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२४ जून १५६४ महारानी दुर्गावती शहादत दिवस पर विशेष रचना
२४ जून १५६४ महारानी दुर्गावती शहादत दिवस पर विशेष रचना
छंद सलिला: शुद्ध ध्वनि छंद
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छंद-लक्षण: जाति लाक्षणिक, प्रति चरण मात्रा ३२ मात्रा, यति १०-८-८-६, पदांत गुरु
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छंद-लक्षण: जाति लाक्षणिक, प्रति चरण मात्रा ३२ मात्रा, यति १०-८-८-६, पदांत गुरु
लक्षण छंद:
लाक्षणिक छंद है / शुद्धध्वनि पद / अंत करे गुरु / यश भी दे
यति हो दस पर फिर / आठ आठ छह, / विरुद गाइए / साहस ले
चौकल में जगण न / है वर्जित- करि/ए प्रयोग जब / मन चाहे
कह-सुन वक्ता-श्रो/ता हर्षित, सम / शब्द-गंग-रस / अवगाहे
.
उदाहरण:
१. बज उठे नगाड़े / गज चिंघाड़े / अंबर फाड़े / भोर हुआ
खुर पटकें घोड़े / बरबस दौड़े / संयम छोड़े / शोर हुआ
गरजे सेनानी / बल अभिमानी / मातु भवानी / जय रेवा
ले धनुष-बाण सज / बड़ा देव भज / सैनिक बोले / जय देवा
लाक्षणिक छंद है / शुद्धध्वनि पद / अंत करे गुरु / यश भी दे
यति हो दस पर फिर / आठ आठ छह, / विरुद गाइए / साहस ले
चौकल में जगण न / है वर्जित- करि/ए प्रयोग जब / मन चाहे
कह-सुन वक्ता-श्रो/ता हर्षित, सम / शब्द-गंग-रस / अवगाहे
.
उदाहरण:
१. बज उठे नगाड़े / गज चिंघाड़े / अंबर फाड़े / भोर हुआ
खुर पटकें घोड़े / बरबस दौड़े / संयम छोड़े / शोर हुआ
गरजे सेनानी / बल अभिमानी / मातु भवानी / जय रेवा
ले धनुष-बाण सज / बड़ा देव भज / सैनिक बोले / जय देवा
कर तिलक भाल पर / चूड़ी खनकीं / अँखियाँ छलकीं / वचन लिया
'सिर अरि का लेना / अपना देना / लजे न माँ का / दूध पिया'
''सौं मातु नरमदा / काली मैया / यवन मुंड की / माल चढ़ा
लोहू सें भर दौं / खप्पर तोरा / पिये जोगनी / शौर्य बढ़ा''
'सिर अरि का लेना / अपना देना / लजे न माँ का / दूध पिया'
''सौं मातु नरमदा / काली मैया / यवन मुंड की / माल चढ़ा
लोहू सें भर दौं / खप्पर तोरा / पिये जोगनी / शौर्य बढ़ा''
सज सैन्य चल पडी / शोधकर घड़ी / भेरी-घंटे / शंख बजे
दिल कँपे मुगल के / धड़-धड़ धड़के / टँगिया सम्मुख / प्राण तजे
गोटा जमाल था / घुला ताल में / पानी पी अति/सार हुआ
पेड़ों पर टँगे / धनुर्धारी मा/रें जीवन दु/श्वार हुआ
दिल कँपे मुगल के / धड़-धड़ धड़के / टँगिया सम्मुख / प्राण तजे
गोटा जमाल था / घुला ताल में / पानी पी अति/सार हुआ
पेड़ों पर टँगे / धनुर्धारी मा/रें जीवन दु/श्वार हुआ
वीरनारायण अ/धार सिंह ने / मुगलों को दी / धूल चटा
रानी के घातक / वारों से था / मुग़ल सैन्य का / मान घटा
रूमी, कैथा भो/ज, बखीला, पं/डित मान मुबा/रक खां लें
डाकित, अर्जुनबै/स, शम्स, जगदे/व, महारख सँग / अरि-जानें
रानी के घातक / वारों से था / मुग़ल सैन्य का / मान घटा
रूमी, कैथा भो/ज, बखीला, पं/डित मान मुबा/रक खां लें
डाकित, अर्जुनबै/स, शम्स, जगदे/व, महारख सँग / अरि-जानें
पर्वत से पत्थर / लुढ़काये कित/ने हो घायल / कुचल मरे-
था नत मस्तक लख / रण विक्रम, जय / स्वप्न टूटते / हुए लगे
बम बम भोले, जय / शिव शंकर, हर / हर नरमदा ल/गा नारा
ले जान हथेली / पर गोंडों ने / मुगलों को बढ़/-चढ़ मारा
था नत मस्तक लख / रण विक्रम, जय / स्वप्न टूटते / हुए लगे
बम बम भोले, जय / शिव शंकर, हर / हर नरमदा ल/गा नारा
ले जान हथेली / पर गोंडों ने / मुगलों को बढ़/-चढ़ मारा
आसफ खां हक्का / बक्का, छक्का / छूटा याद हु/ई मक्का
सैनिक चिल्लाते / हाय हाय अब / मरना है बिल/कुल पक्का
हो गयी साँझ निज / हार जान रण / छोड़ शिविर में / जान बचा
छिप गया: तोपखा/ना बुलवा, हो / सुबह चले फिर / दाँव नया
सैनिक चिल्लाते / हाय हाय अब / मरना है बिल/कुल पक्का
हो गयी साँझ निज / हार जान रण / छोड़ शिविर में / जान बचा
छिप गया: तोपखा/ना बुलवा, हो / सुबह चले फिर / दाँव नया
रानी बोलीं "हम/ला कर सारी / रात शत्रु को / पीटेंगे
सरदार न माने / रात करें आ/राम, सुबह रण / जीतेंगे
बस यहीं हो गयी / चूक बदनसिंह / ने शराब थी / पिलवाई
गद्दार भेदिया / देश द्रोह कर / रहा न किन्तु श/रम आई
सरदार न माने / रात करें आ/राम, सुबह रण / जीतेंगे
बस यहीं हो गयी / चूक बदनसिंह / ने शराब थी / पिलवाई
गद्दार भेदिया / देश द्रोह कर / रहा न किन्तु श/रम आई
सेनानी अलसा / जगे देर से / दुश्मन तोपों / ने घेरा
रानी ने बाजी / उलट देख सो/चा वन-पर्वत / हो डेरा
बारहा गाँव से / आगे बढ़कर / पार करें न/र्रइ नाला
नागा पर्वत पर / मुग़ल न लड़ पा/येंगे गोंड़ ब/नें ज्वाला
रानी ने बाजी / उलट देख सो/चा वन-पर्वत / हो डेरा
बारहा गाँव से / आगे बढ़कर / पार करें न/र्रइ नाला
नागा पर्वत पर / मुग़ल न लड़ पा/येंगे गोंड़ ब/नें ज्वाला
सब भेद बताकर / आसफ खां को / बदनसिंह था / हर्षाया
दुर्भाग्य घटाएँ / काली बनकर / आसमान पर / था छाया
डोभी समीप तट / बंध तोड़ मुग/लों ने पानी / दिया बहा
विधि का विधान पा/नी बरसा, कर / सकें पार सं/भव न रहा
दुर्भाग्य घटाएँ / काली बनकर / आसमान पर / था छाया
डोभी समीप तट / बंध तोड़ मुग/लों ने पानी / दिया बहा
विधि का विधान पा/नी बरसा, कर / सकें पार सं/भव न रहा
हाथी-घोड़ों ने / निज सैनिक कुच/ले, घबरा रण / छोड़ दिया
मुगलों ने तोपों / से गोले बर/सा गोंडों को / घेर लिया
सैनिक घबराये / पर रानी सर/दारों सँग लड़/कर पीछे
कोशिश में थीं पल/टें बाजी, गिरि / पर चढ़ सकें, स/मर जीतें
मुगलों ने तोपों / से गोले बर/सा गोंडों को / घेर लिया
सैनिक घबराये / पर रानी सर/दारों सँग लड़/कर पीछे
कोशिश में थीं पल/टें बाजी, गिरि / पर चढ़ सकें, स/मर जीतें
रानी के शौर्य-पराक्रम ने दुश्मन का दिल दहलाया था
जा निकट बदन ने / रानी पर छिप / घातक तीर च/लाया था
तत्क्षण रानी ने / खींच तीर फें/का, जाना मु/श्किल बचना
नारायण रूमी / भोज बच्छ को / चौरा भेज, चु/ना मरना
जा निकट बदन ने / रानी पर छिप / घातक तीर च/लाया था
तत्क्षण रानी ने / खींच तीर फें/का, जाना मु/श्किल बचना
नारायण रूमी / भोज बच्छ को / चौरा भेज, चु/ना मरना
बोलीं अधार से / 'वार करो, लो / प्राण, न दुश्मन / छू पाये'
चाहें अधार लें / उन्हें बचा, तब / तक थे शत्रु नि/कट आये
रानी ने भोंक कृ/पाण कहा: 'चौरा जाओ' फिर प्राण तजा
लड़ दूल्हा-बग्घ श/हीद हुए, सर/मन रानी को / देख गिरा
चाहें अधार लें / उन्हें बचा, तब / तक थे शत्रु नि/कट आये
रानी ने भोंक कृ/पाण कहा: 'चौरा जाओ' फिर प्राण तजा
लड़ दूल्हा-बग्घ श/हीद हुए, सर/मन रानी को / देख गिरा
भौंचक आसफखाँ / शीश झुका, जय / पाकर भी थी / हार मिली
जनमाता दुर्गा/वती अमर, घर/-घर में पुजतीं / ज्यों देवी
पढ़ शौर्य कथा अब / भी जनगण, रा/नी को पूजा / करता है
जनहितकारी शा/सन खातिर नित / याद उन्हें ही / करता है
जनमाता दुर्गा/वती अमर, घर/-घर में पुजतीं / ज्यों देवी
पढ़ शौर्य कथा अब / भी जनगण, रा/नी को पूजा / करता है
जनहितकारी शा/सन खातिर नित / याद उन्हें ही / करता है
बारहा गाँव में / रानी सरमन /बग्घ दूल्ह के / कूर बना
ले कंकर एक र/खे हर जन, चुप / वीर जनों को / शीश नवा
हैं गाँव-गाँव में / रानी की प्रति/माएँ, हैं ता/लाब बने
शालाओं को भी , नाम मिला, उन/का- देखें ब/च्चे सपने
ले कंकर एक र/खे हर जन, चुप / वीर जनों को / शीश नवा
हैं गाँव-गाँव में / रानी की प्रति/माएँ, हैं ता/लाब बने
शालाओं को भी , नाम मिला, उन/का- देखें ब/च्चे सपने
नव भारत की नि/र्माण प्रेरणा / बनी आज भी / हैं रानी
रानी दुर्गावति / हुईं अमर, जन / गण पूजे कह / कल्याणी
नर्मदासुता, चं/देल-गोंड की / कीर्ति अमर, दे/वी मैया
जय-जय गाएंगे / सदियों तक कवि/, पाकर कीर्ति क/था-छैंया
रानी दुर्गावति / हुईं अमर, जन / गण पूजे कह / कल्याणी
नर्मदासुता, चं/देल-गोंड की / कीर्ति अमर, दे/वी मैया
जय-जय गाएंगे / सदियों तक कवि/, पाकर कीर्ति क/था-छैंया
टिप्पणी: कूर = समाधि
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https://hi.wikipedia.org/wiki/रानी_दुर्गावती
रानी दुर्गावती (५ अक्टूबर १५२४ – २४ जून, १५६४)) भारत की एक वीरांगना थीं जिन्होने अपने विवाह के चार वर्ष बाद अपने पति दलपत शाह की असमय मृत्यु के बाद अपने पुत्र वीरनारायण को सिंहासन पर बैठाकर उसके संरक्षक के रूप में स्वयं शासन करना प्रारंभ किया। इनके शासन में राज्य की बहुत उन्नति हुई। दुर्गावती को तीर तथा बंदूक चलाने का अच्छा अभ्यास था। चीते के शिकार में इनकी विशेष रुचि थी। उनके राज्य का नाम गढ़मंडला था जिसका केन्द्र जबलपुर था। वे इलाहाबाद के मुगल शासक आसफ खान से लोहा लेने के लिये प्रसिद्ध हैं। महारानी दुर्गावती कालिंजर के राजा कीर्तिसिंह चंदेल की एकमात्र संतान थीं। बांदा जिले के कालिंजर किले में 1524 ईसवी की दुर्गाष्टमी पर जन्म के कारण उनका नाम दुर्गावती रखा गया। नाम के अनुरूप ही तेज, साहस, शौर्य और सुन्दरता के कारण इनकी प्रसिद्धि सब ओर फैल गयी। दुर्गावती के मायके और ससुराल पक्ष की जाति भिन्न थी लेकिन फिर भी दुर्गावती की प्रसिद्धि से प्रभावित होकर गोण्डवाना साम्राज्य के राजा संग्राम शाह मडावी ने अपने पुत्र दलपत शाह मडावी से विवाह करके, उसे अपनी पुत्रवधू बनाया था। दुर्भाग्यवश विवाह के चार वर्ष बाद ही राजा दलपतशाह का निधन हो गया। उस समय दुर्गावती की गोद में तीन वर्षीय नारायण ही था। अतः रानी ने स्वयं ही गढ़मंडला का शासन संभाल लिया। उन्होंने अनेक मठ, कुएं, बावड़ी तथा धर्मशालाएं बनवाईं। वर्तमान जबलपुर उनके राज्य का केन्द्र था। उन्होंने अपनी दासी के नाम पर चेरीताल, अपने नाम पर रानीताल तथा अपने विश्वस्त दीवान आधारसिंह के नाम पर आधारताल बनवाया।
रानी दुर्गावती का यह सुखी और सम्पन्न राज्य पर मालवा के मुसलमान शासक बाजबहादुर ने कई बार हमला किया, पर हर बार वह पराजित हुआ। महान मुगल शासक अकबर भी राज्य को जीतकर रानी को अपने हरम में डालना चाहता था। उसने विवाद प्रारम्भ करने हेतु रानी के प्रिय सफेद हाथी (सरमन) और उनके विश्वस्त वजीर आधारसिंह को भेंट के रूप में अपने पास भेजने को कहा। रानी ने यह मांग ठुकरा दी।
इस पर अकबर ने अपने एक रिश्तेदार आसफ खां के नेतृत्व में गोण्डवाना साम्राज्य पर हमला कर दिया। एक बार तो आसफ खां पराजित हुआ, पर अगली बार उसने दुगनी सेना और तैयारी के साथ हमला बोला। दुर्गावती के पास उस समय बहुत कम सैनिक थे। उन्होंने जबलपुर के पास नरई नाले के किनारे मोर्चा लगाया तथा स्वयं पुरुष वेश में युद्ध का नेतृत्व किया। इस युद्ध में 3,000 मुगल सैनिक मारे गये लेकिन रानी की भी अपार क्षति हुई थी।
अगले दिन 24 जून 1564 को मुगल सेना ने फिर हमला बोला। आज रानी का पक्ष दुर्बल था, अतः रानी ने अपने पुत्र नारायण को सुरक्षित स्थान पर भेज दिया। तभी एक तीर उनकी भुजा में लगा, रानी ने उसे निकाल फेंका। दूसरे तीर ने उनकी आंख को बेध दिया, रानी ने इसे भी निकाला पर उसकी नोक आंख में ही रह गयी। तभी तीसरा तीर उनकी गर्दन में आकर धंस गया।
रानी ने अंत समय निकट जानकर वजीर आधारसिंह से आग्रह किया कि वह अपनी तलवार से उनकी गर्दन काट दे, पर वह इसके लिए तैयार नहीं हुआ। अतः रानी अपनी कटार स्वयं ही अपने सीने में भोंककर आत्म बलिदान के पथ पर बढ़ गयीं। महारानी दुर्गावती ने अकबर के सेनापति आसफ़ खान से लड़कर अपनी जान गंवाने से पहले पंद्रह वर्षों तक शासन किया था।
जबलपुर के पास जहां यह ऐतिहासिक युद्ध हुआ था, उस स्थान का नाम बरेला है, जो मंडला रोड पर स्थित है, वही रानी की समाधि बनी है, जहां गोण्ड जनजाति के लोग जाकर अपने श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं। जबलपुर मे स्थित रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय भी इन्ही रानी के नाम पर बनी हुई है।
