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रविवार, 30 अप्रैल 2023

सॉनेट, आदिमानव, कोविद, लघुकथा, मुक्तिक, राजीव छंद, साधना छंद, रासलीला

सॉनेट
आदिमानव
आदिमानव भूमिसुत था
नदी माता, नभ पिता कह
पवन पावक पूजता था
सलिल प्रता श्रद्धा विनत वह
उषा संध्या निशा रवि शशि
वृक्ष प्रति आभार माना
हो गईं अंबर दसों दिशि
भूख मिटने तलक खाना
छीनने या जोड़ने की
लत न उसने सीख पाली
बम बनाने फोड़ने की
उठाई थी कब भुजाली?
पुष्ट था खुश आदिमानव
तुष्ट था हँस आदिमानव
३०-४-२०२२
•••
सॉनेट
परीक्षा
पल पल नित्य परीक्षा होती
उठे बढ़े चल फिसल सम्हल कर
कदम कदम धर, विहँस पुलककर
इच्छा विजयी धैर्य न खोती।
अकरणीय क्या, क्या करना है?
खुद ही सोचो सही-गलत क्या?
आगत-अब क्या, रहा विगत क्या?
क्या तजना है, क्या वरना है?
भाग्य भोगना या लिखना है
कब किसके जैसे दिखना है
अब झुकना है, कब अड़ना है?
कोशिश फसल काटती-बोती
भाग्य भरोसे रहे न रोती
पल-पल नित्य परीक्षा होती।
ज्ञानगंगा
३०-४-२०२२
•••
***
स्तंभ : रस, छंद, अलंकार
*
काहे को रोना?
कोरो ना हाथ मिला
सत्कार सखे!
कोरोना झट
भेंट शत्रु को कर
उद्धार सखे!
*
को विद? पूछे
कोविद हँसकर
विद जी भागे
हाथ समेटे
गले भी न मिलते
करें नमस्ते!
*
गीत-अगीत
प्रगीत लिख रहे
गद्य गीत भी
गीतकार जी
गीत करे नीलाम
नवगीत जी
*
टाटा करते
हाय हाय रुचता
बाय बाय भी
बाटा पड़ते
हाय हाय करते
बाय फ्रैंड जी
*
केक लाओ जी!
फरमाइश सुन
पति जी हैरां
मी? ना बाबा
मीना! बाहर खड़ा
सिपाही मोटा
*
रस - हास्य, छंद वार्णिक षट्पदी, यति ५७५५७५, अलंकार - अनुप्रास, यमक, पुनरुक्ति, शक्ति - व्यंजना।
३०-४-२०२०
***
मुक्तक:
पाँव रख बढ़ते चलो तो रास्ता मिल जाएगा
कूक कोयल की सुनो नवगीत खुद बन जाएगा
सलिल लहरों में बसा है बिम्ब देखो हो मुदित
ख़ुशी होगी विपुल पल में, जन्म दिन मन जाएगा
२६-१०-२०१५

