एक बहर दो ग़ज़लें 
बहर - २१२२ २१२२ २१२
छन्द- महापौराणिक जातीय, पीयूषवर्ष छंद 
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१. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
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बस दिखावे की तुम्हारी प्रीत है
ये भला कोई वफ़ा की रीत है
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साथ बस दो चार पल का है यहाँ
फिर जुदा हो जाए मन का मीत है
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ज़िंदगी की असलियत है सिर्फ़ ये
चार दिन में जाए जीवन बीत है
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फ़िक्र क्यों हो इश्क़ के अंजाम की
प्यार में क्या हार है क्या जीत है
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कब ख़लिश चुक जाए ये किसको पता
ज़िंदगी का आखिरी ये गीत है.
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२. संजीव वर्मा 'सलिल' 
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हारिए मत, कोशिशें कुछ और हों 
कोशिशों पर कोशिशों के दौर हों 
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श्याम का तन श्याम है तो क्या हुआ?
श्याम मन में राधिका तो गौर हों 
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जेठ की गर्मी-तपिश सह आम में 
पत्तियों संग झूमते हँस बौर हों 
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साँझ पर सूरज 'सलिल' है फिर फ़िदा 
साँझ के अधरों न किरणें कौर हों 
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'हाय रे! इंसान की मजबूरियाँ 
पास रहकर भी हैं कितनी दूरियाँ' गीत इसी बहर में है।
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