कृति चर्चा-
"अंजुरी भर धूप" नवगीत अरूप
चर्चाकार- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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[कृति परिचय- अँजुरी भर धूप, गीत-नवगीत संग्रह, सुरेश कुमार पंडा, वर्ष २०१६, ISBN ८१-८९२४४-१८-०४, आकार २०.५ से.मी.x१३.५ से.मी., आवरण बहुरंगी पेपरबैक, १०४, मूल्य १५०/-, वैभव प्रकाशन अमीनपारा चौक, पुरानी बस्ती, रायपुर गीतकार संपर्क ९४२५५१००२७]
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क्रमश: विकसित होते आदि मानव ने अपनी अनुभूतियों और संवेदनाओं को अभिव्यक्त करने के लिए प्राकृतिक घटनाओं और अन्य जीव-जंतुओं की बोली को अपने मस्तिष्क में संचित कर उनका उपयोग कर अपने सत्यों को संदेश देने की कला का निरंतर विकास कर अपनी भाषा को सर्वाधिक उन्नत किया. अलग-अलग मानव-समूहों द्वारा विकसित इन बोलियों-भाषाओँ से वर्त्तमान भाषाओँ का आविर्भाव होने में अगणित वर्ष लग गए. इस अंतराल में अभिव्यक्ति का माध्यम मौखिक से लिखित हुआ तो विविध लिपियों का जन्म हुआ. लिपि के साथ लेखनाधार भूमि. शिलाएं, काष्ठ पट, ताड़ पात्र, कागज़ आदि तथा अंगुली, लकड़ी, कलम, पेन्सिल, पेन आदि का विकास हुआ. अक्षर, शब्द, तथा स्थूल माध्यम बदलते रहने पर भी संवेदनाएँ और अनुभूतियाँ नहीं बदलीं. अपने सुख-दुःख के साथ अन्यों के सुख-दख को अनुभव करना तथा बाँटना आदिकाल से आज तक ज्यों का त्यों है. अनुभूतियों के आदान-प्रदान के लिए भाषा का प्रयोग किये जाने की दो शैलियाँ गद्य और पद्य का विकसित हुईं. गद्य में कहना आसान होने पर भी उसका प्रभाव पद्य की तुलना में कम मर्मस्पर्शी रहा.
पद्य साहित्य वक्ता-श्रोता तथा लेखक-पाठक के मध्य संवेदना-तन्तुओं को अधिक निकटता से जोड़ सका. विश्व के हिस्से और हर भाषा में पद्य सुख-दुःख और गद्य दैनंदिन व्यवहार जगत की भाषा के रूप में व्यवहृत हुआ. भारत की सभ्यता और संस्कृति उदात जीवनमूल्यों, सामाजिक सहचरी और सहिष्णुता के साथ वैयक्तिक राग-विराग को पल-पल जीती रही है. भारत की सभी भाषाओँ में पद्य जीवन की उदात्त भावनाओं को व्यक्त करने के लिए सहजता और प्रचुरता से प्रयुक्त हुआ. हिंदी के उद्भव के साथ आम आदमी की अनुभूतियों को, संभ्रांत वर्ग की अनुभूतियों पर वरीयता मिली. उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में राजाओं और विदेश संप्रभुओं के विरुद्ध जन-जागरण में हिंदी पद्य साहित्य में महती भूमिका का निर्वहन किया. इस पृष्ठभूमि में हिंदी नवगीत का जन्म और विकास हुआ. आम आदमी की सम्वेदनाओं को प्रमुखता मिलने को साम्यवादियों ने विसंगति और विडम्बना केन्द्रित विचारधारा से जोड़ा. साम्यवादियों ने स्वान्त्रयोत्तर काल में जन समर्थन तथा सत्ता न मिलने पर भी योजनापूर्वक शिक्षा संस्थाओं और साहित्यिक संस्थाओं में घुसकर प्रचुर मात्र में एकांगी साहित्य रचकर, अपने की विचारधारा के समीक्षकों से अपने अनुकूल मानकों के आधार पर मूल्यांकन कराया.
