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बुधवार, 19 अप्रैल 2023

डॉ. धनञ्जय सिंह

नवगीत में आशावादी नवाचार के पहरुए डॉ. धनञ्जय सिंह
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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                            ''मेरी मान्यता है कि यदि कविता अपने पाठक से कुछ कहती है तो ठीक है अन्यथा कविता निरर्थक है, उसके विषय में व्याख्याएँ प्रस्तुत करना तो और भी निरर्थक। मेरी कविता पाठकों से सार्थक संवाद कर पाती है अथवा नहीं, इसका निर्णय प्रबुद्ध पाठक ही करेंगे।'' नवगीत में आशावादी नवाचार के पहरुए धनञ्जय सिंह के इस कथन से असहमत नहीं हुआ जा सकता। 

                            'अपने रचनाकर्म को पाठकीय ग्राह्यता की कसौटी पर कसनेवाले सशक्त गीतकार-नवगीतकार धनञ्जय सिंह जी 'कादम्बिनी' जैसी श्रेष्ठ साहित्यिक पत्रिका के संपादक रह चुके हैं। वे हिंदी साहित्य में समीक्षा के नाम पर गहराई तक पैठ चुके अतीतजीवी राजनैतिक चिंतन के प्रति प्रतिबद्ध पाखंड से सुपरिचित हों, यह स्वाभाविक है। हिंदी साहित्य की हर विधा इस दौर में संक्रमण की शिकार है। यह संक्रमण तीन स्तरों पर है। प्रथम राजनैतिक प्रतिबद्धता को रचनाकारिता का पाश बना देना, द्वितीय किसी विधा के अतीत और वर्तमान को समझे बिना अधकचरा रचना कर्म और तृतीय अतीत के मानकों और निजी मान्यता को कालजयी मानते हुई भविष्य पर लादने की हठधर्मिता। धनञ्जय सिंह जी न तो बंधनों की कैद स्वीकारते हैं, न लट्ठ भाँज कर गिरोह बंदी करते हैं। वे इन तीनों संक्रमणों से अप्रभावित रहते हुए केवल और केवल रचना कर्म करते हैं, जिसका निर्णायक वे अपने सुधी  पाठकों को मानते हैं। नवगीतीय आयोजनों में भी मंचासीन होकर अधिकाधिक समय अपनी रचना पढ़ने की ललक उनमें नहीं होती। वे श्रोता होना अधिक पसंद करते हैं और बहुत आग्रह किए जाने पर ससंकोच अपनी रचना प्रस्तुत करते हैं और पाठक को तृप्ति का अनुभव हो इसके पहले ही 'एक और, एक और' के आग्रह को अनसुना कर करतल ध्वनि के मध्य मंच से उतर आते हैं। हिंदी कवियों में ऐसा आत्मसंयम कम ही देखने को मिलता है। धनंजय सिंह जी का ऐसा ही आत्म संयम कृति प्रकाशन के संबंध में भी है। 

                            धनञ्जय सिंह जी वाद-विवाद में रंचमात्र रुचि नहीं रखते। वे गीत-नवगीत संबंधी विवादों में सम्मिलित ही नहीं होते। उन्हीं के शब्दों में- ''मैं गीत-नवगीत के विभेद को निरर्थक मानता हूँ। 'नव' मेरी दृष्टि में विशेषण मात्र है, संज्ञा नहीं। किसी भी नवगीत को पहले 'गीत' होना ही होगा। गीत मूलत: श्रव्य विधा है। अत:, भाव प्रवणता के साथ-साथ गेय और श्रुति मधुर होना गीत-नवगीत के लिए अनिवार्य है।'' 

