेप करते हुए सुनीता 'मुखौटा कल्चर' नवगीत में जिस शब्दावली का प्रयोग करती हैं वह सटीक ही नहीं सार्थक भी है- 

गुलमोहर से अधिक मनोहर
दौर मुखौटा कल्चर का। 

टाइल से भी ज्यादा चिकनी  
स्टाइल की दीवारें 
गूढ़ अर्थ हैं छुपे हुए से 
स्माइल में बारी-बारी 
नाम बड़ा हो गया है अब 
बेख़ौफ़ उड़ते वल्चर का 

स्पष्ट है कि भाषा में शुद्धता के पक्षधरता समीक्षकों को उँगली उठाने का अवसर मिलेगा किन्तु सुनीता साहस के साथ चुन-चुनकर वही शब्द प्रयोग करती हैं जो उनके चाहे भाव और कथ्य के साथ न्याय कर सके। वे शब्दों को शब्द कोशीय अर्थ से हटकर भिन्नार्थ में प्रयोग करने की सामर्थ्य रखती हैं, यह असाधारण है- 

बदला लगता आर्किटेक्चर 
इस आधुनिक 'स्कल्पचर' का। 
गुलमोहर से अधिक मनोहर 
दौर मुखौटा कल्चर का। 
पेय पुराना देसी छोड़ा, 
दिल आया अंग्रेजी पर। 
अब प्रगतिशील की पहचान 
रहे नशे की रंगरेजी पर।।   
  
सुनीता जी के गीतों में  मुहावरों का प्रयोग अनूठे तरीके से हुआ है। मुहावरे अपने सही अर्थ में, स्वाभाविकता के साथ आये हैं. ठूँसे नहीं गये हैं। 'स्वाद अदरकी' शीर्षक नवगीत में किताबी विद्वता और लालफीताशाही पर व्यंग्य तथा व्यञजनात्मकता देखते ही बनती है- 

दहर अनोखी, स्वाद अदरकी 
तो अब जाने बंदर ही 

जोड़-तोड़कर डिग्री लेकर 
बने पोथियों के विद्वान् 
बगुलों में वो हंसा बनकर 
चौपाल की बनते शान 
ज्ञान समुन्दर भरा हुआ है 
जैसे उनके अंदर ही 

बनते दफ्तर राजनीति में 
धुरी खुशामद्कारी की 
साँसें भी हों गिरवी जैसे 
रख दी चंद उधारी की 
संझा देते शलजम भी तो 
होता एक चुकंदर ही 

'सड़क' आपाधापी से संत्रस्त जीवन की सशक्त प्रतीक है। नगरीकरण की मारी जनता की आधी ज़िंदगी सड़क पर ही बीतती है। मैंने अपने नवगीत संग्रह 'सड़क पर' में ९ नवगीत सड़क के विविध पहलुओं पर लिखे हैं. यह प्रतीक सुनीता जी को भी प्रिय है। 'भीड़ है भारी सड़क पर' नवगीत के शीर्षक में ही श्लेष अलंकार का प्रयोग हुआ है। यह नवगीत सड़कों पर हो रहे घटनाक्रम को जीवंत करता है- 

भीड़ पर भारी सड़क है 
या सड़क पर भारी भीड़? 

जिधर भी जाओ जाम मिलेगा 
भीड़-भाड़ का नाम मिलेगा 
पौं-पौं-पौं-पौं पम-पम भारी 
फटफटिया का झाम मिलेगा  
चींटी चाल कतार चले 
कुछ पल बने वहीं पर नीड़ 

इन नवगीतों का विषय वैविध्य व्यापक है। इनमें पर्यावरण, वृद्धावस्था, स्त्री विमर्श, सांस्कृतिक अधकचरापन, कृषि, ऋतु चक्र परिवर्तन, युवा-दिशाहीनता, प्रशासन में राजनैतिक हस्तक्षेप, मूल्यह्रास, आदि विविध पहलू गीतकार की चिंता के विषय हैं। काबिले-तारीफ़ है कि सुनीता अपनी चिंतन दृष्टि पर अपनी जीवन शैली, प्रशासनिक दायित्व या पद को हावी नहीं होने देतीं। यह प्रवृत्ति उनके रचनाकार के कद को बढ़ाता है। उनका शब्द भण्डार व्यापक है। हिंदी, संस्कृत, अंग्रेजी, उर्दू उनके लिए सहज हैं। तत्सम-तद्भव शब्दों, मुहावरों, लोकोक्तियों आदि का प्रयोग वे बखूबी कर लेती हैं। उन्हें भाषा की शुद्धता नहीं संस्कार की चिंता रहती है। छंद वैविध्य उनके इन गीतों में सहजता से प्राप्त है। वे कथ्य को लय पर वरीयता देती हैं। 

