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शुक्रवार, 7 अप्रैल 2023

सोरठा, रेन, भुजंगप्रयात, ग़ज़ल, दोहा, समीक्षा, नदी काव्य, नवगीत, हिमकर श्याम, सुबोध श्री, पंकज मिश्र 'अटल', कुण्डलिया

सोरठे
जिनके कच्चे कान, उन्हें पकड़ कर खींचिए।
नानी आए याद, खूब मसलिए भींचिए।।
*
सलिल सम्हलकर बोल, बड़बोले नादान हैं।
खतरनाक वे मित्र, जिनके कच्चे कान हैं।।
*
बोला-गोला जान, लौट नहीं पाता कभी।।
जिनके कच्चे कान, करें भरोसा मत कभी।।
*
सोरठ दोहा
रैन भिगोए नैन, बैन न कटु कहती कभी।
कहती सो पा चैन, हो बेचैन न मनु सभी।।
रैन-रैनपति लग्न, तारागण बारात ले।
झूम-नाच मुद मग्न, मंत्र-वचन अंबर कहे।।
रैन न जाए जाग, लोरी उषा सुना रही।
तेरा अमर सुहाग, रवि लख आशीषे दिशा।।
शरत्पूर्णिमा रैन, लगे फिरंगन नार सी।
डूबे सागर नैन, मावस में हँस चंद्रमा।।
७-४-२०२३
***
मुक्तिका
आधार छंद/ वाचिक भुजंग प्रयात
मापनी 122 122 122 122
पदांत- हुए है
समांत - आए
*
सभी को खिलौना बनाए हुए है।
खुदी में खुदा को समाए हुए है।।

जिसे वोट लेना बताए हमें वो।
किए वायदे क्या निभाए हुए है।।

लिए हाथ में आइना देखता जो
खुदी पे खुदी को रिझाए हुए है।।

न कुर्सी, न सत्ता, न नेता, न दिल्ली।
हमें गाँव अपना लुभाए हुए है।।

सुनाती न दादी, न नानी कहानी।
सदी बचपना क्यों गँवाए हुए है।।

नहीं लोक की तंत्र में फ़िक्र बाकी।
करे जुल्म जुल्मी, छिपाए हुए है।।

नहीं बात जन की, करे बात मन की।
खुदी को खुदा खुद बनाए हुए है।।
७-४-२०२३
***
: साहित्य संस्कार : पुरुष विमर्श विशेषांक :
३० अप्रैल तक रचनाएँ आमंत्रित
जबलपुर। त्रैमासिक पत्रिका साहित्य संस्कार के पुरुष विमर्श विशेषांक हेतु हिंदी साहित्य की सभी विधाओं में स्तरीय रचनाएँ आमंत्रित है। रचनाएँ भेजने की अंतिम तिथि ३० अप्रैल २०२३ है। रचना पुरुष के अवदान, अनदेखी, उपेक्षा, शोषण आदि पहलू को केंद्र में रखकर हो। पत्रिका में गीत, नवगीत, क्षणिका, कविता, लघुकथा, निबंध, कहानी, लेख, लघुकथा तथा पुस्तक समीक्षा आदि प्रकाशित की जाती हैं। पुरुष अस्मिता पर संकट, उसके संरक्षण व संवर्धन हेतु किए जा रहे प्रयास व संघर्ष आदि का भी स्वागत है। रचनाओं के साथ मौलिक-अप्रकाशित होने का प्रमाणपत्र, रचनाकार का है रिजोल्यूशन चित्र, डाक का पता, ईमेल, चलभाष/वॉट्सऐप क्रमांक आदि ९४२५१८३२४४ पर वॉट्सऐप या salil.sanjiv@gmail.com पर ईमेल करिए।
***
दोहे
*
चेत सके चित् चैत में, साँस-साँस सत् साथ।
कहे हाथ से हाथ मिल, जिओ उठाकर माथ।।
*
हम नंदन वैशाख के, पके न; आया चैत।
द्वैत हृदय में बसाए, जिह्वा पर अद्वैत।।
*
महुआ महुआ के तले, मोहे गंध बिखेर।
ढाई आखर बाँचती, नैन मूँद अंधेर।।
*
चैती देख पलाश को, तन-मन रही निसार।
क्रुद्ध-तप्त सूरज जला, बरसाता अंगार।।
*
ज्यों की त्यों चादर धरी, हुए कबीरा खेत।
बन कमाल खलिहान ने, चादर धरी समेट।।
*
कल तक मालामाल थे, आज खेत कंगाल।
कल खाली खलिहान थे, अब हैं मालामाल।।
*
बूँद पसीने की गिरी, भू पर उपजी बाल।
देख फसल खलिहान में, मिहनत हुई निहाल।।
*
७-४-२०२२
***
नदी काव्य
*
स्वर्ण रेखा!