***
लघुकथा
अंगार
*
वह चिंतित थी, बेटा कुछ दिनों से घर में घुसा रहता, बाहर निकलने में डरता। उसने बेटे से कारण पूछा। पहले तो टालता रहा, फिर बताया उसकी एक सहपाठिनी भयादोहन कर रही है।
पहले तो पढ़ाई के नाम पर मिलना आरंभ किया, फिर चलभाष पर चित्र भेज कर प्रेम जताने लगी, मना करने पर अश्लील संदेश और खुद के निर्वसन चित्र भेजकर धमकी दी कि महिला थाने में शिकायत कर कैद करा देगी। बाहर निकलने पर उस लड़की के अन्य दोस्त मारपीट करते हैं।
स्त्री-विमर्श के मंच पर पुरुषों को हमेशा कटघरे में खड़ा करती आई थी वह। अभी भी पुत्र पर पूरा भरोसा नहीं कर पा रही थी। बेटे के मित्रों तथा अपने शुभेच्छुओं से- विमर्श कर उसने बेटे को अपराधियों को सजा दिलवाने का निर्णय लिया और बेटे को महाविद्यालय भेजा। उसके सोचे अनुसार उस लड़की और उसके यारों ने लड़के को घेर लिया। यह देखते ही उसका खून खौल उठा। उसने आव देखा न ताव, टूट पड़ी उन शोहदों पर, बेटे को अपने पीछे किया और पकड़ लिया उस लड़की को, ले गई पुलिस स्टेशन। उसने वकील को बुलाया और थाने में अपराध पंजीकृत करा दिया। आधुनिका का पतित चेहरा देखकर उसका चेहरा और आँखें हो रही थीं अंगार।
***
लघुकथा
भवानी
*
वह महाविद्यालय में अध्ययन कर रही थी। अवकाश में दादा-दादी से मिलने गाँव आई तो देखा जंगल काटकर, खेती नष्ट कर ठेकेदार रेत खुदाई करवा रहा है। वे वृक्ष जिनकी छाँह में उसने गुड़ियों को ब्याह रचाए थे, कन्नागोटी, पिट्टू और टीप रेस खेले थे, नौ दुर्गा व्रत के बाद कन्या भोज किया था और सदियों की शादी के बाद रो-रोकर उन्हें बिदा किया था अब कटनेवाले थे। इन्हीं झाड़ों की छाँह में पंचायत बैठती थी, गर्मी के दिनों में चारपाइयाँ बिछतीं तो सावन में झूल डल जाते थे।
हर चेहरे पर छाई मुर्दनी उसके मन को अशांत किए थी। रात भर सो नहीं सकी वह, सोचता रही यह कैसा लोकतंत्र और विकास है जिसके लिए लोक की छाती पर तंत्र दाल दल रहा है। कुछ तो करना है पर कब, कैसे?
सवेरे ऊगते सूरज की किरणों के साथ वह कर चुकी थी निर्णय। झटपट महिलाओं-बच्चों को एकत्र किया और रणनीति बनाकर हर वृक्ष के निकट कुछ बच्चे एकत्र हो गए। वृक्ष कटने के पूर्व ही नारियाँ और बच्चे उनसे लिपट जाते। ठेकेदार के दुर्गेश ने बल प्रयोग करने का प्रयास किया तो अब तक चुप रहे पुरुष वर्ग
का खून खौल उठा। वे लाठियाँ लेकर निकल आए।
उसने जैसे-तैसे उन्हें रोका और उन्हें बाकी वृक्षों की रक्षा हेतु भेज दिया। खबर फैला अखबारनवीस और टी. वी. चैनल के नुमाइंदों ने समाचार प्रसारित कर दिया।
एक जग-हितकारी याचिका की सुनवाई को बाद न्यायालय ने परियोजना पर स्थगन लगा गिया। जनतंत्र में जनमत की जीत हुई।
उसने विकास के नाम पर किए जा रहे विनाश का रथ रोक दिया था और जनगण ने उसे दे दिया था एक नया नाम भवानी।

