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बुधवार, 23 फ़रवरी 2011

मुक्तिका कब कहा संजीव 'सलिल'

मुक्तिका

कब कहा

संजीव 'सलिल'
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कब कहा मंदिर में लुटने हम नहीं आते.
क्या खुशी की ज़िंदगी में गम नहीं आते?

अधिक की है चाह सबको, बिना यह जाने.
अधिक खोने के सुअवसर कम नहीं आते..

जान को लेकर हथेली पर चले जाओ.
बुलाओ, आवाज़ दो पर यम नहीं आते..

बातियों की तरह जो जलते रहे खुद ही.
सामने उनके कभी भी तम नहीं आते..

नागिनों की चाल ही होती लचीली है.
मत डरो उनकी कमर में खम नहीं आते..

असम को मत विषम होने दो, तनिक सोचो
सियासत के गीत में क्यों सम नहीं आते?

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1 टिप्पणी:

विनोद पाराशर ने कहा…

विनोद पाराशर - बहुत बढिया मुक्तक सलिल जी.