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शुक्रवार, 28 अप्रैल 2023

बुंदेली गीत, अठपदी, कोरोना, खुसरो, श्री, गीत गोविंद, जयदेव, चोका, गीत, मुक्तिका, नवगीत, दोहा,

विमर्श : भोजन करिये बाँटकर
ऋग्वेद निम्नानुसार बाँटकर भोजन करने को कहता है-
१. जमीन से चार अंगुल भूमि का
२. गेहूँ के बाली के नीचे का पशुओं का
३. पहले पेड़ की पहली बाली अग्नि की
४. बाली से गेहूं अलग करने पर मूठ्ठी भर दाना पंछियो का
५. गेहूं का आटा बनाने पर मुट्ठी भर आटा चीटियो का
६. फिर आटा गूथने के बाद चुटकी भर गुथा आटा मछलियो का
७. फिर उस आटे की पहली रोटी गौमाता की
८. पहली थाली घर के बुज़ुर्ग़ो की और फिर हमारी
९. आखिरी रोटी कुत्ते की
२८-४-२०२२
***
बुंदेली गीत
मैया! लै लो अपनी कइंया
रेवा! दुनिया भाती नइंया
संग न सजनी, साथ न सइंया
निज आँचल की दे दो छइंया
*
जग में आया ले कुछ साँसें
भरमाया पालीं कुछ आसें
रिश्ते-नाते पाले, टूटे
जिसको अपना समझा लूटे
कोऊ नहीं है भला करइंयां
मैया! ले लो अपनी कइंया
*
साथ रही कब जोड़ी माया
तम में छूटी अपनी छाया
आखिर खाली हाथ रह गया
कोई अपना साथ कब गया?
हूँ शरणागत थामो बइंया
मैया! ले लो अपनी कइंया
*
जला दिया रिश्ते-नातों ने
भ्रम तोड़ा झूठी बातों ने
अस्थि-भस्म हो तुमको पाया
कुछ-कुछ डूबा, कुछ उतराया
मत ठुकरा माँ! पकड़ूँ पइंयां
मैया! ले लो अपनी कइंया
*
मुझको सिकता-कंकर कर दो
कंकर से शिव शंकर कर दो।
बिगड़ी गति ले अंक सुधारो
भव सागर के पार उतारो
तुमईं सहारा हो इक ठइंया
मैया! ले लो अपनी कइंया
२७-४-२०२१
***
दोहा अठपदी :
*
हिन्दी की जय बोलिए, हो हिन्दीमय आप.
हिन्दी में पढ़-लिख 'सलिल', सकें विश्व में व्याप ..
नेह नर्मदा में नहा, निर्भय होकर डोल.
दिग-दिगंत को गुँजाकर, जी भर हिन्दी बोल..
जन-गण की आवाज़ है, भारत माँ का ताज.
हिन्दी नित बोले 'सलिल', माँ को होता नाज़..
भारत माँ को सुहाती, लालित्यमय बिंदी
जनगण जिव्हा विराजती, विश्ववाणी हिंदी
२८-४-२०२१
***
कोरोना विमर्श : ४
को विद? पूछे कोरोना
*
को अर्थात कौन और विद अर्थात विद्वान। कोविद आज यही परख रहा है कि विद्वान कौन है? विद्वान वह जिसके पास विद्या हो किन्तु केवल विद्या ही पर्याप्त नहीं होती। पंचतंत्र की एक कथा है जिसमें चार मित्र अपने गुरु से विद्या प्राप्त कर जीवन यापन हेतु संसार सागर में प्रवेश करते हैं। रास्ते में उनके मन में संशय होता है कि अपने ज्ञान को परख लें। उन्हें एक शेर का अस्थि पंजर मिलता है। पहला मित्र उसे अस्थियों को जोड़ देता है, दूसरा उस पर मांस-चर्मादि चढ़ा देता है, तीसरा उसमें प्राण डालने लगता है तो चौथा रोकता है पर वह नहीं मानता। तब वह वृक्ष पर चढ़ जाता है। प्राण पड़ते ही शेर तीनों को मार डालता है। इस बोधपरक लघुकथा का संदेश यही है कि केवल किताबी ज्ञान पर्याप्त नहीं होता, व्यावहारिक ज्ञान भी आवश्यक है।
कोविद ने यही पूछा को विद? अमेरिका, इटली, जर्मनी आदि तथाकथित देशों ने पहले तीन मित्रों की तरह आचरण किया और दुष्परिणाम भुगता। भारत ने चौथे मित्र की तरह सजगता और सतर्कता को महत्व दिया और अपने आप को अधिकतम जनसँख्या, अधिकतम सघनता और न्यूनतम चिकित्सा सुविधा और संसाधनों के बावजूद सबसे कम हानि उठाई। इसका यह आशय कतई नहीं है कि निश्चिन्त हो जाएँ कि हम सुरक्षित हो गए। चौथा मित्र गफलत में नीचे आया तो शेर उसे भी नहीं छोड़ेगा। चौथे मित्र को शेर के जाने, उजाला होने और अन्य लोगों के आने तक सजगता बरतनी ही पड़ेगी।