अब न हो निराश,
रही तट पर गूँज
आप आ गीता।
काश,
फिर मंगल
कर सके जंगल,
पा पुन: सीता।
अवध
और रजक
गँवा निष्ठा सत
मलिन कर सरयू
गँवा देते राम।
नदी मैया है
जमुन जल राधा,
काट भव बाधा
कान्ह को कर कृष्ण
युग बदलता है।
बीन कर कचरा
रोप पौधा एक
बना उसको वृक्ष
उगा फिर सूरज
हो न जो बीता।
सुन-सुना गीता।।
स्वर्ण रेखा = एक नदी
****
शब्दों की खोज*
*पागलपंती*
पागलपंती शब्द का उद्गम पागलपंथी संप्रदाय से हुआ है।
यह आंदोलन 1833 में अंग्रेज सेना की मदद से कुचला गया था। पागलपंथी आंदोलन करीम शाह और मुस्लिम फकीर मजनू शाह के अन्य शिष्यों द्वारा स्थापित किया गया था। मदारिया सूफी इस पंथ के नेता थे। 1813 में करीम शाह की मृत्यु के बाद, इसका नेतृत्व उनके बेटे टीपू शाह ने किया था। करीम शाह और टीपू शाह की माँ की पत्नी चांद बीबी ने भी समुदाय में एक प्रभावशाली स्थान हासिल किया, जिसे पीर-माता (संत-माता) के नाम से जाना जाता है।
(विकिपीडिया)
गोरखनाथ के बारह पंथ में पागलपंथी का उल्लेख मिलता है।
सत्यनाथी ,धर्मनाथी ,रामपंथी ,नाटेश्वरी, कन्हड़,कपिलानी, वैरागपंथी, माननाथी,आईपंथी, पागलपंथी,धजपंथी और गंगानाथी ।
कार्यशाला
कुंडलिया
*
मानव जब दानव बने, बढ़ता पापाचार ।
शरण राम की लीजिए, आएँ ले अवतार ।। -आशा शैली
आएँ ले अवतार, जगत की पीड़ा हरने
पापी प्रभु से जूझ, मरें भव सागर तरने
दुष्कर्मी थे मिला, विशेषण जिनको दानव
वर्ना थे वे हाड़-मांस के हम से मानव - संजीव
*
७-४-२०२०
***
कृति चर्चा:
युद्धरत हूँ मैं : जिजीविषा गुंजाती कविताएँ
*
(कृति विवरण: युद्घरत हूँ मैं, हिंदी गजल-काव्य-दोहा संग्रह, हिमकर श्याम, प्रथम संस्करण, २०१८, आईएसबीएन ९७८८१९३७१९०७७, आवरण बहुरंगी पेपरबैक, पृष्ठ २१२, मूल्य २७५रु., नवजागरण प्रकाशन, नई दिल्ली, कवि संपर्क बीच शांति एंक्लेव, मार्ग ४ ए, कुसुम विहार, मोराबादी, राँची ८३४००८, चलभाष ८६०३१७१७१०)
*
आदिकवि वाल्मीकि द्वारा मिथुनरत क्रौंच युगल के नर का व्याध द्वारा वध किए जाने पर क्रौंच के चीत्कार को सुनकर प्रथम काव्य रचना हो, नवजात शावक शिकारी द्वारा मारे जाने पर हिरणी के क्रंदन को सुनकर लिखी गई गजल हो, शैली की काव्य पंक्ति 'अवर स्वीटैस्ट सौंग्स आर दोस विच टैल अॉफ सैडेस्ट थॉट' या साहिर का गीत 'हैं सबसे मधुर वो गीत जिन्हें हम दर्द के सुर में गाते हैं' यह सुनिश्चित है कि करुणा और कविता का साथ चोली-दामन का सा है। दुनिया की कोई भी भाषा हो, कोई भी भू भाग हो आदमी की अनुभूति और अभिव्यक्ति समान होती है। पीड़ा, पीड़ा से मुक्ति की चेतना, प्रयास, संघर्ष करते मन को जब यह प्रतीति हो कि हर चुनौती, हर लड़ाई, हर कोशिश करते हुए अपने आप से 'युद्धरत हूँ मैं' तब कवि कविता ही नहीं करता, कविता को जीता है। तब उसकी कविता पिंगल और व्याकरण के मानक पर नहीं, जिंदगी के उतार-चढ़ाव पर बहती हुई नदी की उछलती-गिरती लहरों में निहित कलकल ध्वनि पर परखी जाती है।
हिमकर श्याम की कविता दिमाग से नहीं, दिल से निकलती है। जीवन के षट् राग (खटराग) में अंतर्निहित पंचतत्वों की तरह इस कृति की रचनाएँ कहनी हैं कुछ बातें मन की, युद्धरत हूँ मैं, आखिर कब तक?, झड़ता पारिजात तथा सबकी अपनी पीर पाँच अध्यायों में व्यवस्थित की गई हैं। शारदा वंदन की सनातन परंपरा के साथ बहुशिल्पीय गीति रचनाएँ अंतरंग भावनाओं से सराबोर है।
आरंभ में ३ से लेकर ६ पदीय अंतरों के गीत मन को बाँधते हैं-
सुख तो पल भर ही रहा, दुख से लंबी बात
खुशियाँ हैं खैरात सी, अनेकों की सौग़ात
उलझी-उलझी ज़िंदगी, जीना है दुश्वार
साँसों के धन पर चले जीवन का व्यापार
चादर जितनी हो बड़ी, उतनी ही औक़ात
व्यक्तिगत जीवन में कर्क रोग का आगमन और पुनरागमन झेल रहे हिमकर श्याम होते हुए भी शिव की तरह हलाहल का पान करते हुए भी शुभ की जयकार गुँजाते हैं-
दुखिया मन में मधु रस घोलो
शुभ-मंगल सब मिलकर बोलो
छंद नया है, राग नया है
होंठों पर फिर फाग नया है
सरगम के नव सुर पर डोलो
शूलों की सेज पर भी श्याम का कवि-पत्रकार देश और समाज की फ़िक्र जी रहा है।
मँहगा अब एतबार हो गया
घर-घर ही बाजार हो गया
मेरी तो पहचान मिट गई
कल का मैं अखबार हो गया
विरासत में अरबी-फारसी मिश्रित हिंदी की शब्द संपदा मसिजीवी कायस्थ परिवारों की वैशिष्ट्य है। हिमकर ने इस विरासत को बखूबी तराशा-सँभाला है। वे नुक़्तों, विराम चिन्हों और संयोजक चिन्ह का प्रयोग करते हैं।
'युद्धरत हूँ मैं' में उनके जिजीविषाजयी जीवन संघर्ष की झलक है किंतु तब भी कातरता, भय या शिकायत के स्थान पर परिचर्चा में जुटी माँ, पिता और मामा की चिंता कवि के फौलादी मनोबल की परिचायक है। जिद्दी सी धुन, काला सूरज, उपचारिकाएँ, किस्तों की ज़िंदगी, युद्धरत हूँ मैं, विष पुरुष, शेष है स्वप्न, दर्द जब लहराए आदि कविताएँ दर्द से मर्द के संघर्ष की महागाथाएँ हैं। तन-मन के संघर्ष को धनाभाव जितना हो सकता है, बढ़ाता है तथापि हिमकर के संकल्प को डिगा नहीं पाता। हिमकर का लोकहितैषी पत्रकार ईसा की तरह व्यक्तिगत पीड़ा को जीते हुए भी देश की चिंता को जीता है। सत्ता, सुख और समृद्धि के लिए लड़े-मरे जा रहे नेताओं, अफसरों और सेठों के हिमकर की कविताओं के पढ़कर मनुष्य होना सीखना चाहिए।
