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गुरुवार, 6 अप्रैल 2023

सॉनेट, सोरठा, लघुकथा, नवगीत, दोहा,माखनलाल चतुर्वेदी, शिव, तुम

सोरठा सलिला

बही रसों की धार, कवियों की महफ़िल जमी।
कविता का श्रृंगार, अलंकार लालित्यमय।।

सुमिरे जिसको रोज, रैन रहे बेचैन मन।
कभी हमारी खोज, चैन गँवा वह भी करे।।

बंदी कर चितचोर, आँख रैन जगती रहे।
जा न सके बरजोर, बंदी ले बंदी बना।।

नित सुधियों का कोष, रैन सहेजे मौन रह।
जब कर ले संतोष, शाहों की शाह तब।।

पाकर कंत बसंत, रैन महकती चहकती।
पालें चाह अनंत, नैन कथा कह अनकही।।
६-४-२०१३
•••
सॉनेट
तन-मन

तन में मन है, सुमन सुरभि सम।
माटी हो जाता, तन बिन मन।
लचक अधिक रख नाहक मत तन।।
खुश रह, खुश रख, मिट जाए गम।।
तन्मय मन हो, हो मन्मय तन।
चादर बुनकर ओढ़, स्वच्छ रख।
प्रभुको दे आखिर में फल चख।।
ज्यों की त्यों धर सके कर जतन।।
अनगिन जन फिर भी जग निर्जन।
इकतारा बन बज तुन तिन तिन।
तान न ढीला छोड़, कर जतन।।
कर धन संचय, हो मत निर्धन।
जोड़ बावरे! हँस मन से मन।
एक-नेक, दो रहें न तन-मन।।
६-४-२०२२
•••
***
दोहा मुक्तिका
ताल दे लता याद वह, आ ले बाँहें थाम
लाडो कह कह लिपटता, अपना बन बेदाम
*
अश्क बहा मत रोक ले, हो अशोक भूधाम
सुधा बरस हर श्वास में, रहे कृष्ण का नाम
*
रेखा खींच सरोज की, बीच सलिल ले नाम
मन मंदिर में शारदा, लख आए घनश्याम
*
तुलसी जब तुल सी गई, कैक्टस जा ब्रजधाम
कुंज करीब मिटा रहा, घायल गोप गुलाम
***
एक दोहा
करे जीव संजीव वह, करे वही निष्प्राण
माटी से मूर्त गढ़े, कर चेतन संप्राण
६-४-२०२१
दोहा-दोहा खेलिए
नियम
१. आखिरी दोहे के अंतिम शब्द/अक्षर से अगला दोहा आरंभ करें।
२. दोहा खुद का लिखा न हो तो दोहे के साथ दोहाकार का नाम अवश्य दें।
३. किसी अन्य के दोहे पर टीका-टिप्पणी न करें।
४. दोहे के कथ्य की पूरी जवाबदारी प्रस्तुतकर्ता की होगी।
५. प्रबंधक का आदेश / निर्णय सब पर बंधनकारी होगा।
६. एक शब्द या अक्षर पर एक से अधिक दोहे आने पर जो दोहा सबसे पहले आया हो, उसे आधार मानकर आगे बढ़ा जाए।
७. बीच के किसी दोहे पर टिप्पणी या उससे जुड़ा दोहा, मूल दोहे के साथ ही जवाब में दें ताकि संदर्भ सहित पढ़ा जा सके।
*
सदय रहें माँ शारदा, ऋिद्धि सिद्धि गणराज
हिंदी के सिर सज सके, जगवाणी का ताज
अगला दोहा ज से आरंभ करें
*
समय बिताने के लिए यह एक रोचक क्रीड़ा है। इसमें कितने भी प्रतिभागी भाग ले सकते हैं। आरंभक एक दोहा प्रस्तुत करे जिसका प्रथम चरण गुरु लघु से आरम्भ हो। दोहे के अंतिम शब्द से आरंभ कर अगला प्रतिभागी दोहा प्रस्तुत करे। यह क्रम चलता रहेगा। खेल के दो प्रकार हैं - १. प्रतिभागियों का क्रम तय हो, जिसकी बारी हो वही दोहा प्रस्तुत करे। २. क्रम अनिश्चित हो, जो पहले दोहा बना ले प्रस्तुत कर दे। किसी दोहे के अंत में पहले दोहे का पहला शब्द आने पर खेल ख़त्म हो जाएगा। इसे निरंतर कई दिनों तक खेला जा सकता है।
उदाहरण
दोहा-सलिला
बोल रहे सब सगा पर, सगा न पाया एक
हैं अनेक पर एक भी, मिला न अब तक नेक
नेक नेकियत है कहाँ, खोज खोज हैरान
अपने भीतर झाँक ले, बोल पड़ा मतिमान
मान न मान मगर करे, मन ही मन तू गान
मौन न रह पाए भले, मन में ले तू ठान
ठान अगर ले छू सके, हाथों से आकाश
पैर जमकर धरा पर, तोड़ मोह का पाश
पाश न कोई है जिसे, मनुज न सकता खोल
कर ले दृढ़ संकल्प यदि, मन ही मन में बोल
६-४-२०२०
***
स्वतंत्रता सेनानी और निर्भीक पत्रकार माखनलाल
*
देश के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान आजादी की लड़ाई और पत्रकारिता दोनों क्षेत्रों में जिन लोगों ने अद्भुत काम किया उनमें माखनलाल चतुर्वेदी व गणेश शंकर विद्यार्थी अग्रणी हैं। खासकर हिंदी पट्टी की पत्रकारिता में इनका काम काफी महत्वपूर्ण है।
माखनलाल चतुर्वेदी का जन्म 4 अप्रैल 1889 को मध्यप्रदेश के होशंगाबाद में हुआ था। माखनलाल जब 16 वर्ष के हुए तब ही स्कूल में अध्यापक बन गए थे. उन्होंने 1906 से 1910 तक एक विद्यालय में अध्यापन का कार्य किया. लेकिन जल्द ही माखनलाल ने अपने जीवन और लेखन कौशल का उपयोग देश की स्वतंत्रता के लिए करने का निर्णय ले लिया.
उन्होंने असहयोग आन्दोलन और भारत छोड़ो आन्दोलन जैसी कई गतिविधियों में भाग लिया. इसी क्रम में वो कई बार जेल भी गए और जेल में कई अत्याचार भी सहन किए,लेकिन अंग्रेज उन्हें कभी अपने मार्ग से विचलित नहीं कर सके।
अध्यापन किया
1910 में अध्यापन का कार्य छोड़ने के बाद माखन लाल राष्ट्रीय पत्रिकाओं में सम्पादक का काम देखने लगे थे. उन्होंने प्रभा” और “कर्मवीर” नाम की राष्ट्रीय पत्रिकाओं में सम्पादन का काम किया
