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शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2011

एक मुक्तिका: हम कैसे इस बात को मानें कहने को संसार कहे ----- संजीव 'सलिल'

एक मुक्तिका:

हम कैसे इस बात को मानें कहने को संसार कहे

संजीव 'सलिल'
*
सार नहीं कुछ परंपरा में, रीति-नीति निस्सार कहे.
हम कैसे इस बात को मानें, कहने को संसार कहे..

रिश्वत ले मुस्काकर नेता, उसको शिष्टाचार कहे.
जैसे वैश्या काम-क्रिया को, साँसों का सिंगार कहे..

नफरत के शोले धधकाकर, आग बर्फ में लगा रहा.
छुरा पीठ में भोंक पड़ोसी, गद्दारी को प्यार कहे..

लूट लिया दिल जिसने उसपर, हमने सब कुछ वार दिया.
अब तो फर्क नहीं पड़ता, युग इसे जीत या हार कहे..

चेला-चेली पाल रहा भगवा, अगवाकर श्रृद्धा को-
रास रचा भोली भक्तन सँग, पाखंडी उद्धार कहे..

जिनसे पद शोभित होता है, ऐसे लोग नहीं मिलते.
पद पा शोभा बढ़ती जिसकी, 'सलिल' उसे बटमार कहे..

लेना-देना लाभ कमाना, शासन का उद्देश्य हुआ.
फिर क्यों 'सलिल' प्रशासन कहते?, क्यों न महज व्यापार कहे?

जो बिन माँगे मिल जाता है 'सलिल' उसे उपहार कहें.
प्रीत मिले जब प्रीतम से तो, कैसे हम आभार कहें??

अभिनव अरुण रोज उगता है, क्यों न इसे उजियार कहें.
हो हताश चुक जाती रजनी, 'सलिल' उसे अँधियार कहें..

दान न देकर दानी बनते, जो ऐसों पर कहर गिरे.
देकर जो गुमनाम रहे. उस दानी को खुद्दार कहें..

बाग़ बगावत का बागी ने, खून से सींचा है यारों.
जो कलियों को रौंदे उसको, मारें हम गद्दार कहें..

मिले हीर से शाबाशी तो, हर-कीरत मत भुला 'सलिल'.
हर-कीरत बिन इस दुनिया को, बेशक सब मंझधार कहें..

इन्द्र धर्म का सिंह साथ हो, तो दम आ ही जाती है.
कर्म किये बिन छह रहे फल, जो उनको सरकार कहें..

दाद दीजिये मगर खाज-खुजली से प्रभुजी दूर रखें.
है प्रताप राणा का, इंगित को भी अरि तलवार कहें..

वीर इंद्र का वंदन कर सुर, असुरों पर जय पाते हैं.
ससुरों को ले वज्र पछाड़े उसको सुर-सरदार कहें..

चन्दन जिसके माथे सोहे, हो वह देह विदेह 'सलिल'.
कालकूट को कंठ धारकर, जय-जय-जय ओंकार कहें..

तपन अगन झुलसन को सहना, सबके बस की बात नहीं.
आरामों के आदी मत हो. यह सच बारम्बार कहें..

खिले पंक में किन्तु पंक से, मलिन न होता है पंकज.
शतदल के आचरण-वरन को, शुभ-सत का स्वीकार कहें..

मुश्किल बहुत दिगंबर होना, नंगा होना है आसान.
सब में रब दिख पाए जब तो, 'सलिल' उसे दीदार कहे..

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