गीतिका
- संजीव 'सलिल' -
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'सलिल' को दे दर्द अपने, चैन से सो जाइए.
नर्मदा है नेह की, फसलें यहाँ बो जाइए.
चंद्रमा में चांदनी भी और धब्बे-दाग भी.
चन्दनी अनुभूतियों से पीर सब धो जाइए.
होश में जब तक रहे, मैं-तुम न हम हो पाए थे.
भुला दुनिया मस्त हो, मस्ती में खुद खो जाइए.
खुदा बनने था चला, इंसा न बन पाया 'सलिल'.
खुदाया अब आप ही, इंसान बन दिखलाइए.
एक उँगली उठाता है, जब भी गैरों पर सलिल'
तीन उँगली चीखती हैं, खुद सुधर कर आइए.
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9 टिप्पणियां:
deepti gupta ✆ द्वारा yahoogroups.com
kavyadhara
आदरणीय संजीव जी,
आपकी कविता भावपूर्ण और प्रवाहपूर्ण है ! नर्मदा का निर्मलता और शीतलता का एहसास भी आपकी रचना से हुआ !
इस मनमोहक रचना के लिए अशेष सराहना और बधाई !
सादर,
दीप्ति
Mukesh Srivastava ✆kavyadhara
आचार्य जी,
बहुत कुछ सिखाती समझाती गीतिका
बहुत रुचिकर और सुन्दर लगी आपकी
गरिमा के अनुरूप -
इस नाचीज़ की तरंगो को पसंद करने व
दाद देने के लिए बहुत बहुत आभार
वा आदर के साथ
मुकेश इलाहाबादी
sn Sharma ✆ द्वारा yahoogroups.com kavyadhara
आ० आचार्य जी ,
इस सुन्दर गीतिका का हर बंद प्रभावी और प्रेरणास्पद है |
साधुवाद ! विशेष -
एक उँगली उठाता है जब भी गैरों पर; सलिल'
तीन उँगली चीखती हैं, खुद सुधर कर आइए.
सादर - कमल
वाह,वाह आचार्य जी
बहुत उत्तम कविता रची है.
खुदा बनने था चला, इंसा न बन पाया 'सलिल'.
खुदाया अब आप ही, इंसान बन दिखलाइए.
एक उँगली उठाता है जब भी गैरों पर; सलिल'
तीन उँगली चीखती हैं, खुद सुधर कर आइए.
साधुवाद !
सादर,
कनु
आदरणीय संजीव जी,
एक सुघड,संवारी हुई और सुविचारित कविता के लिए ढेर सराहना स्वीकार कीजिए
सादर,
शिशिर
lkahluwalia@yahoo.com kavyadhara
आ. सलिल जी ...,
बहुत ही क़ाबिले ग़ौर, पायेदार अश'आर हैं | बहुत सी दाद क़ुबूल करें | लकिन बाद के हिस्से में ... ???
(जानता हूँ नज़र अंदाज़ होगा) , मुआफ़ कीजिये, लहरों की सी र'वानगी में रुकावट सही नही जाती ...
(अब आप ख़ुद ही पढ़ कर फ़र्क़ जानिये)
~ 'आतिश'
- akpathak317@yahoo.co.in
’आतिश’ जी ने सही इस्लाह फ़र्माया है
मेरे ख़याल से मक़्ता का मिसरा सानी
तीन उँगली चीखती हैं, खुद सुधर कर आइए.
अगर यूं कर दें तो शायद बेहतर हो---
तीन उँगली चीखती हैं, खुद सुधर भी जाइए.
मुहावरा ’सुधर जाना ’सुधर जाओ’ सुधर जाइए’-ज़्यादा मानूस है
सादर
आनन्द पाठक,जयपुर
Santosh Bhauwala ✆ द्वारा yahoogroups.com kavyadhara
आदरणीय आचार्य जी,
बहुत कुछ सिखाती रचना बहुत अच्छी लगी !
साधुवाद
सादर संतोष भाऊवाला
आदरणीय आतिश जी, आनंद जी,
आप दोनों के सुझाव सर-आँखों पर... तख्ती के कायदों से परिचित न होने के उसकी कसौटी पर कमी होना स्वाभाविक है. आप दोनों का बहुत-बहुत आभार.
दीप्तिजी, मुकेश जी, कमल जी, शिशिर जी, कनु जी, संतोष जी
उत्साहवर्धन हेतु आपका आभार.
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