माखनलाल ने अपनी लेखन शैली से देश के एक बहुत बड़े वर्ग में देश-प्रेम भाव को जागृत किया. उनके भाषण भी उनके लेखो की तरह ही ओजस्वी और देश-प्रेम से ओत-प्रोत होते थे.
उन्होंने 1943 में “अखिल भारतीय साहित्य सम्मेलन” की अध्यक्षता की. उनकी कई रचनाए तब देश के युवाओं में जोश भरने और उन्हें जागृत करने के लिए बहुत सहायक सिद्ध हुई.
नव छायावादी शैली
माखनलाल की लेखन शैली नव-छायावाद का एक नया आयाम स्थापित करने वाली थी. जिनमे भी चतुर्वेदी की कुछ रचनाए “हिम-तरंगिनी, कैसा चाँद बना देती हैं,अमर राष्ट्र और पुष्प की अभिलाषा तो हिंदी साहित्य में सदियों तक तक अमर रहने वाली रचनाएँ हैं, और कई युगों तक यह आम-जन को प्रेरित करती रहेगी।
हिंदी साहित्य को योगदान
माखनलाल की कुछ प्रमुख कालजेयी रचनाए हैं – हिम तरंगिनी,समर्पण,हिम कीर्तनी,युग चरण,साहित्य देवता दीप से दीप जले,कैसा चाँद बना देती हैं और पुष्प की अभिलाषा. जिनमें से वेणु लो गूंजे धरा’,हिम कीर्तिनी,हिम तरंगिणी,युग चरण,साहित्य देवता तो सुप्रसिद्ध लेख हैं।
इसके अलावा कुछ कविताएं जैसे अमर राष्ट्र, अंजलि के फूल गिरे जाते हैं, आज नयन के बंगले में, इस तरह ढक्कन लगाया रात ने, उस प्रभात तू बात ना माने, किरणों की शाला बंद हो गई छुप-छुप, कुञ्ज-कुटीरे यमुना तीरे, गाली में गरिमा घोल-घोल, भाई-छेड़ो नहीं मुझे, मधुर-मधुर कुछ गा दो मालिक, संध्या के बस दो बोल सुहाने लगते।
साहित्य एकेडमी का अवार्ड जीतने वाले पहले व्यक्ति
माखनलाल 1955 में साहित्य एकेडमी का अवार्ड जीतने वाले पहले व्यक्ति हैं। हिंदी साहित्य में अभूतपूर्व योगदान देने के कारण ही पंडितजी को 1959 में सागर यूनिवर्सिटी से डी.लिट् की उपाधि भी प्रदान की गयी।
पद्म भूषण सम्मान मिला
1963 में माखनलाल चतुर्वेदी को साहित्य और शिक्षा के क्षेत्र में अपूर्व योगदान के कारण पद्म भूषण से भी सम्मानित किया गया।
माखनलाल चतुर्वेदी के साहित्य की विधा में दिए योगदान के सम्मान में बहुत सी यूनिवर्सिटी ने विविध अवार्ड्स के नाम उनके नाम पर रखे.मध्य प्रदेश सांस्कृतिक कौंसिल द्वारा नियंत्रित मध्य प्रदेश साहित्य अकादमी देश की किसी भी भाषा में योग्य कवियों को “माखनलाल चतुर्वेदी पुरस्कार” देती हैं. पंडितजी के देहांत के 19 वर्ष बाद 1987 से यह सम्मान देना शुरू किया गया।
उनके नाम पर पत्रकारिता विश्वविद्यालय बना
भोपाल,मध्य प्रदेश में स्थित माखन लाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय पूरे एशिया में अपने प्रकार का पहला विश्व विद्यालय हैं. इसकी स्थापना पंडितजी के राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम में पत्रकारिता और लेखन के द्वारा दिए योगदान को सम्मान देते हुए 1991 में हुई.
साहित्य जगत का यह अनमोल हीरा 30 जनवरी 1968 को खो दिया. पंडितजी उस समय 79 वर्ष के थे,और देश को तब भी उनके लेखन से बहुत उम्मीदें थी.
पंडित माखन लाल चतुर्वेदी को सम्मान देते हुए पोस्टेज स्टाम्प की शुरुआत की. यह स्टाम्प पंडितजी के 88वें जन्मदिन 4 अप्रैल 1977 को ज़ारी हुआ।
***
शिव परमात्मा !
* वो निराकार हैं , ज्योतिर्लिंगम ----ज्योति पुंज हैं !
* वो सूक्ष्म से सूक्ष्म हैं हर किसी की आत्मा में उनका निवास है !
* मंदिरों में उनका उनका अंडाकार शिव लिंग ब्रह्माण्ड का प्रतीक है जिनके अंदर समस्त सृष्टि समायी है !
* गीता में जो कहा है -की वो सूक्ष्म से सूक्ष्म हैं वो विशाल से
विशाल हैं वो निराकार परमात्मा के लिए है ---शिव ही निराकार
परमात्मा हैं ---दूसरा कोई और नहीं !
* ॐ उनका एक अक्षर का नाम है यह अक्षर इसलिए है यह नाम
कभी समाप्त नहीं होगा ---आपका कंठ थक जायेगा लेकिन ॐ
नहीं , क्यों की इसमें समस्त स्वरों का संगम है - पृथ्वी या अन्य ---ग्रहों के घूर्णन से जो ध्वन्यात्मक नाद उतपन्न होता है वो
ॐ है !
*ॐ ---परमेश्वर का वो नाम है जो पूरे विश्व के अध्यात्म का केंद्र बिंदु है ----OMNICIENT --सर्वज्ञ ,OMNIPOTENT --
सर्वशक्तिशाली , OMNIPRESENT --सर्व व्यापी -, OMEGA ---प्रभु की ख़ुशी , --- OMAR -- भोला ----ऐसे शब्द हैं जो ॐ की
विश्व व्यापकता की और संकेत करते हैं !
* सिख धर्म कहता है ---एक ओंकार ही सत्य है ---
एको जपो एको सालाहि !
एको सिमरि एको मन आहि,!!
ऐकस के गन गाऊ अनंत !,
मनि तनि जापि एक भगवंत !!
***
जैन धर्म का महामंत्र कहता है ----
"ओमणमो ------"-----उस निराकार ओम को नमन !
****
* मक्का में मुसलमान संगे अस्वद की उसी प्रकार परिक्रमा ---करते हैं जैसे हम शिव की !
