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मंगलवार, 14 अप्रैल 2009

स्तुति: माँ नर्मदे! -चित्रभूषण श्रीवास्तव 'विदग्ध'

आ गया हूँ फ़िर तुम्हारे द्वार मैं माँ नर्मदे!
चाहिए मुझको तुम्हारा प्यार हे माँ नर्मदे!॥

जन्म-मर तट पर तुम्हारे ज्ञान-गुण सन्नद्ध हो।
धर्म ही अनिवार्यता से विवश हित आबद्ध हो।
प्रगतिशाली दृष्टि से भावी सफलता के लिए-
प्रेरणा ली नित तुम्हारी धार से माँ नर्मदे!॥

दूर-दूर गया सदा निज धर्म की अनुरक्ति से।
पा सदा कुछ स्वर्ण-धन सत्संग श्रम सद्भक्ति से।
कुछ देश, कुछ परिवेश कुछ परिवार के सुख के लिए-
पा लोकसेवा का सहज आधार हे माँ नर्मदे!॥

है सदा गति में मेरी कर्तव्यबोधी भावना।
इसी से कर सदा नित श्रम समय की आराधना।
कुछ सुखद संयोग संबल नेह बल विश्वास भी-
मिल सका अब तक सदा साभार हे माँ नर्मदे!॥

शान्ति-सुख की कामना ले, आ गया फ़िर मैं यहाँ।
साधना का यह पुरातन क्षेत्र है पवन महा।
दीजिये आशीष हो साहित्य सेवा के लिए-
रस-भावना अभिव्यक्ति पर अधिकार हे माँ नर्मदे!॥

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1 टिप्पणी:

Pramendra Pratap Singh ने कहा…

सभी ब्‍लागर के एक एक ब्‍लाग को शामिल कर लिया था, आपका ब्‍लाग हिन्‍दुस्‍तान का दर्द भी शामिल है। जल्‍द ही दिव्‍य र्नमदा भी कर लूँगा। टिप्‍पणी के लिये धन्‍यवाद