अन्य विधाओं की तरह नवगीत में भी सामाजिक विसंगति, वर्ग संघर्ष, विपन्नता, दैन्य, विडम्बना, आक्रोश आदि के अतिरेकी और एकांगी शब्दांकन को वैशिष्ट्य मान तथाकथित प्रगतिवादी साहित्य रचने की प्रवृत्ति बढ़ती गयी. भारतीय आम जन सनातन मूल्यों और परम्पराओं में आस्था तथा सत-शिव-सुंदर में विश्वास रखने के संस्कारों के कारण ऐसे साहित्य से दूर होने लगा. साहित्यिक प्रेरणा और उत्स के आभाव ने सामाजिक टकराव को बढ़ाया जिसे राजनीति ने हवा दी. साहित्य मनीषियों ने इस संक्रमण काल में सनातन मूल्यपरक छांदस साहित्य को जनभावनाओं के अनुरूप पाकर दिशा परिवर्तन करने में सफलता पाई. गीत-नवगीत को जन सामान्य की उत्सवधर्मी परंपरा से जोड़कर खुली हवा में श्वास लेने का अवसर देनेवाले गीतकारों में एक नाम भाई सुरेश कुमार पंडा का भी है. सुरेश जी का यह गीत-नवगीत संग्रह शिष्ट श्रृंगार रस से आप्लावित मोहक भाव मुद्राओं से पाठक को रिझाता है.
'उग आई क्षितिज पर
सेंदुरी उजास
ताल तले पियराय
उर्मिल आकाश
वृन्तों पर शतरंगी सुमनों की
भीग गई
रसवन्ती कोर
बाँध गई अँखियों को शर्मीली भोर
*
फिर बिछलती साँझ ने
भरमा दिया
लेकर तुम्हारा नाम
*
अधरों के किसलई
किनारों तक
तैर गया
रंग टेसुआ
सपनीली घटी के
शैशवी उतारों पर
गुम हो गया
उमंग अनछुआ
आ आकर अन्तर से
लौट गया
शब्द इक अनाम
लिखा है एक ख़त और
अनब्याही ललक के नाम
*
सनातन शाश्वत अनुभूतियों की सात्विकतापूर्ण अभिव्यक्ति सुरेश जी का वैशिष्ट्य है. वे नवगीतों को आंचलिकता और प्रांजलता के समन्वय से पठनीय बनाते हैं. देशजता और जमीन से जुड़ाव के नाम पर अप्रचलित शब्दों को ठूँसकर भाषा और पाठकों के साथ अत्याचार नहीं करते. अछूती भावाभिव्यक्तियाँ, टटके बिम्ब और मौलिक कहन सुरेश जी के गीतों को पाठक की अपनी अनुभूति से जोड़ पाते हैं-
पीपल की फुनगी पर
टँगी रहीं आँखें
जाने कब
अँधियारा पसर गया?
एकाकी बगर गया
रीते रहे पल-छिन
अनछुई उसांसें.
*
नवगीत की सरसता सहजता, ताजगी और अभिव्यंजना ही उसे गीतों से पृथक करती है. 'अँजुरी भर धूप' में यह तीनों तत्व सर्वत्र व्याप्त हैं. एक सामान्य दृश्य को अभिनव दृष्टि से शब्दित करने की कला में नवगीतकार माहिर है -
आँगन के कोने में
अलसाया
पसरा था
करवट पर सिमटी थी
अँजुरी भर धूप
*
तुम्हारे एक आने से
गुनगुनी
धूप सा मन चटख पीला
फूल सरसों का
तुम्हारे एक आने से
सहज ही खुल गई आँखें
उनींदी
रतजगा
करती उमंगों का.
*
सुरेश जी विसंगतियों, पीडाओं और विडंबनाओं को नवगीत में पिरोते समय कलात्मकता को नहीं भूलते. सांकेतिकता उनकी अभिव्यक्ति का अभिन्न अंग है -
चाँदनी थी द्वार पर
भीतर समायी
अंध कारा
पास बैठे थे अजाने
दुर्मुखों का था सहारा.
*
'लिखा है एक ख़त' शीर्षक गीत में सुरेश जी प्रेम को दैहिक आयाम से मुक्त कराकर अंतर्मन से जोड़ते हैं-
भीतर के गाँवों तक
थिरक गयी
पुलकन की
लहर अनकही
निथर गयी
साँसों पर आशाएँ
उर्मिल और
तरल अन्बही
भीतर तक
पसर गयी है
गंध एक अनाम.
लिखा है एक ख़त
यह और
अनब्याही ललक के नाम.
*
जीवन में बहुद्द यह होता है की उल्लास की घड़ियों में ख़ामोशी से दबे पाँव, बिना बताये गम भी प्रवेश कर जाता है. बिटिया के विवाह का उल्लास कब बिदाई के दुःख में परिवर्तित हो जाता है, पता ही नहीं चल पाता. सुरेश जी इस जीवन सत्य को 'अनछुई उसासें' शीर्षक से उठाते हैं-
पीपल की फुनगी पर
टँगी रही आँखें
जाने कब
अंधियारा पसर गया,
एकाकी बगर गया,
रीते रहे पल-छीन
अनछुई उसासें
*
गुपचुप इशारों सी
तारों की पंक्ति
माने तब
मनुहारिन अलकों में
निष्कम्पित पलकों में
आते पदचापों की होती है गिनती.
