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शनिवार, 29 दिसंबर 2012

चिंतन: दुर्घटना और हम संजीव 'सलिल'

चिंतन:
दुर्घटना और हम
संजीव 'सलिल'
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इस सम्पूर्ण प्रकरण का पुनरावलोकन करें:
१. राजधानी में एक महिला के साथ सामूहिक बलात्कार..., अख़बारों तथा दूरदर्शनी खबर चैनलों द्वारा समाचार प्रसारण, पुलिस द्वारा तत्परतापूर्वक अपराधियों की धर-पकड़. प्रशासन द्वारा पुलिस अधिकारियों का निलंबन...
२. मीडिया द्वारा लगातार उत्तेजक भाषा का प्रयोग कर समाचार को चटपटे तरीके से प्रसारित कर आम लोगों को सडक पर आने के लिए प्रेरित करना... दैनिक भास्कर द्वारा कुछ अधिकारियों के संपर्क सूत्र प्रसारित कर पाठकों से उन पर ई-मेल भजने के लिए लगातार कई दिनों तक प्रेरित करना.
सडक पर उतारे लोगों द्वारा निषेधाज्ञा का उल्लंघन कर कानून-व्यवस्था को भंग करने का प्रयास... अपराधियों के तत्काल फांसी देने या भीड़ को सौंपने की मांग... नेतृत्त्वहीन भीड़ से वार्ता हेतु जन प्रतिनिधियों का सामने न आना... स्थिति को नियंत्रण में रखने के लिए विवश पुलिस द्वारा कदम उठाये जाने पर भीड़ का प्रतिरोध... एक सिपाही की मृत्यु...
निर्दोष पीडिता की नाजुक स्थिति में लगातार इलाज के बाद भी सुधार नहीं... चिकित्सकों के अभिमत को अनसुना कर सुधार की कोई सम्भावना न होने पर भी सरकार द्वारा उसे विदेश भेज जाना और अंततः दिवंगत होना...
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इस प्रकरण से निकलते सवाल:
१. दुर्घटना का जिम्मेदार कौन?
निस्संदेह अपराधियों से किसी की सहानुभूति नहीं हो सकती... इस दुर्घटना के लिए किसी एक व्यक्ति, संस्था या समूह को सीधे जिम्मेदार नहीं कहा जा सकता. यह एक दुर्योग है जिसके लिए अपराधियों को पुलिस द्वारा शीघ्रादिशीघ्र पकड़कर न्यायालय द्वारा कठोर दंड दिया जाना चाहिए.  
क्या मीडिया का आचरण सही था?
मीडिया का कार्य समाचारों की सूचना देना है या उसे अतिरंजित कर चटपटी चाट की तरह सजा-संवार कर लगातार परोसकर जनता को भड़काना?...
दुर्घटना के बाद पुलिस कदम न उठाये तो मीडिया द्वारा दवाब बनाया जाना तर्कसंगत हो सकता है किन्तु यहाँ न्यूनतम समय में पुलिस ने अपराधियों को पकड़ लिया... ऐसे में भीड़ को लगातार भड़काना कैसे सही कहा जा सकता है? इस कारण सरकार ने अकारण पुलिस अधिकारियों को केवल इसलिए निलंबित किया कि भीड़ शांत हो जबकि इससे पुलिस के मनोबल पर विपरीत प्रभाव पड़ना सुनिश्चित है. अब जांच में उन अधिकारीयों पर कौन सा आरोप सिद्ध होगा? क्या उन्हें पुनः बहाल न करना पड़ेगा?
२. जनप्रतिनिधियों की नकारात्मक भूमिका:
इस पूरे प्रकरण में सर्वाधिक नकारात्मक भूमिका हमेशा की तरह जनप्रतिनिधियों की रही. किसी भी जनप्रतिनिधि ने स्थिति का आकलन कर सत्य जानने का प्रयास नहीं किया, न जनता को मार्गदर्शन दिया. प्रेस को भी वे सही दिशा में ले जा सकते थे किन्तु मौन रहे. पुलिस के दिशादर्शन, अनावश्यक निलंबन क़ा विरोध, चिकित्सा व्यवस्था की जानकारी, जनता को सूचित तथा शांत करने में उनकी महती भूमिका हो सकती थी किन्तु केवल दूरदर्शन पर दलीय राजनीतिपरक बयानबाजी के अलावा किसी ने कुछ नहीं किया. इसकी भर्त्सना की जानी चाहिए थी किन्तु प्रेस इस बिंदु पर
मौन रहा.