वीरांगना महारानी दुर्गावती कालिंजर के राजा कीर्तिसिंह चंदेल की एकमात्र संतान थीं। महोबा के राठ गांव में 1524 ई. की दुर्गाष्टमी पर जन्म के कारण उनका नाम दुर्गावती रखा गया। नाम के अनुरूप ही तेज, साहस, शौर्य और सुन्दरता के कारण इनकी प्रसिद्धि सब ओर फैल गयी। दुर्गावती के मायके और ससुराल पक्ष की जाति भिन्न थी लेकिन फिर भी दुर्गावती की प्रसिद्धि से प्रभावित होकर राजा संग्राम शाह ने अपने पुत्र दलपतशाह से विवाह करके, उसे अपनी पुत्रवधू बनाया था। दुर्भाग्यवश विवाह के चार वर्ष बाद ही राजा दलपतशाह का निधन हो गया। उस समय दुर्गावती की गोद में तीन वर्षीय नारायण ही था। अतः रानी ने स्वयं ही गढ़मंडला का शासन संभाल लिया। उन्होंने अनेक मंदिर, मठ, कुएं, बावड़ी तथा धर्मशालाएं बनवाई। वर्तमान जबलपुर उनके राज्य का केन्द्र था। उन्होंने अपनी दासी के नाम पर चेरीताल, अपने नाम पर रानीताल तथा अपने विश्वस्त दीवान आधारसिंह के नाम पर आधारताल बनवाया।[1]
शौर्य और पराक्रम की देवी
झांसी की रानी लक्ष्मीबाई से रानी दुर्गावती का शौर्य किसी भी प्रकार से कम नहीं रहा है, दुर्गावती के वीरतापूर्ण चरित्र को लम्बे समय तक इसलिए दबाये रखा कि उसने मुस्लिम शासकों के विरुद्ध संघर्ष किया और उन्हें अनेकों बार पराजित किया। देर से ही सही मगर आज वे तथ्य सम्पूर्ण विश्व के सामने हैं। धन्य है रानी का पराक्रम जिसने अपने मान सम्मान, धर्म की रक्षा और स्वतंत्रता के लिए युद्ध भूमि को चुना और अनेकों बार शत्रुओं को पराजित करते हुए बलिदान दे दिया।
जन जन में रानी ही रानी
वह तीर थी,तलवार थी,
भालों और तोपों का वार थी,
फुफकार थी, हुंकार थी,
शत्रु का संहार थी![2]
दुर्गावती का शासन
दुर्गावती ने १६ वर्ष तक जिस कुशलता से राज संभाला, उसकी प्रशस्ति इतिहासकारों ने की। आइना-ए-अकबरी में अबुल फ़ज़ल ने लिखा है, दुर्गावती के शासनकाल में गोंडवाना इतना सुव्यवस्थित और समृद्ध था कि प्रजा लगान की अदायगी स्वर्णमुद्राओं और हाथियों से करती थीं। मंडला में दुर्गावती के हाथीखाने में उन दिनों १४०० हाथी थे। मालवांचल शांत और संपन्न क्षेत्र माना जाता रहा है, पर वहां का सूबेदार स्त्री लोलुप बाजबहादुर, जो कि सिर्फ रूपमती से आंख लड़ाने के कारण प्रसिद्ध हुआ है, दुर्गावती की संपदा पर आंखें गड़ा बैठा। पहले ही युद्ध में दुर्गावती ने उसके छक्के छुड़ा दिए और उसका चाचा फतेहा खां युद्ध में मारा गया, पर इस पर भी बाजबहादुर की छाती ठंडी नहीं हुयी और जब दुबारा उसने रानी दुर्गावती पर आक्रमण किया, तो रानी ने कटंगी-घाटी के युद्ध में उसकी सेना को ऐसा रौंदा कि बाजबहादुर की पूरी सेना का सफाया हो गया। फलत: दुर्गावती सम्राज्ञी के रूप में स्थापित हुईं।[१]
अकबर से संघर्ष और बलिदान
अकबर के कडा मानिकपुर का सूबेदार ख्वाजा अब्दुल मजीद खां जो आसफ़ खां के नाम से जाना जाता था, ने रानी दुर्गावती के विरुद्ध अकबर को उकसाया, अकबर अन्य राजपूत घरानों की तरह दुर्गावती को भी रनवासे की शोभा बनाना चाहता था। रानी दुर्गावती ने अपने धर्म और देश की दृढ़ता पूर्वक रक्षा की ओर रणक्षेत्र में अपना बलिदान १५६४ में कर दिया, उनकी मृत्यु के पश्चात उनका देवर चन्द्रशाह शासक बना व उसने मुग़लों की आधीनता स्वीकार कर ली, जिसकी हत्या उन्हीं के पुत्र मधुकरशाह ने कर दी। अकबर को कर नहीं चुका पाने के कारण मधुकर शाह के दो पुत्र प्रेमनारायण और हदयेश शाह बंधक थे। मधुकरशाह की मृत्यु के पश्चात १६७१ में प्रेमनारायणशाह को राजा बनाया गया।
थर-थर दुश्मन कांपे,
पग-पग भागे अत्याचार,
नरमुण्डों की झडी लगाई,
लाशें बिछाई कई हजार,
जब विपदा घिर आई चहुंओर,
सीने मे खंजर लिया उतार।[2]
चौरागढ़ का जौहर
आसफ़ ख़ाँ रानी की मृत्यु से बौखला गया, वह उन्हें अकबर के दरबार में पेश करना चाहता था, उसने राजधानी चौरागढ़ (हाल में ज़िला नरसिंहपुर में) पर आक्रमण किया, रानी के पुत्र राजा वीरनारायण ने वीरतापूर्वक युद्ध करते हुए वीरगति प्राप्त की, इसके साथ ही चौरागढ़ में पवित्रता को बचाये रखने का महान जौहर हुआ, जिसमें हिन्दुओं के साथ-साथ मुस्लिम महिलाओं ने भी जौहर के अग्नि कुंड में छलांग लगा दी थी। किंवदंतियों में है कि आसफ़ ख़ाँ ने अकबर को खुश करने के लिये दो महिलाओं को यह कहते हुए भेंट किया कि एक राजा वीरनारायण की पत्नी है तथा दूसरी दुर्गावती की बहिन कलावती है। राजा वीरनारायण की पत्नी ने जौहर का नेतृत्व करते हुए बलिदान किया था और रानी दुर्गावती की कोई बहिन थी ही नहीं, वे एक मात्र संतान थीं। बाद में आसफ़ ख़ाँ से अकबर नराज़ भी रहा, मगर मेवाड़ के युद्ध में वह मुस्लिम एकता नहीं तोड़ना चाहता था।[२]
- पुस्तक: यशस्विनी रानी दुर्गावती, आईएसबीएन: ८१-७०११-८०८-५, प्रकाशक: सी.बी.टी. प्रकाशन, लेखिका: कमला शर्मा।
- पुस्तक: ६०६ रानी दुर्गावती, आईएसबीएन : ८१-७५०८-४७३-१, प्रकाशक : इंडिया बुक हाउस लिमिटेड, लेखक: अनन्त पई।
भारत कोष bharatdiscovery.org/india/रानी_दुर्गावती
पूरा नाम | रानी दुर्गावती |
जन्म | ५ अक्टूबर, १५२४ |
जन्म भूमि | बांदा, उत्तर प्रदेश |
मृत्यु | २४ जून, १५६४ |
मृत्यु स्थान | जबलपुर, मध्य प्रदेश |
अभिभावक | राजा कीर्तिराज |
पति/पत्नी | राजा दलपतशाह |
कर्म भूमि | भारत |
प्रसिद्धि | रानी, वीरांगना |
विशेष योगदान | रानी दुर्गावती ने अनेक मंदिर, मठ, कुएं, बावड़ी तथा धर्मशालाएं बनवाईं। |
नागरिकता | भारतीय |
धर्म | हिंदू |
अन्य जानकारी | जबलपुर में स्थित रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय भी इनके नाम पर बना है। रानी दुर्गावती ने अपनी दासी के नाम पर चेरीताल, अपने नाम पर रानीताल तथा अपने विश्वस्त दीवान आधारसिंह के नाम पर आधारताल बनवाया। |
अकबर और दुर्गावती
तथाकथित महान मुग़ल शासक अकबर भी राज्य को जीतकर रानी को अपने हरम में डालना चाहता था। उसने विवाद प्रारम्भ करने हेतु रानी के प्रिय सफेद हाथी (सरमन) और उनके विश्वस्त वजीर आधारसिंह को भेंट के रूप में अपने पास भेजने को कहा। रानी ने यह मांग ठुकरा दी। इस पर अकबर ने अपने एक रिश्तेदार आसफ़ ख़ाँ के नेतृत्व में गोंडवाना पर हमला कर दिया। एक बार तो आसफ़ ख़ाँ पराजित हुआ, पर अगली बार उसने दोगुनी सेना और तैयारी के साथ हमला बोला। दुर्गावती के पास उस समय बहुत कम सैनिक थे। उन्होंने जबलपुर के पास 'नरई नाले' के किनारे मोर्चा लगाया तथा स्वयं पुरुष वेश में युद्ध का नेतृत्व किया। इस युद्ध में ३००० मुग़ल सैनिक मारे गये लेकिन रानी की भी अपार क्षति हुई थी। अगले दिन २४ जून, १५६४ को मुग़ल सेना ने फिर हमला बोला। आज रानी का पक्ष दुर्बल था, अतः रानी ने अपने पुत्र नारायण को सुरक्षित स्थान पर भेज दिया। तभी एक तीर उनकी भुजा में लगा, रानी ने उसे निकाल फेंका। दूसरे तीर ने उनकी आंख को बेध दिया, रानी ने इसे भी निकाला पर उसकी नोक आंख में ही रह गयी। तभी तीसरा तीर उनकी गर्दन में आकर धंस गया। रानी ने अंत समय निकट जानकर वजीर आधारसिंह से आग्रह किया कि वह अपनी तलवार से उनकी गर्दन काट दे, पर वह इसके लिए तैयार नहीं हुआ। अतः रानी अपनी कटार स्वयं ही अपने सीने में भोंककर आत्म बलिदान के पथ पर बढ़ गयीं। महारानी दुर्गावती ने अकबर के सेनापति आसफ़ खान से लड़कर अपनी जान गंवाने से पहले पंद्रह वर्षों तक शासन किया था।[१]
सम्मान
रानी दुर्गावती कीर्ति स्तम्भ, रानी दुर्गावती पर डाकचित्र, रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय, रानी दुर्गावती अभ्यारण्य, रानी दुर्गावती सहायता योजना, रानी दुर्गावती संग्रहालय एवं मेमोरियल, रानी दुर्गावती महिला पुलिस बटालियन आदि न जाने कितनी कीर्ति आज बुन्देलखण्ड से फैलते हुए सम्पूर्ण देश को प्रकाशित कर रही है। स्वतंत्रता संग्राम की महान महिला सेनानी व "खूब लडी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी" की शौर्यगाथा काव्य को लिखने वाली, वीररस की महान कवियित्री सुभद्रा कुमारी चौहान के ये शब्द ही, अद्वितीय शौर्य का प्रदर्शन करते हुए अमर बलिदान करने वाली रानी दुर्गावती की सच्ची कहानी कहते हुए महसूस होते हैं।
चन्देलों की बेटी थी,
गौंडवाने की रानी थी,
चण्डी थी रणचण्डी थी,
वह दुर्गावती भवानी थी।
नमन कर रहा है।
सुनूगीं माता की आवाज,
रहूंगीं मरने को तैयार।
कभी भी इस वेदी पर देव,
न होने दूंगी अत्याचार।
मातृ मंदिर में हुई पुकार,
चलो मैं तो हो जाऊँ बलिदान,
चढ़ा दो मुझको हे भगवान!![२]
भारतीय इतिहास कोश |लेखक: सच्चिदानन्द भट्टाचार्य |प्रकाशक: उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान |पृष्ठ संख्या: २०८ |↑
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महारानी दुर्गावती (हिंदी) Save Hinduism। अभिगमन तिथि: २४ जून, २०१३।
http://www.nayichetana.com/2016/03/maharani-durgavati-life-essay-in-hindi.html
गढ़मंडल के जंगलो में उस समय एक शेर का आतंक छाया हुआ था. शेर कई जानवरों को मार चुका था. रानी कुछ सैनिको को लेकर शेर को मारने निकल पड़ी. रास्ते में उन्होंने सैनिको से कहा, ” शेर को मैं ही मारूंगी” शेर को ढूँढने में सुबह से शाम हो गई. अंत में एक झाड़ी में शेर दिखाई दिया, रानी ने एक ही वार में शेर को मार दिया.सैनिक रानी के अचूक निशाने को देखकर आश्चर्यचकित रह गये.ये वीर महिला गोडवाना के राजा दलपतिशाह की पत्नी रानी दुर्गावती थी.
महारानी दुर्गावती के जीवन पर निबंध
रानी दुर्गावती का जन्म ५ अक्टूबर सन १५२४ को महोबा में हुआ था. दुर्गावती के पिता महोबा के राजा थे. रानी दुर्गावती सुन्दर, सुशील, विनम्र, योग्य एवं साहसी लड़की थी. बचपन में ही उसे वीरतापूर्ण एवं साहस भरी कहानियां सुनना व पढ़ना अच्छा लगता था. पढाई के साथ – साथ दुर्गावती ने घोड़े पर चढ़ना, तीर तलवार चलाना, अच्छी तरह सीख लिया था. शिकार खेलना उसका शौक था. वे अपने पिता के साथ शिकार खेलने जाया करती थी. पिता के साथ वे शासन का कार्य भी देखती थी.
विवाह योग्य अवस्था प्राप्त करने पर उनके पिता मालवा नरेश ने राजपूताने के राजकुमारों में से योग्य वर की तलाश की. परन्तु दुर्गावती गोडवाना के राजा दलपतिशाह की वीरता पर मुग्ध थी. दुर्गावती के पिता अपनी पुत्री का विवाह दलपति शाह से नहीं करना चाहते थे. अंत में दलपति शाह और महोबा के राजा का युद्ध हुआ. जिसमे दलपति शाह विजयी हुआ. इस प्रकार दुर्गावती और दलपति शाह का विवाह हुआ.दुर्गावती अपने पति के साथ गढ़मंडल में सुखपूर्वक रहने लगी. इसी बीच दुर्गावती के पिता की मृत्यु हो गई और महोबा तथा कालिंजर पर मुग़ल सम्राट अकबर का अधिकार हो गया.विवाह के एक वर्ष पश्चात् दुर्गावती का एक पुत्र हुआ. जिसका नाम वीर नारायण रखा गया. जिस समय वीरनारायण केवल तीन वर्ष का था उसके पिता दलपति शाह की मृत्यु हो गई. दुर्गावती के ऊपर तो मानो दुखो का पहाड़ ही टूट पड़ा. परन्तु उसने बड़े धैर्य और साहस के साथ इस दुःख को सहन किया.
दलपति शाह की मृत्यु के बाद उनका पुत्र वीर नारायण गद्दी पर बैठा. रानी दुर्गावती उसकी संरक्षिका बनी और राज – काज स्वयं देखने लगी. वे सदैव प्रजा के दुःख – सुख का ध्यान रखती थी. चतुर और बुद्धिमान मंत्री आधार सिंह की सलाह और सहायता से रानी दुर्गावती ने अपने राज्य की सीमा बढ़ा ली. राज्य के साथ – साथ उसने सुसज्जित स्थायी सेना भी बनाई और अपनी वीरता, उदारता, चतुराई से राजनैतिक एकता स्थापित की. गोंडवाना राज्य शक्तिशाली और संपन्न राज्यों में गिना जाने लगा. इससे दुर्गावती की ख्याति फ़ैल गई.रानी दुर्गावती की योग्यता एवं वीरता की प्रशंसा अकबर ने सुनी. उसके दरबारियों ने उसे गोंडवाना को अपने अधीन कर लेने की सलाह दी. उदार ह्रदय अकबर ने ऐसा करना उचित नहीं समझा, परन्तु अधिकारियो के बार – बार परामर्श देने पर अकबर तैयार हो गया. उसने आसफ खां नामक सरदार को गोंडवाना की गढ़मंडल पर चढ़ाई करने की सलाह दी.आसफ खां ने समझा कि दुर्गावती महिला है, अकबर के प्रताप से भयभीत होकर आत्मसमर्पण कर देगी. परन्तु रानी दुर्गावती को अपनी योग्यता, साधन और सैन्य शक्ति पर इतना विश्वास था कि उसे अकबर की सेना के प्रति भी कोई भय नहीं था. रानी दुर्गावती के मंत्री ने आसफ खान की सेना और सज्जा को देखकर युद्ध न करने की सलाह दी.