                            'दिन क्यों बीत गए' के सभी और प्रत्येक गीत इस सत्य के साक्षी हैं कि धनञ्जय सिंह जी ने उक्त दोनों कसौटियों पर गीतों को कसने में  कोताही कतई नहीं की है। १०८ पृष्ठीय इस संकलन में ५६ गीत संकलित हैं। २९ अक्टूबर १९४५ को ग्राम अरनिया, ज़िला बुलंदशहर, उत्तरप्रदेश में जन्मे एम.ए. हिंदी तथा पी-एच. डी. करने के पश्चात् धनञ्जय  सिंह जी ने १९६० से कविता, कहानी, समीक्षा, लेख, भेंट वार्ताएँ, संस्मरण, अनुवाद आदि लिखना-प्रकाशित करना आरंभ किया। उनकी रचनाएँ डॉ. हरिवंश राय ‘बच्चन’ द्वारा संपादित ‘1978 की सर्वश्रेष्ठ कवितायें‘, डॉ. शंभूनाथ सिंह द्वारा संपादित ‘नवगीत अर्द्धशती‘, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद सिंह द्वारा संपादित ‘नवगीत संकलन‘, डॉ. कन्हैया लाल नंदन द्वारा संपादित ‘श्रेष्ठ हिंदी गीत संचयन‘ डॉ. बलदेव वंशी द्वारा संपादित ‘काला इतिहास‘ तथा लगभग तीन दर्जन अन्य संकलनों में प्रकाशित  होना ही यह बताता है की धनञ्जय सिंह जी का शुमार शिखर रचनाकारों में हो रहा था। उनकी प्रतिभा केवल साहित्य तक ही सीमित नहीं रही। दिनेश लखनपाल द्वारा निर्देशित चलचित्र 'अंतहीन' (प्रमुख भूमिकाओं में रोहिणी हटंगड़ी तथा ओमपुरी) के गीत धनंजय सिंह जी ने लिखे। डॉक्यूमेंटरी फिल्म ‘चलो गाँव की ओर‘ तथा ‘back to village’ का पटकथा लेखन कर एक नए क्षितिज पर धनञ्जय जी ने हस्ताक्षर किए। १९६७ में साप्ताहिक आर्योदय के उपसंपादक के रूप में  पत्रकार धनंजय सिंह प्रकाश में आए। मासिक पत्रिकाओं  ‘सिताभा‘, ‘निषंग‘, ‘अन्या‘, ‘परिवेश‘ (अनियतकालिक), ‘साहित्य आजकल‘ (त्रैमासिक) ‘सरस्वती सुमन‘ (त्रैमासिक) आदि पड़ावों पर अपने श्रेष्ठ कार्य की छाप छोड़ते हुए डॉ. धनञ्जय सिंह  तक कादम्बिनी के सम्पादकीय विभाग (१९८०-२००७) से संबद्ध रह कर मुख्य कॉपी सम्पादक के पद से सेवा निवृत्त हुए।

                            धनंजय सिंह जी कभी पुरस्कारों के पीछे नहीं भागे, अपितु पुरस्कार उनके कर कमलों में सुशोभित होकर गर्वान्वित हुए। उन्हें उत्कृष्ट साहित्यिक सेवाओं के लिए उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा साहित्य भूषण सम्मान, श्रेष्ठ गीतकार साहित्य संगम पुरस्कार, भवानी प्रसाद मिश्र पुरस्कार, गौरव साहित्य सम्मान, पूर्वोत्तर हिंदी अकादमी सम्मान (शिलोंग,मेघालय ), सृजन श्री सम्मान ( अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन-ताशकंद,दुबई ), डॉ. महाराज कृष्ण जैन स्मृति सम्मान, काया कल्प साहित्य सम्मान, कला भारती सम्मान, सुमंगलम सम्मान, अभ्युदय साहित्य सम्मान, साहित्य कला भारती सम्मान, साहित्य श्री सम्मान, साहित्य भास्कर सम्मान, साहित्य ज्योत्सना सम्मान, सारस्वत सम्मान ( अंतर्राष्ट्रीय साहित्य सांस्कृतिक विकास संस्थान ), पत्रकार श्री ( साहित्यलोक, अखिल भारतीय मानव कल्याण संघ ), प्रशस्ति-पत्र ( हरियाणा लघु समाचार पत्र एसोसिएशन ), नवोदित साहित्य मंच सम्मान, बालावंदना जुगरान स्मृति सम्मान ( श्री नगर गढ़वाल) तथा विशिष्ट साहित्यकार सम्मान ( कादम्बिनी क्लब, डाल्टन गंज ), अदबी संगम, गाज़ियाबाद द्वारा विशिष्ट साहित्यकार सम्मान, मार्च २०१४ में ‘बंशी और मादल' तथा अन्य अनेक सम्मानों से सम्मानित किया जा चुका है। 

                            डॉ. अशोक विष्णु शुक्ला व डॉ. कविता अरोरा ने बताया कि सुप्रसिद्ध गीतकार डॉ. धनञ्जय सिंह की रचनाएँ  ठहरकर सुननी पड़ती हैं, क्योंकि उनमें जीवन के लिए एक 'संदेश' छिपा होता है। यह संदेश ही रचना का उत्स होता है जिसे देने के लिए रचनाकार रचना करता है। नवगीत, व्यंग्य लेख, नवकविता। कहानी और लघुकथा को केवल विसंगतियों, विडंबनाओं, नकारात्मक जीवन मूल्यों और टकरावों-बिखरावों तक सीमित रखनेवाले तिमिरजीवियों में न दीपशिखा की उजास को सराहने की दृष्टि होती है, न ही नव वजास के लिए आत्माहुति करने का साहस। धनञ्जय सिंह 'तो तुम्हीं कहो' शीर्षक गीत में कंधे पर झुकती उजली भीगी बदली के भीगेपन को जीने की अभिलाषा, तपन हरने को आतुर हिमखंड की शीतलता का पान करने की जिजीविषा शांत करने या न करने का प्रश्न पाठक के सम्मुख उपस्थित कर उसे अपनी विचार यात्रा में सहयात्री बना लेते हैं। गीतांत में भरमों का इंद्रजाल तोड़ने के लिए खुलते वातायन के साथ भ्रम और तम को मिटाने का संदेश लिए उनका यह गीत पाठक को तिमिराच्छादित निशा का अंत कर नवाशा का सवेरा उगने का संदेश बिना कहे दे जाता है। 

'अनकही हमारी सब बातें
ये दीवारें सुन लेती हैं
फिर अपनी सुविधाओं वाला
ताना-बाना बुन लेती हैं

यदि तोड़ भ्रमों का इन्द्रजाल
कोई वातायन खुल जाए
तो तुम्हीं कहो तम की परतें
मैं छीलूँ या भ्रम पलने दूँ ?'
  
                            तथाकथित प्रगतिवादी, वास्तव में यथास्थितिवादी या निराशावादी अपनी कुंठित आशाहीनता को गीत पर थोपकर उसे 'नवगीत' संज्ञा देते हैं किंतु सत्यान्वेषी जनगण और आशावादी गीतप्रेमी निराशा से लबालब गीतों और गीतकारों को नहीं स्वीकारते। टूटते टहनियों में घिरे मृग का रूपक इस और संकेत करता प्रतीत होता है। राजनेताओं द्वारा वायदों (जुमलों) से जनगण को भ्रमित कर सत्ता सुख भोगने की प्रवृत्ति लोकैषणा के सूर्य को भी विवश कर देता है-   

टूटती टहनियों ने ले लिया
जीवन के मृग को घेराव में,
रास्ते तटस्थ हो गए हैं सब
कौन भला मरहम दे घाव में।

कोलाहल हर दिशि भरपूर है।

नीले सियारों ने बाँट दीं
जंगल में कुछ मीठी गोलियाँ,
प्रश्नों की झाड़ियाँ उगीं
गूँजेंगी कब तक ये बोलियाँ,

सूरज भी कितना मजबूर है। - (जाने क्यों शहर बहुत दूर है) 

                            धनञ्जय जी के गीतों का वैशिष्ट्य वैयक्तिक चितन को सार्वजनीन बना पाना है। वे 'मैं-तुम' के द्वन्द को 'हम' बना पाने की कला में दक्ष हैं। वे नकारात्मकता का संकेत कर उस पर सकारात्मकता  की जयकार के गायक हैं। तथाकथित नवगीतकारों की तरह नकारात्मकता को पाठक के मन-मस्तिष्क पर थोपना उन्हें अस्वीकार्य है। 'जंगल  उग आए' शीर्षक गीत में भाव विहगों द्वारा दुःख दाने चुग आने पर भी घनी वनस्पतियों के जंगल उग आने का रूपक गीतकार धनंजय के मन में महकते नवाशा सुमनों का संकेत करती है- 

भाव-विहग 
उड़ इधर-उधर 
दुःख-दाने चुग आये 
मन पर 
घनी वनस्पतियों के 
जंगल उग आए।   - (जंगल उग आये)

                            तथाकथित नवता के कफ़न में दम तोड़ते गीत और निराशावादी नवगीतों से विमुख होते पाठक-श्रोता के प्रति संवेदनशील मन लिए धनंजय जी का गीतकार व्यथित मन से सुधियों के वातायन में सुरक्षित गीतों के मधुमयी आलापों को न केवल सुमिरता है अपितु गीतांत में गाठ ७ दशकों से मानकों और विधानों के पाश में  नवगीत को कैद करने की निरर्थक कसरत करनेवालों के लिए कहते हैं की वे बिजली के खंबे की तरह जड़ होकर रह गए हैं जबकि गीत का प्राणतत्व उसकी चेतनता, गतिमयता, संवेदना और मंगलमयता ही है।  

गीतों के 
मधुमय आलाप 
यादों में जड़े रह गये 
बहुत दूर 
डूबी पदचाप 
चौराहे पड़े रह गये। ...
... बिजली के खंभे से आप 
एक जगह खड़े रह गये। - (बहुत दूर डूबी पदचाप)   

                            गीत-नवगीत के बीच दो देशों की सीमारेखा की तरह अनुल्लंघनीय अन्तर होने की हठधर्मिता को अमान्य करते धनञ्जय जी गीत के काल कवलित होने की थोथी और मिथ्या  घोषणा करनेवालों पर व्यंजनापूर्ण आक्षेप करते हुए कहते हैं कि आनुभूतिक प्रवणता से नवगीतों को प्राणवंत करने की  सामर्थ्य रखने वाले परदे के पीछे है तथा गीत के स्वर्ण काल को तथाकथित निराशवादी नवगीतों के पूर्व था वह फिर लौटेगा  - 

तुम कहते हो 
तो सच होगा 
अब गीतों के दिन चले गये।

उपमा-रूपक 
संयोजन से 
नव-गीतों की रचना करना 
गहरी 
अनुभूति प्रवणता से 
फिर उनको प्राणवंत करना 
जो इसको मंत्र समझते थे 
पर्दों के पीछे चले गये ..... 
.... पर बीते दिन फिर लौटेंगे   - (पर बीते  दिन फिर लौटेंगे) 

                            गीत कब लिखा जाता है? इस सनातन प्रश्न का उत्तर धनञ्जय जी गीत में ही देते हैं- 

बहुत दिनों के बाद 
रचा फिर 
कोई गीत गया 
गहन कुहासा चीर
सुबह का 
सूरज जीत गया। 

                            सुबह का सूरज नवाशा का राजदूत होता है, विसंगतियों का रुदाली-गायक नहीं। गीत रचना के प्रभाव  परिणाम का सूक्ष्म संकेतन देखिए- 

गया 
उदासी बुननेवाला 
स्याह अतीत गया।   

वातायन हँस उठे 
किरण आँगन में मुसकायी
धरती छूने 
हरसिंगार की 
डाली आयी 

वाष्पित जल से 
सागर का खारापन रीत गया।  - ( वातायन हँस उठे)

                             स्पष्ट है कि गीत-नवगीत शुभता, शिवता और सर्वमांगल्य का वाहक है, विषमता और विडंबना का उद्घोषक नहीं। नवगीत रचने की मानसिकता जिस पृष्ठभूमि पर अंकुरित होती है, उसका संकेत देखिए- 

मन पर घिरा 
आँधियोंवाला 
मौसम बीत गया 
इंद्रधनुष रचती 
किरणों का 
फूटा गीत नया। .... 

.... गया हहरति झंझाओं का 
दुखद अतीत गया।  ....

.... पतझर से 
कोंपल का सपना 
फिर-फिर गया।  - (फूटा गीत नया)  २५३ 
                           
                             धनञ्जय जी क्या लिखते हैं? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए उनका एक गीत कहता है- 

जो अनुगूँज  
उठी मन में  
मैंने उसको गाया। ..... 

 ..... हमने 
साँस-साँस में केवल 
जीवन दुलराया।   ..... 

 ..... गाएँगे हर गीत 
रहा जो 
अब तक अनगाया।   - (गणित नहीं आया)

                            धनञ्जय जी के गीतों में शब्द वैभव अपने उत्कर्ष पर है। वे शब्दों को केवल शब्द कोशीय अर्थ में प्रयोग नहीं करते अपितु निहितार्थ और व्यंजनार्थ की असीम संभावना पाठक की समझने  के लिए अंतर्निहत कर देते हैं। 

था घिरा 
जीवन जहाँ 
बस वर्जनाओं से।  

साँप-बिच्छू 
अजगरों का 
वास था 
बस चतुर्दिक 
मरघटी अहसास था। 

प्राण-स्पंदन 
घिरे थे 
मूर्छाओं से।

                            धनंजय जी के गीतों में तत्सम (स्वर्णाभ, प्राणवंत, निष्ठुर, वातायन, वाष्पित, तपश्चर्या, झंकृत, मधुरिम, मृदुता, जिह्वा, निर्झर, धूमायित, पंक्तिबद्ध, अंत: प्रकोष्ठ, प्रत्यन्चाएँ, वल्गा, कोकिल, स्पंदन, चतुर्दिक, उद्भावना, वर्तिका, तिमिर, प्रहेलिका, संकेतक, ध्वन्यालोकी आदि), देशज (चौबोर, चीत, कँटिया, पोखर, मछरिया, बतियाएँ, निंदयारी, अहेरी, सुमिरनी, उजियार, कंकरीट, हरषता, जनम, अरथ आदि) तथा फारसी (बियाबान, कर्जे, तारीखें, स्याह, आवाज़, काफ़िले, ज़हर, दवा, इशारा, दरवेश, मंज़िल, राज, बस्ती, मशालें, रिश्ते-नाते, तख़्त, ताज, शर्त, सिर्फ, रौशनी, रोज, मरहम, नुमाइश, मुहता, परवाज़, गम आदि) शब्दों की त्रिवेणी प्रवाहित है जिस पर फूलों की तरह कुछ अंग्रेजी (नेमप्लेट, कलेंडर आदि) तैरते मिलते हैं। कमाल यह है यह शाब्दिक सम्मिश्रण कहीं भी अपमिश्रण नहीं प्रतीत होता। गीतों के कथ्य तथा लय में हर शब्द इस तरह विराजता है की उसका स्थानापन्न नहीं मिल सकता। पाँव जमाना,  काम-तमाम आदि मुहावरे कथ्य को सहज ग्राह्य बनाते हैं। 

                            धनंजय जी को शब्द युग्मों से विशेष स्नेह है। वे गीतों में शब्द युग्मों को पूरी स्वाभाविकता के साथ पिरोते हैं या कहें कि शब्द युग्म स्वत: उनके गीतों में आकर सार्थकता पाते हैं। देख-भाल, लाल-हरी, आँगन-चौबारे, जीवन-मूल्य, मधु-मकरन्द, आते-जाते, फूलती-घुट्टी, मास-वर्ष, ऋण-धन, गुणा-भाग, पाप-पुण्य, कुल-मर्यादा, ज्वार-भाटा, सावन भादों, रंगों-गंधों, टेढ़े-मेढ़े, मृग-मरीचिका, ओर-छोर, ठौर-ठाँव, ललित-ललाम, अथ-इति, ताल-लय, तारो-ताजा, आकर्षण-विकर्षण, कलरव-कूजित, मान-मनुहार। भय-संशय आदि दो पदों वाले ये शब्द-युगन जीवन के विविध क्रिया व्यापारों से संबद्ध हैं। इनमें कुछ बहु प्रचलित हैं, कुछ कम प्रचलित हैं, कुछ देशज पृष्भूमि से आते हैं, कुछ नागर संस्कृति की देन हैं, कुछ क्रिया पदों से जुड़े हैं, कुछ विशेषणों से। इन शब्द-युग्मों का वैविध्य उन्हें गीत पंक्तियों के लिए अपरिहार्य बना देता है। तीन पदों के शब्द युग्मों का प्रयोग सरक नहीं होता। धनञ्जय जी ने रक्त-मांस-मज्जा, प्रहर-दिवस-ऋतु, न्याय-समता-प्रेम आदि तीन पदीय युग्मों का प्रयोग सहजता से किया है।  यही नहीं वे चार पदीय शब्द-युग्म 'प्रेम-दया-करुणा- ममता' का प्रयोग कर अपनी शब्द-युग्म प्रयोग सामर्थ्य के पताका फहराते हैं।  