३. नागरिकों क़ा दायित्व: सडकों पर आनेवालों को यह विचार करना ही होगा कि वे चाहते क्या और क्यों हैं? वे समूचे देश या समाज क़ा प्रतिनिधित्व नहीं करते... केवल राजधानी में होने या टी.व्ही. कैमरे के सामने आने के उत्साह में गैर जिम्मेदारीपूर्ण बयान देकर देश या समाज क़ा अहित करने क़ा उन्हें अधिकार नहीं है. यदि बाद में उनके बयान उन्हें ही सुनवाए जाएं तो उनके पास अपनी बात को सही कहने क़ा कोई आधार न होगा. इस प्रसंग में अपराधियों को सौंपे जाने की मांग या तुरंत फांसी देने की मांग, बिना अनुमति धरने पर बैठने क़ा प्रयास या प्रतिबंधित क्षेत्र में घुसने क़ा प्रयास... इन्हें कैसे सही ठहराया जा सकता है? इस दौरान पुलिस पर हमला, सिपाहे एकी मौत... इसका जिम्मेदार कौन? राष्ट्रीय संपत्ति को हुई क्षति क़ा जिम्मेदार कौन? यदि पुलिस विवेकपूर्वक न्यूनतम आवश्यक कार्यवाही पर न रुककर कठोर कदम उठा लेती तो क्या कई लोगों के चोटें खाने और जेल जाने की स्थिति न बन जाती? क्या भीड़ क़ा कोई भी आदमी घर से निकलने के पहले पूरी जानकारी लेकर क्या करना उचित है सोचकर चला था? मीडिया के भ्रामक और उत्तेजक समाचारों से भ्रमित होकर कानून-व्यवस्था को हाथ में लेना कितना उचित है? आपदा या संकट के समय जब शासन और प्रशासन के सामने चुनौती होती तब नागरिक शांत रहकर स्थिति के सुधार में सहयोगी हों या उत्तेजित होकर स्थिति को अधिक विषम बनायें?
यहाँ यह भी याद करें कि आतंकवादियों द्वारा कुछ बंधक बनाये गए लोगों के रिश्तेदारों के बयानों को बारबार प्रसारित कर मीडिया ने सरकार पर इतना दबाव बनाया
था की सरकार को अपने विमान में आतंकवादियों को विदेश पहुँचाना पड़ा था. तब भी नागरिक मीडिया के औजार बने थे. भविष्य में भीड़ बनने के पहले भली-भांति सोच लें. 
४. जांच और न्याय की प्रक्रिया: सभ्य समाज में ऐसा घिनौना आचरण सहन नहीं किया जा सकता किन्तु फिर भी न्यायप्रणाली के अनुसार बिना सुनवाई का अवसर दिए किसी को दंडित नहीं किया जा सकता. अपराध कॆ जांच करना पुलिस क़ा कर्त्तव्य और अधिकार है, उसमें बाधक होने पर दंड क़ा प्रावधान है. मीडिया के बयान और भीड़ क़ा आचरण क्या पुलिस की राह में बाधा नहीं उपस्थित कर रही थी? अपराध होते समय वहां से गुजरनेवाले और अपराध के बाद पीड़ितों कॆ कराहों कॆ अनसुनी करनेवाले इसी भीड़ क़ा हिस्सा थे यदि वे समय पर सक्रिय होते तो अपराध न घटता, या उसकी गंभीरता कम होती या पीड़ितों को शीघ्र राहत मिल पाती.
