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रविवार, 5 अप्रैल 2020

कृति चर्चा: मैं हूँ एक भाग हिमालय का ममता शर्मा

कृति चर्चा:
मैं हूँ एक भाग हिमालय का : मन मंदाकिनी का काव्य प्रवाह
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चर्चाकार: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
(कृति विवरण: मैं हूँ एक भाग हिमालय का, काव्य संग्रह, ममता शर्मा, प्रथम संस्करण २०१८, आईएसबीएन ९७८०४६३६४४९६६, आवरण पेपरबैक बहुरंगी, पृष्ठ १२०, मूल्य१८५ रु., प्रकाशक वर्जिन साहित्य पीठ दिल्ली)
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कविता की नहीं जाती, हो जाती है। अनुभूति के शिखर से अभिव्यक्ति सलिला प्रवाहित होकर कलकल निनाद करे तो कविता हो जाती है। मानव जीवन पल-पल परिवर्तन का साक्षी बनता है। भावात्म शब्द-तन मे वास कर परिवर्तनजनित प्रतिक्रिया के प्रागट्य का साक्षी बनता है। यह निर्विवाद सत्य है कि नारी मन पुरुष मन की तुलना में अधिक भाव प्रवण और ममतामय होता है। 'मैं हूँ भाग हिमालय का' की कविताएँ व्यष्टि और समष्टि के अंतर्संबंध की प्रतीति से उद्भूत हैं।
'आज धरा के आँगन में फिर
सूरज ऊषा लेकर आया
देख अचानक संग उन्हें
रजनी-नेत्रों में जल भर आया।
फट ले अपनी काली चूनर
झटपट वो विभावरी भागी
तभी अचानक पाँखें खोले
चिड़िया भी चूँ-चूँ कर जागी।'
प्रकृति के साथ तादात्म्य-स्थापन ब्रह्म-साक्षात का प्रथम चरण है। रंग उड़ा, रंग उड़ा, हर दिशा ही रंग उड़ा' हर दिशा में रंग दिखना लगे तो कबीर सब कुछ लुटा देता है पर लोई को घर में ही ब्रह्म का पारा पाँव पसारे मिल जाता है। उसे मम्मी के भाल, पूजा के थाल, गणपति और हाथी, मोती के बैल और पकवानों का कतारों में अर्थात यत्र-तत्र-सर्वत्र रंग ही रंग दिखता है। निराकुल मीरा कहती हैं 'मैं तो साँवरी के रँग राँची' ममता की प्रतीति भिन्न होना स्वाभाविक है। 'मन को लगाएँ किससे / मैं बतियाऊँ किससे' के गिले-शिकवे भुलाकर 'चंपकवन में एक रूपसी / गर्वीली मतवाली आली' होकर स्वरूप निहारती वह जान ही नहीं पाती 'आया कौन मन के दर्पण में....बिना रोके-टोके' लेकिन आ ही गया तो जाने का द्वार नहीं है। 'यही तो जीवन है अभिराम / यही तो जीवन है सुखधाम।' रंगरसिया साथ हो तो 'पीली-पीली सरसों फैली / फैली चारों ओर' का प्रतीति होनी ही है। यह प्रतीति संकुचन नहीं विस्तार और नव सृजन के पथ पर पग धरती है- 'है बस नियमों थोड़ा सा अहसास जागा / हाँ, मैं भी हूँ हिस्सा धरा का जरा सा', कामना जागती है 'भूमि पा अब बीज जाए / हो उजाला सूर्य का / चंदा का किरणें गुनगुनाएँ'।
सृजनाकांक्षी चेतना 'मुसाफिर हूँ मैं / हर क्षण चलती ही रहती हूँ' कहते हुए भी गंतव्य के प्रति सचेत रहती है-'रहा बचपन जवानी, सब में बेसुध / कुछ खबर ले-ले'।
'काठ का हाँडी चढ़ी तो पल में बात समझ गई'। कौन सी बात? यही कि 'जो करना आज ही कर लो'। क्योंकि 'हम क्या हैं? / केवल सितारों की राख / या हैं हम / संपूर्ण ब्रह्मांड'।
अनुभूतियों का इंद्रधनुषी रंग 'मैं हूँ एक भाग हिमालय का' में सर्वत्र व्याप्त है। गीत-सागर राकेश खंडेलवाल लिखित आमुख से समृद्ध
यह कृति कवयित्री की काव्य-सृजन प्रतिभा की प्रथम पुष्प है जो पूत के पाँव पालने में दिखते हैं कहावत को चरितार्थ करती है।
'ठुमुक चलत रामचंद्र' का पैंजनियों का रुनझुन ले आनंदित होते समय पुष्प-वाटिका, पंचवटी या लंकापुरी में राम की छवि न खोजें तो विवेच्य कृति बालारुणी ऊषा की रम्य छवि-दर्शन का सा आनंद देती है। कवयित्री की प्रतिभा आगामी काव्य संग्रहों में परवान पर चढ़कर विश्ववाणी हिंदी के साहित्य कोष को समृद्ध करेगी, यह विश्वास किया जा सकता है।
५-४-२०१९
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संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, चलभाष ७९९९५५९६१८।
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