रानी दुर्गावती अपने राजधानी में विजयोत्सव मना रही थी. उसी गढ़मंडल के एक सरदार ने रानी को धोखा दे दिया. उसने गढ़मंडल का सारा भेद आसफ खान को बता दिया. आसफ खान ने अपने हार का बदला लेने के लिए तीसरी बार गढ़मंडल पर आक्रमण किया. रानी ने अपने पुत्र के नेतृत्व में सेना भेजकर स्वयं एक टुकड़ी का नेतृत्व संभाला. दुश्मनों के छक्के छूटने लगे. उसी बीच रानी ने देखा कि उसका 15 का वर्ष का पुत्र घायल होकर घोड़े से गिर गया है. रानी विचलित न हुई.उसी सेना के कई वीर पुरुषो ने वीर नारायण को सुरक्षित स्थान पर पहुंचा दिया और रानी से प्रार्थना की कि वे अपने पुत्र का अंतिम दर्शन कर ले. रानी ने उत्तर दिया- यह समय पुत्र से मिलने का नहीं है. मुझे ख़ुशी है कि मेरे वीर पुत्र ने युद्ध भूमि में वीर गति पाई है. अतः मैं उससे देवलोक में ही मिलूंगी. वीर पुत्र की स्थिति देखकर रानी दो गुने उत्साह से तलवार चलाने लगी. दुश्मनों के सिर कट – कट कर जमीन पर गिरने लगे. तभी दुश्मनों का एक बाण रानी की आँख में जा लगा और दुसरा तीर रानी की गर्दन में लगा. रानी समझ गई की अब मृत्यु निश्चित है. यह सोचकर कि जीते जी दुश्मनों की पकड़ में न आऊँ उन्होंने अपनी ही तलवार अपनी छाती में भोंक ली और अपने प्राणों की बलि दे दी. इनकी मृत्यु 24 जून सन 1564 को हुई.रानी दुर्गावती ने लगभग 16 वर्षो तक संरक्षिका के रूप में शासन किया. भारत के इतिहास में रानी दुर्गावती और चाँदबीबी ही ऐसी वीर महिलाएं थी जिन्होंने अकबर की शक्तिशाली सेना का सामना किया तथा मुगलों के राज्य विस्तार को रोका. अकबर ने अपने शासन काल में बहुत सी लड़ाईयां लड़ी किन्तु गढ़मंडल के युद्ध ने मुग़ल सम्राट के दांत खट्टे कर दिए.रानी दुर्गावती में अनेक गुण थे. वीर और साहसी होने के साथ ही वे त्याग और ममता की मूर्ति थी. राजघराने में रहते हुए भी उन्होंने बहुत सादा जीवन व्यतीत किया. राज्य के कार्य देखने के बाद वे अपना समय पूजा – पाठ और धार्मिक कार्यो में व्यतीत करती थी.
रानी दुर्गावती अपने राजधानी में विजयोत्सव मना रही थी. उसी गढ़मंडल के एक सरदार ने रानी को धोखा दे दिया. उसने गढ़मंडल का सारा भेद आसफ खान को बता दिया. आसफ खान ने अपने हार का बदला लेने के लिए तीसरी बार गढ़मंडल पर आक्रमण किया. रानी ने अपने पुत्र के नेतृत्व में सेना भेजकर स्वयं एक टुकड़ी का नेतृत्व संभाला. दुश्मनों के छक्के छूटने लगे. उसी बीच रानी ने देखा कि उसका 15 का वर्ष का पुत्र घायल होकर घोड़े से गिर गया है. रानी विचलित न हुई.उसी सेना के कई वीर पुरुषो ने वीर नारायण को सुरक्षित स्थान पर पहुंचा दिया और रानी से प्रार्थना की कि वे अपने पुत्र का अंतिम दर्शन कर ले. रानी ने उत्तर दिया- यह समय पुत्र से मिलने का नहीं है. मुझे ख़ुशी है कि मेरे वीर पुत्र ने युद्ध भूमि में वीर गति पाई है. अतः मैं उससे देवलोक में ही मिलूंगी. वीर पुत्र की स्थिति देखकर रानी दो गुने उत्साह से तलवार चलाने लगी. दुश्मनों के सिर कट – कट कर जमीन पर गिरने लगे. तभी दुश्मनों का एक बाण रानी की आँख में जा लगा और दुसरा तीर रानी की गर्दन में लगा. रानी समझ गई की अब मृत्यु निश्चित है. यह सोचकर कि जीते जी दुश्मनों की पकड़ में न आऊँ उन्होंने अपनी ही तलवार अपनी छाती में भोंक ली और अपने प्राणों की बलि दे दी. इनकी मृत्यु 24 जून सन 1564 को हुई.रानी दुर्गावती ने लगभग 16 वर्षो तक संरक्षिका के रूप में शासन किया. भारत के इतिहास में रानी दुर्गावती और चाँदबीबी ही ऐसी वीर महिलाएं थी जिन्होंने अकबर की शक्तिशाली सेना का सामना किया तथा मुगलों के राज्य विस्तार को रोका. अकबर ने अपने शासन काल में बहुत सी लड़ाईयां लड़ी किन्तु गढ़मंडल के युद्ध ने मुग़ल सम्राट के दांत खट्टे कर दिए.रानी दुर्गावती में अनेक गुण थे. वीर और साहसी होने के साथ ही वे त्याग और ममता की मूर्ति थी. राजघराने में रहते हुए भी उन्होंने बहुत सादा जीवन व्यतीत किया. राज्य के कार्य देखने के बाद वे अपना समय पूजा – पाठ और धार्मिक कार्यो में व्यतीत करती थी.
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मुगल सम्राट अकबर मध्यभारत में अपने पैर जमाना चाहते थे। उन्होंने रानी दुर्गावती के पास इसका प्रस्ताव भेजा, साथ ही ये चेतावनी भी रानी के पास भिजवाई की अगर ऐसा नहीं किया तो इसके गंभीर परिणाम भुगतने पड़ेंगे। रानी दुर्गावती ने उसकी एक बात नहीं मानी और युद्ध किया। जब रानी को लगा कि अब वह युद्ध नहीं जीत सकतीं और घायल हो गईं तो अपनी कटार को छाती में घुसा कर जान दे दी। ५ अक्टूबर को रानी दुर्गावती की जयंती है। जिस दिन रानी दुर्गावती का जन्म हुआ था उस दिन दुर्गाष्टमी थी (५ अक्टूबर १५२४)। इसी कारण उनका नाम दुर्गावती रखा गया। उनका जन्म बांदा (कालांजर) यूपी में हुआ था, वह चंदेल वंश की थीं। १५४२ में उनका विवाह दलपत शाह से हुआ। दलपत शाह गोंड (गढ़मंडला) राजा संग्राम शाह के सबसे बड़े पुत्र थे। विवाह के कुछ साल बाद ही दलपत शाह का निधन हो गया। उस समय उनके पुत्र वीरनारायण छोटे थे, ऐसे में रानी दुर्गावती को राजगद्दी संभालनी पड़ी। वह एक गोंड राज्य की पहली रानी बनीं। अकबर चाहता था कि रानी मुगल साम्राज्य के अधीन अपना राज्य कर दें। अकबर ने रानी दुर्गावती पर दबाव डाला, लेकिन महारानी दुर्गावती ने जंग लड़ना पसंद किया।मुगल बादशाह अकबर ने गोंड राज्य की महिला शासक को कमजोर समझ कर उन पर दबाव बनाया। अकबर ने १५६३ में सरदार आसिफ खान को गोंड राज्य पर आक्रमण करने भेज दिया। रानी की सेना छोटी थी। रानी की युद्ध रचना से अकबर की सेना हैरान रह गई। उन्होंने अपनी सेना की कुछ टुकडिय़ों को जंगल में छिपा दिया। शेष को अपने साथ लेकर निकल पड़ी।एक पर्वत की तलहटी पर आसिफ खान और रानी दुर्गावती का सामना हुआ। मुगल सेना बड़ी और आधुनिक थी, उसमें बंदूकधारी सैनिक अधिक थे, रानी के सैनिक मरने लगे, परंतु इतने में जंगल में छिपी सेना ने अचानक धनुष बाण से आक्रमण कर, बाणों की वर्षा कर दी। इससे मुगल सेना के कई सैनिक मारे गए। अकबर की सेना का भारी क्षति हुई और वह हार गया। अकबर की सेना ने तीन बार आक्रमण किया और तीनों बार उसे हार का मुंह देखना पड़ा। सन १५६४ में आसिफ खान ने छल से सिंगार गढ़ को घेर लिया। परंतु रानी वहां से भागने में सफल हुईं। इसके बाद उसने रानी का पीछा किया। एक बार फिर से युद्ध शुरू हो गया, रानी वीरता से लड़ रही थीं। इतने में रानी के पुत्र वीर नारायण सिंह घायल हो गए। रानी के पास केवल 300 सैनिक ही बचे थे। रानी स्वयं घायल होने पर भी अकबर के सरदार आसिफ खान से युद्ध कर रही थीं। उसकी सेना भारी गोलाबारी कर रही थी। मुगल सेना से युद्ध करते-करते रानी को एक तीर कंधे में लगा। उस तीर को निकाल कर वह फिर युद्ध करने लगीं। इसके कुछ घंटे बाद एक तीर उनकी आंख में लग गया। सैनिकों ने उनसे युद्ध भूमि छोड़कर सुरक्षित स्थान पर चलने को कहा। रानी ने मना कर दिया और कहा युद्ध भूमि छोड़कर नहीं जाएंगी। उन्होंने कहा उन्हें युद्ध में विजय या मृत्यु में से एक चाहिए। जब रानी असहाय हो गई तब उन्होंने एक सैनिक को पास बुलाकर कहा, अब तलवार घुमाना असंभव है। शरीर का एक अंग भी शत्रु के हाथ न लगे। रानी ने कहा यही उनकी अंतिम इच्छा है। इसलिए भाले से मुझे मार दो। सैनिक अपनी रानी को मारने की हिम्मत नहीं कर सका तो उन्होंने स्वयं ही अपनी कटार अपनी छाती में घुसा ली। यह तिथि २४ जून, १५६४ बताई जाती है।
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भारत के इतिहास में राजपूतो का एक अलग ही इतिहास रहा है जिनके शौर्य का लोहा पूरा भारतवर्ष मानता था | राजपूत अपनी मातृभूमि के लिए जान देने को तत्पर रहते थे | इन्ही राजपूतो में से एक ऐसी रानी भी हुयी थी जिससे आगमन से मुगल तक काँप गये थे | वैसे राजपूतो में महिलाओं को महल से बाहर आने की अनुमति नही होती थी लेकिनरानी दुर्गावती ने राजपूतो की इस प्रथा को तोड़ते हुए बहादुरी के साथ रणभूमि में युद्ध किया था | अन्य राजपूतो की तरह रानी दुर्गावती ने भी दुश्मन के सामने कभी घुटने नही टेके थे | रानी दुर्गावती ना केवल एक वीर योधा बल्कि एक कुशल शाषक भी थी जिसने अपने शाशनकाल में विश्व प्रसिद्ध इमारतो खजुराहो और कलिंजर का किला बनवाया था |अगर हम भारत की महान और वीर औरतो की बात करे तो रानी लक्ष्मीबाई की तरह रानी दुर्गावती का नाम भी स्वर्ण अक्षरों में राजपुताना में लिखा जाता है | आइये आज हम आपको उसी वीरांगना राजपूत रानी दुर्गावती की जीवनी से रूबरू करवाते है | रानी दुर्गावती का जन्म ५ अक्टूबर १५२४ ईस्वी को एक एतेहासिक राजपुताना परिवार में हुआ था | रानी दुर्गावती के पिता चंदेल राजपूत शाषक राजा सालबान और माँ का नाम माहोबा था | १५४२में दुर्गावती का विवाह गोंड़ साम्राज्य के संग्राम शाह के बड़े बेटे दलपत शाह के साथ करवा दिया गया | इस विवाह के कारण ये दो वंश एक साथ हो गये थे | चन्देल और गोंड के सामूहिक आक्रमण की बदौलत शेर शाह सुरी के खिलाफ धावा बोला गया था जिसमे शेरशाह सुरी की मौत हो गयी थी | १५४५ में दुर्गावती ने एक बालक वीर नारायण को जन्म दिया था | बालक के जन्म के पांच साल बाद ही दलपत शाह की मौत हो गयी थी जिससे सिंहासन रिक्त हो गया था और बालक शिशु नारायण अभी गद्दी सम्भालने को सक्षम नही था | दलपत शाह के विरोधी एक योग्य उम्मीदवार की तलाश कर रहे थे तभी रानी दुर्गावती ने राजपाट खुद के हाथो में ले लिया और खुद को गोंड साम्राज्य की महारानी घोषित कर दिया | रगोंड साम्राज्य का कार्यभार अपने हाथो में आते ही उसने सबसे पहले अपनी राजधानी सिंगुरगढ़ से चौरागढ़ कर दी क्योंकि नई राजधानी सतपुड़ा पहाडी पर होने की वजह से पहले से ज्यादा सुरक्षित थी | रानी दुर्गावती ने अपने पहले ही युद्ध में भारत वर्ष में अपना नाम रोशन कर लिया था | शेरशाह की मौत के बाद सुरत खान ने उसका कार्यभार सम्भाला जो उस समय मालवा गणराज्य पर शाशन कर रहा था | सुरत खान के बाद उसके पुत्र बाजबहादुर ने कमान अपने हाथ में ली जो रानी रूपमती से प्रेम के लिए प्रसिद्ध हुआ था | सिंहासन पर बैठते ही बाजबहादुर को एक महिला शाषक को हराना बहुत आसान लग रहा था इसलिए उसने रानी दुर्गावती के गोंड साम्राज्य पर धावा बोल दिया | बाज बहादुर की रानी दुर्गावती को कमजोर समझने की भूल के कारण उसे भारी हार का सामना करना पड़ा और उसके कई सैनिक घायल हो गये थे | बाजबहादुर के खिलाफ इस जंग में जीत के कारण अडोस पडोस के राज्यों में रानी दुर्गावती का डंका बज गया था | अब रानी दुर्गावती के राज्य को पाने की हर कोई कामना करने लगा था जिसमे से एक मुगल सूबेदार अब्दुल माजिद खान भी था | ख्वाजा अब्दुल मजिद आसफ खान कारा मणिकपुर का शाषक था जो रानी का नजदीकी साम्राज्य था | जब उसने रानी के खजाने के बारे में सुना तो उसने आक्रमण करने का विचार बनाया |अकबर से आज्ञा मिलने के बाद आसफ खान भारी फ़ौज के साथ गर्हा की ओर निकल पड़ा | जब मुगल सेना दमोह के नजदीक पहुची तो मुगल सूबेदार ने रानी दुर्गावती से अकबर की अधीनता स्वीकार करने को कहा | तब रानी दुर्गावती ने कहा “कलंक के साथ जीने से अच्छा गौरव के साथ मर जाना बेहतर है | मैंने लम्बे समय तक अपनी मातृभूमि की सेवा की है और अब इस तरह मै अपनी मातृभूमि पर धब्बा नही लगने दूंगी | अब युद्ध के अलावा कोई उपाय नही है ” |रानी ने अपने २००० सैनिको को युद्ध के लिए तैयार किया | रानी दुर्गावती के सलाहकारो ने रानी को किसी सुरक्षित स्थान पर छिपने को कहा जब तक कि उसकी सारी सेना एकत्रित नही हो जाती है | सलाहकारों का मशहोरा मानते हुए रानी नराई के जंगलो की तरफ रवाना हो गयी | इस दौरान असफ खान गर्हा पहुच गया था और गणराज्यो को हथियाने का काम उसने शुरू कर दिया था | जब उसने रानी के बारे में खबर सूनी तो वो अपनी सेना को गर्हा में छोडकर उसके पीछे रवाना हो गया | आसफ खान की हलचल को सुनते हुए रानी ने अपने सलाहकारों और सैनिको को समझाते हुए कहा “हम कब तक इस तरह जंगलो में शरण लेते रहेंगे ” | इस तरह रानी दुर्गावती ने एलन किया कि या तो वो जीतेंगे या वीरो की तरह लड़ते हुए शहीद हो जायेंगे | अब रानी दुर्गावती ने युद्ध वस्त्र धारण कर सरमन हाथे पर सवार हो गयी | अब भीषण युद्ध छिड गया जिसमे दोनों तरफ के सैनिको को काफी क्षति पहुची | इस युद्ध में रानी विजयी हुयी और उसने भगोड़ो का पीछा किया | दिन के अंत तक उसने अपने सलाहकारों से बात की | उसने दुश्मन पर रात को आक्रमण करने की योजना बनाई क्योंकि सुबह होते ही आसफ खान फिर आक्रमण बोल देगा लेकिन किसी ने उसकी बात नही मानी | लेकिन सुबह उसने जैसा सोचा वैसा ही हुआ और आसफ खान ने हमला बोल दिया | रानी अपने हाथी सरमन के साथ रणभूमि में उतर गयी और युद्ध के लिए तैयार हो गयी |तीन बार उसने अकबर की सेना को धुल चटाकर हरा दिया था लेकिन इस युद्ध में उनका पुत्र राजा वीर बुरी तरह घायल हो गया था जो मुगलों के साथ वीरता से लड़ रहा था | जब रानी ने ये खबर सूनी तो उसने तुरंत अपने भरोसेमंद आदमियों के साथ अपने पुत्र को सुरक्षित स्थान पर ले जाने को कहा लेकिन इस प्रक्रिया में कई सैनिक राजा वीर के साथ चले गये थे | अब भी रानी बाहादुरी के साथ लड़ रही थी तभी अचानक एक तीर रानी दुर्गावती की गर्दन के एक तरफ घुस गया | रानी दुर्गावती ने बाहुदुरी के साथ वो तीर बाहर निकाल दिया लेकिन उस जगह पर भारी घाव बन गया था | इस तरह एक ओर तीर उनकी गर्दन के अंदर घुस गया जिसको भी रानी दुर्गावती ने बाहर निकाल दिया लेकिन वो बेहोश हो गयी |जब उसे होश आया तो पता चला कि उनकी सेना युद्ध हार चुकी थी | उसने महावत से कहा “मैंने हमेशा से तुम्हारा विश्वास किया है और हर बार की तरह आज भी हार के मौके पर तुम मुझे दुश्मनों के हाथ मत लगने दो और वफादार सेवक की तरह इस तेज छुरे से मुझे खत्म कर दो “| महावत ने मना करते हुए कहा “मै कैसे अपने हाथो को आपकी मौत के लिए उपयोग कर सकता हुआ , जिन हाथो को हमेशा मैंने आपसे ऊपहार के लिए आगे किया था , मै बस आपके लिए इतना कर सकता हु कि आपको इस रणभूमि से बाहर निकाल सकता हु , मुझे अपने तेज हाथी पर पूरा भरोसा है ” | ये शब्द सुनकर वो नाराज हो गयी और बोली “क्या तुम मेरे लिए ऐसे अपमान को चयन करते हो” तभी रानी दुर्गावती ने चाक़ू निकाला और अपने पेट में घोंप दिया और वीरांगना की तरह वीरगति को प्राप्त हो गयी | इसके बाद आसफ खान ने चौरागढ़ पर हमला बोल दिया तब रानी दुर्गावती का पुत्र उसका सामना करने के लिए आया लेकिन उसे मार दिया गया | रानी दुर्गावती की सारी सम्पति आसफ खान के हाथो में आ गयी | राने दुर्गावती ने इस तरह १६ सालो तक वीरो की तरह शासन करते हुए राजपूत रानी के रूप में एक मिसाल कायम की जिसे भारतवर्ष कभी नही भुला सकता है
https://www.hindujagruti.org/hindi/h/40.html
रानी दुर्गावतीका जन्म १० जून, १५२५ को तथा हिंदु कालगणनानुसार आषाढ शुक्ल द्वितीयाको चंदेल राजा कीर्ति सिंह तथा रानी कमलावतीके गर्भसे हुआ । वे बाल्यावस्थासे ही शूर, बुद्धिमान और साहसी थीं । उन्होंने युद्धकलाका प्रशिक्षण भी उसी समय लिया । प्रचाप (बंदूक) भाला, तलवार और धनुष-बाण चलानेमें वह प्रवीण थी । गोंड राज्यके शिल्पकार राजा संग्रामसिंह बहुत शूर तथा पराक्रमी थे । उनके सुपुत्र वीरदलपति सिंहका विवाह रानी दुर्गावतीके साथ वर्ष १५४२ में हुआ । वर्ष १५४१ में राजा संग्राम सिंहका निधन होनेसे राज्यका कार्यकाज वीरदलपति सिंह ही देखते थे । उन दोनोंका वैवाहिक जीवन ७-८ वर्ष अच्छेसे चल रहा था । इसी कालावधिमें उन्हें वीरनारायण सिंह नामक एक सुपुत्र भी हुआ । दलपतशाहकी मृत्यु लगभग १५५० ईसवी सदीमें हुई । उस समय वीर नारायणकी आयु बहुत अल्प होनेके कारण, रानी दुर्गावतीने गोंड राज्यकी बागडोर (लगाम) अपने हाथोंमें थाम ली । अधर कायस्थ एवं मन ठाकुर, इन दो मंत्रियोंने सफलतापूर्वक तथा प्रभावी रूपसे राज्यका प्रशासन चलानेमें रानीकी मदद की । रानीने सिंगौरगढसे अपनी राजधानी चौरागढ स्थानांतरित की । सातपुडा पर्वतसे घिरे इस दुर्गका (किलेका) रणनीतिकी दृष्टिसे बडा महत्त्व था ।कहा जाता है कि इस कालावधिमें व्यापार बडा फूला-फला । प्रजा संपन्न एवं समृद्ध थी । अपने पतिके पूर्वजोंकी तरह रानीने भी राज्यकी सीमा बढाई तथा बडी कुशलता, उदारता एवं साहसके साथ गोंडवनका राजनैतिक एकीकरण ( गर्हा-काटंगा) प्रस्थापित किया । राज्यके २३००० गांवोंमेंसे १२००० गांवोंका व्यवस्थापन उसकी सरकार करती थी । अच्छी तरहसे सुसज्जित सेनामें २०,००० घुडसवार तथा १००० हाथीदलके साध बडी संख्यामें पैदलसेना भी अंतर्भूत थी । रानी दुर्गावतीमें सौंदर्य एवं उदारताका धैर्य एवं बुद्धिमत्ताका सुंदर संगम था। अपनी प्रजाके सुखके लिए उन्होंने राज्यमें कई काम करवाए तथा अपनी प्रजाका ह्रदय (दिल) जीत लिया । जबलपुरके निकट ‘रानीताल’ नामका भव्य जलाशय बनवाया । उनकी पहलसे प्रेरित होकर उनके अनुयायियोंने चेरीतल का निर्माण किया तथा अधर कायस्थने जबलपुरसे तीन मीलकी दूरीपर अधरतलका निर्माण किया । उन्होंने अपने राज्यमें अध्ययनको भी बढावा दिया ।राजा दलपतिसिंहके निधनके उपरांत कुछ शत्रुओंकी कुदृष्टि इस समृद्धशाली राज्यपर पडी । मालवाका मांडलिक राजा बाजबहादुरने विचार किया, हम एक दिनमें गोंडवाना अपने अधिकारमें लेंगे । उसने बडी आशासे गोंडवानापर आक्रमण किया; परंतु रानीने उसे पराजित किया । उसका कारण था रानीका संगठन चातुर्य । रानी दुर्गावतीद्वारा बाजबहादुर जैसे शक्तिशाली राजाको युद्धमें हरानेसे उसकी कीर्ति सर्वदूर फैल गई । सम्राट अकबरके कानोंतक जब पहुंची तो वह चकित हो गया । रानीका साहस और पराक्रम देखकर उसके प्रति आदर व्यक्त करनेके लिए अपनी राजसभाके (दरबार) विद्वान `गोमहापात्र’ तथा `नरहरिमहापात्र’को रानीकी राजसभामें भेज दिया । रानीने भी उन्हें आदर तथा पुरस्कार देकर सम्मानित किया । इससे अकबरने सन् १५४० में वीरनारायणसिंहको राज्यका शासक मानकर स्वीकार किया । इस प्रकारसे शक्तिशाली राज्यसे मित्रता बढने लगी । रानी तलवारकी अपेक्षा बंदूकका प्रयोग अधिक करती थी । बंदूकसे लक्ष साधनेमें वह अधिक दक्ष थी । ‘एक गोली एक बली’, ऐसी उनकी आखेटकी पद्धति थी । रानी दुर्गावती राज्यकार्य संभालनेमें बहुत चतुर, पराक्रमी और दूरदर्शी थी ।अकबरने वर्ष १५६३ में आसफ खान नामक बलाढ्य सेनानीको (सरदार) गोंडवानापर आक्रमण करने भेज दिया । यह समाचार मिलते ही रानीने अपनी व्यूहरचना आरंभ कर दी । सर्वप्रथम अपने विश्वसनीय दूतोंद्वारा अपने मांडलिक राजाओं तथा सेनानायकोंको सावधान हो जानेकी सूचनाएं भेज दीं । अपनी सेनाकी कुछ टुकडियोंको घने जंगलमें छिपा रखा और शेषको अपने साथ लेकर रानी निकल पडी । रानीने सैनिकोंको मार्गदर्शन किया । एक पर्वतकी तलहटीपर आसफ खान और रानी दुर्गावतीका सामना हुआ । बडे आवेशसे युद्ध हुआ । मुगल सेना विशाल थी । उसमें बंदूकधारी सैनिक अधिक थे । इस कारण रानीके सैनिक मरने लगे; परंतु इतनेमें जंगलमें छिपी सेनाने अचानक धनुष-बाणसे आक्रमण कर, बाणोंकी वर्षा की । इससे मुगल सेनाको भारी क्षति पहुंची और रानी दुर्गावतीने आसफ खानको पराजित किया । आसफ खानने एक वर्षकी अवधिमें ३ बार आक्रमण किया और तीनों ही बार वह पराजित हुआ ।अंतमें वर्ष १५६४ में आसफखानने सिंगारगढपर घेरा डाला; परंतु रानी वहांसे भागनेमें सफल हुई । यह समाचार पाते ही आसफखानने रानीका पीछा किया । पुनः युद्ध आरंभ हो गया । दोनो ओरसे सैनिकोंको भारी क्षति पहुंची । रानी प्राणोंपर खेलकर युद्ध कर रही थीं । इतनेमें रानीके पुत्र वीरनारायण सिंहके अत्यंत घायल होनेका समाचार सुनकर सेनामें भगदड मच गई । सैनिक भागने लगे । रानीके पास केवल ३०० सैनिक थे । उन्हीं सैनिकोंके साथ रानी स्वयं घायल होनेपर भी आसफखानसे शौर्यसे लड रही थी । उसकी अवस्था और परिस्थिति देखकर सैनिकोंने उसे सुरक्षित स्थानपर चलनेकी विनती की; परंतु रानीने कहा, ‘‘मैं युद्ध भूमि छोडकर नहीं जाऊंगी, इस युद्धमें मुझे विजय अथवा मृत्युमें से एक चाहिए ।” अंतमें घायल तथा थकी हुई अवस्थामें उसने एक सैनिकको पास बुलाकर कहा, “अब हमसे तलवार घुमाना असंभव है; परंतु हमारे शरीरका नख भी शत्रुके हाथ न लगे, यही हमारी अंतिम इच्छा है । इसलिए आप भालेसे हमें मार दीजिए । हमें वीरमृत्यु चाहिए और वह आप हमें दीजिए”; परंतु सैनिक वह साहस न कर सका, तो रानीने स्वयं ही अपनी तलवार गलेपर चला ली ।
वह दिन था २४ जून १५६४ का, इस प्रकार युद्ध भूमिपर गोंडवानाके लिए अर्थात् अपने देशकी स्वतंत्रताके लिए अंतिम क्षणतक वह झूझती रही । गोंडवानापर वर्ष १९४९ से १५६४ अर्थात् १५ वर्ष तक रानी दुर्गावतीका अधिराज्य था, जो मुगलोंने नष्ट किया । इस प्रकार महान पराक्रमी रानी दुर्गावतीका अंत हुआ । इस महान वीरांगनाको हमारा शतशः प्रणाम !
- जिस स्थानपर उन्होंने अपने प्राण त्याग किए, वह स्थान स्वतंत्रता सेनानियोंके लिए निरंतर प्रेरणाका स्रोत रहा है ।
- उनकी स्मृतिमें १९८३ में मध्यप्रदेश सरकारने जबलपुर विश्वविद्यालयका नाम रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय रखा ।
- इस बहादुर रानीके नामपर भारत सरकारने २४ जून १९८८ को डाकका टिकट प्रचलित कर (जारी कर) उनके बलिदानको श्रद्धांजली अर्पित की ।
http://www.ugtabharat.com/category/history-india/durgavatis-self-sacrifice-for-freedom-49379
विंध्येलखण्ड से बन गया बुन्देलखण्ड
आज का बुंदेलखण्ड अपने अंक में अपना बहुत ही गौरवपूर्ण इतिहास समाविष्ट किये हुए हैं। विध्यांचल पर्वत की शाखाओं से घिरा होने के कारण कभी इसका नाम विंध्येलखण्ड था, जिसका अपभ्रंश होकर बुन्देलखण्ड हो गया। रामायण काल में इस क्षेत्र में उस समय में 'दण्डकारण्य' नामक प्रांत का भी कुछ भाग आता था। भगवान श्रीराम कभी इस क्षेत्र से ही निकलकर किष्किंधा की ओर गये थे।महाभारत में चैदि और दशार्ण नामक प्रांतों का उल्लेख आता है, चैदि की स्थिति बुन्देलखण्ड के पूर्व में तथा दशार्ण की पश्चिमी भाग में मानी गयी है। दशार्ण आभीर लोगों की कर्मस्थली थी। गोरेलाल तिवारी ने अपनी पुस्तक बुंदेलखण्ड का संक्षिप्त इतिहास में लिखा है-''झांसी और ग्वालियर के बीच आभीर लोग रहते थे। इन्हें भी समुद्र गुप्त ने अपने अधिकार में कर लिया था। इसी भाग को आजकल अहीरवाड़ा कहते हैं।''हर्ष के शासनकाल में इस क्षेत्र को ह्वेनसांग ने झुजौति के नाम से वर्णित किया है। इस प्रकार विभिन्न उतार चढ़ावों से निकलने वाली बुन्देलखण्ड की वीरभूमि ने कई राजवंशों के शासन काल देखे हैं। इसने अपने वैभव और पराभव दोनों को निकटता से देखा भी है और झेला भी है। हर्ष के पश्चात यहां 'गुर्जर परिहार वंश' का भी शासन रहा। राजा यशोवम्र्मन देव ने गौड, खस, कौशल, काश्मीर, कन्नौज, मालवा, चेदि कुरू, गुर्जर (गुजरात) आदि प्रांतों पर विजय प्राप्त की थी।यशोवम्र्मन देव के पश्चात आल्हा और ऊदल ने इस देश की गौरवमयी परंपरा का अपने काल में नेतृत्व किया। इस प्रकार इस क्षेत्र का एक गौरवपूर्ण इतिहास है। वीर शासक कीत्र्तिसिंह चंदेल और दुर्गावती का बचपन
इसी क्षेत्र में स्थित कालिंजर का इतिहास में विशिष्ट स्थान है। यहां का शासक कीत्र्तिसिंह चंदेल था। १५२४ ई. में दुर्गाष्टमी के दिन उनके यहां एक पुत्री ने जन्म लिया। जिसका नाम उन्होंने दुर्गावती रखा।यह ऐसा काल था जब आक्रांता सुल्तानों के वंशजों का सूर्य भारत में अस्ताचल की ओर जा रहा था और 'दुर्गावती' जब बचपन में चलना सीख रही थी तो उसी समय बाबर भी यहां सल्तनत के खण्डहरों पर खड़े किये गये अपने साम्राज्य को 'पैंया-पैंया' चलना सिखाने का प्रयास कर रहा था। जब दुर्गावती थोड़ी और बड़ी हुई तो बाबर का साम्राज्य भी खण्डहर हो गया और उसके ध्वंसावशेषों पर शेरशाह सूरी ने अपना साम्राज्य स्थापित कर अपनी विजय-पताका फहराकर कुछ काल के लिए अपने सूरवंश का भव्य-भवन बना दिया। पर यह खेल भी अधिक समय तक नही चला उसका भव्य-भवन भी भारत के देशभक्तों के प्रतिरोध और प्रतिशोध के कारण शीघ्र ही भरभराकर गिर गया। तत्पश्चात देश में पुन: मुगल सक्रियता से हावी हो गये।
जब बादशाह अकबर अल्पावस्था में शासक बनाया गया तो उस समय दुर्गावती ३२ वर्ष की हो चुकी थी।
दुर्गावती से बन गयी एक वीरांगना रानी
दुर्गा अपने नाम के अनुरूप ही दिव्य गुणों और दिव्य तेज से सुभूषित थी। बचपन से निकल कर उसने जैसे ही किशोरावस्था में पग रखा तो उसके शौर्य तेज और वीरता ने अपना रंग दिखाना आरंभ किया। जब वह यौवनास्था में प्रविष्ट हुई तो उसके क्षत्रियोचित गुणों की सुगंध दूर-दूर तक फैलने लगी। उसका विवाह गढ़मंडल (गोंडवाना) के शासक संग्राम शाह के युवा पुत्र दलपतशाह से हुआ।
अब दुर्गावती रानी हो गयी थी। उसमें गंभीरता, वीरता, धैर्य और साहस तो पहले से ही कूट-कूटकर भरे थे पर अब उसने अपने आपको नई भूमिका में देखकर अपने भीतर इन गुणों का और भी अधिक विस्तार किया। पुनश्च रानी को पता नही था कि नियति उसे किस बड़ी भूमिका के लिए गोण्डवाना की रानी बनाकर ले आयी है? अभी तो उसने वैसा ही सोचा था जैसा हर युवती अपने विवाहोपरांत सोचा करती है, अपनी प्यारी सी घर गृहस्थी हो उसमें ऐश्वर्य के सभी साधन हों...इत्यादि।
पुत्र नारायण का जन्म
विवाह के एक वर्ष पश्चात रानी को एक पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई जिसका नाम रानी के ससुर संग्रामशाह ने नारायण रखा। नारायण को रानी ने वे सारी सुविधाएं देकर पालना आरंभ कर दिया जो एक राजकुमार के लिए आवश्यक और अपेक्षित हुआ करती हैं। नारायण का लालन-पालन सर्वसुविधाओं के मध्य हो रहा था और होता भी क्यों नही? क्योंकि वह अपने दादा के राज्य का भविष्य का उत्तराधिकारी था।
पति दलपतशाह का देहांत
दुर्भाग्यवश जब नारायण मात्र तीन वर्ष का ही था तो उसके पिता दलपतशाह का देहांत हो गया। रानी के लिए यह घटना वज्रपात से कम नही थी, परंतु उसने अपने आपको संभाला और स्वयं को भीतर से टूटने नही दिया। उसने अपनी भावी भूमिका का बड़े शांत मन से अध्ययन किया और यह विचार कर लिया कि यदि वह टूट गयी तो गढ़मण्डल का राज्य भी समाप्त हो जाएगा और शत्रु उसे और उसके वंश के लोगों को भी समाप्त कर देगा। उसने अपने जीवन के प्रश्न की जटिलता को समझा जिसमें जर, जमीन और जन तीनों के लिए संकट उत्पन्न होने जा रहा था। इसलिए रानी ने इन तीनों की सुरक्षार्थ अपने जीवन को जुआ के दांव पर लगा दिया, जिससे कि प्रश्न की जटिलता का समाधान खोजा जा सके। उसने अपने पुत्र नारायण (जिसे वीरनारायण भी कहा जाता था) की शिक्षा-दीक्षा का पूर्ण प्रबंध किया और शासन की बागडोर अपने हाथों में लेकर राजकाज चलाने लगी।
अकबर की कोपदृष्टि
जब रानी के छोटे से राज्य की कहानी अकबर को ज्ञात हुई कि इस राज्य पर शासन करने वाली एक नारी है, तो वह हंसा और उस राज्य को अपने साम्राज्य में मिलाने का मोह संवरण नही कर सका। उसने गढ़मंडल के रूप में थाली में रखे भोजन को देखा तो उसके मुंह में पानी आ गया। अत: उसने इस राज्य को अपने साम्राज्य में मिलाने की तैयारी आरंभ कर दी। उधर रानी अभी तक अकबर के उद्देश्यों और आशयों से पूर्णत: अनभिज्ञ थी। उसे नही पता था कि शत्रु क्या करने वाला है, और उसकी योजना क्या है? पर जैसे ही रानी को ज्ञात हुआ कि अकबर उसके राज्य पर हमला करने के लिए चढ़ा चला आ रहा है, तो वह सिंहनी की भांति अपने शत्रु की पदचापों की प्रतीक्षा करने लगी कि जैसे ही शत्रु की पदचाप सुनाई देगी, वैसे ही उसका अंत कर दिया जाए।
रानी हो गयी युद्घ के लिए तत्पर
रानी अपने वंश के इतिहास से परिचित थी, वह जानती थी कि एक मुगल के समक्ष शीश झुकाने का अर्थ होगा संपूर्ण हिंदू जाति को लज्जित कर देना। इसलिए रानी ने मन बना लिया था कि परिणाम चाहे जो हो पर स्वतंत्रता से कोई समझौता नही किया जा सकता। मुगलों के सामने नतमस्तक होने से तो 'वीरगति' प्राप्त करना उचित होगा। उसे अपने ससुर संग्रामशाह की अनेकों वीरतापूर्ण कहानियों का बोध था कि वे कितने प्रतापी और स्वाभिमानी शासक थे? अत: रानी नेे निर्णय ले लिया कि शत्रु के सामने शीश न झुकाकर उसका सामना किये जाने में ही भलाई है। इसी से कुल मर्यादा की रक्षा होना भी संभव है। रानी ने अपने संक्षिप्त शासन काल में ही कुंए, बावड़ी, मठ, मंदिर आदि बनवाकर जनहित के कई कार्य करते हुए अपनी प्रजा का मन जीत लिया था। उसकी अपनी एक प्रिय दासी थी जिसका नाम रामचेरी था, जिसे वह बहुत स्नेह करती थी, उसके नाम पर रानी ने चेरिताल तथा अपने नाम पर रानीताल बनवाया। इसी प्रकार एक तीसरा ताल उसने आधारताल के नाम से अपने विश्वस्त दीवान आधारसिंह के नाम पर बनवाया था।
अकबर ने युद्घ का आधार तैयार किया
अकबर ने अपनी साम्राज्यवादी नीतियों का परिचय देते हुए रानी दुर्गावती के राज्य को अपने साम्राज्य में मिलाने के उद्देश्य से रानी के समक्ष प्रस्ताव रखा कि यदि वह युद्घ से बचना चाहती है तो अपने सफेद हाथी (सरमन) और अपने विश्वासपात्र मंत्री आधारसिंह को यथाशीघ्र उसके दरबार में भेज दे। अकबर रानी को अपनी बेगम बनाना चाहता था। अत: उसने रानी के समक्ष ऐसी शर्त रखी थी कि जिसे रानी मानती ही नही और उसके न मानने पर अकबर को उसके राज्य पर आक्रमण करने का बहाना मिल जाना था।
आसफखां चला बनकर हमलावर
रानी के पास जब अकबर का यह प्रस्ताव पहुंचा तो रानी ने इसे तुरंत बड़ी निर्भीकता से अस्वीकार कर दिया। इससे अकबर स्वयं अत्यंत क्रोधित हो उठा, और उसने गोण्डवाना के लिए अपने एक विश्वसनीय आसफ खां को सेना लेकर भेजा। आसफ खां एक महिला को मिटाकर और उसे जीवित कैदकर उसे अपने बादशाह की सेवा में लाने के उद्देश्य से प्रेरित होकर एक आक्रांता के रूप में गोण्डवाना की ओर चल दिया।
रानी कूद पड़ी युद्घ की ज्वालाओं में
रानी को जब आसफ खां के आक्रमण की जानकारी मिली तो उस वीरांगना भारतीय क्षत्रिय परंपरा का अनुकरण करते हुए बड़ी वीरता से शत्रु का सामना किया। रानी ने इतनी प्रबलता से आक्रमण का प्रतिरोध किया कि शत्रु को प्राण बचाकर भागने पर विवश कर दिया। आसफ खां एक विलासी व्यक्ति था। वह सोच रहा था कि रानी एक अबला है और शीघ्र ही उसके नियंत्रण में आ जाएगी। आसफ खां की गिद्घ दृष्टि रानी के कोष पर थी, वह उसे लूटकर मालामाल होना चाहता था, और रानी को अपने स्वामी अकबर को सौंपकर उसकी प्रशंसा का पात्र बनना चाहता था। पर उसे अत्यंत लज्जित होना पड़ गया कि भारत माता की एक सच्ची सुपुत्री ने उसे पहले झटके में ही दिन में तारे दिखा दिये। उसके लिए रानी की इतनी वीरता अप्रत्याशित थी कि वह निराश भी था और हतप्रभ भी।
३००० मुगलों की ली आहुति
आसफ खां ने रानी से मिली पराजय का प्रतिशोध लेने के लिए पुन: गोण्डवाना पर आक्रमण कर दिया। इस बार उसने दुगुने वेग से हमला बोला था। दुर्गावती की सेना में इस बार बहुत कम सैनिक रह गये थे। रानी ने जबलपुर के पास नरई नाले के किनारे शत्रु का प्रतिरोध किया। रानी स्वयं अपनी सेना का संचालन पुरूष वेष में कर रही थी।
रानी ने और उसकी सेना ने अपनी स्वतंत्रता की रक्षार्थ आज मर मिटने की ठान ली थी। रानी की उपस्थिति से उसके सैनिकों में दुगुणा उत्साह उत्पन्न हो गया था। उन सबके लिए आज स्वतंत्रता की रक्षा ही आवश्यक नही हो गयी थी, उसके साथ ही साथ रानी की रक्षा भी अनिवार्य हो गयी थी। क्योंकि रानी को यदि आसफ खां पकडक़र ले जाने में सफल हो गया तो इससे भारत की अस्मिता ही लुट जाती। तब हमारे वी योद्घाओं के लिए बड़ी अपमानजनक स्थिति उत्पन्न हो जानी थी। अत: जितने भी हिंदू वीर रानी के साथ थे उन सबने अपनी वीरता का परिचय युद्घ के आरंभ होते ही देना आरंभ कर दिया। उन सबने इस युद्घ को देश के सम्मान और नारी शक्ति के सम्मान के लिए लड़ा। भारत में अब तक के मुस्लिम सुल्तानों या बादशाहों के साथ भारत के योद्घाओं के जितने भी युद्घ हुए थे वे वास्तव में देश के सम्मान और नारीशक्ति के सम्मान के लिए ही लड़े गये थे। इस प्रकार नारीशक्ति के सम्मान के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर करना भारत की वीर परंपरा है। इसे इतिहास में इसी प्रकार समझने की आवश्यकता है।
रानी स्वयं भी बिजली की भांति गरज रही थी, जिधर भी घुस जाती उधर ही शवों का ढेर लगा देती। शत्रु कटता, मिटता और सिमटता जा रहा था। हमारे हिंदू वीरों ने ३००० मुगल सैनिकों की बलि ले ली थी। २३ जून १५६४ को हुए इस युद्घ में मुगल सेना की अपार क्षति हुई थी। आज शत्रु पुन: व्याकुल हो उठा था।
बनने लगीं विपरीत परिस्थितियां
अगले दिन २४ जून को युद्घ प्रारंभ हुआ। रानी ने अपने पुत्र वीरनारायण को इस दिन सुरक्षित स्थान पर भेज दिया। उस दिन रानी के लिए विपरीत परिस्थितियां बननी आरंभ हो गयी थीं। युद्घ में रानी बड़ी वीरता से लड़ रही थी। अचानक एक तीर उसकी एक भुजा में आ घुसा। रानी तनिक भी विचलित नही हुई और उसने वह तीर शीघ्र ही निकाल कर फेंक दिया। परंतु तीर के लगने और तीर निकालने में जितनी देरी हुई उसका लाभ शत्रु पक्ष ने उठाया, और इससे पूर्व कि रानी संभल पाती, इतने में ही एक और तीर उसकी आंख में आ लगा। रानी ने बड़ी वीरता और धैर्य का परिचय देते हुए उसे भी निकाल दिया, पर कहा जाता है कि उस तीर की नोंक आंख में ही धंसी रह गयी। रानी अभी इस नये आघात से संभल भी नही पायी थी कि इतने में ही एक तीसरा तीर उसकी गर्दन में आ लगा।
आधारसिंह से कहा-'मेरी गर्दन काट दो'
अब रानी समझ गयी कि उसका अंतिम समय आ गया है। वह वीर प्रस्विनी थी और स्वयं वीरांगना थी, वीरों की नायिका थी और आज वीर वेष में ही युद्घ क्षेत्र में खड़ी भारतीय धर्म और संस्कृति की रक्षार्थ युद्घ का संचालन कर रही थी, उसे यह भली प्रकार ज्ञात था कि यदि उसे आसफ खां कैद करके बादशाह के पास ले गया तो क्या होगा? अत: उस वीरांगना ने उन अत्यंत पीड़ादायी क्षणों में भी अपना धैर्य नही खोया और ना ही शत्रु पक्ष के समक्ष किसी प्रकार की संधि का प्रस्ताव रखा। संधि तो वैसे भी उस वीरांगना के शब्दकोश में कहीं थी ही नही। अत: उसने अपने विश्वसनीय मंत्री आधारसिंह से उस समय आग्रह किया कि वह शीघ्रता से अपनी तलवार से उसकी गर्दन काट दे। रानी नही चाहती थी कि शरीर किसी शत्रु की तलवार से निढ़ाल होकर धरती पर गिरे। आधारसिंह के लिए रानी का आग्रह स्वीकार करना बडा कठिन था, वह इसके लिए धर्म संकट में फंस गया। रानी के लिए वे क्षण अत्यंत असहनीय होते जा रहे थे।
अपनी कटार से ही कर लिया आत्मबलिदान
जितने क्षण व्यतीत हो रहे थे उतने व्यर्थ ही थे, इसलिए रानी ने आधारसिंह की मन:स्थिति को समझकर स्वयं ही निर्णय ले लिया। रानी ने अपनी कटार निकाली और उसे अपने सीने में भोंककर स्वयं ही बलिदान दे दिया। रानी की अवस्था इस समय लगभग 40 वर्ष थी। उसका शरीर मां भारती की गोद में आ पड़ा था, उसने गिरकर भी मां को नमन किया और मां ने अपनी सच्ची सुपुत्री को अपने हाथों से अपना आंचल थमा दिया। रानी का बलिदान हो गया पर उसकी वीरता की ऐसी कीर्ति हुई कि आज तक भी हर हिंदू को उसके बलिदान पर गर्व है। ऐसे ही बलिदानियों के लिए किसी कवि ने क्या सुंदर कहा है :-
लेखनी न लिखने को राजी
भावों का ज्वार विरुद्ध रहे
तो भी यह करुण कथा मुझको
लिखनी भी है गानी भी है ।
क्यों कोई और भला लिखता
हम खुद जब बेपरवाह रहे,
अपने वीरों के ये किस्से
हमने कब कितने लिखे कहे।
एकैक वीर की शौर्य कथा
सौ गाथाओं पर भारी है,
उनको सुनना पढना लिखना
हम सब की जिम्मेदारी है ।
अब भी हम अगर नहीं चेते
भावी पीढ़ी धिक्कारेगी,
यह कंजूसी लापरवाही
जीते जी हमको मारेगी ।
अपने पुरखों के जयकारों
गुणगानों से आकाश भरो,
उनकी अनुपम गाथाओं से
भूगोल भरो इतिहास भरो ।
कह दिया था नही जाऊंगी युद्घभूमि छोडक़र
रानी जिस समय आसफ खां से युद्घ कर रही थी तो उसके साथ केवल ३०० सैनिक ही थे। उन तीन सौ वीरों ने ३००० मुगलों को काट दिया था। यह भी तो इतिहास का एक समुज्ज्वल पक्ष है कि एक हिंदू ने दस शत्रुओं का अंत किया। हम जो गाते हैं कि-'दस-दस को एक ने मारा फिर सो गये होश गंवा के' यह वाक्य रानी के वीरों ने इस युद्घ में सार्थक कर दिया था। रानी का पुत्र वीरनारायण युद्घ में बुरी तरह घायल हो गया था, तो रानी ने उसे सुरक्षित स्थान पर भिजवाने की व्यवस्था करा दी परंतु स्वयं युद्घ करती रही। उसके सैनिकों में से कई ने उसे स्वयं को भी युद्घ से हट जाने का आग्रह किया। परंतु रानी नही चाहती थी कि कल को इतिहास उनके लिए यह कहे कि माता-पुत्र दोनों ही अपने प्राण बचाकर युद्घ क्षेत्र से दूर चले गये थे। यह भारतीय इतिहास की परंपरा है कि जब युद्घ क्षेत्र से हटना उचित माना गया तो अच्छे-2 राजा युद्घ से हट गये पर जब देखा कि अब युद्घ से हटने का अर्थ होगा कायरता तो उस समय युद्घ क्षेत्र में डटे रहकर बलिदान देना भी उचित माना गया।
रानी के लिए ऐसी ही स्थिति उत्पन्न हो गयी थी, इसलिए उसने अपने सैनिकों के आग्रह को अस्वीकार कर युद्घ क्षेत्र में डटे रहकर वहीं अपना बलिदान देना ही उचित माना। उसने कह दिया कि-'मैं युद्घ में आज विजयश्री अथवा मृत्यु में से किसी एक को लेने के लिए आयी हूं, इसलिए आज मेरे पीछे हटने का कोई प्रश्न ही नही है।'
बाजबहादुर को भी हराया था रानी ने
रानी दुर्गावती के पति दलपतशाह की मृत्यु लगभग १५५० ई. में हो गयी थी। उस समय सूर शासकों का वर्चस्व भारत में ढीला पडऩे लगा था। उस समय उसके लडक़े वीरनारायण की अवस्था छोटी थी, इसलिए अपने पति के राज्य की बागडोर रानी ने स्वयं संभाल ली। इसके पश्चात रानी ने लगभग १५ वर्षों तक अपने राज्य पर सफलता पूर्वक शासन किया। उसके विश्वसनीय आधारसिंह और मनठाकुर नामक दो मंत्रियों ने उसे शासन कार्यों के सफल संचालन में अच्छा सहयोग प्रदान किया।
राजा दलपतसिंह के निधन के पश्चात जिन शत्रुओं ने रानी के राज्य पर गिद्घ-दृष्टि डाली उनमें मालवा का मांडलिक राजा बाजबहादुर भी सम्मिलित था। उसे भी लगा था कि रानी तो एक महिला है, अत: उसे तो यूं ही हराया जा सकता है। अत: वह भी रानी के राज्य को अपने राज्य में मिलाने की योजनाओं में व्यस्त रहने लगा था। वह इतना उत्साहित था कि गोण्डवाना को एक दिन में ही प्राप्त करने के सपने लेने लगा थ। उसने इसी सपने को साकार करने के लिए रानी के राज्य पर अचानक आक्रमण कर दिया।
रानी भी उस समय की परिस्थितियों से परिचित थी। उसे ज्ञात था कि पति के न रहने से कितने लोगों के मुंह में पानी आ रहा होगा और कितने लोग दिन में सपने देख रहे होंगे कि रानी के रहते गोण्डवाना की शक्ति क्षीण हो चुकी है। फलस्वरूप अब तो यह बड़ी सफलता से छीना जा सकता है।
रानी ने दिखाई अपूर्व बहादुरी
रानी की अपनी सेना में २०,००० झुड़सवार तथा एक हजार हाथीदल के साथ-साथ बड़ी संख्या में पैदल सेना भी थी। अत: रानी ने बाजबहादुर के आक्रमण का बड़ी बहादुरी से सामना किया और उसे यह बता दिया कि बहादुर कहाने से बाज रह, यहां 'दुर्गा की अवतार' से उसका पाला पड़ा है और दुर्गा की शक्ति को वह पराजित नही कर सकता। रानी ने बाजबहादुर को निर्णायक रूप से पराजित किया। रानी के संगठन चातुर्य और सैन्य-संचालन की कीर्ति बाजबहादुर के हारते ही दूर दूर तक फैल गयी। इससे अकबर को बड़ी ईष्र्या हुई। उसने रानी की वास्तविक शक्ति का पता लगाने तथा उसे अपने नियंत्रण में लेने की संभावनाओं की जानकारी लेने के उद्देश्य से अपनी राज्यसभा के दो विद्वानों को अर्थात महापात्र तथा नरहरिमहापात्र को रानी की राजयसभा में भेज दिया। रानी ने भी अकबर के इन दोनों विद्वानों को अपने दरबार में यथोचित स्वागत सत्कार से सम्मानित किया। अकबर ने प्रारंभ में वीर नारायणसिंह को राज्य का स्वामी मान लिया था। परंतु उसका यह छद्मी स्वरूप शीघ्र ही मिट गया और उसने रानी को उसके पुत्र को रास्ते से हटाकर उनके राज्य को अपने साम्राज्य में मिलाने की कुत्सित योजना पर कार्य करना आरंभ कर दिया।
नारीशक्ति की प्रतीक थी दुर्गावती
वास्तव में रानी दुर्गावती का जीवन हमें यह बताने के लिए पर्याप्त है कि यहां बलिदान देने के समय पुरूष समाज ही आगे नही आया, अपितु समय आने पर वीरांगनाओं ने भी अपने कत्र्तव्य का निर्वाह करने में देर नही लगायी। हमें अपनी ऐसी वीरांगनाओं पर हृदय से गर्व है। क्योंकि इन वीरांगनाओं के कारण ही हमारा इतिहास गौरव गाथाओं का संगम बना। रानी की गौरवगाथा पर भारतीय इतिहास को गर्व है, और हम उस इतिहास के पाठक हैं। ऐसे पाठक जो उस गौरवगाथा की ज्योति को आगे लेकर चलना अपना पुनीत दायित्व समझते हैं।
(लेखक की इस लेखमाला के कुल ६ खण्ड 'भारत के १२३५ वर्षीय स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास' नाम से प्रकाशित किये जाने हैं, जिनमें से प्रथम तीन खण्ड डायमण्ड पॉकेट बुक्स (प्रा.) लि. एक्स-३०, ओखला इंडस्ट्रियल एरिया, फेज द्वितीय, नई दिल्ली-११००२०, फोन नं. ०११-४०७१२१००, से प्रकाशित किये जा चुके हैं। खरीदने के इच्छुक पाठक उक्त पते से ये पुस्तकें प्राप्त कर सकते हैं। -साहित्य संपादक)
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आज आपके सामने पेश है !बुंदेलखंड की एक और महारानी की वीरता की कहानी जिनका नाम था रानी दुर्गावती नाम तो सुना ही होगा !
बुंदेलखंड में कालिंजर दुर्ग(बांदा) अपनी विशालता व भब्यता के लिए प्रसिद्ध है!यहाँ के राजा कीर्ति सिंह की पुत्री थी रानी दुर्गावती !उनका जन्म १५४० के आस-पास हुआ था ! बालिका दुर्गा ने बचपन से ही अश्वारोही व सस्त्र संचालन तथा तेराकी में निपुरता प्राप्त कर ली थी !तीर भाले व बन्दुक का निशाना उनका अचूक था !शेरो का आमने सामने शिकार करना उनका महत्वपूर्ण शौक था ! जो लोगो को आश्चर्य में ड़ाल देता था !बालिका दुर्गा बचपन से ही महादेव की बड़ी भक्त थी! और उनकी एक बहुत अच्छी सहेली थी जिनका नाम था रामचेरी ! दुर्गावती अपनी सहेली रामचेरी के साथ प्रतिदिन कालिंजर दुर्ग के सातवे द्वार महादेव द्वार के समीप नील्कंठेस्वर जी के मंदिर में पूजा अर्चना के लिए जाया करती थी !महाराजा कीर्ति सिंह चंदेल वंश के थे !वे रानी दुर्गावती का विवाह पथा के कुवर वीरभद्र सिंह के साथ करना चाहते थे !पर् दुर्गावती महाराज दल्पतिशाह की वीरता व पराक्रम से प्रभावित होकर मन ही मन उन्हें पति रूप से स्वीकार कर चुकी थी !पिता कीर्तिसिंह इस विवाह के विरुद्ध थे ! इसलिए दुर्गावती ने माना पंडित के माध्यम से अपना एक पत्र दलपति शाह को भेजा !दुर्गावती का पत्र पाकर दलपति शाह १२ हज़ार सैनको के साथ कालिंजर के दक्षिण में मोर्चा जमाकर बैठ गए !उनके आने का समाचार सुनकर दुर्गावती अपनी सहेली के साथ सुरंग के रास्ते दुर्ग से निकलकर दलपति शाह के सिविल में जा पहुची!माना पंडित ने कन्यादान किया !इस तरह जब से रानी दुर्गावती गढ़ा की महारानी दुर्गावती कहलाई!कुछ समय बाद कीर्तिसिंह ने भी इस विवाह को स्वीकार कर लिया !एक वर्ष बाद रानी दुर्गावती को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई !उसका वीर नारायण रखा गया ! ४ वर्ष बाद महाराज की मौत हो गयी जिसके बाद रानी को वैधभ्य का जीवन जीना पड़ा !इसी बीच शेरशाह सूरी ने रानी दुर्गावती के मायके कालिंजर का घेराव कर लिया ! जिसके कारण युध्द हुआ ! व महाराज़ कीर्ति सिंह वीरगति को प्राप्त हुए !यह रानी दुर्गावती को दूसरा बड़ा आघात था ! रानी गढा दुर्ग में रहती थी ! उनका महल पांच मंजिला था व बहुत ही सुन्दर था ! उनके राज्य की उन्नति को सुनकर मानिकपुर के फोजदार ने १५६३ में राज्य को तहस नहस कर उस पर् हमला कर दिया !यह हमला मुग़ल बादशाह अकबर की तरफ से कराया गया !दूसरे दिन भीसर लड़ाई हुई !वे घोड़े की लगाम को अपने दातो में लिए हुए !उनके साथ में उनके बायीं ओर राम्चेरी ओर उनके पीछे उनका पुत्र था ! वे मुग़ल सेना को गाजर मूली की तरह काटती चली गयी !पर् उनका पुत्र व उनकी सहेली वीर गति को प्राप्त हुई !यह सब देखकर रानी को चक्कर आ गया!व एक तीर उनकी आख को छेद गया !व उनकी गर्दन को छेद गा गया ! रानी वीर गति को प्राप्त हुई ! गनु महावत जो की रानी का बहुत सेवक था उसने उन तीनो की देहो को उठाकर सरमन नामक हाथी के होदे में डाला !हाथी सूड़ में बाध्ही जंजीर को घुमाता हुआ सर्भाग में गढा से पांच कोस दूर ले गया ! वहा बनी उनकी समाधि आज भी उनकी याद दिलाती है !
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रानी दुर्गावती मरावी का जन्म प्रसिद्ध राजपूत चंदेल शासक कीरत राय के घराने में हुआ था. उनका जन्म चंदेल साम्राज्य में उत्तर प्रदेश के कालिंजर किले में हुआ था. इतिहास में महमूद ग़ज़नी को परास्त किये जाने की वजह से वह किला काफी प्रसिद्ध है. उनके प्यार को हम खजुराहो और कालिंजर के मंदिरों की मूर्तियों में देख सकते है. इतिहास में उनकी काफी शौर्य गाथाये प्रसिद्ध है.
रानी दुर्गावती का साहसी इतिहास / Rani Durgavati History In Hindi
१५४२में रानी दुर्गावती का विवाह गोंड साम्राज्य के राजा संग्राम शाह के बड़े बेटे दलपत शाह से से हुआ. उनके विवाह के उपलक्ष में चदेल और गोंड साम्राज्य के संबंधो में सुधार हुआ. परिणामतः कीरत राय ने कई बाद गोंड की सहायता भी की. १५४५ में उन्होंने एक बेटे को जन्म दिया जिसका नाम वीर नारायण रखा गया. सन १५५० में उनके पति दलपत शाह की मृत्यु हो गयी और दुर्गावती ने गोंड साम्राज्य की बागडोर अपने हातो में ली. साम्राज्य के दीवान और प्रधानमंत्री बोहर अधर सिम्हा और मंत्री मान ठाकुर ने रानी की काफी सहायता की. बाद में रानी अपनी राजधानी चौरागढ़ में सिंगौरगढ़ के महल में चली गयी. उनका यह महल सतपुरा पर्वत श्रेणियों में स्थित है. शेर शाह की मृत्यु के बाद सुजात खान ने मालवा को हथिया लिया और १५५६ में सुजात खान का बेटा बाज़ बहादुर वहा का उत्तराधिकारी बना. और सिंहासन पाने की चाहत में उसने रानी दुर्गावती पर हमला कर दिया लेकिन इस युद्ध में बाज़ बहादुर और उसकी सेना को काफी हानि हुई.१५६२ में, अकबर ने मालवा के शासक बाज़ बहादुर को परास्त किया और मालवा को मुगलों ने अपने कब्जे में ले लिया. फलस्वरूप, रानी के साम्राज्य ने मुग़ल सल्तनत की सीमा को छू लिया था.
रानी दुर्गावती के समकालीन मुग़ल जनरल ख्वाजा अब्दुल मजीद असफ खान, जिन्होंने रेवा के शासक रामचंद्र को परास्त किया था. रानी दुर्गावती के सुखी और सम्पन्न राज्य पर मालवा के मुसलमान शासक बाज बहादुर ने कई बार हमला किया, पर हर बार वह पराजित हुआ. तथा कथित मुगल शासक अकबर भी राज्य को जीतकर रानी को अपने हरम में डालना चाहता था. उसने विवाद प्रारम्भ करने हेतु रानी के प्रिय सफेद हाथी (सरमन) और उनके विश्वस्त वजीर आधार सिंह को भेंट के रूप में अपने पास भेजने को कहा. रानी ने यह मांग ठुकरा दी. इस पर अकबर ने अपने एक रिश्तेदार आसफ खां के नेतृत्व में गोंडवाना पर हमला कर दिया. एक बार तो आसफ खां पराजित हुआ, पर अगली बार उसने दुगनी सेना और तैयारी के साथ हमला बोला. रानी दुर्गावती के पास उस समय बहुत कम सैनिक थे. उन्होंने जबलपुर के पास नरई नाले के किनारे मोर्चा लगाया तथा स्वयं पुरुष वेश में युद्ध का नेतृत्व किया. इस युद्ध में ३००० मुगल सैनिक मारे गये लेकिन रानी की भी अपार क्षति हुई थी.
अगले दिन २४ जून १५६४ को मुगल सेना ने फिर हमला बोला. आज रानी का पक्ष दुर्बल था, अतः रानी ने अपने पुत्र नारायण को सुरक्षित स्थान पर भेज दिया, तभी एक तीर उनकी भुजा में लगा, रानी ने उसे निकाल फेंका, दूसरे तीर ने उनकी आंख को बेध दिया, रानी ने इसे भी निकाला पर उसकी नोक आंख में ही रह गयी. तभी तीसरा तीर उनकी गर्दन में आकर धंस गया. रानी दुर्गावती ने अंत समय निकट जानकर वजीर आधारसिंह से आग्रह किया कि वह अपनी तलवार से उनकी गर्दन काट दे, पर वह इसके लिए तैयार नहीं हुआ. अतः रानी अपनी कटार स्वयं ही अपने सीने में मारकर आत्म बलिदान के पथ पर बढ़ गयीं. महारानी दुर्गावती ने अकबर के सेनापति आसफ़ खान से लड़कर अपनी जान गंवाने से पहले पंद्रह वर्षों तक शासन किया था.
जबलपुर के पास जहां यह ऐतिहासिक युद्ध हुआ था, उस स्थान का नाम बरेला है, जो मंडला रोड पर स्थित है, वही रानी की समाधि बनी है, जहां देशप्रेमी जाकर अपने श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं.१९५६ में, जबलपुर मे स्थित रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय भी इन्ही रानी के नाम पर बनी हुई है. रानी दुर्गावती के पूर्वज छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश के विभिन्न भागो में भी देखे गये है, जो अलग-अलग उपनामों से जाने जाते है- जैसे की, मादवी, मांडवी, मालवी इत्यादि. सरकार ने उनकी मृत्यु के कुछ समय बाद उनके नाम का पोस्टल स्टैम्प भी जारी किया. और साथ ही जबलपुर जंक्शन और जम्मुवती के बिच चलने वाली ट्रेन को दुर्गावती एक्सप्रेस के नाम से जाना जाने लगा
शौर्य और पराक्रम की देवी रानी दुर्गावती
- अरविन्द सिसोदिया
शौर्य का सिर ऊंचा रहा हमेशा जबलपुर के निकट बारहा गांव है,महारानी दुर्गावती यहीं घायल हो गई थीं,एक तीर उनकी आंख में व एक गर्दन में लगा था,बाढ़ के कारण मार्ग अवरूद्ध थे तथा सुरक्षित स्थान पर पहुचना असम्भव था, सो उन्होने अपनी ही कटार को छाती में घोंप कर अपनी जीवन लीला समाप्त करली थी। इस महान बलिदान की स्मृति में एक सुन्दर स्तम्भ खडा किया गया है। जो आज सीना तान कर भारत मॉं की कोख से जन्मी गौंडवाने की शेरनी रानी दुर्गावती के शौर्य और पराक्रम को
कामुक अकबर
क्रूर और कामुक मुगल शासक अकबर जिसकी लिप्सा मात्र भारतीय राजघरानों की स्त्रिीयों से अपने हरम को सजानेे की रही, उसने ३४ विवाह किए जिसमें से २१ रानियां राजपूत परिवारों की राजकुमारियां थीं।
तीन सपूत
अकबर के शासनकाल के समय जिन तीन महान राष्ट्रभक्तों को भारतमाता ने देश सेवा हेतु जन्म दिया, उनमें प्रथम रानी दुर्गावती दूसरे शूरवीर महाराणा प्रताप थे और तीसरे हिन्दु धर्म की आधुनिक ध्वजा गोस्वामी तुलसीदास थे। रानी दुर्गावती का शासनकाल सन १५५० से १५६४ तक का है। तो महाराणा प्रताप का शासनकाल १५७२ से १५९७ तक का है। तुलसीदास १४९७ में जन्म और १६२३ में परलोक गमन किया, मगर तीनों ने अपने अपने तरह से देश की महान सेवा की जिसे देशवासी लम्बे समय तक याद रखेंगें और प्रेरणास्त्रोत के रूप में उन्हे स्मरण करते रहेंगें।
जन्मभूमि
रानी दुर्गावती चन्देल वंशीय राजपूत राजा कीर्तीराय की एक मात्र पुत्री थीं,उनका जन्म कलंजर किले (वर्तमान में बांदा जिला,उत्तरप्रदेश में ) में ५ अक्टूबर १५२४ को हुआ था,तब उनके पिता तत्कालीन महोवा राज्य के राजा थे। चंदेल इतिहास प्रशिद्ध राजवंश रहा है। कलिंजर और खुजराहों के विशाल किले इसी राजवंश के प्रशाद रहे है।
उनका विवाह पडौसी राज्य गौंडवाने के सूर्यवंशी राजगौैैड़ राजा दलपतशाह से १५४२ में हुआ था तथा प्रथम व एकमात्र संतान पुत्र वीरनारायण का जन्म १५४५ में हुआ। रानी का सुख अधिक दिन टिक नहीं सका और अज्ञात रोग से दलपतशाह की मृत्यु हो गई। वे १५५० में विधवा हो गई। पुत्र वीरनारायण को सिंहासन पर बिठा कर उन्होने राज्यशासन संभाला,मालवा और दिल्ली के मुस्लिम शासकों से निरंतर संघर्ष करते हुए उन्होने २४जून १५६४ को युद्ध भूमि में वीरगति प्राप्त की।
समाज ने दिया सम्मान
चन्देलों की बेटी थी,
गौंडवाने की रानी थी,
चण्डी थी रणचण्डि थी,
वह दुर्गावती भवानी थी।
रानी दुर्गाावती कीर्ति स्तम्भ,रानी दुर्गाावती पर डाकचित्र,रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय,रानी दुर्गावती अभ्यारण,रानी दुर्गावती सहायता योजन,रानी दुर्गावती संग्रहालय एवं मेमोरियल,रानी दुर्गावती महिला पुलिस बटालियन आदि न जाने कितनी र्कीती आज बुन्देलखण्ड से फैलते हुए सम्पूर्ण देश को प्रकाशित कर रही है।
झांसी की रानी लक्ष्मीबाई से रानी दुर्गावती का शौर्य किसी भी प्रकार से कम नहीं रहा है,दुर्गावती के वीरतापूर्ण चरित्र को लम्बे समय तक इसलिए दबाये रखा कि उसने मुस्लिमों शासकों के विरूद्ध संर्घष किया और उन्हे इनेकों वार पराजित किया। क्यों कि सरकार इतिहास की सत्यता को भी वोटों के मोलतौल पर तौलती रही । देर सबेर ही सही मगर आज वे तथ्य सम्पूर्ण विश्व के सामने हैं कि तथाकथित अकबर महान ने अपनी कामुक लिप्सा के लिए,एक विधवा पर किसी तरह के जुल्मों की कसर नहीं छोडी थी और धन्य ही रानी का पराक्रम जिसने अपने मान सम्मान,धर्म की रक्षा और स्वतंत्रता के लिए युद्ध भूमि को चुना और अनेकों बार शत्रुओं को पराजित करते हुए बलिदान दे दिया।
जन जन में रानी ही रानी
वह तीर थी,तलवार थी,
भालों और तापों का वार थी,
फुफकार थी, हुंकार थी,
शत्रु का संहार थी!