दम तोड़ती इस लोकतांत्रिक
व्यवस्था के असंख्य
कलियुगी रावणों का हम
दहन करना भी चाहें तो
आखिर कब तक
*
तोड़ेंगे हम चुप्पी
और उठा सकेंगे
आवाज़
सर्वव्यापी अन्याय के ख़िलाफ़
लड़ सकेंगे तमाम
खौफ़नाक वारदातों से
और अपने इस
निरर्थक अस्तित्व को
कोई अर्थ दे सकेंगे हम।
*
खूब शोर है विकास का
जंगल, नदी, पहाड़ की
कौन सुन रहा चीत्कार
अनसुनी आराधना
कैसी विडंबना
बिखरी सामूहिक चेतना
*
यह गाथा है अंतहीन संघर्षों की
घायल उम्मीदों की
अधिकारों की है लड़ाई
वजूद की है जद्दोजहद
समय के सत्य को जीते हुए, जिंदगी का हलाहल पीते हुए हिमकर श्याम की युगीन चिंताओं का साक्षी दोहा बना है।
सरकारें चलती रहीं, मैकाले की चाल
हिंदी अपने देश में, अवहेलित बदहाल
कैसा यह उन्माद है, सर पर चढ़ा जुनून
खुद ही मुंसिफ तोड़ते, बना-बना कानून
चाक घुमाकर हाथ से, गढ़े रूप आकार
समय चक्र धीमा हुआ, है कुम्हार लाचार
मूर्ख बनाकर लोक को, मौज करे ये तंत्र
धोखा झूठ फरेब छल, नेताओं के मंत्र
विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर द्वारा प्रकाशित सहयोगाधारित दोहा शतक मंजूषा के भाग २ 'दोहा सलिला निर्मला' में सम्मिलित होने के लिए मुझसे दोहा लेखन सीखकर श्याम ने मुझे गत ५ दशकों की शब्द साधना का पुरस्कार दिया है। सामान्यतः लोग सुख को एकाकी भोगते और दुख को बाँटते हैं किंतु श्याम अपवाद है। उसने नैकट्य के बावजूद अपने दर्द और संघर्ष को छिपाए रखा।इस कृति को पढ़ने पर ही मुझे विद्यार्थी श्याम में छिपे महामानव के जीवट की अनुभूति हुई।
इस एक संकलन में वस्तुत: तीन संकलनों की सामग्री समाविष्ट है। अशोक प्रियदर्शी ने ठीक ही कहा है कि श्याम की रचनाओं में विचार की एकतानता तथा कसावट है और कथन भंगिमा भी प्रवाही है। कोयलांचल ही नहीं देश के लब्धप्रतिष्ठ साहित्यकार हरेराम त्रिपाठी 'चेतन' के अनुसार 'रचनाकार अपनी सशक्त रचनाओं से अपने पूर्व की रचनाओं के मापदंडों को झाड़ता और उससे आगे की यात्रा को अधिक जिग्यासा पूर्ण बनाकर तने हुए सामाजिक तंतुओं में अधिक लचीलापन लाता है। मानव-मन की जटिलताओं के गझिन धागों को एक नया आकार देता है।'
इन रचनाओं से गुजरने हुए बार-बार यह अनुभूति होना कि किसी और को नहीं अपने आपको पढ़ रहा हूँ, अपने ही अनजाने मैं को पहचानने की दिशा में बढ़ रहा हूँ और शब्दों की माटी से समय की इबारत गढ़ रहा हूँ। मैं श्याम की जिजीविषा, जीवट, हिंदी प्रेम और रचनाधर्मिता को नमन करता हूँ।
हर हिंदी प्रेमी और सहृदय इंसान श्याम को जीवन संघर्ष का सहभागी और जीवट का साक्षी बन सकता है इस कृति को खरीद-पढ़कर। मैं श्याम के स्वस्थ्य शतायु जीवन की कामना करता हुए आगामी कृतियों की प्रतीक्षा करता हूँ।
७-४-२०१९
***
षट्पदी
बीस साल में जेल है, दो दिन में है बेल.
पकड़ो-छोडो में हुआ, चोर-पुलिस का खेल.
चोर-पुलिस का खेल, पंगु है न्याय व्यवस्था,
लाभ मिले शक का, सुधरे किस तरह अवस्था?
कहे सलिल कविराय, छूटता है क्यों रईस?
मारे-कुचले फिर भी नायक?, हाय! यही है टीस
**
***
पुस्तक सलिला-
‘सरहदें’ कवि कलम की चाह ले कर सर हदें
[पुस्तक परिचय- सरहदें, ISBN 978.93.83969.72.2, कविता संग्रह, सुबोध श्रीवास्तव, प्रथम संस्करण २०१६, आकार २१. ५ से.मी. x १४ से.मी., आवरण बहुरंगी पेपरबैक लेमिनेटेड, मूल्य १२० रु., अंजुमन प्रकाशन, ९४२ आर्य कन्या चैराहा, मुटठीगंज, इलाहाबाद २११००३, ९४५३००४३९८, anjumanprakashan@gmail.com , कवि संपर्कः माॅडर्न विला, १०/५१८ खलासी लाइंस, कानपुर २०८००१, चलभाष ०९३०५५४०७४५, subodh158@gmail.com ।]
0
मूल्यों के अवमूल्यन, नैतिकता के क्षरण तथा संबंधों के हनन को दिनानुदिन सशक्त करती तथाकथित आधुनिक जीवनशैली विसंगतियों और विडंबनाओं के पिंजरे में आदमी को दम तोड़ने के लिये विवश कर रही है। कवि-पत्रकार सुबोध श्रीवास्तव की कविताएॅं बौद्धिक विलास नहीं, पारिस्थितिक जड़ता की चट्टान को तोड़ने में जुटी छेनी की तरह हैं। आम आदमी अवश्वास और निजता की हदों में कैद होकर घुट रहा है। सुबोध जी की कविताएॅं ऐसी हदों को सर करने की कोशिश से उपजी हैं। कवि सुबोध का पत्रकांर उन्हें वायवी कल्पनाओं से दूरकर जमीनी सामाजिकता सम जोड़ता है। उनकी कविताएॅं अनुभूत की सहज-सरल अभिव्यक्ति करती हैं। वर्तमान नकारात्मक पत्रकारिता के समय में एक पत्रकांर को उसका कवि आशावादी बनाता है।
सब कुछ खत्म/नहीं होता
सब कुछ/खत्म हो जाने के बाद भी
बाकी रह जाता है/कहीं कुछ
फिर सृजन को।
हाॅं, एक कतरा उम्मीद भी/खड़ी कर सकती है
हौसले और विष्वास की/बुलंद इमारत।
अपने नाम के अनुरूप् सुबोध ने कविताओं को सहज बोधगम्य रखा है। वे आतंक के सरपरस्तों को न तो मच्छर के दहाडने की तरह नकली चुनौती देते हैं, न उनके भय से नतमस्तक होते हैं अपितु उनकी साक्षात शांति की शक्ति और हिंसा की निस्सारिता से कराते हैं-
तुम्हें/भले ही भाती हो
अपने खेतों में खड़ी/बंदूकों की फसल
लेकिन-/मुझे आनंदित करती है
पीली-पीली सरसों/और/दूर तक लहलहाती
गेहूॅं की बालियों से उपजता/संगीत।
