दो यमकदार तेवरियाँ : ------- रमेश राज
दो यमकदार तेवरियाँ
रमेश राज, संपादक तेवरीपक्ष, अलीगढ
*
१.
तन-चीर का उफ़ ये हरण, कपड़े बचे बस नाम को.
हमला हुआ अब लाज पै, अबला जपै बस राम को..
हर रोग अब तौ हीन सा, अति दीन सा, तौहीन सा.
हर मन तरसता आजकल, सुख से भरे पैगाम को..
क्या नाम इसका धरम ही?, जो धर मही जन गोद्ता.
इस मुल्क के पागल कहें सत्कर्म कत्ले-आम को..
उद्योग धंधे बंद हैं, मन बन, दहैं शोला सदृश.
हर और हहाका रही, अब जन तलाशें काम को..
अब आचरण बदले सभी, खुश आदतें बद ले सभी.
बीएस घाव ही मिलने सघन आगाज से अंजाम को..
२.
पलटी न बाजी गर यहाँ, दें मात बाजीगर यहाँ.
कल पीर में डूबे हुए होंगे सभी मंज़र यहाँ..
तुम छीन बैठे कौरवों, हम मंगाते हैं कौर वो.
फिर वंश होगा आपका, कल को लहू से तर यहाँ..
दुर्भावना की कीच को, हम पै न फेंको, कीचको!.
कुंजर सरीखे भीम ही, अब भी मही पर वर यहाँ..
दुर्योधनों के बीच भीषम, आज भी सम मौन है.
पर द्रौपदी के साथ हैं, बनकर हमीं गिरिधर यहाँ..
अब पाएंगे हम जी तभी, जब साथ होगी जीत भी.
हम चक्रव्यूहों में घिरे, दिन-रात ही अक्सर यहाँ..
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