नवगीत:
कम लिखता हूँ...
संजीव 'सलिल'
*
क्या?, कैसा है??
कम लिखता हूँ,
बहुत समझना...
*
पोखर सूखे,
पानी प्यासा.
देती पुलिस
चोर को झाँसा.
खेतों संग
रोती अमराई.
अन्न सड़ रहा,
फिके उदासा.
किस्मत केवल
है गरीब की
भूखा मरना...
*
चूहा खोजे,
मिला न दाना.
चमड़ी ही है
तन पर बाना.
कहता भूख,
नहीं बीमारी,
जिला प्रशासन
बना बहाना.
न्यायालय से
छल करता है
नेता अपना...
*
शेष न जंगल,
यही मंगल.
पर्वत खोदे-
हमने तिल-तिल.
नदियों में
लहरें ना पानी.
न्योता मरुथल
हाथ रहे मल.
जो जैसा है
जब लिखता हूँ
बहुत समझना...
***************
कम लिखता हूँ...
संजीव 'सलिल'
*
क्या?, कैसा है??
कम लिखता हूँ,
बहुत समझना...
*
पोखर सूखे,
पानी प्यासा.
देती पुलिस
चोर को झाँसा.
खेतों संग
रोती अमराई.
अन्न सड़ रहा,
फिके उदासा.
किस्मत केवल
है गरीब की
भूखा मरना...
*
चूहा खोजे,
मिला न दाना.
चमड़ी ही है
तन पर बाना.
कहता भूख,
नहीं बीमारी,
जिला प्रशासन
बना बहाना.
न्यायालय से
छल करता है
नेता अपना...
*
शेष न जंगल,
यही मंगल.
पर्वत खोदे-
हमने तिल-तिल.
नदियों में
लहरें ना पानी.
न्योता मरुथल
हाथ रहे मल.
जो जैसा है
जब लिखता हूँ
बहुत समझना...
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4 टिप्पणियां:
सत्य कहा आपने.... कम लिखा पर बहुत कुछ समझाया गुरुवर.
सादर.. यही मंगल... या, मंगल-मंगल पर्वत खोदे.. लाँघे दल-दल.. वाह-वाह.
Saurabh Pandey
sach ko kam se kam shabdon mein racha basaa ke mann ko jhakjhorna koi aapse seekhe..waah!
हल्की फुल्की बात बता के
भाव सज़ा के रीति बता के
सूत्र सयाने खूब जुटा के
निज गुण ध्वज सहसा फहरा के
हरदम श्रीमन
कृतियाँ प्रस्तुत
करते रहना
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