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बुधवार, 16 फ़रवरी 2011

मुक्तिका खुद से ही संजीव 'सलिल'

मुक्तिका

खुद से ही

संजीव 'सलिल'
*
खुद से ही हारे हैं हम.
क्यों केवल नारे हैं हम..

जंग लगी है, धार नहीं
व्यर्थ मौन धारे हैं हम..

श्रम हमको प्यारा न हुआ.
पर श्रम को प्यारे हैं हम..

ऐक्य नहीं हम वर पाये.
भेद बहुत सारे हैं हम..

अधरों की स्मित न हुए.
विपुल अश्रु खारे हैं हम..

मार न सकता कोई हमें.
निज मन के मारे हैं हम..

बाँहों में नभ को भर लें.
बादल बंजारे हैं हम..

चिबुक सजे नन्हे तिल हैं.
नयना रतनारे हैं हम..

धवल हंस सा जनगण-मन.
पर नेता करे हैं हम..

कंकर-कंकर जोड़ रहे.
शंकर सम, गारे हैं हम..

पाषाणों को मोम करें.
स्नेह-'सलिल'-धारे हैं हम..

*************************

11 टिप्‍पणियां:

sn Sharma ✆ekavita ने कहा…

आ० आचार्य जी.
आपकी तो सभी मुक्तिकाएं सारगर्भित और यथार्थपरक हैं साधुवाद |
अपने पराजित मन की भी कुछ योँ बनी -

दोष किसी का क्या अपने ही
विश्वासों के मारे हैं हम

स्नेहमयी सुरसरि धारा से
छूटे हुए किनारे हैं हम

तूफानों से बुझती लौ के
अंतिम उजियारे हैं हम

अवगुण बहुत किंतु माता की
आँखों के तारे हैं हम

आता जाता नहीं कुछ भले
वाणी को प्यारे हैं हम

kusum sinha ekavita ने कहा…

priy sanjiv ji
ek bahut hi sundar rachna ke liye dher sari badhai bhagwan kare aap hamesha swasth rahen aur khub likhen
kusum

Minakshi Pant ने कहा…

खुद से ही हारे हैं हम.
क्यों केवल नारे हैं हम..

श्रम हमको प्यारा न हुआ.
पर श्रम को प्यारे हैं हम.

क्यु एसा कहते हो सलिल ..
.लगता है इस जीवन के ...
भेद सारे जाने हो तुम ?

बहुत सुन्दर रचना |
मानव जीवन को दर्शाती रचना |

Om Prakash Nautiyal ने कहा…

खूबसूरत !!!
खूबसूरत !!!

- dkspoet@yahoo.com ने कहा…

क्या बात है आचार्य जी, बिहारी जी को तो फिर भी ४८ मात्राएँ लगतीं थीं गागर में सागर भरने के लिए आपने २८ में ही भर दिया
बधाई

धर्मेन्द्र कुमार सिंह ‘सज्जन’
वरिष्ठ अभियंता, जनपद निर्माण विभाग
एनटीपीसी लिमिटेड, कोलडैम हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट
बिलासपुर, हिमांचल प्रदेश
भारत

- madanmohanarvind@gmail.com ने कहा…

खुद से ही हारे हैं हम.
क्यों केवल नारे हैं हम..
वाह सलिल जी, बहुत सुन्दर.
सादर
मदन मोहन 'अरविन्द'

achal verma ekavita ने कहा…

एक श्रेष्ठ रचना , मन को अति भानेवाली ,
छूती सबके मर्म , दिलों में आग लगाने वाली |

Your's ,

Achal Verma

- santosh.bhauwala@gmail.com ने कहा…

आदरणीय सलिल जी
एक खूबसूरत रचना के लिए बधाई
संतोष

Pratibha Saksena ekavita ने कहा…

आ. सलिल जी ,
आपकी लेखनी का पैनापन चुन-चुन कर वार करता है -विद्रूपताओं और विसंगतियों पर ,साथ,ही संगतियों -सु कृतियों को सँवारता भी है.
यह धार ऐसी ही बनी रहे !
- प्रतिभा सक्सेना.

achal verma ekavita ने कहा…

बहुत ही सार्थक कविता |
मैं अक्सर कतराता हूँ अपनी सम्मति देने में क्योंकी समझ की मुझमें कमी है |
Your's ,

Achal Verma

Rakesh Khandelwal ekavita ने कहा…

ऐक्य नहीं हम वर पाये.
भेद बहुत सारे हैं हम..
सही कहा आपने

सादर

राकेश