                            अनछुई उपमाएँ और नवता लिए रूपक गीतों की चारुता वृद्धि करते हैं।  बालू का कछुआ, घड़ियों का व्याकरण, भावों की चाबी, कुंठा का ताला, मन का बोझ, आशा के सुमन, देह का दीपक, मन का मृग छौना, पीड़ा के छान्दोग्य भाष्य जैसी अभिव्यक्तियाँ कथ्य को सहज ग्राह्य बनाकर पाठक के मन पर दस्तक देती हैं। भाव-विहग, दुख-दाने आदि रूपक स्वाभाविकता के साथ प्रयुक्त हुए हैं। प्रो. हरिमोहन ठीक ही लिखते हैं-  'धनञ्जय के गीतों में कोमल उपमानों की छटा निराली होती है. मन की सघनतम अनुभूतियाँ इस अनछुई कोमलता से अत्यंत सार्थक बन जाती हैं। यथा 'तितली के दो पंख मिले / फूटे सरगम के बोल', या 'ज्यों मरुथल में/कस्तूरी मृग घूम रहा हो/जिह्वा से/प्यासे अधरों को/चुम रहा हो' और 'नीड आँधियों के झोंकों से/उजड़ गया हो/पंखहीन बच्चा बुलबुल से/बिछुड़ गया हो।'

                            धनञ्जय जी के नवगीत नवता में पुरातनता और पुरातनता में नवता लिए हैं। इन नवगीतों को हर्ष से परहेज नहीं है। ये शोकगीत नहीं हैं। इनमें विसंगति का उल्लेख भी सुसंगति के आह्वान के लिए है। इन गीतों में यत्र-तत्र उद्दाम प्रेम की अमूर्त संवेदन है किन्तु मांसल-स्थूल अभिव्यक्ति नहीं है। ये प्रेम गीत न होते हुए भी प्रेम को जीते और पीते हैं। इस गीतों में विडंबनाओं के तम-तोम में टिमटिमाते दीपक की लौ की छटपटाहट और भोर के उगने की आहट है।  ये गीत निराश नहीं करते, हुलास जगाते हैं। धनञ्जय जी कवि प्रदीप की तरह सीधे-सीधे  'ये कहानी है दिए की और तूफान की' तो नहीं कहते पर उनके गीतों को जीवंत करते भाव विहग अमावसी निशांत मौन नहीं रहते, कलरव करते हैं, जीवन के सलिल प्रवाह के कलकल निनाद को आत्मार्पित और लोकार्पित करते हैं।  
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संपर्क- विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१ 
चलभाष ९४२५१८३२४४ , ईमेल salil.sanjiv@gmail.com    

                                       

                           
                            



व्यक्तिगत मुद्दे


व्यक्तिगत विषय या भावनाओं को विकसित करने के लिए गेय विषय की कल्पना की जाती है। तीव्र भावनाओं या विशिष्ट मनोदशाओं को व्यक्त करने की यह दमित इच्छा है। अपने हस्तक्षेप के माध्यम से, वह कवि की आंतरिक दुनिया को खोल देता है और एक अति संवेदनशील लोड को प्रकट करता है.

