कुल पेज दृश्य

शुक्रवार, 15 मई 2009

पुस्तक पंचायत: धर्मों की कतार में इस्लाम, लेखक: अरुण भोले, समीक्षक: अजित वडनेरकर

स्लामी विचारधारा पर प्रायः हर सदी में सवालिया निशान लगता रहा है। ये सवाल वहां भी खड़े हुए जहां इस्लामी परचम मुहम्मद साहब की कोशिशों से फहरा। वहां भी जहां इस्लाम के सिपहसालारों ने दीन के नाम पर हुकुमत कायम की और तमाम ग़ैरमज़हबी काम किए। इस्लाम अपनी जिन खूबियों के तहत फैलता चला गया उन पर ही आज बहस जारी है। सदियों पहले जो मजबूरी में मोमिन बने होंगे, उनके वारिस आज किन्हीं अलग भूमिकाओं के लिए तैयार है। वर्ल्ड ट्रेड सेंटर हादसे के बाद तो बतौर मज़हब इस्लाम पर चर्चा की जगह इस्लामी आतंकवाद ही चर्चा का विषय बना हुआ है।


मौजूदा दौर में इस्लाम की भूमिका पर चर्चा करती एक पुस्तक पिछले दिनों पढ़ी। इसे लिखा है समाजवादी विचारधारा के विद्वान और चिंतक अरुण भोले ने जिन्होंने वर्षों तक अध्यापन और पटना हाईकोर्ट में वकालत के जरिये लंबा सामाजिक अनुभव बटोरा है। मिश्र टोला,दरभंगा के मूल निवासी श्री भोले अब अहमदाबाद के स्थायी निवासी हैं। धर्मों की कतार में इस्लाम शीर्षक पुस्तक नेशनल पब्लिशिंग हाऊंस, दरियागंज, नई दिल्ली से प्रकाशित हुई है।
पुस्तक में इस्लाम के जन्म की परिस्थितियां, इस्लाम पूर्व की अरब जनजातियों की सामाजिक संरचना, संस्कृति और मान्यताओं पर ऐतिहासिक नज़रिये से अध्ययन किया गया है। इस्लाम से पहले की धार्मिक मान्यताओं, प्रचलित पंथों की चर्चा भी महत्वपूर्ण है। पुस्तक आम गैरमुस्लिम के मन से इस्लाम को लेकर उपजने वाले मूलभूत सवालों का जवाब तलाशती नजर आती है साथ ही कुछ ऐतिहासिक तथ्यों को भी सामने लाती है जो एक सामान्य गैरमुस्लिम नहीं जानता।


सबसे बड़ी बात यह कि मैने इस पुस्तक में यह तलाशने की बहुत कोशिश की कि यह किताब हिन्दुओं को खुश करने के लिए लिखी गई है या मुसलमानों को, मगर ऐसा कोई स्पष्ट संकेत हमें नहीं मिलता। 9/11 और गोधरा दंगों के बाद लेखक के गहन वैचारिक मनन से उपजे विचार ही इस पुस्तक का आधार हैं। लेखक बेबाकी से स्वीकारते हैं कि इस्लामी शासकों ने अत्याचार किये मगर यह भी कबूल करते हैं कि इस मुल्क को सजाने-संवारने में मुसलमानों का योगदान महत्वपूर्ण है।


इस संदर्भ में लेखक अमीर खुसरो की देशभक्ति को याद करते हैं जिन्होंने एक मसनवी में लिखा कि उन्हें हिन्दुस्तान से इस क़दर मुहब्बत है क्योंकि यह उनका मादरे-वतन है। दिल्ली के खूबसूरत बाग़ान का बयान करते हुए वे लिखते हैं कि अगर मक्का शरीफ यह सुन ले तो वह भी आदरपूर्वक हिन्दुस्तान की ओर ही मुंह घुमा ले। श्री भोले जब मिलीजुली संस्कृति की इस गौरतलब पहचान की चर्चा करते हैं तो साथ ही बहुसंख्यक भारतीय मुसलमानों द्वारा वंदेमातरम् बोले जाने पर एतराज जताने पर भी सवाल खड़े करते हैं।


कई चिंतक, घुमाफिरा कर जो बात कहते रहे हैं, वही बात श्री भोले साफ लफ्जों में कहते हैं। इस्लाम का आधार यानी कुरआन की मंशा समझने में कई ऐतिहासिक भूलें हुई हैं। मुल्ला जमात हमेशा मुस्तैद रही कि इस आसमानी किताब की व्याख्या का एकाधिकार उन तक ही सीमित रहे। इस्लाम पर मुक्त चिंतन के दरवाजे बंद रहें। बडे़ तबके को गुमराह कर यह पट्टी पढ़ाई जाती रही कि दीन और सियासत एक चीज़ है और इस्लाम का मक़सद वैसे राज्य की स्थापना है जो शरीयत के मकसद और उसुलों के मुताबिक चले।