तुम्हारे बच्चों को/शायद
लोरियों सा सुख भी देती होगी
गोलियों की तड़तड़ाहट/लेकिन/सुनो
कभी खाली पेट नहीं भरा करती
बंदूकें/सिर्फ कोख उजाड़ती हैं।
सुबोध की कविताएॅं आलंकारिकता का बहिष्कार नहीं करतीं, नकारती भी नहीं पर सुरुचिपूर्ण तरीके कथ्य और भाषा की आवश्यकता के संप्रेषण को अधिक प्रभावी बनाने के लिये उपकरण की तरह अनुरूप उपयोग करती हैं।
उसके बाद/फिर कभी नहीं मिले/हम-तुम
लेकिन/मेरी जि़ंदगी को/महका रही है
अब तक/खुशबू/तेरी याद की
क्योकि/यहाॅं नहीं है/कोई सरहद।
‘अहसास’ शीर्षक अनुभाग में संकलित प्रेमपरक रचनाएॅं लिजलिजेपन से मुक्त और यथार्थ के समीप हैं।
आॅंगन में/जरा सी धूप खिली
मुंडेर पे बैठी/ चिडि़या ने/फुदककर
पंखों में छिपा मुॅंह/बाहर निकाला
और/चहचहाई/तो यूॅं लगा/कि तुम आ गये।
कवि मानव मन की गहराई से पड़ताल कर, कड़वे सच को भी सहजता और अपनेपन से कह पाता है-
जितना/खौफनाक लगता है/सन्नाटा
उससे भी कहीं ज्यादा/डर पैदा करता है
कोई/खामोश आदमी।
दोनों ही स्थितियाॅं/तकरीबन एक सी हैं
फर्क सिर्फ इतना है कि/सन्नाटा/टूटता है तो
फिर पहले जैसा हो जाता है/माहौल/लेकिन
चुप्पी टूटने पे/अक्सर/बदला-बदला सा
नज़र आता है/आदमी।
संग्रह के आकर्षण में डाॅ. रेखा निगम, अजामिल तथा अशोक शुक्ल 'अंकुश' के चित्रों ने वृद्धि की है। प्रतिष्ठित कलमकार दिविक रमेश जी की भूमिका सोने में सुहागे की तरह है।
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रसानंद दे छंद नर्मदा २४: ६-४-२०१६
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
दोहा, सोरठा, रोला, आल्हा, सार, ताटंक, रूपमाला (मदन), चौपाई, हरिगीतिका, उल्लाला,गीतिका,घनाक्षरी, बरवै, त्रिभंगी, सरसी, छप्पय तथा भुजंगप्रयात छंदों से साक्षात के पश्चात् अब मिलिए कुण्डलिनी छंद से.
कुण्डलिनी का वृत्त है दोहा-रोला युग्म
*
कुण्डलिनी हिंदी के कालजयी और लोकप्रिय छंदों में अग्रगण्य है। एक दोहा (दो पंक्तियाँ, १३-११ पर यति, विषम चरण के आदि में जगण वर्जित, सम चरणान्त गुरु-लघु या लघु- लघु-लघु) तथा एक रोला (चार पंक्तियाँ, ११-१३यति, विषम चरणान्त गुरु-लघु या लघु- लघु-लघु, सम चरण के आदि में जगण वर्जित,सम चरण के अंत में २ गुरु, लघु-लघु-गुरु, या ४ लघु) मिलकर षट्पदिक (छ: पंक्ति) कुण्डलिनी छंद को आकार देते हैं। दोहा और रोला की ही तरह कुण्डलिनी भी अर्ध सम मात्रिक छंद है। दोहा का अंतिम या चौथा चरण रोला प्रथम चरण बनाकर दोहराया जाता है। दोहा का प्रारंभिक शब्द, शब्द-समूह या शब्दांश रोला का अंतिम शब्द, शब्द-समूह या शब्दांश होता है। प्रारंभिक और अंतिम शब्द, शब्द-समूह या शब्दांश की समान आवृत्ति से ऐसा प्रतीत होता है मानो जहाँ से आरम्भ किया वही लौट आये, इस तरह शब्दों के एक वर्तुल या वृत्त की प्रतीति होती है। सर्प जब कुंडली मारकर बैठता है तो उसकी पूँछ का सिरा जहाँ होता है वहीं से वह फन उठाकर चतुर्दिक देखता है।
१. कुण्डलिनी छंद ६ पंक्तियों का छंद है जिसमें एक दोहा और एक रोला छंद होते हैं।
२. दोहा का अंतिम चरण रोला का प्रथम चरण होता है।
३. दोहा का आरंभिक शब्द, शब्दांश, शब्द समूह या पूरा चरण रोला के अंत में प्रयुक्त होता है।
४. दोहा तथा रोला अर्ध सम मात्रिक छंदहैं अर्थात इनके आधे-आधे हिस्सों में समान मात्राएँ होती हैं।
अ. दोहा में २ पंक्तियाँ होती हैं, प्रत्येक के २ चरणों में १३+११=२४ मात्राएँ होती हैं. दोनों पंक्तियों में विषम (पहले, तीसरे) चरण में १३ मात्राएँ तथा सम (दूसरे, चौथे) चरण में ११ मात्राएँ होती हैं।
आ. दोहा के विषम चरण के आदि में जगण (जभान, लघुगुरुलघु जैसे अनाथ) वर्जित होता है। शुभ शब्द जैसे विराट अथवा दो शब्दों में जगण जैसे रमा रमण वर्जित नहीं होते।
इ. दोहा के विषम चरण का अंत रगण (राजभा गुरुलघुगुरु जैसे भारती) या नगण (नसल लघुलघुलघु जैसे सलिल) से होना चाहिए।
ई. दोहा के सम चरण के अंत में गुरुलघु (जैसे ईश) होना आवश्यक है।
उ. दोहा के लघु-गुरु मात्राओं की संख्या के आधार पर २३ प्रकार होते हैं।
उदाहरण: समय-समय की बात है, समय-समय का फेर।
जहाँ देर है वहीं है, सच मानो अंधेर।।
५. रोला भी अर्ध सम मात्रिक छंद है अर्थात इसके आधे-आधे हिस्सों में समान मात्राएँ होती हैं।
क. रोला में ४ पंक्तियाँ होती हैं, प्रत्येक के २ चरणों में ११+१३=२४ मात्राएँ होती हैं। दोनों पंक्तियों में विषम (पहले, तीसरे, पाँचवे, सातवें) चरण में ११ मात्राएँ तथा सम (दूसरे, चौथे, छठवें, आठवें) चरण में १३ मात्राएँ होती हैं।
का. रोला के विषम चरण के अंत में गुरुलघु (जैसे ईश) होना आवश्यक है।
कि. रोला के सम चरण के आदि में जगण (जभान, लघुगुरुलघु जैसे अनाथ) वर्जित होता है। शुभ शब्द जैसे विराट अथवा दो शब्दों में जगण जैसे रमा रमण वर्जित नहीं होते।
की. रोला के सम चरण का अंत रगण (राजभा गुरुलघुगुरु जैसे भारती) या नगण (नसल लघुलघुलघु जैसे सलिल) से होना चाहिए।
उदाहरण: सच मानो अंधेर, मचा संसद में हुल्लड़।
हर सांसद को भाँग, पिला दो भर-भर कुल्हड़।।
भाँग चढ़े मतभेद, दूर हो करें न संशय।
नाचें गायें झूम, सियासत भूल हर समय।।
६. कुण्डलिनी:
समय-समय की बात है, समय-समय का फेर
जहाँ देर है वहीं है, सच मानो अंधेर
सच मानो अंधेर, मचा संसद में हुल्लड़
हर सांसद को भाँग, पिला दो भर-भर कुल्हड़
भाँग चढ़े मतभेद, दूर हो करें न संशय
नाचें गायें झूम, सियासत भूल हर समय
कुण्डलिया है जादुई, छन्द श्रेष्ठ श्रीमान।
दोहा रोला का मिलन, इसकी है पहिचान।।
इसकी है पहिचान, मानते साहित सर्जक।
आदि-अंत सम-शब्द, साथ बनता ये सार्थक।।
लल्ला चाहे और, चाहती इसको ललिया।
सब का है सिरमौर छन्द, प्यारे, कुण्डलिया।। - नवीन चतुर्वेदी
कुण्डलिया छन्द का विधान उदाहरण सहित
कुण्डलिया है जादुई
२११२ २ २१२ = १३ मात्रा / अंत में लघु गुरु के साथ यति
छन्द श्रेष्ठ श्रीमान।
२१ २१ २२१ = ११ मात्रा / अंत में गुरु लघु
दोहा रोला का मिलन
२२ २२ २ १११ = १३ मात्रा / अंत में लघु लघु लघु [प्रभाव लघु गुरु] के साथ यति
इसकी है पहिचान।।
११२ २ ११२१ = ११ मात्रा / अंत में गुरु लघु
इसकी है पहिचान,
११२ २ ११२१ = ११ मात्रा / अंत में लघु के साथ यति
मानते साहित सर्जक।
२१२ २११ २११ = १३ मात्रा
आदि-अंत सम-शब्द,
२१ २१ ११ २१ = ११ मात्रा / अंत में लघु के साथ यति
साथ, बनता ये सार्थक।।
२१ ११२ २ २११ = १३ मात्रा
लल्ला चाहे और
२२ २२ २१ = ११ मात्रा / अंत में लघु के साथ यति
चाहती इसको ललिया।
२१२ ११२ ११२ = १३ मात्रा
सब का है सिरमौर
११ २ २ ११२१ = ११ मात्रा / अंत में लघु के साथ यति
छन्द प्यारे कुण्डलिया।।
२१ २२ २११२ = १३ मात्रा
उदाहरण -
०१. भारत मेरी जान है, इस पर मुझको नाज़।
नहीं रहा बिल्कुल मगर, यह कल जैसा आज।।
यह कल जैसा आज, गुमी सोने की चिड़िया।
बहता था घी-दूध, आज सूखी हर नदिया।।
करदी भ्रष्टाचार- तंत्र ने, इसकी दुर्गत।
पहले जैसा आज, कहाँ है? मेरा भारत।। - राजेंद्र स्वर्णकार
०२. भारत माता की सुनो, महिमा अपरम्पार ।
इसके आँचल से बहे, गंग जमुन की धार ।।
गंग जमुन की धार, अचल नगराज हिमाला ।
मंदिर मस्जिद संग, खड़े गुरुद्वार शिवाला ।।
विश्वविजेता जान, सकल जन जन की ताकत ।
अभिनंदन कर आज, धन्य है अनुपम भारत ।। - महेंद्र वर्मा
०३. भारत के गुण गाइए, मतभेदों को भूल।
फूलों सम मुस्काइये, तज भेदों के शूल।।
तज भेदों के, शूल / अनवरत, रहें सृजनरत।
मिलें अँगुलिका, बनें / मुष्टिका, दुश्मन गारत।।
तरसें लेनें. जन्म / देवता, विमल विनयरत।
'सलिल' पखारे, पग नित पूजे, माता भारत।।
(यहाँ अंतिम पंक्ति में ११ -१३ का विभाजन 'नित' ले मध्य में है अर्थात 'सलिल' पखारे पग नि/त पूजे, माता भारत में यति एक शब्द के मध्य में है यह एक काव्य दोष है और इसे नहीं होना चाहिए। 'सलिल' पखारे चरण करने पर यति और शब्द एक स्थान पर होते हैं, अंतिम चरण 'पूज नित माता भारत' करने से दोष का परिमार्जन होता है।)
०४. कंप्यूटर कलिकाल का, यंत्र बहुत मतिमान।
इसका लोहा मानते, कोटि-कोटि विद्वान।।
कोटि-कोटि विद्वान, कहें- मानव किंचित डर।
तुझे बना ले, दास अगर हो, हावी तुझ पर।।
जीव श्रेष्ठ, निर्जीव हेय, सच है यह अंतर।
'सलिल' न मानव से बेहतर कोई कंप्यूटर।।
('सलिल' न मानव से बेहतर कोई कंप्यूटर' यहाँ 'बेहतर' पढ़ने पर अंतिम पंक्ति में २४ के स्थान पर २५ मात्राएँ हो रही हैं। उर्दूवाले 'बेहतर' या 'बिहतर' पढ़कर यह दोष दूर हुआ मानते हैं किन्तु हिंदी में इसकी अनुमति नहीं है। यहाँ एक दोष और है, ११ वीं-१२ वीं मात्रा है 'बे' है जिसे विभाजित नहीं किया जा सकता। 'सलिल' न बेहतर मानव से' करने पर अक्षर-विभाजन से बच सकते हैं पर 'मानव' को 'मा' और 'नव' में तोड़ना होगा, यह भी निर्दोष नहीं है। 'मानव से अच्छा न, 'सलिल' कोई कंप्यूटर' करने पर पंक्ति दोषमुक्त होती है।)
०५. सुंदरियाँ घातक 'सलिल', पल में लें दिल जीत।
घायल करें कटाक्ष से, जब बनतीं मन-मीत।।
जब बनतीं मन-मीत, मिटे अंतर से अंतर।
बिछुड़ें तो अवढरदानी भी हों प्रलयंकर।।
असुर-ससुर तज सुर पर ही रीझें किन्नरियाँ।
नीर-क्षीर बन, जीवन पूर्ण करें सुंदरियाँ।।
(इस कुण्डलिनी की हर पंक्ति में २४ मात्राएँ हैं। इसलिए पढ़ने पर यह निर्दोष प्रतीत हो सकती है। किंतु यति स्थान की शुद्धता के लिये अंतिम ३ पंक्तियों को सुधारना होगा।
'अवढरदानी बिछुड़ / हो गये थे प्रलयंकर', 'रीझें सुर पर असुर / ससुर तजकर किन्नरियाँ', 'नीर-क्षीर बन करें / पूर्ण जीवन सुंदरियाँ' करने पर छंद दोष मुक्त हो सकता है।)
०६. गुन के गाहक सहस नर, बिन गन लहै न कोय।
जैसे कागा-कोकिला, शब्द सुनै सब कोय।।
शब्द सुनै सब कोय, कोकिला सबै सुहावन।
दोऊ को इक रंग, काग सब लगै अपावन।।
कह 'गिरधर कविराय', सुनो हे ठाकुर! मन के।
बिन गुन लहै न कोय, सहस नर गाहक गुन के।। - गिरधर
कुण्डलिनी छंद का सर्वाधिक और निपुणता से प्रयोग करनेवाले गिरधर कवि ने यहाँ आरम्भ के अक्षर, शब्द या शब्द समूह का प्रयोग अंत में ज्यों का त्यों न कर, प्रथम चरण के शब्दों को आगे-पीछे कर प्रयोग किया है। ऐसा करने के लिये भाषा और छंद पर अधिकार चाहिए।
०७. हे माँ! हेमा है कुशल, खाकर थोड़ी चोट
बच्ची हुई दिवंगता, थी इलाज में खोट
थी इलाज में खोट, यही अच्छे दिन आये
अभिनेता हैं खास, आम जन हुए पराये
सहकर पीड़ा-दर्द, जनता करती है क्षमा?