*
'अपने मन का हो लें' गीत व्यवस्था से मोह भंग की स्थिति में मनमानी करनी की सहज-स्वाभाविक मानवीय प्रवृत्ति को सामने लता है किन्तु इसमें कहीं विद्रोह का स्वर नहीं है. असहमति और मत वैभिन्न्य की भी अभिव्यक्ति पूर्ण सकारात्मकता के साथ कर पाना गीतकार का इष्ट है-
अमराई को छोड़
कोयलिया
शहर बस गयी
पीहर पाकर
गूँज रही है
कूक सुरीली
आओ अब हम
खिड़की खोलें.
प्रेशर कुकर की सीटी भाप को निकाल कर जिस तरह विस्फोट को रोकती है उसे तरह यहाँ खिड़की खोलने का प्रतीक पूरी तरह सार्थक और स्वाभाविक है.
जुगनू ने
पंगत तोडी है
तारों की
संगत में आकर
उजियारा
सपना बन बैठा
कैसे हम जीवन रस घोलें?...
.... तम का
क्या विस्तार हो गया
बतलाओ तो
क्यों न अपने मन का हो लें?
*
आदिवासी और ग्रामीण अंचलों में अभावों के बाद भी जीवन में व्याप्त उल्लास और हौसले को सुरेश जी 'मैना गीत गाती हैं' में सामने लाते हैं. शहरी जीवन की सुविधाएँ और संसाधन विलासिता की हद तक जाकर भी सुख नहीं दे पाते जबकि गाँव में आभाव के बाद भी जिंदगी में 'गीत' अर्थात राग शेष है.
मैना गीत गाती है
रात में जं
गल सरइ के
गुनगुनाते हैं.
घोर वन के
हिंस्र पशु भी
शांत मन से
झुरमुठों में
शीत पाते हैं.
रात करती नृत्य
मैना गीत गाती है.
हरड़ के पेड़ों चढ़ी
वह
भोर की ठंडी हवा भी
सनसनाती है.
जंगली फल-मूल से
घटती उदर ज्वाला
मन का नहीं है
अब तलक
कोना कोई काला.
स्व. भवानी प्रसाद मिश्र की कालजयी रचना 'सतपुड़ा के घने जंगल' की याद दिलाती इस रचना का उत्तरार्ध जंगल की शांति मिटाते नकसली नक्सली आतंक को शब्दित करता है-
अब यहाँ
जीवन-मरण का
खेल चलता है
बारूदों के ढेर बैठा
विवश जीवन
हाथ मलता है.
भय का है फैला
क्षेत्र भर में
अजब कारोबार
वैन में,
नदी में
पर्वतों में
आधुनिकतम बंदूकें ही
दनदनाते हैं.
*
अपने समय के सच से आँख मिलाता कवि साम्यवाद और प्रगतिवाद की यह दिशाहीन परिणति सामने लाने में यत्किंचित भी संकोच नहीं करता. 'मन का कोना में निस्संकोच कहता है-
अर्थहीन
पगडंडी जाती
आँख बचाकर
दूर.
नवगीत इस 'अर्थहीनता' के चक्रव्यूह को बेधकर 'अर्थवत्ता' के अभिमन्यु का जयतिलक कर सके, इसी में उसकी सार्थकता है. प्राकृतिक वन्य संपदा और उसमें अन्तर्निहित सौन्दर्य कवि को बार-बार आकर्षित करता है-
कांस फूला
बांस फूला
आम बौराया.
हल्दी का उबटन घुलाकर
नीम हरियाया.
फिर गगन में मेघ संगी
तड़ित पाओगे.
आज तेरी याद फिर गहरा गयी है, कौन है, स्वप्न से जागा नहीं हूँ, मन मेरा चंचल हुआ है, तुम आये थे, तुम्हारे एक आने से, मन का कोना, कब आओगे?, चाँदनी है द्वार पर, भूल चुके हैं, शहर में एकांत, स्वांग, सूरज अकेला है, फागुन आया आदि रचनाएँ मन को छूती हैं. सुरेश जी के इन नवगीतों की भाषा अपनी अभिव्यंजनात्मकता के सहारे पाठक के मन पैठने में सक्षम है. सटीक शब्द-चयन उनका वैशिष्ट्य है. यह संग्रह पाठकों को मन भाने के साथ अगले संग्रह के प्रति उत्सुकता भी जगाता है.
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संपर्क- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', 204 विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, ९४२५१८३२४४, salil.sanjiv@gmail.com
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