गीतात्मक विषय द्वारा वर्णित भावनाएं चरम पर हैं। उनमें से प्रेम, मृत्यु या लेखक को प्रभावित करने वाले किसी भी नुकसान का उल्लेख किया जा सकता है। कभी-कभी, अन्य भावनाओं का भी प्रतिनिधित्व किया जाता है, जब तक कि वे तीव्र हैं (उदासीनता, आशा, उदासी, आशावाद और घृणा, दूसरों के बीच).
आत्मीयता

कविता में गेय विषय व्यक्तिपरक होता है। एक कहानी के विपरीत, कविता कवि के आंतरिक आवेग को चित्रित करती है, जिसके कारण काव्य स्वयं एक प्रवक्ता बन जाता है.

यह विषय अमूर्त संज्ञा के उपयोग द्वारा व्यक्त किया गया है। उनमें से हम दूसरों के बीच लालसा, उदासी, खुशी और आनंद को उजागर कर सकते हैं.
वास्तविकता से दूर रहना

हालांकि यह सच है कि गीतात्मक कविता लेखक के भावनात्मक बोझ की वास्तविकता से संबंधित है, यह सांसारिक घटनाओं से दूर रहता है.

यह इस कारण से है कि गीत का विषय पर्यावरण के विवरणों को संबोधित नहीं करता है। ऐसे मामलों में जहां उसे ऐसा करने के लिए मजबूर किया जाता है, वह ऐसा केवल उन भावनाओं के संदर्भ में एक फ्रेम देने के लिए करता है जो वह प्रसारित करता है.
समय

गेय विषय हमेशा अपने आप को पहले व्यक्ति में व्यक्त करता है। यह काल्पनिक विषय एक दूसरे में उसके विवेक का ध्यान केंद्रित करता है जिस पर वह लेखक से आने वाले अपने भावनात्मक आरोपों को हटाता है। बाहरी उसे केवल अपने गीतों को आत्मसात करने के लिए प्रभावित करता है.

तो, यह एक "मोनो-केंद्रितता" में तब्दील हो जाता है। इसका मतलब यह है कि सभी अर्थ सामग्री एक ही व्यक्ति, उत्सर्जक (गीतात्मक विषय) के आसपास केंद्रित है। काम की सारी शक्ति, संक्षेप में, उस अद्वितीय बोलने वाले स्वयं के इशारे पर है.
गेय विषय का विश्लेषण

इस कविता में, वह गेय विषय या काव्यात्मक स्व जिसे कवि अल्बर्टी संदर्भित करता है, वह उस व्यक्ति का है जो 50 वर्ष की आयु में अपने जीवन का जायजा लेता है। यह संतुलन उन लोगों के खिलाफ तुलना के संदर्भ में ऐसा करता है, जो उसी उम्र में हैं, अन्य हैं.

कविता में कविता और अहंकार के बीच अंतर विकसित करके तुलना शुरू होती है। तुलना की वस्तु हरकत के साधन से संबंधित है.

गीतात्मक विषय इन तीन वस्तुओं का संदर्भ देता है क्योंकि शब्दार्थ वे किसी भी तरह से यात्रा की संभावना का प्रतिनिधित्व करते हैं। जबकि, विनम्र साइकिल द्वारा सीमित है, आप इसे केवल भूमि और महान सीमाओं के साथ कर सकते हैं। हालांकि, "पंखों के साथ" वाक्यांश को जोड़ने से अन्य तरीकों से उड़ान की रूपक संभावना मिलती है.

दूसरी ओर, कविता में एक निश्चित समय पर, काव्य स्वयं ही आत्मकथात्मक हो जाता है, जो कवि की काव्य कृति का संदर्भ देता है.
गेय विषय का विश्लेषण


कभी-कभी, गीतात्मक विषय कवि के व्यक्ति में आत्मकथात्मक स्थितियों में प्रवेश करने के लिए पुनर्जन्म लेता है। यह चिली कवि निनोरक पारा (1914-2018) की कविता का प्रसंग है।.

अर्क में, यह देखा गया है कि गीतात्मक विषय लेखक को आत्म-चित्र प्रस्तुत करने के लिए मानता है। हमेशा एक विडंबनापूर्ण स्वर में, यह एक हास्य पक्ष प्रदान करता है जो परिचितता की, निकटता का माहौल बनाने में योगदान देता है। कविता के गंभीर होने और अंतिम छंदों में गहरा होने के कारण यह स्वर गायब होने लगता है.





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