***
मुक्तिका
पंच मात्रिक राजीव छंद
गण सूत्र: तगण
मापनी २२१
*
दो तीन
क्यों दीन?
.
खो चैन
हो चीन
.
दो झेल
दे तीन
.
पा नाग
हो बीन
.
दीदार
हो लीन
.
गा रोज
यासीन
.
जा बोल
आमीन
.
यासीन कुरआन की एक आयत
***
संवस
३०-४-२०१९
***
मुक्तिका
छंद: साधना छंद
विधान: पंचमात्रिक, पदांत गुरु।
गण सूत्र: रगण
*
एक दो
मूक हो
भक्त हो?
वोट दो
मन नहीं?
नोट लो
दोष ही
'कोट' हो
हँस छिपा
खोट को
विमत को
सोंट दो
बात हर
चोट हो
३०-४-२०१९
***
मुक्तिका: ग़ज़ल
miktika/gazal
*
निर्जीव को संजीव बनाने की बात कर
हारे हुओं को जंग जिताने की बात कर
nirjeev ko sanjeev banane ki baat kar
hare huon ko jang jitane ki baat kar
'भू माफिये'! भूचाल कहे: 'मत जमीं दबा
जो जोड़ ली है उसको लुटाने की बात कर'
'bhoo mafiye' bhoochal kahe: mat jameen daba
jo jod li hai usko lutane kee baat kar
'आँखें मिलायें' मौत से कहती है ज़िंदगी
आ मारने के बाद जिलाने की बात कर
aankhen milayen maut se kahtee hai zindagi
'aa, marne ke baad jilaane ki baat kar'
तूने गिराये हैं मकां बाकी हैं हौसले
काँटों के बीच फूल खिलाने की बात कर
toone giraye hain makan, baki hain hausale
kaanon ke beech fool khilane kee baat kar
हे नाथ पशुपति! रूठ मत तू नीलकंठ है
हमसे ज़हर को अमिय बनाने की बात कर
he nath pashupati! rooth mat too neelkanth hai
hmse zar ko amiy banane kee baat kar
पत्थर से कलेजे में रहे स्नेह 'सलिल' भी
आ वेदना से गंग बहाने की बात कर
patthar se kaleje men rahe sneh salil bhee
aa vedana se gng bahane kee baat kar
नेपाल पालता रहा विश्वास हमेशा
चल इस धरा पे स्वर्ग बसाने की बात कर
nepaal palta raha vishwas hamesha
chal is dhara pe swarg basane kee baat kar
३०-४-२०१५

***
गीत:
समय की करवटों के साथ
*
गले सच को लगा लूँ मैँ समय की करवटों के साथ
झुकाया, ना झुकाऊँगा असत के सामने मैं माथ...
*
करूँ मतदान तज मत-दान बदलूँगा समय-धारा
व्यवस्था से असहमत है, न जनगण किंतु है हारा
न मत दूँगा किसी को यदि नहीं है योग्य कोई भी-
न दलदल दलोँ की है साध्य, हमकों देश है प्यारा
गिरहकट, चोर, डाकू, मवाली दल बनाकर आये
मिया मिट्ठू न जनगण को तनिक भी क़भी भी भाये
चुनें सज्जन चरित्री व्यक्ति जो घपला प्रथा छोड़ें
प्रशासन को कसे, उद्यम-दिशा को जमीं से जोड़े
विदेशी ताकतों से ले न कर्जे, पसारे मत हाथ.…
*
लगा चौपाल में संसद, बनाओ नीति जनहित क़ी
तजो सुविधाएँ-भत्ते, सादगी से रहो, चाहत की
धनी का धन घटे, निर्धन न भूखा कोई सोयेगा-
पुलिस सेवक बने जन की, न अफसर अनय बोयेगा
सुनें जज पंच बन फ़रियाद, दें निर्णय न देरी हो
वकीली फ़ीस में घर बेच ना दुनिया अँधेरी हो
मिले श्रम को प्रतिष्ठा, योग्यता ही पा सके अवसर
न मँहगाई गगनचुंबी, न जनता मात्र चेरी हो
न अबसे तंत्र होगा लोक का स्वामी, न जन का नाथ…
३०-४-२०१४
***
रासलीला :


*

आँख में सपने सुनहरे झूलते हैं.

रूप लख भँवरे स्वयं को भूलते हैं.

झूमती लट नर्तकी सी डोलती है.

फिजा में रस फागुनी चुप घोलती है.

कपोलों की लालिमा प्राची हुई है.

कुन्तलों की कालिमा नागिन मुई है.

अधर शतदल पाँखुरी से रसभरे हैं.

नासिका अभिसारिका पर नग जड़े हैं.

नील आँचल पर टके तारे चमकते.

शांत सागर मध्य दो वर्तुल उमगते.

खनकते कंगन हुलसते गीत गाते.

राधिका है साधिका जग को बताते.

कटि लचकती साँवरे का डोलता मन.

तोड़कर चुप्पी बजी पाजेब बैरन.

सिर्फ तू ही तो नहीं मैं भी यहाँ हूँ.

