स्वप्न झरे फूल से, मीत चुभे शूल से, लुट गए सिंगार सभी बाग के बबूल से,
और हम खड़े-खड़ेबहार देखते रहे,
कारवां गुज़र गया
गुबार देखते रहे...
नींद भी खुली न थी कि हाय! धूप ढल गयी.
पाँव जब तलक उठे कि जिंदगी फिसल गयी.
पात-पात झर गए कि शाख-शाख जल गयी.
चाह तो निकल सकी न पर उमर निकल गयी.
गीत अश्क बन गए, छंद हो दफन गए.
साथ के सभी दिए धुआँ पहन-पहन गए.
और हम झुके-झुके,
मोड़ पर रुके-रुके.
उतार देखते रहे...
क्या शबाब था कि फूल-फूल प्यार कर उठा.
क्या सरूप था कि देख आइना मचल उठा.
इस तरफ ज़मीन और आसमां उधर उठा.
थाम कर जिगर उठा कि जो उठा नजर उठा.

एक दिन मगर यहाँ ऐसी कुछ हवा चली लुट गयी कली-कली, कि घुट गयी गली-गली.
और हम लुटे-लुटे,
वक़्त से पिटे-पिटे
सांस की शराब का
खुमार देखते रहे...
हाथ थे मिले कि ज़ुल्फ़ चाँद की सँवार दूँ. होंठ थे खुले कि हर बहार को पुकार दूँ.
दर्द था दिया गया कि हर दुखी को प्यार दूँ.
और साँस यूँ कि स्वर्ग भूमि पर उतार दूँ.
हो सका न कुछ मगर शाम बन गयी सहर.
और हम डरे-डरे, नीर नयन में भरे
ओढ़कर कफन,
पड़े मज़ार देखते रहे...
माँग भर चली कि एक जब नयी-नयी किरन.
शोर मच गया कि लो चली दुल्हन, चली दुल्हन. गाँव सब उमड़ पड़ा, बहक उठे नयन-नयन.
पर तभी ज़हर भरी, गाज एक वह गिरी
पूछ गया सिन्दूर तार-तार हुई चूनरी.
और हम अजान से,
दूर के मकान से,
पालकी लिए हुए
कहार देखते रहे...
(आभार: मेरे मन की)
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