गीत :
रंग जितने फ़िसल तूलिका से गिरे
राकेश खंडेलवाल
*
स्वप्न की वीथियों में उगे फूल बन
रंग जितने फ़िसल तूलिका से गिरे
फिर अवनिका-पटल चित्र करने लगा
बिम्ब बनते हुये जब गगन से झरे
कोई सूरजमुखी में बदल रह गया
कोई करने लगा भोर पीताम्बरी
पोर पर आ कोई हल्दिया बन गया
कोई पुरबाईयाँ कर गया केसरी
हँस पड़ा कोई भुजपाश ले गुलमुहर
कोई कचनार सा खिलखिलाने लगा
और थामे हुये रश्मियाँ धूप की
कोई आ झील पर झिलमिलाने लगा
बाँह मौसम ने फ़ैलाई जितनी अधिक
दृश्य आ आके उतने ही उनमें भरे
वाखरों पर नयन की खड़े ओढ़ ला
मौसमों की गली से नये आवरण
सावनी एक मल्हार पहने हुये
फिर कली पर बुने कुछ नये आभरण
तीर नदिया के जलते हुये दीप की
वर्तिका की तरह नृत्य करते हुये
झोलियों में संजोये हुये बिम्ब को
चित्र दहलीज पर कर के रखते हुये
नभ सलिल से जो रजताभ कण चुन लिये
वाटिकाओं की ला वीथियों में धरे
वेणियों पर उतर आ गये रूप की
मोतियों में गुँथे,मोगरे से सजे
और हथफूल को केन्द्र करते हुये
कंगनों को पकड़ घुँघरुओं से बजे
टेसुई आभ होकर अलक्तक बने
फिर हिना से हथेली रचाने लगे
पांखुरी पांखुरी हो बिछे सेज पर
और फ़िर कामनायें सजाने लगे
हो गए शिल्प नूतन पुन: आस की
चेतना में घुली कल्पना के परे
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