मेरी एक कविता
और सुबह हो गई
पर्वतों की ओट से
सुनहरी किरने झाँकने लगीं
तभी सूर्य ने खिलखिलाकर हँसते हुए
अपने सात रंगों से
धरती को नहला दिया
शर्म से लाल हो गई धरती
सूर्य ने धरती को अपनी बाँहों में बांध लिया
धरती लजाई शरमाई मुस्कुराई फिर
सूरज को सौप दिया अ
नदी की लहरें नाचने लगीं
हवा इठला इठलाकर चलने लगीं
वृक्ष आनंद मगन हो
झुमने लगे
रात्रि का अंधकार
चुपचाप भागकर कहीं छुप गया
कलियों ने हंसकर
भाबरों को बुलाया
मन में उठने लगी
प्रेम की उमंग
एक मोहक अंगड़ाई ले
जाग उठी धरती
और सुबह हो गई
(आभार: ई कविता)
***************
<kusumsinha2000@yahoo.com>
और सुबह हो गई
कुसुम सिन्हा
*पर्वतों की ओट से
सुनहरी किरने झाँकने लगीं
तभी सूर्य ने खिलखिलाकर हँसते हुए
अपने सात रंगों से
धरती को नहला दिया
शर्म से लाल हो गई धरती
सूर्य ने धरती को अपनी बाँहों में बांध लिया
धरती लजाई शरमाई मुस्कुराई फिर
सूरज को सौप दिया अ
नदी की लहरें नाचने लगीं
हवा इठला इठलाकर चलने लगीं
वृक्ष आनंद मगन हो
झुमने लगे
रात्रि का अंधकार
चुपचाप भागकर कहीं छुप गया
कलियों ने हंसकर
भाबरों को बुलाया
मन में उठने लगी
प्रेम की उमंग
एक मोहक अंगड़ाई ले
जाग उठी धरती
और सुबह हो गई
(आभार: ई कविता)
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<kusumsinha2000@yahoo.com>
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