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शुक्रवार, 14 मई 2010

सामयिकी : समय बदला है : ---कल्पना श्रीवास्तव

शादी के लिए अच्छा खाना पका लेना या सिलाई-कढ़ाई कर लेने जैसी शर्तें बदलते समय और स्त्री शिक्षा के साथ साथ शिथिल हुई है।यदि लड़की प्रोफेशनल है तो जरूरी नहीं है कि उसे पारंपरिक रूप से महिलाओं के हिस्से आई जिम्मेदारियों को उठाने में भी माहिर होना ही चाहिए। पिछली पीढ़ी की लड़कियो को समाज ने ये सहूलियतें नहीं दी थी जो आज है। डाक्टर , इंजीनियर , एडमिनिस्ट्रेटिव सर्विस के लड़को की अब इतनी ही शर्त होती है कि लड़की उनके समकक्ष पढ़ी-लिखी हो , सोसायटी में उनके साथ कदम से कदम मिला कर उठ बैठ सके , केवल सुंदरता अब पर्याप्त नही समझी जाती व्यवहारिकता को भि लड़के बहुत महत्व देते हैं । शादी यानी टिपिकल पति-पत्नी वाला हिसाब नहीं है, बल्कि दो अच्छे दोस्तों का साथ मिलकर 'लाइफ' शेयर करना ही युवा पीढ़ी की नजर में शादी है। लड़कियो की आधुनिकता, पहनावे, लाइफ स्टाइल पर ज्यादातर युवा लड़को को आपत्ति नहीं है। लड़कियां निसंकोच बता देती हैं कि उन्हें बहुत अच्छा खाना बनाना नहीं आता, तो चौंकने की बजाय लड़के कहते दिखते हैं , 'कोई बात नहीं, मैं फास्ट फूड बना लेता हूँ।'मेड' सर्वेट ऐसे युवा दम्पतियों के लिये एक जरूरत बनती जा रही हैं .जिन दम्पतियो के स्वयं की लड़कियां नही है उन घरो में बहुओ को लड़की का दर्जा मिल रहा है .सासें कहती दिखती हैं सीख लेगी धीरे-धीरे...पढ़ी लिखी , नौकरी पेशा बड़े पदो पर सुशोभित लड़कियो को खाना बनाना आता तो है, मगर खाना बनाने में रुचि नहीं है।बदलते परिवेश में अब नारी की आर्थिक स्वतंत्रता केवल उसके स्वयं के अहं की तुष्टि या घर का ढाँचा बरकरार रखने के लिए ही मायने नहीं रखती, वरन्‌ पति और ससुराल वाले भी उसकी तरक्की-सफलता को अपना गौरव मानने लगे हैं।

पिछली पीढ़ी की अनेक महिलायें अपने पैरों पर खड़ी थीं, मगर तब घर-बाहर की जिम्मेदारी उन्हीं के सिर थी। ससुराल पक्ष से सहयोग न के बराबर था। मगर आज स्थितियाँ तेजी से बदली हैं। घर की बुनावट में स्त्री को विशेषतः बहू को खासी अहमियत मिलने लगी है। उसे दकियानूसी परंपराओं, रीति-रिवाजों और पुरानी मान्यताओं से बाहर निकलने का मौका दिया गया है। पति की तरह ही उसे भी दफ्तर की जिम्मेदारियों को निभाने व समय देने का मौका दिया जा रहा है।

घर-परिवार के अलावा उसका सर्कल, उसके सहकर्मी, उसका ओहदा भी सम्माननीय है। उसे अपने अनुसार जीने, पहनने-ओढ़ने की छूट है...क्या ऐसा नहीं लगता कि स्त्री अब सचमुच स्वतंत्र हो रही है? इकलौती लड़कियां जब बहुयें बनती हैं तो अपने माता पिता के प्रति भी वे अपनी जिम्मेदारी बखूबी निभाती नजर आ रही हैं .यह सामाजिक परिवर्तन गर्व का विषय है

समयानुसार अपने में परिवर्तन लाते जाना, नया ग्रहण करना और पुराना जो अनुपयोगी हो छोड़ते जाना ही बुद्धिमानी है। नई सोच, नई मान्यताओं को जीवन में स्थान देना ही सुखी जीवन का मूलमंत्र है।

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