सबसे अधुक महत्वपूर्ण बात यह है कि वे बनी बनाई लीक का अंधानुकरण न कर अपनी डगर बनाकर उस पर बढ़ना जानती हैं। वे बिना कहे इन रचनाओं के माध्यम से जता देती हैं कि  वैचारिक प्रतिबद्धता का लट्ठ भाँज रहे मठाधीश यह समझ लें कि गीत (नवगीत भी) लोक की उपज है, विश्वविद्यालय, सचिवालय या दलीय विचारधाराओं के शिविरों की नहीं। "लवाही" की गीति रचनाओं में अंतर्निहित और अंतर्व्याप्त 'लय' और 'रस' से अभिषेकित पंक्तियाँ इस विश्वास की पुष्टि करती हैं कि गीतों में नवता के नाम पर राजनैतिक वैचारिक प्रतिबद्धताओं को परोस कर जनमत जुटाने का दिवास्वप्न खंडित होता रहेगा। अभिव्यक्ति विश्वम के  नवगीत महोत्सव २०१९ में जिस तरह साम्यवादी समूह के गीतकारों ने एकत्र होकर भारतीय सनातन मूल्यपरक गीत की पक्षधरता की बात करते वरिष्ठ गीतकार पर अशोभनीय वाक्प्रहार किये, उसे देखते हुए उसी नगरी में 'लवाही' की रचना होना यह सिद्ध करती है कि विचार-चेतना को तोड़ा नहीं जा सकता।

विशिष्टता यह भी कि जन सामान्य की शब्दावली, भावनाओं और अनुभूतियों को गीतायित करने का महत्वपूर्ण कार्य पुरुष नहीं महिला, वह भी दैनंदिन जीवन की आवश्यकताओं हेतु जूझती महिला द्वारा ही नहीं, उच्च प्रशासनिक दायित्व का निष्ठापूर्वक निर्वहन कर रही आत्मनिर्भर तरुणी द्वारा भी किया जा रहा है। यह कहना इसलिए आवश्यक है कि गीतोद्यान में अंकुरित हो रही नई  कलमें यह जान सकें कि गीत रचना हेतु आवश्यक भावप्रवणता किसी सर्वहारा वर्ग की बपौती नहीं है। बहुमूल्य खाद्य ग्रहणकर पचने के लिए हाजमोला और चूर्ण फाँक रहे श्रेष्ठि जन गीत में भुखमरी को ठूँसने का जो छद्म रच रहे हैं वह केवल पाखंड है। देश की अद्वितीय प्रगति की अनदेखी कर पिछड़ेपन के नवगीत लिखना समय और समाज दोनों के साथ अन्याय है।

पंकज परिमल परिमल के शब्दों में गीत "सायासता और अनायासता का एक आनुपातिक मिश्रण होता है। सायासता कविता में बिलकुल न होगी,यह मानना मुश्किल है। पर अमर्यादित सायासता कविता की सहजता को नष्ट करती है। देशज शब्द तद्भव शब्दों का साथ गहते हैं तो कभी -कभी क्रियापदों के ग्राम्य आचरण को खड़ी बोली की कविता में रोक पाना मुश्किल हो जाता है।" सुनीता सिंह के ये नवगीत जो स्वाभाविक रूप से गीत भी हैं, सहजता को सहज ही साध पाते हैं। 'बूढ़ी आँखें' शीर्षक नवगीत में सुनीता उस अनुभव को विषय बनती हैं जिससे वे अभी वर्षों पीछे हैं किन्तु उनकी सहृदयता परानुभूति को स्वानुभूति बनाकर कह पाती है- 

झुर्रियों में हैं कथानक 
धूप-छाँव के, अनुभव के 
लोच है मानो युगों की 
बिना बुलाये जो धमके 
उर्मियों के तप्त मंजर 
सावनों के भी समंदर 
सैलाब को थामे हुए 
भवों को हैं ताने हुए 
वंशबेल का सुख अनुपम  
बाकी सब नाचीज है। 

इन ७२ गीतों में सुनीता सिंह ने समय और समाज दोनों को पडतालने की ईमानदार कोशिश की है। उनमें लंबा सफर करने की काबलियत है। आगामी कृतियों में शिल्पगत बारीकियाँ और खूबियाँ और अधिक उभरें यह स्वाभाविक विकास क्रम है। मुझे युवा नवगीतकार की सृजन यात्रा में सहयात्री बनते हुए प्रसन्नता है। यह विश्वास है कि ये रचनाएँ पढ़ी और सराही जाएँगी तथा इनकी रचनाकार बहुविध समादृत होगी। 

                                                                                                                                                                संजीव 

संपर्क : विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५१८३२४४, ईमेल: salil.sanjiv@gmail.com  















कोई टिप्पणी नहीं: