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मंगलवार, 4 जुलाई 2017

nadi pariyojana

जन का पैगाम - जन नायक के नाम

प्रिय नरेंद्र जी!, उमा जी!
सादर वन्दे मातरम।
मुझे आपका ध्यान नदी घाटियों के दोषपूर्ण विकास की ओर आकृष्ट करना है।
मूलतः नदियां गहरी तथा किनारे ऊँचे पहाड़ियों की तरह और वनों से आच्छादित थे। कालिदास का नर्मदा तट वर्णन देखें। मानव ने जंगल काटकर किनारों की चट्टानें, पत्थर और रेत खोद लिये तो नदी का तक और किनारों का अंतर बहुत कम बचा। इससे भरनेवाले पानी की मात्रा और बहाव घट गया, नदी में कचरा बहाने की क्षमता न रही, प्रदूषण फैलने लगा, जरा सी बरसात में बाढ़ आने लगी, उपजाऊ मिट्टी बाह जाने से खेत में फसल घट गयी, गाँव तबाह हुए।
इस विभीषिका से निबटने हेतु कृपया, निम्न सुझावों पर विचार कर विकास कार्यक्रम में यथोचित परिवर्तन करने हेतु विचार करें:
१. नदी के तल को लगभग १० - १२ मीटर गहरा, बहाव की दिशा में ढाल देते हुए, ऊपर अधिक चौड़ा तथा नीचे तल में कम चौड़ा (U आकार) में खोदा जाए। इस खुदाई के पूर्व नदी के बहाव क्षेत्र में वर्षा का अनुमान कर पानी की मात्रा निकाल कर तदनुसार बहाव मार्ग खोदना होगा इससे सर्वाधिक वर्षा होने पर भी पानी नदी से बहेगा तथा समीपस्थ शहरों में न घुसेगा। 
२. खुदाई में निकली सामग्री से नदी तट से १-२ किलोमीटर दूर संपर्क मार्ग तथा किनारों को पक्का बनाया जाए ताकि वर्षा और बाढ़ में किनारे न बहें।
३. घाट तक आने के लिये सड़क की चौड़ाई छोड़कर शेष किनारों पर घने जंगल लगाए जाएँ जिन्हें घेरकर प्राकृतिक वातावरण में पशु-पक्षी रहें मनुष्य दूर से देख आनंदित हो सके।
४. गहरी हुई बड़ी नदियों में बड़ी नावों और छोटे जलयानों से यात्री और छोटी नदियों में नावों से यातायात और परिवहन बहुत सस्ता और सुलभ हो सकेगा। बहाव की दिशा में तो नदी ही अल्प ईंधन में पहुँचा देगी। सौर ऊर्जा चलित नावों (स्टीमरों) से वर्ष में ८-९ माह पेट्रोल-डीज़ल की तुलना में लगभग एक बटे दस ढुलाई व्यय होगा। प्राचीन भारत में जल संसाधन का प्रचुर प्रयोग होता था।
५. घाटों पर नदी धार से ३००-५०० मीटर दूर स्नानागार-स्नान कुण्ड तथा पूजनस्थल हों जहाँ जलपात्र या नल से नदी का पानी उपलब्ध हो। नदी के दर्शन करते हुए पूजन-तर्पण हो। प्रयुक्त दूषित जल व् अन्य सामग्री घाट पर बने लघु शोधन संयंत्र में उपचारित का शुद्ध जल में परिवर्तित की जाने के बाद नदी के तल में छोड़ा जाए। इस तरह जन सामान्य अपने पूजा-पाठ सम्पादित कर सकेगा तथा नदी भी प्रदूषित न होगीi। इस परिवर्तन के लिये संतों-पंडों तथा स्थानीय जनों को पूर्व सहमत करने से जन विरोध नहीं होगा।


६. नदी के समीप हर शहर, गाँव, कस्बे, कारखाने, शिक्षा संस्थान, अस्पताल आदि में हर भवन का अपना लघु जल-मल निस्तारण केंद्र हो। पूरे शहर के लिए एक वृहद जल-नल केंद्र मँहगा, जटिल तथा अव्यवहार्य है जबकि लघु ईकाइयाँ कम देख-रेख में सुविधा से संचालित होने के साथ स्थानीय रोजगार भी सृजित करेंगी। इनके द्वारा उपचारित जल य्द्य्नों की सिंचाई, सडकों -भवनों की ढुलाई आदि में प्रयोग के बाद साफ़ कर नदियों में छोड़ना सुरक्षित होगा।

७. एक से अधिक राज्यों में बहने वाली नदियों पर विकास योजना केंद्र सरकार की देख-रेख और बजट से हो जबकि एक राज्य की सीमा में बह रही नदियों की योजनाओं की देख-रेख और बजट केंद्र सरकार तथा एक राज्य में बाह रहे नदियों के परियोजनाएं राज्य सरकारें देखें। जिन स्थानों पर निवासी २५ प्रतिशत जन सहयोग उपलब्ध कराएँ, उन्हें प्राथमिकता दी जाए। देश के कुछ हिस्सों में स्थानीय जनों ने बाँध बनाकर या पहाड़ खोदकर बिना सरकारी सहायता के अपनी समस्या का निदान खोज लिया है और इनसे लगाव के कारण वे इनकी रक्षा व मरम्मत भी खुद करते हैं जबकि सरकारी मदद से बनी योजनाओं को आम जन ही लगाव न होने से हानि पहुँचाते हैं। इसलिए श्रमदान अवश्य हो। सन ७५ के दशक तक सरकारी विकास योजनाओं पर ५० प्रतिशत श्रमदान की शर्त थी, जो क्रमशः कम कर शून्य कर दी गयी तो आमजन लगाव ख़त्म हो जाने के कारण सामग्री की चोरी करने लगे और कमीशन माँगा जाने लगा। इस योजना से सप्ताह में एक दिन की मजदूरी  श्रमदान करनेवालों को आजीवन शत-प्रतिशत रोजगार मिलेगा। 
८. नर्मदा में गुजरात से जबलपुर तक, गंगा में बंगाल से हरिद्वार तक तथा राजस्थान, महाकौशल, बुंदेलखंड और बघेलखण्ड में छोटी नदियों से जल यातायात होने पर इन पिछड़े क्षेत्रों का कायाकल्प हो जाएगा।
९. इससे भूजल स्तर बढ़ेगा और सदियों के लिए पेय जल की समस्या हल हो जाएगी। भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ेगी।
नदियों के तटों पर जंगल लगाकर उन्हें अभयारण्य बना दिया जाए जिनमें मनुष्य बड़ी - बड़ी रोप-ट्रोली में सुरक्षित  रहकर वन्य जीवन को देखे और जानवर खुले रहें। 
अभयारण्यों में सर्प्पालन केंद्र बनाकर सर्प विष का व्यवसाय किया जा सकेगा। मत्स्य पालन कर आजीविका अवसर के साथ-साथ भोज्य सामग्री का भी उत्पादन होगा। अभयारण्यों में आयुर्वेदिक जड़ी-बूटियों के वन लगाने पर वर्षा जल उनकी जड़ों से होकर नदी में मिलेगा, इससे नदी के पानी में रोग निवारण क्षमता होगी तथा जन सामान्य बिना किसी इलाज के अधिक स्वास्थ्य होगा। जड़ी-बूटियों से आजीविका के अवसर बढ़ेंगे।
कृपया, इन बिन्दुओं पर गंभीरतापूर्वक विचारण कर, क्रियान्वयन की दिशा में त्वरित कदम उठाये जाने हेतु निवेदन है। संसाधन उपलब्ध कार्य जाने पर मैं इस परियोजना का प्रादर्श (मॉडल) बनाकर दिख सकता हूँ अथवा परियोजना को क्रियान्वित करा सकता हूँ
संजीव वर्मा 
एक नागरिक
संपर्क: ९४२५१ ८३२४४ 
२८-६-२०१४ 

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