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बुधवार, 12 मई 2010

अम्मी --संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:

अम्मी

संजीव 'सलिल'
 *
माहताब की
जुन्हाई में,
झलक तुम्हारी
पाई अम्मी.
दरवाजे, कमरे
आँगन में,
हरदम पडी
दिखाई अम्मी.

कौन बताये
कहाँ गयीं तुम?
अब्बा की
सूनी आँखों में,
जब भी झाँका
पडी दिखाई
तेरी ही
परछाईं अम्मी.
भावज जी भर
गले लगाती,
पर तेरी कुछ
बात और थी.
तुझसे घर
अपना लगता था,
अब बाकी 
पहुनाई अम्मी.
बसा सासरे
केवल तन है.
मन तो तेरे
साथ रह गया.
इत्मीनान
हमेशा रखना-
बिटिया नहीं
परायी अम्मी.
अब्बा में
तुझको देखा है,
तू ही
बेटी-बेटों में है.
सच कहती हूँ,
तू ही दिखती
भाई और
भौजाई अम्मी.

तू दीवाली ,
तू ही ईदी.
तू रमजान
और होली है.
मेरी तो हर
श्वास-आस में 
तू ही मिली
समाई अम्मी.
*********

8 टिप्‍पणियां:

Pratibha Saksena ekavita ने कहा…

आ.सलिल जी ,
सही कहा -
भावज जी भर
गले लगाती,
पर तेरी कुछ
बात और थी.
तुझसे घर
अपना लगता था,
अब बाकी
पहुनाई अम्मी.
बेटी के मन को आपने अनुभव किया आपकी संवेदनशीलता को प्रणाम !
- प्रतिभा.

achal verma ने कहा…

achal verma
ekavita

विवरण दिखाएँ ९:५६ PM (1 घंटे पहले)



झुमा दिया आपने इस रचना के माध्यम से.
आचार्य जी ,आप को नमन |

"अति मधुर मधुर झंकार लिए ,
अम्मा की इतनी याद लिए ,
ये किसने दी आवाज़ मुझे ,
गीतों में रस का स्वाद लिए |"

Your's ,

Achal Verma

Divya Narmada ने कहा…

माँ अम्मा अम्मी मैया या, बऊ जीजी उसके ही नाम.
जिसके बिना 'सलिल' रह जाता, सच 'प्रतिभा जी', 'अचल'-अनाम.
शब्द-शब्द अक्षर-अक्षर में, वही समाई दे आशीष-
कण-कण में वह पड़े दिखाई, कम जितने भी करूँ प्रणाम..

pratapsingh1971@gmail.com ने कहा…

आदरणीय आचार्य जी

अति सुन्दर !

सादर
प्रताप

shar_j_n ekavita ने कहा…

आदरणीय आचार्य जी,

दरवाजे, कमरे
आँगन में,
हरदम पडी
दिखाई अम्मी.--- वाह!

अब्बा की
सूनी आँखों मे,
जब भी झाँका
पडी दिखाई
तेरी ही
परछाईं अम्मी.---सुन्दर !


अब बाकी
पहुनाई अम्मी.-- बहुत बहुत सुन्दर!



इत्मीनान
हमेशा रखना-
बिटिया नहीं
परायी अम्मी.-- सच है ये!



सादर शार्दुला

mcgupta44@gmail.com ने कहा…

सलिल जी,

सीधे, सरल, सच्चे, हृदय से निकले , बहुत थोड़े से शब्दों में बहुत बड़ी बात ऐसे कह जाना कि सुनने-पढ़ने वाले के दिल पर असर छोड़ जाए और सोचने को मज़्बूर कर दे, वही तो कविता है!

एक ऐसी कविता से मुलाकात कराने के लिए बहुत धन्यवाद.

--ख़लिश

Manoshi Chatterjee ने कहा…

"अम्मी" - आपकी ये बहुत सुंदर रचना है आचार्य सलिल जी। आपकी इस रचना से आलोक श्रीवास्तव जी की रचना याद आई-

चिंतन दर्शन जीवन सर्जन रूह नज़र पर छाई अम्मा
सारे घर का शोर शराबा सूनापन तनहाई अम्मा

उसने खुद़ को खोकर मुझमें एक नया आकार लिया है,
धरती अंबर आग हवा जल जैसी ही सच्चाई अम्मा

सारे रिश्ते- जेठ दुपहरी गर्म हवा आतिश अंगारे
झरना दरिया झील समंदर भीनी-सी पुरवाई अम्मा

घर में झीने रिश्ते मैंने लाखों बार उधड़ते देखे
चुपके चुपके कर देती थी जाने कब तुरपाई अम्मा

बाबू जी गुज़रे, आपस में सब चीज़ें तक़सीम हुई तब-
मैं घर में सबसे छोटा था मेरे हिस्से आई अम्मा

यू ट्यूब पर उनकी रचनायें हैं इस रचना के साथ ही-

http://www.youtube.com/watch?v=_oR1apiv24Q

सादर
मानोशी

Divya Narmada ने कहा…

मानोशी ने सराहा, सलिल जगी तकदीर.
आज कलम तेरी हुई सचमुच, तनिक अमीर.

भेंट हुई आलोक से, सुन पाया आनंद.
उन्हें सहज ही साध्य है, भाव बिम्ब लय छंद..

ठीक आपकी ही तरह, वे भी हैं बेजोड़.
'सलिल' सीखता सभी से, जब जो आये मोड़.
Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com