खनखना कह बज उठी कनकाभ करधन.

चपल दामिनी सी भुजाएँ लपलपातीं.

करतलों पर लाल मेंहदी मुस्कुराती.

अँगुलियों पर मुन्दरियाँ नग जड़ी सोहें.

कज्जली किनार सज्जित नयन मोहें.

भौंह बाँकी, मदिर झाँकी नटखटी है.

मोरपंखी छवि सुहानी अटपटी है.

कौन किससे अधिक, किससे कौन कम है.

कौन कब दुर्गम-सुगम है?, कब अगम है?

पग युगल द्वय कब धरा पर?, कब अधर में?

कौन बूझे?, कौन-कब?, किसकी नजर में?

कौन डूबा?, डुबाता कब-कौन?, किसको?

कौन भूला?, भुलाता कब-कौन?, किसको?

क्या-कहाँ घटता?, अघट कब-क्या-कहाँ है?

क्या-कहाँ मिटता?, अमिट कुछ-क्या यहाँ है?

कब नहीं था?, अब नहीं जो देख पाये.

सब यहीं था, सब नहीं थे लेख पाये.

जब यहाँ होकर नहीं था जग यहाँ पर.

कब कहाँ सोता-न-जगता जग कहाँ पर?

ताल में बेताल का कब विलय होता?

नाद में निनाद मिल कब मलय होता?

थाप में आलाप कब देता सुनायी?

हर किसी में आप वह देता दिखायी?

अजर-अक्षर-अमर कब नश्वर हुआ है?

कब अनश्वर वेणु गुंजित स्वर हुआ है?

कब भँवर में लहर?, लहरों में भँवर कब?

कब अलक में पलक?, पलकों में अलक कब?

कब करों संग कर, पगों संग पग थिरकते?

कब नयन में बस नयन नयना निरखते?

कौन विधि-हरि-हर? न कोई पूछता कब?

नट बना नटवर, नटी संग झूमता जब.

भिन्न कब खो भिन्नता? हो लीन सब में.

कब विभिन्न अभिन्न हो? हो लीन रब में?

द्वैत कब अद्वैत वर फिर विलग जाता?

कब निगुण हो सगुण आता-दूर जाता?

कब बुलाता?, कब भुलाता?, कब झुलाता?

कब खिझाता?, कब रिझाता?, कब सुहाता?

अदिख दिखता, अचल चलता, अनम नमता.

अडिग डिगता, अमिट मिटता, अटल टलता.

नियति है स्तब्ध, प्रकृति पुलकती है.

गगन को मुँह चिढ़ा, वसुधा किलकती है.

आदि में अनादि बिम्बित हुआ कण में.

साsदि में फिर सांsत चुम्बित हुआ क्षण में.

अंत में अनंत कैसे आ समाया?

दिक् में दिगंत जैसे था समाया.

कंकरों में शंकरों का वास देखा.

और रज में आज बृज ने हास देखा.

मरुस्थल में महकता मधुमास देखा.

नटी नट में, नट नटी में रास देखा.

रास जिसमें श्वास भी था, हास भी था.

रास जिसमें आस, त्रास-हुलास भी था.

रास जिसमें आम भी था, खास भी था.

रास जिसमें लीन खासमखास भी था.

रास जिसमें सम्मिलित खग्रास भी था.

रास जिसमें रुदन-मुख पर हास भी था.

रास जिसको रचाता था आत्म पुलकित.

रास जिसको रचाता परमात्म मुकुलित.

रास जिसको रचाता था कोटि जन गण.

रास जिसको रचाता था सृष्टि-कण-कण.

रास जिसको रचाता था समय क्षण-क्षण.

रास जिसको रचाता था धूलि तृण-तृण..

रासलीला विहारी खुद नाचते थे.

रासलीला सहचरी को बाँचते थे.

राधिका सुधि-बुधि बिसारे नाचतीं थीं.

'सलिल' ने निज बिंदु में वह छवि निहारी.

जग जिसे कहता है श्रीबांकेबिहारी.

३०-४-२०१०

***

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