 ५. घिनौनी दलीय राजनीति: दलीय राजनीति देश और समाज की कीमत पर नहीं की जानी चाहिए. हमेशा कॆ तरह नेता दलीय दृष्टिकोण से एक-दूसरे के विरोध में बोलते रहे और मीडिया उन्हें उछालकर लोगों को भड़काता रहा. दुर्घटना के तुरंत बाद शांति-व्यवस्था समिति कॆ बैठक कर प्रशासन से स्थिति कॆ जानकारी लेकर, आगामी कदमों क़ा निर्णय कर सभी दल एक साथ जनता से शांत रहने, जांच होने देने, पीड़ित को सर्वश्रेष्ठ चिकित्सा उपलब्ध कराने और अपराधियों को शीघ्र और कठोर दंड देने के प्रति आश्वस्त कराते तो व्यर्थ के आन्दोलन न होते. सभी दलों को सकारात्मक होना होगा अन्यथा उन पर से घटती जनास्था उन्हीं के लिए घातक होगी तथा लोकतंत्र क़ा ढाँचा संकट में फँस जायेगा.
६. अब क्या?...
बलात्कार के अनेक अपराध प्रतिदिन देश के विविध हिस्सों में हो रहे हैं. जहाँ रसूखदार नेता, व्यापारी और अफसर या उनके स्वजन आरोपी हैं वहाँ राजनैतिक दवाब में पुलिस कोई कदम नहीं उठा पाती. ऐसे प्रकरणों के प्रति प्रेस भी उदासीन रहती है. इन प्रकरणों को चिन्हांकित कर द्रुत न्याय प्रक्रिया के बाद कठोर दंड दिया जा सके तो इन अपराधों में कमी आयेगी.
शिक्षा प्रणाली में प्राथमिक स्तर से नैतिक शिक्षा और नारी के प्रति सम्मान कॆ भावना विकसित की जाए. लडकों और लडकियों में भेदभाव को समाप्त करने के प्रयास अधिक हों.
सर्वाधिक जरूरी कदम लडकियों को आत्मरक्षा कॆ कलाएं जुडो, कराते आदि क़ा प्रशिक्षण शाली शिक्षा के साथ दिया जाना है. इसके साथ ही आपदाकाल में क्या कदम उठा कर बचा जा सकता है वह भी सिखाना होगा. इस घटना में पीड़ित लडकी तथा उसके साथी दोनों के पास मोबाइल था... यदि सजग होते तथा पुलिस कंट्रोल रूम के नंबर फीड किये होते तो तत्क्षण सूचित करने क़ा प्रयास करते... लडकी पर हमला होने पर साथी ने दौड़कर चालक पर हमला कर वहाँ कॆ चाबी निकाल ली होती तो बचने कॆ स्थिति हो सकती थी... बीएस में चढ़ने के पूर्व खाली बस में एक भी सवारी न होने पर खतरे क़ा पूर्वानुमान कर सकने कॆ स्थिति में भी दुर्घटना टल सकती थी. इस चर्चा क़ा उद्देश्य किसी को बचाना या किसी पर आरोप लगाना नहीं है किन्तु दुर्घटनाओं के प्रति मानसिक सजगता उत्पन्न करना है जो अब तक नहीं की गयी. इस प्रसंग में एक घटना याद करें... श्री लंका दौरे पर भारत के प्रधानमंत्री स्व. राजीव गांधी पर सलामी परेड के समय एक सिपाही द्वारा हमला किया गया था, वे अपनी सजगता के कारण ही झुककर वार बचा गए थे. पूर्वानुमान, सटीक आकलन, सजगता और त्वरित बुद्धि आसन्न संकटों में प्राण रक्षक होते हैं. यह हर व्यक्ति को समझना और सीखना होगा.
पुलिस और प्रशासन को कटघरे में खड़ा करने के पूर्व अगर हम अपने दायित्व क़ा विचार करें. उस जगह हम हों तो क्या बेहतर कर सकेंगे सोचें, सुझाएँ और तब आरोप लगायें तो हमारा आचरण सही होगा, निराधार आरोप लगाना भी अपराध को अप्रत्यक्ष रूप से बढ़ाना ही है. अस्तु....
दिवंगता के प्रति सच्ची श्रृद्धांजलि ऐसी दुर्घटनाओं पर नयन्त्रण कर और कमी लाके ही दी जा सकती है.  

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