समझें व्यथा-कथा, आम जन का कुछ हेमा
यहाँ प्रथम चरण का एक शब्द अंत में है किन्तु वह प्रथम शब्द नहीं है।
०८. दल का दलदल ख़त्म कर, चुनिए अच्छे लोग।
जिन्हें न पद का लोभ हो, साध्य न केवल भोग।।
साध्य न केवल भोग, लक्ष्य जन सेवा करना।
करें देश-निर्माण, पंथ ही केवल वरना।।
कहे 'सलिल' कवि करें, योग्यता को मत ओझल।
आरक्षण कर ख़त्म, योग्यता ही हो संबल।।
यहाँ आरम्भ के शब्द 'दल' का समतुकांती शब्द 'संबल' अंत में है। प्रयोग मान्य हो या न हो, विचार करें।
०९. हैं ऊँची दूकान में, यदि फीके पकवान।
जिसे- देख आश्चर्य हो, वह सचमुच नादान।।
वह सचमुच नादान, न फल या छाँह मिलेगी।
ऊँचा पेड़ खजूर, व्यर्थ- ना दाल गलेगी।।
कहे 'सलिल' कविराय, दूर हो ऊँचाई से।
ऊँचाई दिख सके, सदा ही नीचाई से।।
यहाँ प्रथम शब्द 'है' तथा अंत में प्रयुक्त शब्द 'से' दोनों गुरु हैं। प्रथम दृष्टया भिन्न प्रतीत होने पर भी दोनों के उच्चारण में लगनेवाला समय समान होने से छंद निर्दोष है।
***

***
नवगीत-
*
एसिड की
शीशी पर क्यों हो
नाम किसी का?
*
अल्हड, कमसिन, सपनों को
आकार मिल रहा।
अरमानों का कमल
यत्न-तालाब खिल रहा।
दिल को भायी कली
भ्रमर गुंजार करे पर-
मौसम को खिलना-हँसना
क्यों व्यर्थ खल रहा?
तेज़ाबी बारिश की जिसने
पात्र मौत का-
एसिड की
शीशी पर क्यों हो
नाम किसी का?
*
व्यक्त असहमति करना
क्या अधिकार नहीं है?
जबरन मनमानी क्या
पापाचार नहीं है?
एसिड-अपराधी को
एसिड से नहला दो-
निरपराध की पीर
तनिक स्वीकार नहीं है।
क्यों न किया अहसास-
पीड़ितों की पीड़ा का?
एसिड की
शीशी पर क्यों हो
नाम किसी का?
*
अपराधों से नहीं,
आयु का लेना-देना।
नहीं साधना स्वार्थ,
सियासत-नाव न खेना।
दया नहीं सहयोग
सतत हो, सबल बनाकर-
दण्ड करे निर्धारित
पीड़ित जन की सेना।
बंद कीजिए नाटक
खबरों की क्रीड़ा का
एसिड की
शीशी पर क्यों हो
नाम किसी का?
***
पुस्तक सलिला-
‘‘बोलना सख्त मना है’’ नवगीत की विसंगतिप्रधान भावमुद्रा
[पुस्तक परिचय- बोलना सख्त मना है, ISBN 978-93-85942-09-9, नवगीत संग्रह, पंकज मिश्र ‘अटल’,वर्ष २०१६, आकार २०.५ से.मी. x ७.५ से.मी., आवरण बहुरंगी पेपरबैक लेमिनेटेड, मूल्य १०० रु., बोधि प्रकाशन एफ ७७ ए सेक्टर ९, मार्ग ११, करतारपुरा औद्योगिक क्षेत्र, बाईस गोदाम, जयपुर ३०२००६, ०१४१ २५०३९८९, bodhiprakashan@gmail.com, कवि संपर्क सृजन, कुमरा गली, रोशनगंज, शाहजहाॅंपुर २४१००१, चलभाष 99366031136 ।]
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साहित्य को सशक्त हथियार और पारंपरिकता को तोड़ने व वैचारिक क्रांति करने का उद्देश्य मात्र माननेवाले रचनाकार पंकज मिश्र की इस नवगीत संग्रह से पूर्व दो पुस्तकें ‘चेहरों के पार’ तथा ‘नए समर के लिये’ प्रकाशित हो चुकी र्हैं। विवेच्य संकलन की भूमिका में नवगीतकार अपनी वैचारिक प्रतिबद्वता से अवगत कराकर पाठक को रचनाओं में अंतप्र्रवहित भावों का पूर्वाभास करा देता है। उसके अनुसार ‘‘माध्यम महत्वपूर्ण तो है, पर उतना नहीं जितना कि वह विचार, लक्ष्य या मंतव्य जो समाज को चैतन्यता से पूर्ण कर दे, उसे जागृत कर दे और सकारात्मकता के साथ आगे पढ़ने को बाध्य कर दे। मैंने अपने नवगीतों में अपने आस-पास जो घटित हो रहा है, जो मैं महसूस कर रहा हूॅं और जो भोग रहा हूॅं, उस भोगे हुए यथार्थ को कथ्य रूप में अभिव्यक्ति प्रदान की है।’’ इसका अर्थ यह हुआ कि रचनाकार केवल भोगे हुए को अभिव्यक्ति दे सकता है, अनुभूत को नहीं। तब किसी अनपढ, किसी शोषित़ के दर्द की अभ्व्यिक्ति कोई पढ़ा-लिखा यंा अशोषित कैसे कर सकतंा है? तब कोई स्त्रीए पुरुष की, कोई प्रेमचंद किसी धीसू या जालपा की बात नहीं कह सकेगा क्योंकि उसने वह भोगा नहीं, देखा मात्र है। यह सोच एकांगी ही नहीं गलत भी है। वस्तुतः अभिव्यक्त करने के लिये भोगना जरूरी नहीं, अनुभूति को भी अभिव्यक्त किया जा सकता है। अतः भोगे हुए यथार्थ कथ्य रूप में अभिव्यक्त करने का दावा अतिशयोक्ति ही हो सकता है।