आल्हा-ऊदल के शौर्य से रचीपटी बुन्देलखण्ड की वीर भूमि यंू तो मेवाड जैसी है, जिसमें रानी की कीर्ती बुन्देलखण्ड की बेटी और गौंडवाने की बहू होने से कई प्रदेशों में फैली हुई है।
उप्र के महोवा कालिंजर मप्र जबलपुर दमोह मंडला नरसिंहपुर होते हुए चंद्रपुर महाराष्ट्र तक इसका विस्तार हे। कहा जाता है कि गौंडवाने में 52 गढ और 35 हजार गांव थे। जिनमें चौरागढ,सिंगौरगढ
बहुत ही विशाल गढ थे। बुन्देलखण्ड के बारे में कवियों ने कुछ पंक्तियों लिखि हैं-
भैंस बंधी ओरछे,पडा होसंगाबाद।
लगवैया है सागरे,चपिया रेवा पार।।
रेवा नाम नर्मदा नदी का है। यह बुन्देंलखण्ड के क्षैत्रफल का वर्णन है। झांसी,बांदा,हमीरपुर,
जालौन,ग्वालियर,दतिया,विदिशा,बीना,भोपाल,सागर,दमोह, टीकमगढ,पन्ना,जबलपुर,होसंगावाद लगभग 28-30 जिलों का विशाल भूभाग बुन्देलखण्ड कह लाता है। महाराष्ट्र का एकीकरण तो हो गया मगर राजनैतिक इच्छाशक्ति के अभाव में बुन्देलखण्ड का एकीकरण नहीं हो सका।
इस महान धरा ने गाैंडवाने की रानी दुर्गावती (महोबा,बांदा) के साथ-साथ तुलसीदास (बांदा) दिये जिनकी अमर कृति रामचरित्र मानस हमारे देश व धर्म की ध्वजा बन गयी। वीर चम्पतराय और धर्म वीर छत्रशाल की यह भूमी अनंत गौरवों से युक्त है।
मालवा की पराजय
१५५५ से १५६० तक मालवा के मुस्लिम शासक बाजबहादुर और मियानी अफगानी के आक्रमण गौंडवाने पर कई वार हुए, हर बार रानी की सेना की ही विजय हुई। रानी स्वंय युद्धभूमि में रह कर युद्ध करती थी। जिससे वे सैनिकों व आम जन में बहुत लोकप्रिय थीं।
अकबर से संघर्ष और बलिदान
थर-थर दुश्मन कांपे,
पग-पग भागे अत्याचार,
नरमुण्डो की झडी लगाई,
लाशें बिछाई कई हजार,
जब विपदा घिर आई चहुंओर,
सीने मे खंजर लिया उतार।
अकबर के कडा मानिकपूर के सूबेदार ख्वाजा अब्दुल मजीद खां जो आसफ खां के नाम से जाना जाता था ने रानी दुर्गावती के विरूद्ध अकबर को उकसाया,अकबर अन्य राजपूत घरानों की तरह दुर्गावती को भी रानवासे की शोभा बनाना चाहता था। रानी दुर्गावती ने अपने धर्म और देश की दृडता पूर्वक रक्षा की ओर रण क्षैत्र में अपना बलिदान १५६४ में कर दिया,उनकी मृत्यु के पश्चात उनका देवर चंन्द्र शाह शासक बना व उसने मुगलों की आधीनता स्वीकार कर ली,,जिसकी हत्या उन्ही के पुत्र मधुकर शाह ने कर दी। अकबर को कर नहीं चुका पाने के कारण मधुकर शाह के दो पुत्र प्रेमनारायण और हदयेश शाह बंधक थे। मधुकरशाह की मृत्यु के पश्चात १६१७ में प्रेमनारायण शाह को राजा बनाया गया।
चौरागढ का जौहर
आसफ खां रानी की मृत्यु से बौखला गया,वह उन्हे अकबर के दरबार में पेश करना चाहता था, उसने राजधानी चौरागढ (हाल में जिला नरसिंहपुर में) पर आक्रमण किया,रानी के पुत्र राजा वीरनारायण ने वीरतापूर्वक युद्ध करते हुए वीरगति प्राप्त की, इसके साथ ही चौरागढ में पवित्रा को बचाये रखने का महान जौहर हुआ,जिसमें हिन्दुओं के साथ-साथ मुस्लिम महिलाओं ने भी अपने आप को जौहर के अग्नि कुंड में छलांग लगा दी थी।
किंवदंतीयों में है कि आसफखां ने अकबर को खुश करने के लिये दो महिलाओं को यह कहते हुए भेंट किया कि एक राजा वीरनारायण की पत्नि है तथा दूसरी दुर्गावती की बहिन कलावती है। राजा वीरनायायण की पत्नि ने जौहर का नेतृत्व करते हुए बलिदान किया था और रानी दुर्गावती की कोई बहिन थी ही नहीं,वे एक मात्र संतान थीं। बाद में आसफखां से अकबर नराज भी रहा,मगर मेवाड के युद्ध में वह मुस्लिम एकता नहीं तोडना चाहता था।
बदला पूरा हुआ
धर्म का प्राण थी,
कर्म का मान थी,
आजादी की शान थी,
शौर्य का अनुसंधान थी!
सिर्फ दुर्गावती नहीं वह दुर्गा का मान थी।
रानी दुर्गावती के नाती निजामशाह ने घोषणा की, कि जो आसफ खां ( रानी दुर्गावती की वीरगती का जो कारण था) का सिर लायेगा उसको इनाम दिया जायेगा। खलौटी के महाबली ने आसफ खां का सिर काट दिया और उसे बदले में कर्वधा का राज्य दिया गया। आसफ खां का सिर गढा मंढला में और बांकी धड मडई भाटा में गढा हुआ है।
......
नमन् कर रहा है।
सुनूगीं माता की आवाज,
रहूंगीं मरने को तैयार।
कभी भी इस वेदी पर देव,
न होने दूंगी अत्याचार।
मातृ मंदिर में हुई पुकार,
चलो में तो हो जाऊ बलिदान,
चढा दो मुझको हे भगवान!!
स्वतंत्रता संग्राम की महान महिला सेनानी व ” खूब लडी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी “ की शौर्यगाथा काव्य को लिखने वाली, वीररस की महान कवियित्री श्रीमति सुभद्रा कुमारी चौहान के ये शब्द ही,अद्वितीय शौर्य का प्रदर्शन करते हुए अमर बलिदान करने वाली रानी दुर्गावती की सच्ची कहानी कहते हुए महसूस होते हैं।
राधाकृष्ण मंदिर रोड, डडवाडा,कोटा, राजस्थान। 09414180151
शौर्य का सिर ऊंचा रहा हमेशा जबलपुर के निकट बारहा गांव है,महारानी दुर्गावती यहीं घायल हो गई थीं,एक तीर उनकी आंख में व एक गर्दन में लगा था,बाढ़ के कारण मार्ग अवरूद्ध थे तथा सुरक्षित स्थान पर पहुचना असम्भव था, सो उन्होने अपनी ही कटार को छाती में घोंप कर अपनी जीवन लीला समाप्त करली थी। इस महान बलिदान की स्मृति में एक सुन्दर स्तम्भ खडा किया गया है। जो आज सीना तान कर भारत मॉं की कोख से जन्मी गौंडवाने की शेरनी रानी दुर्गावती के शौर्य और पराक्रम को
कामुक अकबर
क्रूर और कामुक मुगल शासक अकबर जिसकी लिप्सा मात्र भारतीय राजघरानों की स्त्रिीयों से अपने हरम को सजानेे की रही, उसने ३४ विवाह किए जिसमें से २१ रानियां राजपूत परिवारों की राजकुमारियां थीं।
तीन सपूत
अकबर के शासनकाल के समय जिन तीन महान राष्ट्रभक्तों को भारतमाता ने देश सेवा हेतु जन्म दिया, उनमें प्रथम रानी दुर्गावती दूसरे शूरवीर महाराणा प्रताप थे और तीसरे हिन्दु धर्म की आधुनिक ध्वजा गोस्वामी तुलसीदास थे। रानी दुर्गावती का शासनकाल सन १५५० से १५६४ तक का है। तो महाराणा प्रताप का शासनकाल १५७२ से १५९७ तक का है। तुलसीदास १४९७ में जन्म और १६२३ में परलोक गमन किया, मगर तीनों ने अपने अपने तरह से देश की महान सेवा की जिसे देशवासी लम्बे समय तक याद रखेंगें और प्रेरणास्त्रोत के रूप में उन्हे स्मरण करते रहेंगें।
जन्मभूमि
रानी दुर्गावती चन्देल वंशीय राजपूत राजा कीर्तीराय की एक मात्र पुत्री थीं,उनका जन्म कलंजर किले (वर्तमान में बांदा जिला,उत्तरप्रदेश में ) में ५ अक्टूबर १५२४ को हुआ था,तब उनके पिता तत्कालीन महोवा राज्य के राजा थे। चंदेल इतिहास प्रशिद्ध राजवंश रहा है। कलिंजर और खुजराहों के विशाल किले इसी राजवंश के प्रशाद रहे है।
उनका विवाह पडौसी राज्य गौंडवाने के सूर्यवंशी राजगौैैड़ राजा दलपतशाह से १५४२ में हुआ था तथा प्रथम व एकमात्र संतान पुत्र वीरनारायण का जन्म १५४५ में हुआ। रानी का सुख अधिक दिन टिक नहीं सका और अज्ञात रोग से दलपतशाह की मृत्यु हो गई। वे १५५० में विधवा हो गई। पुत्र वीरनारायण को सिंहासन पर बिठा कर उन्होने राज्यशासन संभाला,मालवा और दिल्ली के मुस्लिम शासकों से निरंतर संघर्ष करते हुए उन्होने २४जून १५६४ को युद्ध भूमि में वीरगति प्राप्त की।
समाज ने दिया सम्मान
चन्देलों की बेटी थी,
गौंडवाने की रानी थी,
चण्डी थी रणचण्डि थी,
वह दुर्गावती भवानी थी।
रानी दुर्गाावती कीर्ति स्तम्भ,रानी दुर्गाावती पर डाकचित्र,रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय,रानी दुर्गावती अभ्यारण,रानी दुर्गावती सहायता योजन,रानी दुर्गावती संग्रहालय एवं मेमोरियल,रानी दुर्गावती महिला पुलिस बटालियन आदि न जाने कितनी र्कीती आज बुन्देलखण्ड से फैलते हुए सम्पूर्ण देश को प्रकाशित कर रही है।
झांसी की रानी लक्ष्मीबाई से रानी दुर्गावती का शौर्य किसी भी प्रकार से कम नहीं रहा है,दुर्गावती के वीरतापूर्ण चरित्र को लम्बे समय तक इसलिए दबाये रखा कि उसने मुस्लिमों शासकों के विरूद्ध संर्घष किया और उन्हे इनेकों वार पराजित किया। क्यों कि सरकार इतिहास की सत्यता को भी वोटों के मोलतौल पर तौलती रही । देर सबेर ही सही मगर आज वे तथ्य सम्पूर्ण विश्व के सामने हैं कि तथाकथित अकबर महान ने अपनी कामुक लिप्सा के लिए,एक विधवा पर किसी तरह के जुल्मों की कसर नहीं छोडी थी और धन्य ही रानी का पराक्रम जिसने अपने मान सम्मान,धर्म की रक्षा और स्वतंत्रता के लिए युद्ध भूमि को चुना और अनेकों बार शत्रुओं को पराजित करते हुए बलिदान दे दिया।
जन जन में रानी ही रानी
वह तीर थी,तलवार थी,
भालों और तापों का वार थी,
फुफकार थी, हुंकार थी,
शत्रु का संहार थी!
आल्हा-ऊदल के शौर्य से रचीपटी बुन्देलखण्ड की वीर भूमि यंू तो मेवाड जैसी है, जिसमें रानी की कीर्ती बुन्देलखण्ड की बेटी और गौंडवाने की बहू होने से कई प्रदेशों में फैली हुई है।
उप्र के महोवा कालिंजर मप्र जबलपुर दमोह मंडला नरसिंहपुर होते हुए चंद्रपुर महाराष्ट्र तक इसका विस्तार हे। कहा जाता है कि गौंडवाने में 52 गढ और 35 हजार गांव थे। जिनमें चौरागढ,सिंगौरगढ
बहुत ही विशाल गढ थे। बुन्देलखण्ड के बारे में कवियों ने कुछ पंक्तियों लिखि हैं-
भैंस बंधी ओरछे,पडा होसंगाबाद।
लगवैया है सागरे,चपिया रेवा पार।।
रेवा नाम नर्मदा नदी का है। यह बुन्देंलखण्ड के क्षैत्रफल का वर्णन है। झांसी,बांदा,हमीरपुर,
जालौन,ग्वालियर,दतिया,विदिशा,बीना,भोपाल,सागर,दमोह, टीकमगढ,पन्ना,जबलपुर,होसंगावाद लगभग 28-30 जिलों का विशाल भूभाग बुन्देलखण्ड कह लाता है। महाराष्ट्र का एकीकरण तो हो गया मगर राजनैतिक इच्छाशक्ति के अभाव में बुन्देलखण्ड का एकीकरण नहीं हो सका।
इस महान धरा ने गाैंडवाने की रानी दुर्गावती (महोबा,बांदा) के साथ-साथ तुलसीदास (बांदा) दिये जिनकी अमर कृति रामचरित्र मानस हमारे देश व धर्म की ध्वजा बन गयी। वीर चम्पतराय और धर्म वीर छत्रशाल की यह भूमी अनंत गौरवों से युक्त है।
मालवा की पराजय
१५५५ से १५६० तक मालवा के मुस्लिम शासक बाजबहादुर और मियानी अफगानी के आक्रमण गौंडवाने पर कई वार हुए, हर बार रानी की सेना की ही विजय हुई। रानी स्वंय युद्धभूमि में रह कर युद्ध करती थी। जिससे वे सैनिकों व आम जन में बहुत लोकप्रिय थीं।
अकबर से संघर्ष और बलिदान
थर-थर दुश्मन कांपे,
पग-पग भागे अत्याचार,
नरमुण्डो की झडी लगाई,
लाशें बिछाई कई हजार,
जब विपदा घिर आई चहुंओर,
सीने मे खंजर लिया उतार।
अकबर के कडा मानिकपूर के सूबेदार ख्वाजा अब्दुल मजीद खां जो आसफ खां के नाम से जाना जाता था ने रानी दुर्गावती के विरूद्ध अकबर को उकसाया,अकबर अन्य राजपूत घरानों की तरह दुर्गावती को भी रानवासे की शोभा बनाना चाहता था। रानी दुर्गावती ने अपने धर्म और देश की दृडता पूर्वक रक्षा की ओर रण क्षैत्र में अपना बलिदान १५६४ में कर दिया,उनकी मृत्यु के पश्चात उनका देवर चंन्द्र शाह शासक बना व उसने मुगलों की आधीनता स्वीकार कर ली,,जिसकी हत्या उन्ही के पुत्र मधुकर शाह ने कर दी। अकबर को कर नहीं चुका पाने के कारण मधुकर शाह के दो पुत्र प्रेमनारायण और हदयेश शाह बंधक थे। मधुकरशाह की मृत्यु के पश्चात १६१७ में प्रेमनारायण शाह को राजा बनाया गया।
चौरागढ का जौहर
आसफ खां रानी की मृत्यु से बौखला गया,वह उन्हे अकबर के दरबार में पेश करना चाहता था, उसने राजधानी चौरागढ (हाल में जिला नरसिंहपुर में) पर आक्रमण किया,रानी के पुत्र राजा वीरनारायण ने वीरतापूर्वक युद्ध करते हुए वीरगति प्राप्त की, इसके साथ ही चौरागढ में पवित्रा को बचाये रखने का महान जौहर हुआ,जिसमें हिन्दुओं के साथ-साथ मुस्लिम महिलाओं ने भी अपने आप को जौहर के अग्नि कुंड में छलांग लगा दी थी।
किंवदंतीयों में है कि आसफखां ने अकबर को खुश करने के लिये दो महिलाओं को यह कहते हुए भेंट किया कि एक राजा वीरनारायण की पत्नि है तथा दूसरी दुर्गावती की बहिन कलावती है। राजा वीरनायायण की पत्नि ने जौहर का नेतृत्व करते हुए बलिदान किया था और रानी दुर्गावती की कोई बहिन थी ही नहीं,वे एक मात्र संतान थीं। बाद में आसफखां से अकबर नराज भी रहा,मगर मेवाड के युद्ध में वह मुस्लिम एकता नहीं तोडना चाहता था।
बदला पूरा हुआ
धर्म का प्राण थी,
कर्म का मान थी,
आजादी की शान थी,
शौर्य का अनुसंधान थी!
