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मंगलवार, 19 मई 2009

काव्य-किरण: आचार्य संजीव 'सलिल'

नव गीत

संजीव 'सलिल'


जीवन की

जय बोल,

धरा का दर्द

तनिक सुन...


तपता सूरज

आँख दिखाता

जगत जल रहा.

पीर सौ गुनी

अधिक हुई है

नेह गल रहा.


हिम्मत

तनिक न हार-

नए सपने

फिर से बुन...


निशा उषा

संध्या को छलता

सुख का चंदा.

हँसता है पर

काम किसी के

आये न बन्दा...



सब अपने

में लीन,

तुझे प्यारी

अपनी धुन...


महाकाल के

हाथ जिंदगी

यंत्र हुई है.

स्वार्थ-कामना ही

साँसों का

मन्त्र मुई है.


तंत्र लोक पर,

रहे न हावी

कर कुछ

सुन-गुन...


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3 टिप्‍पणियां:

अर्चना श्रीवास्तव ने कहा…

नवगीत की सामान्यतः दिखनेवाली ज़मीन से अलग हटकर ही क्यों हैं आपके नवगीत.

pramod jain ने कहा…

full of eternal values...perfect rythm

mayank ने कहा…

bahut khoob