कवि के अनुसार उसके आस-पास वर्जनाएॅं, मूल्य नहीं मूल्यों की चर्चाएॅं, खोखलेपन और दंभ को पूर्णता मान भटकती-बिखरती पीढ़ी, तिक्त-चुभते संवाद और कथन, खीझ और बासीपन, अति तार्किकता, दम तोड़ती भावनाएॅं, खुद को खोती-चुकती अवसाद धिरी भीड़ है और इसी को से जन्मे हैं उसके नवगीत। यह वक्तव्य कुछ सवाल खड़े करता है. क्या समाज में केवल नकारात्मकता ही है, कुछ भी-कहीं भी सकारात्मक नहीं है? इस विचार से सहमति संभव नहीं क्योंकि समाज में बहुत कुछ अच्छा भी होता है। यह अच्छा नवगीत का विषय क्यों नहीं होे सकता? किसी एक का आकलन सब के लिये बाध्यता कैसे हो सकता है? कभी एक का शुभ अन्य के लिये अशुभ हो सकता है तब रचनाकार किसी फिल्मकार की तरह एक या दोनों पक्षों की अनुभूतियों को विविध पात्रों के माध्यम से व्यक्त कर सकता है।
कवि की अपेक्षा है कि उसके नवगीत वैचारिक क्रांति के संवाहक बनें। क्रांति का जन्म बदलाव की कामना से होता है, क्रांति को ताकत त्याग-बलिदान-अनुशासन से मिलती है। क्रांति की मशाल आपसी भरोसे से रौशन होती है किंतु इन सबकी कोई जगह इन नवगीतों में नहीं है। गीत से जन्में नवगीत में शिल्प की दृष्टि से मुखड़ा-अंतरा, अंतरों में सामान्यतः समान पंक्ति संख्या और पदभार, हर अंतरे के बाद मुखड़े के समान पदभार व समान तुक की पंक्तियाॅं होती हैं। अटल जी ने इस शिल्पानुशासन से रचनाओं को गति-यति युक्त कर गेय बनाया है। हिंदी में स्नातकोत्तर कवि अभिव्यक्ति सामथ्र्य का धनी है। उसका शब्द-भंडार समृद्ध है। कवि का अवचेतन अपने परिवेश में प्रचलित शब्दों को बिना किसी पूर्वाग्रह के ग्रहण करता है इसलिए भाषा जीवंत है। भाषा को प्राणवान बनाने के लिये कवि गुंफित, तिक्त, जलजात, कबंध, यंत्रवत, वाष्प, वीथिकाएॅं जैसे संस्क्रतनिष्ठ शब्द, दुआरों, सॅंझवाती, आखर आदि देशज शब्द, हाकिम, जि़ंदगी, बदहवास, माफिक, कुबूल, उसूल जैसे उर्दू शब्द तथा फुटपाथ, कल्चर, पेपरवेट, पेटेंट, पिच, क्लासिक, शोपीस आदि अंग्रेजी शब्द यथास्थान स्वाभाविकता के साथ प्रयोग करता है। अहिंदी शब्दों का प्रयोग करतें समय कवि सजगतापूर्वक उन्हें हिंदी शब्दों की तरह वापरता है। पेपरों तथा दस्तावेजों जैसे शब्दरूप सहजता से प्रयोग किये गये हैं।
हिंदी मातृभाषा होने के कांरण कवि की सजगता हटी और त्रुटि हुई। शीष, क्षितज जैसी मुद्रण त्रुटियाॅं तथा अनुनासिक तथा अनुस्वार के प्रयोग में त्रुटि खटकती है। संदर्भ का उच्चारण सन्दर्भ है तो हॅंसकर को अहिंदीभाषी हन्सकर पढ़कर हॅंसी का पात्र बन जाएगा। हॅंस और हंस का अंतर मिट जाना दुखद है। इसी तरह बहुवचन शब्दों में कहीं ‘एॅं’ का प्रयोग है, कहीं ‘यें’ का देखें ‘सभ्यताएॅं’और ‘प्रतिमायें’। कवि ने गणित से संबंधित शब्दों का प्रयौग किया है। ये प्रयोग अभिव्यक्ति को विशिष्ट बनाते हैं किंतु सटीकता भी चाहते हैं। ‘अपनापन /घिर चुका आज / फिर से त्रिज्याओं में’ के संबंध में तथ्य यह है कि त्रिज्या वृत के केंद्र से परिधि तक सीधी लकीर होती है, त्रिज्याएॅं चाप के बिना किसी को घेर नहीे सकतीं। ‘बन चुकी है /परिधि सारी /विवशतायें’, गूॅंगी /चुप्पी में लिपटी /सारी त्रिज्याएॅं हैं’, घुट-घुटकर जीता है नगरीय भूगोल, बढ़ने और घटनें में ही घुटती सीमाएॅं है, रेखाएॅं /घुलकर क्यों /तिरता प्रतिबिंब बनीं?’, ‘धुॅंधलाए /फलकों पर/आधा ही बिंब बनीं’, ‘आकांश बनने /में ही उनके/कट गए डैने’, ‘ड्योढि़याॅं/हॅंसती हैं/आॅंगन को’, इतिहास के /सीने पे सिल/बोते रहे’, ‘लड़ रहीं/लहरें शिलाओं से’, लिपटकर/हॅंसती हवाओं से’, ‘एक बौना/सा नया/सूरज उगाते हम’जैसे प्रयोग ध्यान आकर्षित करते हैं किंतु अधिक सजगता भी चाहते हैं।
अटल जी के ये नवगीत पारंपरिक कथ्य को तोड़ते और बहुत कुछ जोड़ते हैं। वैचारिक प्रतिबद्धता पर सहज अनुभूतिजन्य अभिव्यक्ति को वरीयता होने पर रस औ भाव पक्ष गीत को अधिक प्रभावी होंगे। यह संकलन अटल जी से और अधिक की आशा जगाता है। नवगीतप्रेमी इसे पढ़कर आनंदित होगे। सुरुचिपूर्ण आवरण, मुद्रण तथा उपयुक्त मूल्य के प्रति प्रकाशक का सजग होना स्वागतेय है।
७-४-२०१६


***

मुक्तक:


.
मान किया, अभिमान किया, अपमान किया- हरि थे मुस्काते
सौंवी न हो गलती यह भी प्रभु आप ही आप रहे चेताते
काल चढ़ा सिर पर न रुका, तब चक्र सुदर्शन कृष्ण चलाते
शीश कटा भू लोट रहा था, प्राण गए हरि में ही समाते
***
मुक्तिका:

.