सिर्फ दुर्गावती नहीं वह दुर्गा का मान थी।
रानी दुर्गावती के नाती निजामशाह ने घोषणा की, कि जो आसफ खां ( रानी दुर्गावती की वीरगती का जो कारण था) का सिर लायेगा उसको इनाम दिया जायेगा। खलौटी के महाबली ने आसफ खां का सिर काट दिया और उसे बदले में कर्वधा का राज्य दिया गया। आसफ खां का सिर गढा मंढला में और बांकी धड मडई भाटा में गढा हुआ है।
......
नमन् कर रहा है।
सुनूगीं माता की आवाज,
रहूंगीं मरने को तैयार।
कभी भी इस वेदी पर देव,
न होने दूंगी अत्याचार।
मातृ मंदिर में हुई पुकार,
चलो में तो हो जाऊ बलिदान,
चढा दो मुझको हे भगवान!!
स्वतंत्रता संग्राम की महान महिला सेनानी व ” खूब लडी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी “ की शौर्यगाथा काव्य को लिखने वाली, वीररस की महान कवियित्री श्रीमति सुभद्रा कुमारी चौहान के ये शब्द ही,अद्वितीय शौर्य का प्रदर्शन करते हुए अमर बलिदान करने वाली रानी दुर्गावती की सच्ची कहानी कहते हुए महसूस होते हैं।
राधाकृष्ण मंदिर रोड, डडवाडा,कोटा, राजस्थान। 09414180151
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रानी दुर्गावती 'एक वीरांगना'
रानी दुर्गावती ने मुगल साम्राज्य अधीन आने से मना कर दिया की मुगल सम्राट अकबर मध्यभारत में अपने पैर जमाना चाहता था। ५ गोंड़ों राज्य में से एक पर रानी दुर्गावती का साम्राज्य था। सम्राट अकबर ने रानी दुर्गावती को शांतिपूर्वक अपने साम्राज्य में मिलाने पर दबाव डाला, लेकिन महारानी दुर्गावती ने मुगल साम्राज्य के खिलाफ जंग लड़ना पसंद किया। हालांकि रानी दुर्गावती की सेना की तादाद बहुत ज्यादा नहीं थी, इसके विपरीत अकबर के पास एक बहुत बड़ी सेना थी। रानी दुर्गावती का जन्म ५ अक्टूबर १५२४ में कालांजर जो कि अब बांदा (उत्तर प्रदेश) में हुआ, वह चंदेल वंश की थीं। जिसने मोहम्मद गजनवी की अधीनता अस्वीकार कर दी। चंदेल वंश जिन्होंने खजुराहो में ८५ मंदिर बनवाये थे, जिनमें से २२ अभी अच्छी स्थिति में हैं। १५४२ में दुर्गावती का विवाह दलपतशाह से हुआ। दलपतशाह गोंड राजा संग्राम शाह के सबसे बड़े पुत्र थे। विवाह के उपरांत रानी दुर्गावती ने अपने वीर पति दलपतशाह के साथ राज्य के प्रशासन और विस्तार में सक्रिय भागीदारी निभायी थी। दुर्भाग्य से कुछ वर्षों में ही दलपतशाह की मृत्यु हो गयी। उस समय उनके पुत्र वीरनारायण बहुत छोटे थे, ऐसे में रानी दुर्गावती को राजगद्दी संभालनी पड़ी। रानी ने अपने प्रशासन को वीरतापूर्वक चलाया। महिला शासक को कमजोर समझ कर बहुत से शासकों ने उन पर आक्रमण किये, परंतु रानी के रणकौशल के आगे उन्हें सिर पर पैर रखकर भागना पड़ा। रानी दुर्गावती ने अपने शासन में आर्थिक और सांस्कृतिक पहलू को विशेष महत्व दिया। वह एक मजबूत और समझदार शासिका साबित हुईं। रानी अपनी राजधानी सिंगौरगढ़ से चौरागढ़ ले गयीं। गढ़ा राज्य अपनी वैभव समृद्धि के लिए दूर-दूर तक चर्चित था। बाजबहादुर की तरह कड़ा मानिकपुर का सूबेदार आसफ खां ललचाई हुई दृष्टि से इस प्राकृतिक संपदा से लबालब राज्य को हड़पना चाहता था। उसने अचानक गढ़ा राज्य पर सन् १५६४ के मध्य में १० हजार घुड़सवार, सशस्त्र सेना और तोपखाने के साथ आक्रमण किया तो दुर्गावती ने तत्काल २००० सैनिक एकत्र कर आक्रमण का सामना किया। यह मुकाबला सिंगौरगढ़ के शहर के एक मैदान में हुआ, जहां अब एक गांव गिरामपुर है। गोंड सेना के साथ रानी दुर्गावती ने भी हाथी पर बैठकर इस युद्ध का सामना किया था। यह युद्ध तोप का सामना तलवार से उिक्त की तरह ही था। आसफ खां का तोपखाना साथ था। रानी और रानी की गोंड सेना तोप का मुकाबला करती रही। इस साहस की कथा और गाथा का अन्त कारूणिक ही होना था। रानी अपने जंगी हाथी शर्मन पर सवार युद्ध के मैदान में डटी रही। २१ साल का राजा वीर नारायण भी बहादुरी से लड़ते हुए घायल हो गया था। रानी ने राजकुमार वीरनारायण को सुरक्षित स्थान पर भेजा और स्वयं डटी रहीं। आंख और गले में तीर लगने के बाद रानी मूर्छित हो गयी थी। महावत को रानी ने घायलावस्था में आदेश दिया था कि उन्हें अपनी कटार से मार डाले पर महावत ने ऐसा न करके उन्हें बचाना चाहा। वह सुरक्षित स्थान पर ले जाने का प्रयास करने लगा। मैदान में दुश्मनों की जीत को देखते हुए रानी ने स्वयं को दुश्मनों के हाथों में जाकर दास बनने से बेहतर मरना स्वीकार कर लिया था। रानी दुर्गावती एक वीरांगना थी।
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महारानी दुर्गावती का बलिदान
महारानी दुर्गावती कालिंजर के राजा कीर्तिसिंह चंदेल की एकमात्र संतान थीं। महोबा के राठ गांव में १५२४ ई0 की दुर्गाष्टमी पर जन्म के कारण उनका नाम दुर्गावती रखा गया। नाम के अनुरूप ही तेज, साहस और शौर्य के कारण इनकी प्रसिद्धि सब ओर फैल गयी।
उनका विवाह गढ़ मंडला के प्रतापी राजा संग्राम शाह के पुत्र दलपतशाह से हुआ। ५२ गढ़ तथा ३५,००० गांवों वाले गोंड साम्राज्य का क्षेत्रफल ६७,५०० वर्गमील था। यद्यपि दुर्गावती के मायके और ससुराल पक्ष की जाति भिन्न थी। फिर भी दुर्गावती की प्रसिद्धि से प्रभावित होकर राजा संग्राम शाह ने उसे अपनी पुत्रवधू बना लिया। दुर्भाग्यवश विवाह के चार वर्ष बाद ही राजा दलपतशाह का निधन हो गया। उस समय दुर्गावती की गोद में तीन वर्षीय नारायण ही था। अतः रानी ने स्वयं ही गढ़मंडला का शासन संभाल लिया। उन्होंने अनेक मंदिर,मठ, कुएं, बावड़ी तथा धर्मशालाएं बनवाईं। वर्तमान जबलपुर उनके राज्य का केन्द्र था। उन्होंने अपनी दासी के नाम पर चेरीताल, अपने नाम पर रानीताल तथा अपने विश्वस्त दीवान आधारसिंह के नाम पर आधारताल बनवाया।
रानी दुर्गावती का यह सुखी और सम्पन्न राज्य उनके देवर सहित कई लोगों की आंखों में चुभ रहा था। मालवा के मुसलमान शासक बाजबहादुर ने कई बार हमला किया; पर हर बार वह पराजित हुआ। मुगल शासक अकबर भी राज्य को जीतकर रानी को अपने हरम में डालना चाहता था। उसने विवाद प्रारम्भ करने हेतु रानी के प्रिय सफेद हाथी (सरमन) और उनके विश्वस्त वजीर आधारसिंह को भेंट के रूप में अपने पास भेजने को कहा। रानी ने यह मांग ठुकरा दी। इस पर अकबर ने अपने एक रिश्तेदार आसफ खां के नेतृत्व में सेनाएं भेज दीं। आसफ खां गोंडवाना के उत्तर में कड़ा मानकपुर का सूबेदार था। एक बार तो आसफ खां पराजित हुआ; पर अगली बार उसने दुगनी सेना और तैयारी के साथ हमला बोला। दुर्गावती के पास उस समय बहुत कम सैनिक थे। उन्होंने जबलपुर के पास नरई नाले के किनारे मोर्चा लगाया तथा स्वयं पुरुष वेश में युद्ध का नेतृत्व किया। इस युद्ध में ३,००० मुगल सैनिक मारे गये। रानी की भी अपार क्षति हुई। रानी उसी दिन अंतिम निर्णय कर लेना चाहती थीं। अतः भागती हुई मुगल सेना का पीछा करते हुए वे उस दुर्गम क्षेत्र से बाहर निकल गयीं। तब तक रात घिर आयी। वर्षा होने से नाले में पानी भी भर गया।
अगले दिन २४ जून, १५६४ को मुगल सेना ने फिर हमला बोला। आज रानी का पक्ष दुर्बल था। अतः रानी ने अपने पुत्र नारायण को सुरक्षित स्थान पर भेज दिया। तभी एक तीर उनकी भुजा में लगा। रानी ने उसे निकाल फेंका। दूसरे तीर ने उनकी आंख को बेध दिया। रानी ने इसे भी निकाला; पर उसकी नोक आंख में ही रह गयी। तभी तीसरा तीर उनकी गर्दन में आकर धंस गया। रानी ने अंत समय निकट जानकर वजीर आधारसिंह से आग्रह किया कि वह अपनी तलवार से उनकी गर्दन काट दे; पर वह इसके लिए तैयार नहीं हुआ। अतः रानी अपनी कटार स्वयं ही अपने सीने में भोंककर आत्म बलिदान के पथ पर बढ़ गयीं। गढ़मंडला की इस जीत से अकबर को प्रचुर धन की प्राप्ति हुई। उसका ढहता हुआ साम्राज्य फिर से जम गया। इस धन से उसने सेना एकत्र कर अगले तीन वर्ष में चित्तौड़ को भी जीता। जबलपुर के पास जहां यह ऐतिहासिक युद्ध हुआ था, वहां रानी की समाधि बनी है। देशप्रेमी वहां जाकर अपने श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं। (संदर्भ : दैनिक स्वदेश २४-६-२०११)
रानी दुर्गावती का यह सुखी और सम्पन्न राज्य उनके देवर सहित कई लोगों की आंखों में चुभ रहा था। मालवा के मुसलमान शासक बाजबहादुर ने कई बार हमला किया; पर हर बार वह पराजित हुआ। मुगल शासक अकबर भी राज्य को जीतकर रानी को अपने हरम में डालना चाहता था। उसने विवाद प्रारम्भ करने हेतु रानी के प्रिय सफेद हाथी (सरमन) और उनके विश्वस्त वजीर आधारसिंह को भेंट के रूप में अपने पास भेजने को कहा। रानी ने यह मांग ठुकरा दी। इस पर अकबर ने अपने एक रिश्तेदार आसफ खां के नेतृत्व में सेनाएं भेज दीं। आसफ खां गोंडवाना के उत्तर में कड़ा मानकपुर का सूबेदार था। एक बार तो आसफ खां पराजित हुआ; पर अगली बार उसने दुगनी सेना और तैयारी के साथ हमला बोला। दुर्गावती के पास उस समय बहुत कम सैनिक थे। उन्होंने जबलपुर के पास नरई नाले के किनारे मोर्चा लगाया तथा स्वयं पुरुष वेश में युद्ध का नेतृत्व किया। इस युद्ध में ३,००० मुगल सैनिक मारे गये। रानी की भी अपार क्षति हुई। रानी उसी दिन अंतिम निर्णय कर लेना चाहती थीं। अतः भागती हुई मुगल सेना का पीछा करते हुए वे उस दुर्गम क्षेत्र से बाहर निकल गयीं। तब तक रात घिर आयी। वर्षा होने से नाले में पानी भी भर गया।
अगले दिन २४ जून, १५६४ को मुगल सेना ने फिर हमला बोला। आज रानी का पक्ष दुर्बल था। अतः रानी ने अपने पुत्र नारायण को सुरक्षित स्थान पर भेज दिया। तभी एक तीर उनकी भुजा में लगा। रानी ने उसे निकाल फेंका। दूसरे तीर ने उनकी आंख को बेध दिया। रानी ने इसे भी निकाला; पर उसकी नोक आंख में ही रह गयी। तभी तीसरा तीर उनकी गर्दन में आकर धंस गया। रानी ने अंत समय निकट जानकर वजीर आधारसिंह से आग्रह किया कि वह अपनी तलवार से उनकी गर्दन काट दे; पर वह इसके लिए तैयार नहीं हुआ। अतः रानी अपनी कटार स्वयं ही अपने सीने में भोंककर आत्म बलिदान के पथ पर बढ़ गयीं। गढ़मंडला की इस जीत से अकबर को प्रचुर धन की प्राप्ति हुई। उसका ढहता हुआ साम्राज्य फिर से जम गया। इस धन से उसने सेना एकत्र कर अगले तीन वर्ष में चित्तौड़ को भी जीता। जबलपुर के पास जहां यह ऐतिहासिक युद्ध हुआ था, वहां रानी की समाधि बनी है। देशप्रेमी वहां जाकर अपने श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं। (संदर्भ : दैनिक स्वदेश २४-६-२०११)
http://hindi.oneindia.com/news/features/interesting-facts-about-rani-durgavati-hindi-380842.html
आँचल श्रीवास्तव 'प्रवीण'
वीरांगना महारानी दुर्गावती कालिंजर के राजा कीर्तिसिंह चंदेल की एकमात्र संतान थीं। महोबा के राठ गांव में १५२४ ई. की दुर्गाष्टमी पर जन्म के कारण उनका नाम दुर्गावती रखा गया। नाम के अनुरूप ही तेज, साहस, शौर्य और सुन्दरता के कारण इनकी प्रसिद्धि सब ओर फैल गयी। मायके और ससुराल पक्ष की जाति भिन्न थी दुर्गावती के मायके और ससुराल पक्ष की जाति भिन्न थी लेकिन फिर भी दुर्गावती की प्रसिद्धि से प्रभावित होकर राजा संग्राम शाह ने अपने पुत्र दलपतशाह से विवाह करके, उसे अपनी पुत्रवधू बनाया था। विवाह के चार वर्ष बाद ही पति की मृत्यु के कारण उन्होंने पूरे राज्य का कार्यभार स्वयम ही सम्भाला। दुर्गावती पराक्रम व वीरता की मिसाल थी दुर्गावती ने १६ वर्ष तक जिस कुशलता से राज संभाला, उसकी प्रशस्ति इतिहासकारों ने की। आइना-ए-अकबरी में अबुल फ़ज़ल ने लिखा है, दुर्गावती के शासनकाल में गोंडवाना इतना सुव्यवस्थित और समृद्ध था कि प्रजा लगान की अदायगी स्वर्णमुद्राओं और हाथियों से करती थीं। मंडला में दुर्गावती के हाथीखाने में उन दिनों १४०० हाथी थे। स्त्रीत्व के लिए आदर्श मालवांचल का सूबेदार बड़ा निकम्मा आदमी था जो रानी की सम्पत्ति पर नजरें गड़ाए बैठा था। पहले ही युद्ध में दुर्गावती ने उसके छक्के छुड़ा दिए और उसका चाचा फतेहा खां युद्ध में मारा गया, पर वह माना नहीं; दुबारा उसने रानी दुर्गावती पर आक्रमण किया, तो रानी ने कटंगी-घाटी के युद्ध में उसकी सेना को ऐसा रौंदा कि बाजबहादुरउसकी की पूरी सेना का सफाया हो गया और दुर्गावती सम्राज्ञी के रूप में स्थापित हुईं।अकबर के कडा मानिकपुर का सूबेदार ख्वाजा अब्दुल मजीद खां जो आसफ़ खां के नाम से जाना जाता था, ने रानी दुर्गावती के विरुद्ध अकबर को उकसाया, अकबर दुसरे राजपूत घरानों की तरह दुर्गावती को भी रनवासे की शोभा बनाना चाहता था। रानी दुर्गावती ने अपने धर्म और देश की दृढ़ता पूर्वक रक्षा की ओर रणक्षेत्र में अपना बलिदान १५६४ में कर दिया, उनकी मृत्यु के पश्चात उनका देवर चन्द्रशाह शासक बना व उसने मुग़लों की आधीनता स्वीकार कर ली, जिसकी हत्या उन्हीं के पुत्र मधुकरशाह ने कर दी। सुभद्रा कुमारी चौहान ने भी की है प्रशंसा वीर रस की महान कवियत्री सुभद्रा कुमारी चौहान ने भी अपनी कविताओं में रानी दुर्गावती की वीर गाथाओं का वर्णन किया है।
चन्देलों की बेटी थी, गौंडवाने की रानी थी, चण्डी थी रणचण्डी थी, वह दुर्गावती भवानी थी।
चन्देलों की बेटी थी, गौंडवाने की रानी थी, चण्डी थी रणचण्डी थी, वह दुर्गावती भवानी थी।
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