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गुरुवार, 24 फ़रवरी 2011

गीत : किस तरह आये बसंत?... --संजीव 'सलिल'

गीत : किस तरह आये बसंत?... --संजीव 'सलिल'

गीत :                                                                                                                                                                              

किस तरह आये बसंत?...

मानव लूट रहा प्रकृति को
किस तरह आये बसंत?...
*
होरी कैसे छाये टपरिया?,
धनिया कैसे भरे गगरिया?
गाँव लीलकर हँसे नगरिया.
राजमार्ग बन गयी डगरिया.
राधा को छल रहा सँवरिया.

अंतर्मन रो रहा निरंतर
किस तरह गाये बसंत?...
*
बैला-बछिया कहाँ चरायें?
सूखी नदिया कहाँ नहायें?
शेखू-जुम्मन हैं भरमाये.
तकें सियासत चुप मुँह बाये.
खुद से खुद ही हैं शरमाये.

जड़विहीन सूखा पलाश लख
किस तरह भाये बसंत?...
*
नेह नरमदा सूखी-सूनी.
तीन-पाँच करते दो दूनी.
टूटी बागड़ ग़ायब थूनी.
ना कपास, तकली ना पूनी.
वैश्विकता की दाढ़ें खूनी.

खुशी बिदा हो गयी'सलिल'चुप
किस तरह लाये बसंत?...
*

10 टिप्‍पणियां:

achal verma ekavita ने कहा…

५:५४ अपराह्न, 24.2.2011

मैं हैरान हूँ आचार्य सलिल, और चकित भी ,
कितनी आसानी से आपलोग इतनी अच्छी अच्छी बाते सोच भी लेते हैं और उन्हें इतनी सुन्दर कविताओं में ढाल देते है | ऐसे ही लोगों के ऊपर माँ सरस्वती की अनवरत अनुकम्पा रहती है|

Your's ,

Achal Verma

बेनामी ने कहा…

मेरी क्या औकात लिखूँ कुछ, लिखा रहीं माँ शारदा.
हूँ निमित्त, उपकरण मातु का, मैया ही हैं तारदा..

shar_j_n ekavita ने कहा…

७:२३,24-2-1011

कमाल है! क्या ऊर्जा है आचार्य जी!
बहुत सुन्दर!
सादर शार्दुला

Dr.M.C. Gupta ✆ ekavita ने कहा…

७:५५ अपराह्न, 24-2-2011

सलिल जी, अचल जी,

आमीन.

--ख़लिश

[चलते-चलते--

तेरे जज़्बातों से नहीं अनजान हूँ मैं

तेरी कविताओं से आज हैरान हूँ मैं.]

Amitabh Tripathi ✆ ekavita ने कहा…

२४ फरवरी 2011

आदरणीय आचार्य जी
आप नवगीत में सिद्धहस्त हैं| अच्छी लगी आपकी यह रचना भी| एक निवेदन है पुनः कि एक रचना का खुमार ख़त्म नहीं हो पता की दूसरी हाज़िर हो जाती है| ऐसे में रासधिक्य के कारण अलग आस्वाद में कठिनाई उत्पन्न होती है| आशा है अन्यथा नहीं लेंगे| आपकी काव्य प्रतिभा को नमन!
सादर
अमित

Dr.M.C. Gupta ✆ ekavita ने कहा…

२४ फरवरी 2011

आदरणीय सलिल जी,

दिल जो न कह सका वही राज़े-दिल कहने की रात आई..............

अर्थात अमित जी के कहने का खुलासा यह है कि:

रोज़ लिखें और बहुत लिखें यह कलम सदा चलती जाए

ध्यान रहे कि ईकविता में लेकिन बाढ़ नहीं आए.


--ख़लिश

shriprakash shukla ✆ ekavita ने कहा…

२५ फरवरी 2011

आदरणीय आचार्य जी,
बहुत सुन्दर . वचपन की यादें हरी हो गयीं . एक छोटी सी शंका केवल वचपन ठीक से याद करने के लिए
क्या टपरिया की जगह छपरिया लिखना चाहते थे हमें कुछ ऐसा याद है कि ज़मीन के छोटे से टुकड़े को टपरिया कहते थे और छप्पर या छपरिया छाये जाते थे वर्षा से बचने के लिए '
पूरी रचना ही अति रुचिकर लगी ,बधाई
सादर
श्रीप्रकाश शुक्ल

Divya Narmada ने कहा…

मेरी जानकारी के अनुसार: झोपड़ा-झोपड़ी मे आकारगत बड़े-छोटे का भेद है, टपरा-टपरिया इसका पर्यायवाची है. छपरिया अर्थात वह झोपड़ा-झोपड़ी जिसमें छप्पर (छत) छाते समय पत्तों का प्रयोग हो. यदि टीन, एस्बेस्टस या खपरैल हो तो छपरिया नहीं कहेंगे.शेष विद्वद्जन बतायें तो मेरा ज्ञान बढ़ेगा.. देखिये:
झोपड़ा=पुल्लिंग, घास-फूस से छाया हुआ छोटा घर. पृष्ठ ४४१, बृहत् हिन्दी शब्द कोष
झोपड़ी=स्त्रीलिंग, छोटा झोपड़ा.

टपरा=पुल्लिंग, घास-फूस, टीन आदि से छाया छोटा घर.पृष्ठ ४४३, बृहत् हिन्दी शब्द कोष.
टपरिया= स्त्रीलिंग, झोपड़ी, मडैया. छप्पर=पुल्लिंग, फूस आदि की छाजन,

छप्पर=पुल्लिंग, फूस-पताई आदि की छाजन. पृष्ठ ३९२, बृहत् हिन्दी शब्द कोष.
छपरिया=स्त्रीलिंग, छोटा छप्पर, छपरी.
छपरी=स्त्रीलिंग, झोपड़ी.

रचनाएँ कम लगाने पर अनियमितता की शिकायत तथा नियमित होने का अनुरोध इसी मंच से मिला था. इस मंच पर लिखी जारही रचनाओं में से आधे से भी कम ही लगाता हूँ. सभी रचनाएँ एक मंच पर लगाना न तो संभव है न उचित. अब 'भाई गति साँप-छछूंदर केरी...'
प्रयास करूँगा की नियमित रहकर कम रचनाएँ प्रस्तुत करूँ. आप सबके स्नेह का आभार.

kamlesh kumar diwan ✆ ekavita ने कहा…

सुंदर उपमा दी है

SANDEEP KUMAR PATEL ने कहा…

SANDEEP KUMAR PATEL

kya baat hai bahut umda sir ji .........................

नेह नरमदा सूखी-सूनी.
तीन-पाँच करते दो दूनी.
टूटी बागड़ ग़ायब थूनी.
ना कपास, तकली ना पूनी.
वैश्विकता की दाढ़ें खूनी.