*-- ॐ को ९० अंश घडी की दिशा में घुमाने पर इसको अल्लाह भी पढ़ा जा सकता है !
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* शिव अर्थात ॐ निराकार परमात्मा ही सत्य है -----इस सत्य को मानने से पूरी मानवजाति ईश्वर के नाम पर एक होगी --
यही सत्य पूरी मानव जाति को एक करने की शक्ति रखता है !
* ॐ ही " देवनामधा " ( ऋग्वेद ) -----अर्थात समस्त देवताओं के नाम को धारण करते है ----एक परमात्मा ही समस्त देवताओं फरिश्तों की शक्तियों को धारण करते हैं !
* शिव निराकार परमात्मा है निराकार ब्रह्म हैं -----साकार ब्रह्म के रूप में वो ही ब्रह्मा , विष्णु , शंकर , राम , कृष्ण हैं !
*विश्व शांति का सूत्र है---- "सत्य शिवम सुंदरम"
६-४-२०१९
***
चार लघुकथाएँ
१. एकलव्य
*
- 'नानाजी! एकलव्य महान धनुर्धर था?'
- 'हाँ; इसमें कोई संदेह नहीं है.'
- उसने व्यर्थ ही भोंकते कुत्तों का मुंह तीरों से बंद कर दिया था ?'
-हाँ बेटा.'
- दूरदर्शन और सभाओं में नेताओं और संतों के वाग्विलास से ऊबे पोते ने कहा - 'काश वह आज भी होता.'
*****
२. खाँसी
*
कभी माँ खाँसती, कभी पिता. उसकी नींद टूट जाती, फिर घंटों न आती। सोचता काश, खाँसी बंद हो जाए तो चैन की नींद ले पाए।
पहले माँ, कुछ माह पश्चात पिता चल बसे। उसने इसकी कल्पना भी न की थी.
अब करवटें बदलते हुए रात बीत जाती है, माँ-पिता के बिना सूनापन असहनीय हो जाता है। जब-तब लगता है अब माँ खाँसी, अब पिता जी खाँसे।
तब खाँसी सुनकर नींद नहीं आती थी, अब नींद नहीं आती है कि सुनाई दे खाँसी।
***
३. साँसों का कैदी
*
जब पहली बार डायलिसिस हुआ था तो समाचार मिलते ही देश में तहलका मच गया था। अनेक महत्वपूर्ण व्यक्ति और अनगिनत जनता अहर्निश चिकित्सालय परिसर में एकत्र रहते, डॉक्टर और अधिकारी खबरचियों और जिज्ञासुओं को उत्तर देते-देते हलाकान हो गए थे।
गज़ब तो तब हुआ जब प्रधान मंत्री ने संसद में उनके देहावसान की खबर दे दी, जबकि वे मृत्यु से संघर्ष कर रहे थे। वस्तुस्थिति जानते ही अस्पताल में उमड़ती भीड़ और जनाक्रोश सम्हालना कठिन हो गया। प्रशासन को अपनी भूल विदित हुई तो उसके हाथ-पाँव ठन्डे हो गए। गनीमत हुई कि उनके एक अनुयायी जो स्वयं भी प्रभावी नेता थे, वहां उपस्थित थे, उन्होंने तत्काल स्थिति को सम्हाला, प्रधान मंत्री से बात की, संसद में गलत सूचना हेतु प्रधानमंत्री ने क्षमायाचना की।
धीरे-धीरे संकट टला.… आंशिक स्वास्थ्य लाभ होते ही वे फिर सक्रिय हो गए, सम्पूर्ण क्रांति और जनकल्याण के कार्यों में। बार-बार डायलिसिस की पीड़ा सहता तन शिथिल होता गया पर उनकी अदम्य जिजीविषा उन्हें सक्रिय किये रही। तन बाधक बनता पर मन कहता मैं नहीं हो सकता साँसों का कैदी।
***
४. गुरु जी
*
मुझे आपसे बहुत कुछ सीखना है, क्या आप मुझे शिष्य बना नहीं सिखायेंगे?
बार-बार अनुरोध होने पर न स्वीकारने की अशिष्टता से बचने के लिए सहमति दे दी। रचनाओं की प्रशंसा, विधा के विधान आदि की जानकारी लेने तक तो सब कुछ ठीक रहा।
एक दिन रचनाओं में कुछ त्रुटियाँ इंगित करने पर उत्तर मिला- 'खुद को क्या समझते हैं? हिम्मत कैसे की रचनाओं में गलतियाँ निकालने की? मुझे इतने पुरस्कार मिल चुके हैं। फेस बुक पर जो भी लिखती हूँ सैंकड़ों लाइक मिलते हैं। मेरी लिखे में गलती हो ही नहीं सकती। आइंदा ऐसा किया तो...'
आगे पढ़ने में समय ख़राब करने के स्थान पर शिष्या को ब्लोक कर चैन की सांस लेते कान पकड़े कि अब नहीं बनेंगे किसी के गुरु। ऐसों को गुरु नहीं गुरुघंटाल ही मिलने चाहिए।
***
***
त्वरित प्रतिक्रिया
कृष्ण-मृग हत्याकांड
*
मुग्ध हुई वे हिरन पर, किया न मति ने काम।
हरण हुआ बंदी रहीं, कहा विधाता वाम ।।
*
मुग्ध हुए ये हिरन पर, मिले गोश्त का स्वाद।
सजा हुई बंदी बने, क्यों करते फ़रियाद?
*
देर हुई है अत्यधिक, नहीं हुआ अंधेर।
सल्लू भैया सुधरिए, अब न कीजिए देर।।
*
हिरणों की हत्या करी, चला न कोई दाँव।
सजा मिली तो टिक नहीं, रहे जमीं पर पाँव।।
*
नर-हत्या से बचे पर, मृग-हत्या का दोष।
नहीं छिप सका भर गया, पापों का घट-कोष।।
*
आहों का होता असर, आज हुआ फिर सिद्ध।
औरों की परवा करें, नर हो बनें न गिद्ध।।
*
हीरो-हीरोइन नहीं, ख़ास नागरिक आम।
सजा सख्त हो तो मिले, सबक भोग अंजाम ।।
*
अब तक बचते रहे पर, न्याय हुआ इस बार।
जो छूटे उन पर करे, ऊँची कोर्ट विचार।।
*
फिर अपील हो सभी को, सख्त मिल सके दंड।
लाभ न दें संदेह का, तब सुधरेंगे बंड।।
*
न्यायपालिका से विनय करें न इतनी देर।
आम आदमी को लगे, होता है अंधेर।।
*
सरकारें जागें न दें, सुविधा कोई विशेष।
जेल जेल जैसी रहे, तनहा समय अशेष।।
६-४-२०१८
***

गीत -
अपने सपने कहाँ खो गये?
*
तुमने देखे,
मैंने देखे,
हमने देखे।
मिल प्रयास कर
कभी रुदन कर
कभी हास कर।
जाने-अनजाने, मन ही मन, चुप रह लेखे।
परती धरती में भी
आशा बीज बो गये।
*
तुमने खोया,
मैंने खोया ,
हमने खोया।
कभी मिलन का,
कभी विरह का,
कभी सुलह का।
धूप-छाँव में, नगर-गाँव में पाया मौक़ा।
अंकुर-पल्लव ऊगे
बढ़कर वृक्ष हो गये।
*
तुमने पाया,
मैंने पाया,
हमने पाया।
एक दूजे में,
एक दूजे कोको,
गले लगाया।
हर बाधा-संकट को, जीता साथ-साथ रह।
पुष्पित-फलित हुए तो
हम ही विवश हो गये।
६-४-२०१६
नवगीत:
.
क्षुब्ध पहाड़ी
विजन झुरमुट
झाँकता शिरीष
.
गगनचुम्बी वृक्ष-शिखर
कब-कहाँ गये बिखर
विमल धार मलिन हुई
रश्मिरथी तप्त-प्रखर
व्यथित झाड़ी
लुप्त वनचर
काँपता शिरीष
.
सभ्य वनचर, जंगली नर
देख दंग शिरीष
कुल्हाड़ी से हारता है
रोज जंग शिरीष
कली सिसके
पुष्प रोये
झुलसता शिरीष
.
कर भला तो हो भला
आदम गया है भूल
कर बुरा पाता बुरा है
जिंदगी है शूल
वन मिटे
बीहड़ बचे हैं
सिमटता शिरीष
.
बीज खोजो और रोपो
सींच दो पानी
उग अंकुर वृक्ष हो
हो छाँव मनमानी
जान पायें
शिशु हमारे
महकता शिरीष
५-४-२०१५
***
गीत :
.
खेत उगलते हैं सोना पर
खेतिहरों का दीवाला है
.
जो बोये-काटे वह भूखा
जो हथिया ले वही सुखी है
मिल दलाल लें लूट मुनाफा
उत्पादक मर रहा दुखी है
भूमि छीनते हो किसान की
कैसे भूमि-पुत्र हो? बोलो!
जनप्रतिनिधि सोचो-शर्माओ
मत ज़मीर अपना यूं बेचो
निज सुविधा त्यागो, जनगण सा
जीवन जियों, बनो साधारण
तब ही तो कर पाओगे तुम
आमजनों का कष्ट निवारण
गंगा सुखी लोकनीति की
भरा स्वार्थ का परनाला है
.
वनवासी से छीन लिये वन
है अधनंगा श्रमिक शहर में
शिखर मानकों के फेकें हैं
तोड़-तोड़कर सतत गव्हर में
दलहित साध्य हुआ सूरों को
गौड़ देशहित मान रहे हो
जयचंदी है मूढ़ सियासत
घोल कुएँ में भाँग रहे हो
सर्वदली सरकार बनाओ
मतभेदों का शमन करो मिल
भारत पहली विश्वशक्ति हो
भारत माँ की शपथ गहो नित
दीनबन्धु बन पोछों आँसू
दीन-हीन के सँग मेहनत कर
तभी खुलेगा भारत के
उन्नति पथ का लौही ताला है
...
***
नवगीत:
.
सूरज
मुट्ठी में लिये,
आया लाल गुलाल.
देख उषा के
लाज से
हुए गुलाबी गाल.
.
महुआ महका,
टेसू दहका,
अमुआ बौरा खूब.
प्रेमी साँचा,
पनघट नाचा,
प्रणय रंग में डूब.
अमराई में,
खलिहानों में,
तोता-मैना झूम
गुप-चुप मिलते,
खुस-फुस करते,
सबको है मालूम.
चूल्हे का
दिल भी हुआ
हाय! विरह से लाल.
कुटनी लकड़ी
जल मरी
सिगड़ी भई निहाल.
सूरज
मुट्ठी में लिये,
आया लाल गुलाल.
देख उषा के
लाज से
हुए गुलाबी गाल.
.
सड़क-इमारत
जीवन साथी
कभी न छोड़ें हाथ.
मिल खिड़की से,
दरवाज़े ने
रखा उठाये माथ.
बरगद बब्बा
खों-खों करते
चढ़ा रहे हैं भाँग.
पीपल भैया
शेफाली को
माँग रहे भर माँग.
उढ़ा
चमेली को रहा,
चम्पा लकदक शाल.
सदा सुहागन
छंद को
सजा रही निज भाल.
सूरज
मुट्ठी में लिये,
आया लाल गुलाल.
देख उषा के
लाज से
हुए गुलाबी गाल.
२६.२.२०१५
*
***
नवगीत:
.
जब भी
झाँका
दिल के अन्दर
पाया
गहरा
एक समन्दर
.
संयम-नियम
तुला पर साधा
परमपिता
को भी आराधा
पार कर गया
सब भव-बाधा
खोया-पाया
आधा-आधा
चाहा मन्दिर
पाया मन्दर
जब भी
झाँका
दिल के अन्दर
पाया
गहरा
एक समन्दर
.
कब क्या बीता
भूलो मीता!
थोड़ा मीठा
थोड़ा तीता
राम न खुद
पर चाहें सीता
पढ़ते नहीं
पढ़ाते गीता
आया गोरख
भाग मछन्दर
जब भी
झाँका
दिल के अन्दर
पाया
गहरा
एक समन्दर
.
खुद के मानक
खुद गढ़ दह ना
तीसमारखाँ
खुद को कह ना
यह नवगीत
उसे मत कहना
झगड़े-झंझट
नाहक तह ना
मिले सुधा जब
हो मन चंदर
जब भी
झाँका
दिल के अन्दर
पाया
गहरा
एक समन्दर
२३-२४ फरवरी २०१५
*
***
नवगीत:
*
झोपड़-झुग्गी से
बँगलेवाले हारे
.
झाड़ू लेकर
राजनीति की
बात करें.
संप्रदाय की
द्वेष-नीति की
मात करें.
आश्वासन की
मृग-मरीचिका
ख़त्म करो.
उन्हें हराओ
जो निर्बल से
घात करें.
मैदानों में
शपथ लोक-
सेवा की लो.
मतदाता क्या चाहे
पूछो जा द्वारे
झोपड़-झुग्गी से
बँगलेवाले हारे
.
मन्दिर-मस्जिद
से पहले
शौचालय हो.
गाँव-मुहल्ले
में उत्तम
विद्यालय हो.
पंडित-मुल्ला
संत, पादरी
मेहनत कर-
स्वेद बहायें,
पूज्य खेत
देवालय हों.
हरियाली संवर्धन हित
आगे आ रे!
झोपड़-झुग्गी से
बँगलेवाले हारे
.
जाती जन्म से
नहीं, कर्म से
बनती है.
उत्पादक अन-
उत्पादक में
ठनती है.
यह उपजाता
वह खाता
बिन उपजाये-
भू उसकी
जिसके श्रम-
सीकर सनती है.
अन-उत्पादक खर्च घटे
वह विधि ला रे!
झोपड़-झुग्गी से
बँगलेवाले हारे
.
श्रम की
सबसे अधिक
प्रतिष्ठा करना है.
शोषक पूँजी को
श्रम का हित
वरना है.
चौपालों पर
संसद-ग्राम
सभाएँ हों-
अफसरशाही
को उन्मूलित
करना है.
बहुत हुआ द्लतंत्र
न इसकी जय गा रे!
झोपड़-झुग्गी से
बँगलेवाले हारे
.
बिना बात की
बहसें रोको,
बात करो.
केवल अपनी
कहकर तुम मत
घात करो.
जिम्मेवारी
प्रेस-प्रशासन
की भारी-
सिर्फ सनसनी
फैला मत
आघात करो.
विज्ञापन की पोल खोल
सच बतला रे!
झोपड़-झुग्गी से
बँगलेवाले हारे
१५-१६.२.२०१५
*
***
नवगीत:
.
हमने
बोये थे गुलाब
क्यों
नागफनी उग आयी?
.
दूध पिलाकर
जिनको पाला
बन विषधर
डँसते हैं,
जिन पर
पैर जमा
बढ़ना था
वे पत्त्थर
धँसते हैं.
माँगी रोटी,
छीन लँगोटी
जनप्रतिनिधि
हँसते हैं.
जिनको
जनसेवा
करना था,
वे मेवा
फँकते हैं.
सपने
बोने थे जनाब
पर
नींद कहो कब आयी?
.
सूत कातकर
हमने पायी
आज़ादी
दावा है.
जनगण
का हित मिल
साधेंगे
झूठा हर
वादा है.
वीर शहीदों
को भूले
धन-सत्ता नित
भजते हैं.
जिनको
देश नया
गढ़ना था,
वे निज घर
भरते हैं.
जनता
ने पूछा हिसाब
क्यों
तुमने आँख चुरायी?
.
हैं बलिदानों
के वारिस ये
जमी जमीं
पर नजरें.
गिरवी
रखें छीन
कर धरती
सेठों-सँग
हँस पसरें.
कमल कर रहा
चीर हरण
खेती कुररी
सी बिलखे.
श्रम को
श्रेय जहाँ
मिलना था
कृषक क्षुब्ध
मरते हैं.
गढ़ ही
दे इतिहास नया
अब
‘आप’ न हो रुसवाई.
*
***
नवगीत:
.
समय न्यायाधीश की
लगती अदालत.
गीत!
हाज़िर हो.
.
लगा है इलज़ाम
तुम पर
गिरगिटों सा
बदलते हो रंग.
श्रुति-ऋचा
या अनुष्टुप बन
छेड़ दी थी
सरसता की जंग.
रूप धरकर
मन्त्र का
या श्लोक का
शून्य करते भंग.
काल की
बनकर कलम तुम
स्वार्थ को
करते रहे हो तंग.
भुलाई ना
क्यों सखावत?
गीत!
हाज़िर हो.
.
छेड़ते थे
जंग हँस
आक्रामकों
से तुम.
जान जाए
या बचे
करते न सुख
या गम.
जूझते थे,
बूझते थे,
मनुजता को
पूजते थे.
ढाल बनकर
देश की
दस दिशा में
घूमते थे.
मिटायी क्यों
हर अदावत?
गीत!
हाज़िर हो.
.
पराजित होकर
न हारे,
दैव को
ले आये द्वारे.
भक्ति सलिला
में नहाये,
कर दिये
सब तम उजारे.
बने संबल
भीत जन का-
‘त्राहि’ दनु हर
'हर' पुकारे.
दलित से
लगकर गले तुम
सत्य का
बनते रहे भुजदंड.
अनय की
क्यों की मलामत?
गीत!
हाज़िर हो.
.
एक पल में
जिरह-बखतर
दूसरे पल
पहन चीवर.
योग के सँग
भोग अनुपम
रूप को
वरकर दिया वर.
नव रसों में
निमज्जित हो
हर असुन्दर
किया सुंदर.
हास की
बनकर फसल
कर्तव्य का ही
भुला बैठे संग?
नाश की वर
ली अलामत?
गीत!
हाज़िर हो.
.
श्रमित काया
खोज छाया,
लगी कहने-
‘जगत माया’.
मूर्ति में भी
अमूरत को
छिपा- देखा,
पूज पाया.
सँग सुन्दर के
वरा शिव,
शिवा को
मस्तक नवाया.
आज का आधार
कल कर,
स्वप्न कल का
नव सजाया.
तंत्र जन का
क्यों नियामत?
गीत!
हाज़िर हो.
.
स्वप्न टूटा,
धैर्य छूटा.
सेवकों ने
देश लूटा.
दीनता का
प्रदर्शन ही -
प्रगतिवादी
बेल-बूटा.
छंद से हो तंग
कर रस-भंग
कविता गढ़ी
श्रोता रहा सोता.
हुआ मरकर
पुनर्जीवित
बोल कैसे
गीत-तोता?
छंद अब भी
क्यों सलामत?
गीत!
हाज़िर हो.
.
हो गये इल्जाम
पूरे? तो बतायें,
शेष हों कुछ और
तो वे भी सुनायें.
मिले अनुमति अगर
तो मैं अधर खोलूँ.
बात पहले आप तोलूँ
बाद उसके सत्य बोलूँ
मैं न मैं था,
हूँ न होऊँ.
अश्रु पोछूं,
आस बोऊँ.
बात जन की
है न मन की
फ़िक्र की
जग या वतन की.
साथ थी हर-
दम सखावत
प्रीत!
हाज़िर हो.
.
नाम मुझको
मिले कितने,
काम मैंने
किये कितने.
याद हैं मुझको
न उतने-
कह रहा है
समय जितने.
छंद लय रस
बिम्ब साधन
साध्य मेरा
सत सुपावन
चित रखा है
शांत निश-दिन
दिया है आनंद
पल-छिन
इष्ट है परमार्थ
आ कह
नीत!
हाज़िर हो.
.
स्वयंभू जो
गढ़ें मानक,
हो न सकते
वे नियामक.
नर्मदा सा
बह रहा हूँ.
कुछ न खुद का
गह रहा हूँ.
लोक से ले
लोक को ही,
लोक को दे-
लोक का ही.
रहा खाली हाथ
रखा ऊँचा माथ,
सब रहें सानंद
वरें परमानन्द.
विवादों को भूल
रच नव
रीत!
हाज़िर हो.
६-४-२०१५
***
नवगीत:
.
खफ़ा रहूँ तो
प्यार करोगे
यह कैसा दस्तूर है ?
प्यार करूँ तो
नाजो-अदा पर
मरना भी मंज़ूर है.
.
आते-जाते रंग देखता
चेहरे के
चुप-दंग हो.
कब कबीर ने यह चाहा
तुम उसे देख
यूं तंग हो?
गंद समेटी सिर्फ इसलिए
प्रिय! तुम
निर्मल गंग हो
सोचा न पाया पल आयेगा
तुम्हीं नहीं
जब सँग हो.
होली हो ली
अब क्या होगी?
भग्न आस-सन्तूर है.
खफ़ा रहूँ तो
प्यार करोगे
यह कैसा दस्तूर है ?
प्यार करूँ तो
नाजो-अदा पर
मरना भी मंज़ूर है.
.
फाग-राग का रिश्ता-नाता
कब-किसने
पहचाना है?
द्वेष-घृणा की त्याज्य सियासत
की होली
धधकाना है.
जड़ जमीन में जमा जुड़ सकें
खेत-गाँव
सरसाना है.
लोकनीति की रंग-पिचकारी
संसद में
भिजवाना है.
होली होती
दिखे न जिसको
आँखें रहते सूर है.
खफ़ा रहूँ तो
प्यार करोगे
यह कैसा दस्तूर है ?
प्यार करूँ तो
नाजो-अदा पर
मरना भी मंज़ूर है.
२.३.२०१५
*
***
नवगीत:
.
ठेठ जमीनी जिंदगी
बिता रहा हूँ
ठाठ से
.
जो मन भाये
वह लिखता हूँ.
नहीं और सा
मैं दीखता हूँ.
अपनी राहें
आप बनाता.
नहीं खरीदा,
ना बिकता हूँ.
नहीं भागता
ना छिपता हूँ.
डूबा तो फिर-
फिर उगता हूँ.
चारण तो मैं हूँ नहीं,
दूर रहा हूँ
भाट से.
.
कलकल बहता
निर्मल रहता.
हर मौसम की
यादें तहता.
पत्थर का भी
वक्ष चीरता-
सुख-दुःख सम जी,
नित सच कहता.
जीने खातिर
हँस मरता हूँ.
अश्रु पोंछकर
मैं तरता हूँ.
खेत गोड़ता झूमता
दूर रहा हूँ
खाट से.
नहीं भागता
ना छिपता हूँ.
डूबा तो फिर-
फिर उगता हूँ.
चारण तो मैं हूँ नहीं,
दूर रहा हूँ
भाट से.
.
रासो गाथा
आल्हा राई
पंथी कजरी
रहस बधाई.
फाग बटोही
बारामासी
ख्याल दादरा
गरी गाई.
बनरी सोहर
ब्याह सगाई.
सैर भगत जस
लोरी भाई.
गीति काव्य मैं, बाँध मुझे
मत मानक की
लाट से.
नहीं भागता
ना छिपता हूँ.
डूबा तो फिर-
फिर उगता हूँ.
चारण तो मैं हूँ नहीं,
दूर रहा हूँ
भाट से.
***
***
नवगीत:
.
उम्र भर
अक्सर रुलातीं
हसरतें.
.
इल्म की
लाठी सहारा
हो अगर
राह से
भटका न पातीं
गफलतें.
.
कम नहीं
होतीं कभी
दुश्वारियाँ.
हौसलों
की कम न होतीं
हरकतें.
नेकनियती
हो सुबह से
सुबह तक.
अता करता
है तभी वह
बरकतें
२५.२.२०१५
*
नवगीत :
.
हवाओं में
घुल गये हैं
बंद मादक
छंद के.
.
भोर का मुखड़ा
गुलाबी
हो गया है.
उषा का नखरा
शराबी
हो गया है.
कूकती कोयल
न दिखती
छिप बुलाती.
मदिर महुआ
तंग
काहे तू छकाती?
फिज़ाओं में
कस गये हैं
फंद मारक
द्वन्द के.
.
साँझ का दुखड़ा
अँधेरा
बो रहा है.
रात का बिरवा
अकेला
रो रहा है.
कसमसाती
चाँदनी भी
राह देखे.
चाँद कब आ
बाँह में ले
करे लेखे?
बुलावों को
डँस गये हैं
व्यंग्य मारक
नंद के.
*
***
नवगीत:
*
अहंकार का
सिर नीचा
.
अपनेपन की
जीत है
करिए सबसे प्रीत
सहनशीलता
हमेशा
है सर्वोत्तम रीत
सद्भावों के
बाग़ में
पले सृजन की नीत
कलमकार को
भुज-भींचा
अहंकार का
सिर नीचा
.
पद-मद का
जिस पर चढ़ा
उतरा शीघ्र बुखार
जो जमीन से
जुड़ रहा
उसको मिला निखार
दोष न
औरों का कहो
खुद को रखो सँवार
रखो मनोबल
निज ऊँचा
अहंकार का
सिर नीचा
.
पर्यावरण
न मलिन कर
पवन-सलिल रख साफ
करता दरिया-
दिल सदा
दोष अन्य के माफ़
निबल-सबल को
एक सा
मिले सदा इन्साफ
गुलशन हो
मरु गर सींचा
अहंकार का
सिर नीचा
१५.२.२०१५
*
***
नवगीत:
*
द्रोण में
पायस लिये
पूनम बनी,
ममता सनी
आयी सुजाता,
बुद्ध बन जाओ.
.
सिसकियाँ
कब मौन होतीं?
अश्रु
कब रुकते?
पर्वतों सी पीर
पीने
मेघ रुक झुकते.
धैर्य का सागर
पियें कुम्भज
नहीं थकते.
प्यास में,
संत्रास में
नवगीत का
अनुप्रास भी
मन को न भाता.
युद्ध बन जाओ.
.
लहरियां
कब रुकीं-हारीं.
भँवर
कब थकते?
सागरों सा धीर
धरकर
मलिनता तजते.
स्वच्छ सागर सम
करो मंथन
नहीं चुकना.
रास में
खग्रास में
परिहास सा
आनंद पाओ
शुद्ध बन जाओ.
२०-२१.२.२०१५.
*
***
नवगीत
.
मैं नहीं नव
गीत लिखता
उजासों की
हुलासों की
निवासों की
सुवासों की
खवासों की
मिदासों की
मिठासों की
खटासों की
कयासों की
प्रयासों की
कथा लिखता
व्यथा लिखता
मैं नहीं नव
गीत लिखता
.
उतारों की
चढ़ावों की
पड़ावों की
उठावों की
अलावों की
गलावों की
स्वभावों की
निभावों की
प्रभावों की
अभावों की
हार लिखता
जीत लिखता
मैं नहीं नव
गीत लिखता
.
चाहतों की
राहतों की
कोशिशों की
आहटों की
पूर्णिमा की
‘मावसों की
फागुनों की
सावनों की
मंडियों की
मन्दिरों की
रीत लिखता
प्रीत लिखता
मैं नहीं नव
गीत लिखता
*
***
नवगीत :
.
खिल-खिलकर
गुल झरे
पलाशों के
.
ऊषा के
रंग में
नहाये से.
संध्या को
अंग से
लगाये से.
खिलखिलकर
हँस पड़े
अलावों से
.
लजा रहे
गाल हुए
रतनारे.
बुला रहे
नैन लिये
कजरारे.
मिट-मिटकर
बन रहे
नवाबों से
.
***
नवगीत :
.
प्रिय फागुन की धूप
कबीरा
गाती सी.
.
अलसाई सी
उठी अनमनी
झुँझलाती.
बिखरी अलकें
निखरी पलकें
शरमाती.
पवन छेड़ता
आँख दिखाती
धमकाती.
चुप फागुन की धूप
लिख रही
पाती सी.
.
बरसाने की
गैल जा रही
राधा सी.
गोकुल ठांड़ी
सुगढ़ सलौनी
बाधा सी.
यमुना तीरे
रास रचाती
बलखाती.
छिप फागुन की धूप
आ रही
जाती सी.
***
नवगीत:
.
मत बंदी नवगीत को करो
.
आम आदमी समझ न पाए
ऐसे शब्द न जन को भाये.
सरल-सहज भाषा-शैली हो
अलंकार मन-चित्त रमाये.
बिम्ब-प्रतीक यथा आवश्यक,
लय-रस-छंद साधना दुष्कर
जिन्हें न साध्य हो सका संयम
औरों को अक्षम बतलाये.
कानी अपनी टेंट न देखे
रहे और पर दृष्टि गड़ाये.
दम्भ कुएँ का मेंढक पाले
जहँ-तहँ कूद छलांग लगाये
मत 'जड़ है', नवगीत को कहो
.
बहता पानी रहे निर्मला
जो रुकता वह सड़ता जाए.
पाँच दशक पहले की भाषा
कैद न नवगीतों को भाये.
स्वागत रचनाकार नए का
अदा पुरानी मत दुहराये.
अपना कथ्य भाव अनुभूति
निज शब्दों-शैली में गाये.
शिशु घुटनों-बल चलना सीखे
ऊँची कूद न उसको भाये.
लंबी कूद लगानेवाले
गिरी-शिखरों पर कब चढ़ पाये.
निज मुँह मिट्ठू आप मत बनो
.
दावा मठाधीश होने का
बार-बार नाहक दोहराये.
व्यर्थ श्रेष्ठता- नवोदितों की
भूल न यदि मिल ठीक कराये.
तुकबन्दी अपने गीतों में
रख, औरों को हीन बताये
ऐसे दोहरे आचरणों को
नवता का प्रतिमान बनाये
फल तजकर नवगीत, गजल की
जय-जय नयी कलम नित गाये
गजलकार को गीतकार का
पुरस्कार-सम्मान दिलाये
नवगीतों में नवता से इंकार मत करो
६-४-२०१५

***
नवगीत :
संजीव
.
प्रिय फागुन की धूप
कबीरा
गाती सी.
.
अलसाई सी
उठी अनमनी
झुँझलाती.
बिखरी अलकें
निखरी पलकें
शरमाती.
पवन छेड़ता
आँख दिखाती
धमकाती.
चुप फागुन की धूप
लिख रही
पाती सी.
.
बरसाने की
गैल जा रही
राधा सी.
गोकुल ठांड़ी
सुगढ़ सलौनी
बाधा सी.
यमुना तीरे
रास रचाती
बलखाती.
छिप फागुन की धूप
आ रही
जाती सी.
२३-२-२०१५
*
नवगीत
.
पूज रहे हैं
मूरत
कहते चित्र गुप्त है
.
है आराध्य हमारा जो
वह है अविनाशी
कहते फिर बतलाते कैसा
मनुज विनाशी
पैदा हुआ-मरा कैसे-कब
कहाँ? कह रहे
झगड़े-झंझट खड़े कर रहे
काबा-काशी
शिव वैरागी को अर्पित
करते हैं राशी
कहते कंकर-कंकर में वह
छिपा-सुप्त है.
.
तुमने उसे बनाया या
वह तुम्हें बनाता?
तुम आते-जाते हो या
वह आता-जाता?
गढ़ते-मढ़ते, तोड़-फाड़ते
बिना विचारे
देख हमारी करनी वह
छिप-छिप मुस्काता
कैसा है यह बुद्धिमान
जो आप ठगाता?
मैंने दिया विवेक, कहाँ वह
हुआ लुप्त है?
.
५.४.२०१४

एक दोहा

सगा कह रहे सब मगर, सगा न पाया एक।

हैं अनेक पर एक भी मिला न अब तक नेक।।

६-४-२०१०








































***
नवगीत:
.
मत बंदी नवगीत को करो
.
आम आदमी समझ न पाए
ऐसे शब्द न जन को भाये.
सरल-सहज भाषा-शैली हो
अलंकार मन-चित्त रमाये.
बिम्ब-प्रतीक यथा आवश्यक,
लय-रस-छंद साधना दुष्कर
जिन्हें न साध्य हो सका संयम
औरों को अक्षम बतलाये.
कानी अपनी टेंट न देखे
रहे और पर दृष्टि गड़ाये.
दम्भ कुएँ का मेंढक पाले
जहँ-तहँ कूद छलांग लगाये
मत 'जड़ है', नवगीत को कहो
.
बहता पानी रहे निर्मला
जो रुकता वह सड़ता जाए.
पाँच दशक पहले की भाषा
कैद न नवगीतों को भाये.
स्वागत रचनाकार नए का
अदा पुरानी मत दुहराये.
अपना कथ्य भाव अनुभूति
निज शब्दों-शैली में गाये.
शिशु घुटनों-बल चलना सीखे
ऊँची कूद न उसको भाये.
लंबी कूद लगानेवाले
गिरी-शिखरों पर कब चढ़ पाये.
निज मुँह मिट्ठू आप मत बनो
.
दावा मठाधीश होने का
बार-बार नाहक दोहराये.
व्यर्थ श्रेष्ठता- नवोदितों की
भूल न यदि मिल ठीक कराये.
तुकबन्दी अपने गीतों में
रख, औरों को हीन बताये
ऐसे दोहरे आचरणों को
नवता का प्रतिमान बनाये
फल तजकर नवगीत, गजल की
जय-जय नयी कलम नित गाये
गजलकार को गीतकार का
पुरस्कार-सम्मान दिलाये
नवगीतों में नवता से इंकार मत करो
६-४-२०१५

***
नवगीत
.
पूज रहे हैं
मूरत
कहते चित्र गुप्त है
.
है आराध्य हमारा जो
वह है अविनाशी
कहते फिर बतलाते कैसा
मनुज विनाशी
पैदा हुआ-मरा कैसे-कब
कहाँ? कह रहे
झगड़े-झंझट खड़े कर रहे
काबा-काशी
शिव वैरागी को अर्पित
करते हैं राशी
कहते कंकर-कंकर में वह
छिपा-सुप्त है.
.
तुमने उसे बनाया या
वह तुम्हें बनाता?
तुम आते-जाते हो या
वह आता-जाता?
गढ़ते-मढ़ते, तोड़-फाड़ते
बिना विचारे
देख हमारी करनी वह
छिप-छिप मुस्काता
कैसा है यह बुद्धिमान
जो आप ठगाता?
मैंने दिया विवेक, कहाँ वह
हुआ लुप्त है?
.
५.४.२०१४

सगा कह रहे सब मगर, सगा न पाया एक।

हैं अनेक पर एक भी, मिल न अब तक नेक।।

६-४-२०१०

*

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