इसी व्याख्या के तहत जन्म के कुछ दशक बाद से धर्मों की कतार में इस्लाम सबसे युवा है। यानी उम्र के पायदान पर सबसे पीछे, मगर इल्म और नेकी में सबसे आगे निकलने की राह सब देख रहे हैं, क्योंकि इसी में दुनिया की भलाई है। भारतीय मुसलमानों का इतिहास सिर्फ हज़ार पांचसौ साल का नहीं माना जाएगा, बल्कि उन्हें अपने पुरखों के इतिहास से भी खुद को जोड़कर देखना होगा और उस विरासत पर गर्व करना होगा ही तथाकथित इस्लामी अमल कायम हुआ।


अरब मुल्कों में ही इसने गैर इस्लामी व्यवस्थाओं के खिलाफ जिहाद की शक्ल ली। हिन्दुस्तान को भी काफिर जैसे अनुभव हुए। यही जिहाद इक्कीसवी सदी में आतंकवाद की शक्ल अख्तियार कर चुका है। मगर नतीजा कुछ नहीं है। इस्लाम पिछड़ गया, इस्लाम के माननेवाले पिछड़ गए तरक्की की दौड़ में।


हिन्दुस्तान को इस्लाम से कभी दिक्क़त नहीं हुई, लेकिन भारत को इस्लामी धर्मराज्य बनाने का सपना देखने वाली कट्टरपंथी ताकतों को यहां कोई भी गै़रमोमिन बर्दाश्त नहीं। पाकिस्तान बनने के बावजूद उनका लक्ष्य भारत को पाप से पवित्र कराना है। श्री भोले का आकलन है कि शायद भारतीय मुसलमान ही खुद को ठीक ठीक नहीं पहचान पा रहे हैं। भोले सवाल खड़ा करते हैं कि गैर मुस्लिम दुनिया के नौजवानों की तुलना में मुसलमान नौजवान खुद को कमतर स्थिति में पाता है। ग़रीबी-बेरोज़गारी के चलते वह जिहाद का रास्ता अपनाता है, मगर इन समस्याओं से तो दीगर तबकों के लोग कहीं ज्यादा परेशान हैं ?
हमारा भी यही मानना है कि बेहतर तालीम हासिल करने की दिशा में किसी भी गैरमुस्लिम देश में किसी मोमिन को कभी नहीं रोका गया। भारत की ही मिसाल लें तो आजादी के बाद से मोटे अंदाज के मुताबिक करीब चार लाख करोड़ रुपए सिर्फ जम्मू-कश्मीर पर खर्च किए जा चुके हैं। यह रकम कम नही होती। इससे पूरे भारत की तस्वीर बदली जा सकती है।


पुस्तक एक महत्वपूर्ण सुझाव इस देश के मुसलमानों, खास कर उस तबके के लिए सुझाती है जो सदियों पहले धर्मान्तरित हुआ था। लेखक कहते हैं कि भारतीय मुसलमानों का इतिहास सिर्फ हज़ार पांचसौ साल का नहीं माना जाएगा, बल्कि उन्हें अपने पुरखों के इतिहास से भी खुद को जोड़कर देखना होगा और उस विरासत पर गर्व करना होगा। मुस्लिम समाज की जो समस्याएं हैं, कमोबेश अन्य तबके भी इनसे जूझ रहे हैं, पर वैसी असहिष्णुता और अराजकता वहां नहीं है।


यह भी मुमकिन नहीं है दुनिया को उस मुकाम पर वापस लौटाया जा सके जहां राम-कृष्ण, बुद्ध-लाओत्से,मूसा-ईसा-मुहम्मद खड़े थे। बेहतर सोच और नज़रिया रखें तो हम इन विभूतियों का अस्तित्व हमेशा अपने इर्दगिर्द पाएंगे और उन्हीं से प्रकाशमान भविष्य की राह भी हमें नजर आएगी। धर्मों की कतार में इस्लाम सबसे युवा है। यानी उम्र के पायदान पर सबसे पीछे, मगर इल्म और नेकी में सबसे आगे निकलने की राह सब देख रहे हैं, क्योंकि इसी में दुनिया की भलाई है। 250 रुपए मूल्य की इस पुस्तक को ज़रूर पढ़ने की सलाह मैं सफर के साथियों को दूंगा।


****************

1 टिप्पणी:

Divya Narmada ने कहा…

विदेशी आक्रान्ताओं के भय के कारन हिन्दू से मुसलमान बने भैयों के सामने अपनी मूल जीवन धरा में लौटने का यह समय उत्तम अवसर है. हिन्दू उदार होकर मुसलमानों से रोटी-बेटी का सम्बन्ध कर उन्हें अभिन्न बाला सकें तो तालिबानियों का खत्म अपने आप हो जायेगा.