गैर से हमको क्यों गिला होगा?
आइना सामने मिला होगा
झील सी आँख जब भरी होगी
कोई उसमें कमल खिला होगा
गर हकीकत न बोल पायी तो
होंठ उसने दबा-सिला होगा
कब तलक चैट से मिलेगा वह
क्या कभी खत्म सिलसिला होगा
हाय! ऐसे न मुस्कुराओ तुम
ढह गया दिल का हर किला होगा
झोपड़ी खाट धनुष या लाठी
जब बनी बाँस ही छिला होगा
काँप जाते हैं कलश महलों के
नीव पत्थर कोई हिला होगा
***
मुक्तिका:
.
पल में न दिल में दिल को बसाने की बात कर
जो निभ सके वो नाता निभाने की बात कर
मुझको तो आजमा लिया, लूँ मैं भी आजमा
तू अब न मुझसे पीछा छुड़ाने की बात कर
आना है मुश्किलात को आने भी दे ज़रा
आ जाए तो महफिल से न जाने की बात कर
बचना 'सलिल' वो चाहता मिलना तुझे गले
पड़ जाए जो गले तो भुलाने की बात कर
बेचारगी और तीरगी से हारना न तुम
यायावरी को अपनी जिताने की बात कर
...
क्षणिका
बाँस
.
ज़िन्दगी भर
नेह-नाते
रहे जिनसे.
रह गए हैं
छूट पीछे
आज घर में.
साथ आया वह
न जिसकी
कभी भायी फाँस.
उठाया
हाँफा न रोया
वीतरागी बाँस
*
***
लघु कथा:
बाँस
.
गेंड़ी पर नाचते नर्तक की गति और कौशल से मुग्ध जनसमूह ने करतल ध्वनि की. नर्तक ने मस्तक झुकाया और तेजी से एक गली में खो गया.
आश्चर्य हुआ प्रशंसा पाने के लिये लोग क्या-क्या नहीं करते? चंद करतल ध्वनियों के लिये रैली, भाषण, सभा, समारोह, यहाँ ताक की खुद प्रायोजित भी कराते हैं. यह अनाम नर्तक इसकी उपेक्षा कर चला गया जबकि विरागी-संत भी तालियों के मोह से मुक्त नहीं हो पाते. मंदिर से संसद तक और कोठों से अमरोहों तक तालियों और गालियों का ही राज्य है.
संयोगवश अगले ही दिन वह नर्तक फिर मिला गया. आज वह पीठ पर एक शिशु को बाँधे हाथ में लंबा बाँस लिये रस्से पर चल रहा था और बज रही थीं तालियाँ लेकिन वह फिर गायब हो गया.
कुछ दिन बाद नुक्कड़ पर फिर दिख गया वह... इस बार कंधे पर रखे बाँस के दोनों ओर जलावन के गट्ठर टँगे थे जिन्हें वह बेचने जा रहा था..
मैंने पुकारा तो वह रुक गया. मैंने उसके नृत्य और रस्से पर चलने की कला की प्रशंसा कर पूछा कि इतना अच्छा कलाकार होने के बाद भी वह अपनी प्रशंसा से दूर क्यों चला जाता है? कला साधना के स्थान पर अन्य कार्यों को समय क्यों देता है?
कुछ पल वह मुझे देखता रहा फिर लम्बी साँस भरकर बोला : 'क्या कहूँ? कला साधना और प्रशंसा तो मुझे भी मन भाती है पर पेट की आग न तो कला से, न प्रशंसा से बुझती है. तालियों की आवाज़ में रमा रहूँ तो बच्चे भूखे रह जायेंगे.' मैंने जरूरत न होते हुए भी जलावन ले ली... उसे परछी में बैठकर पानी पिलाया और रुपये दिए तो वह बोल पड़ा: 'सब किस्मत का खेल है. अच्छा-खासा व्यापार करता था. पिता को किसी से टक्कर मार डी. उनके इलाज में हुए खर्च में लिए कर्ज को चुकाने में पूँजी ख़त्म हो गयी. बचपन का साथी बाँस और उस पर सीखे खेल ही पेट पालने का जरिया बन गये.' इससे पहले कि मैं उसे हिम्मत देता वह फिर बोला: 'फ़िक्र न करें, वे दिन न रहे तो ये भी न रहेंगे. अभी तो मुझे कहीं झुककर कहीं तनकर बाँस की तरह परिस्थितियों से जूझना ही नहीं, उन्हें जीतना भी है.' और वह तेजी से आगे बढ़ गया. मैं देखते रह गया उसके हाथ में झूलता बाँस
*
***
नवगीत:
.
बाँस हैं हम
.
पत्थरों में उग आते हैं
सीधी राहों पर जाते हैं
जोड़-तोड़ की इस दुनिया में
काम सभी के हम आते हैं
नहीं सफल के पीछे जाते
अपने ही स्वर में गाते हैं
यह न समझो
नहीं कूबत
फाँस हैं हम
बाँस हैं हम
.
चाली बनकर चढ़ जाते हैं
तम्बू बनकर तन जाते हैं
नश्वर माया हमें न मोहे
अरथी सँग मरघट जाते हैं
वैरागी के मन भाते हैं
लाठी बनकर मुस्काते हैं
निबल के साथी
उसीकी
आँस हैं हम
बाँस हैं हम
.
बन गेंड़ी पग बढ़वाते हैं
अगर उठें अरि भग जाते हैं
मिले ढाबा बनें खटिया
सबको भोजन करवाते हैं
थके हुए तन सो जाते हैं
सुख सपनों में खो जाते हैं
ध्वज लगा
मस्तक नवाओ
नि-धन का धन
काँस हैं हम
बाँस हैं हम
७-४-२०१५
***
क्षणिका
*
कर पाता दिल
अगर वंदना
तो न टूटता
यह तय है.
*
निंदा करना
बहुत सरल है.
सराहना ही
मुश्किल है.
*
असंतोष-कुंठा कब उपजे?,
बूझे कारण कौन?
सलिल' सियासत स्वार्थ साधती
जनगण रहता मौन.
*
मैं हूँ
अदना शब्द-सिपाही.
अर्थ सहित दें
शब्द गवाही..
*
मुक्तक
दोस्तों की आजमाइश क्यों करें?
मौत से पहले ही बोलो क्यों मरें..
नाम के ही हैं. मगर हैं साथ जो-
'सलिल' उनके बिन अकेले क्यों रहें?.
*
दिल लगाकर दिल्लगी हमने न की.
दिल जलाकर बंदगी तुमने न की..
दिल दिया ना दिल लिया, बस बात की-
दिल दुखाया सबने हमने उफ़ न की..
७-४-२०१०
***

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