को विद? इस प्रश्न का उत्तर भारतवासी मुसलमानों को भी देना है। दुर्भाग्य से भारत में तब्लीगी, मजलिसी, जिहादी आदि एक तबका ऐसा है जो धर्मांध मुल्लाओं, मौलवियों आदि को मसीहा मानकर उनका अंधानुकरण करता है। यह तबका हर सुधारवादी कदम का विरोध करना ही अपना मजहब समझता है। संकीर्ण दृष्टि और स्वार्थपरकता इन तथाकथित धर्माचार्यों को बाध्य करती है वे अपने अनुयायियों को अशिक्षा और जहालत में रखकर अन्धविश्वास और अंधानुकरण को बढ़ावा देते रहें। सुशिक्षित, समझदार, प्रगतिवादी मुसलमान संख्या में कम और भीरु प्रवृत्ति का है। इसलिए वह चाहकर भी शेष समाज के साथ नहीं चल पाता। उन्हें अपने आप से सवाल करने होंगे और उनके उत्तर भी खोजने होंगे। क्या अच्छा मुसलमान अच्छा इंसान या अच्छा नागरिक नहीं हो सकता? यदि नहीं, तो उसे पूरी दुनिया में लांछित और दंडित किया जाना सही है। तब उसे नष्ट होने से कोई बचा नहीं सकता। यदि हाँ, तो उन्हें अपनी पहचान तथाकथित धर्मांध लोगों और अतवादी आतंवादियों से अलग बनाई होगी और बहुसंख्यक मध्य धारा के साथ नीर-क्षीर की तरह मिलना होगा।
को विद? इस सवाल से बहुसंख्यक सनातनधर्मी हिन्दू भी बच नहीं सकते। वसुधैव कुटुम्बकम, विश्वैक नीड़म् आदि की उदात्त परंपरा की विरासत के बावजूद जाति-पाँति, छुआछूत, वर्ण विभाजन, अन्य धर्मावलंबियों को हीन समझने की मानसिकता को छोड़ना ही होगा। आरक्षण विरोध की दुंदुभी बजानेवाले क्या आरक्षित वर्ग के डॉक्टर से इलाज नहीं कराएँगे? खुद को श्रेष्ठ समझनेवाला ब्राह्मण क्या अनुसूचित जनजाति के पुलिसवाले की मदद नहीं लेगा? बाहुबल के आधार पर गाँवों में मनमानी करनेवाला क्षत्रिय वर्ग क्या खुद अपने आपकी रक्षा कर सकता है? हम सबको समझना होगा कि हाथ की अँगुलियाँ यदि मुट्ठी बनकर नहीं रहीं तो एक-एक कर सब का विनाश हो जाएगा।
को विद? से बच तो शासन और प्रशासन भी नहीं सकता। उसे आज नहीं तो कल यह समझना ही होगा कि पुलिस का काम 'तथा कथित महत्वपूर्णों की रक्षा' नहीं जन सामान्य की सेवा और सहायता करना है। जिस दिन भारत ,में 'पुलिस' को केवल और केवल 'पुलिसिंग' करने दी जाएगी उस दिन देश में सच्चे लोकतंत्र का आरंभ हो जायेगा। लोकतंत्र में लोक ही सर्वशक्तिमान होता है जो अपनी शक्ति अपने प्रतिनिधियों में आरोपित करता है। कोविद काल में चिकित्सकों और पुलिस कर्मियों द्वारा अहर्निश सेवा हेतु उनका वंदन-अभिनन्दन होना ही चाहिए किन्तु अबाधित विद्युत् प्रदाय, जल प्रदाय, सैनिटेशन व्यवस्था, इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों, यातायात आदि को सुचारु रखने में प्राण-प्राण से समर्पित अभियंता वर्ग की सेवा को भी स्मरण किया जाना चाहिए। यह ठीक है कि अभियंता का कार्य भोजन में जल या भवन में नींव की तरह अदृश्य होता है पर यह भी उतना ही सत्य है कि उसके बिना शेष कार्यों पर गंभीर दुष्प्रभाव होता है। इसलिए 'देर आयद दुरुस्त आयद' अभियंता वर्ग के प्रति देश और समाज को सद्भावना व्यक्त करनी ही चाहिए।
इस कोविद काल में जन प्रतिनिधियों ने निकम्मेपन, अदूरदर्शिता, संवेदनहीनता और जन सामान्य से दूरी की मिसाल हर दिन पेश की है। शाहीन बाग़, तब्लीगी जमात, दिल्ली में मजदूरों का पलायन, मुम्बई में आप्रवासियों की भीड़ के इन और इन जैसे अन्य प्रसंगों में वहाँ के पार्षद, जनपद सदस्य, विधायक, सांसद अपने मतदाता के साथ थे? यदि नहीं तो क्या यह उनका संवैधानिक कर्तव्य नहीं था। कर्तव्य निर्वाण न करने के कारन क्यों न उनका निर्वाचन निरस्त हो। क्या राष्ट्रीय आपदा का सामना करना केवल सत्ताधारी दल को कारण है। क्या हर स्तर पर सर्वदलीय सेवा समितियां बनाकर जन जागरण, जन शिक्षण और जन सहायता का कार्य बेहतर और जल्दी नहीं किया जा सकता ? सत्ता दल की विशेष जिम्मेदारी है कि दलीय हित साधने में अन्य दलों से इतनी दूरी न बना ली जाए की संकट के समय भी हाथ न मिल सकें। लोकतंत्र में सत्ता पर दाल बदलते रहते हैं इसलिए देशहित को दलहित के ऊपर रखना ही चाहिए। सत्ता दल के अंधभक्त, विशेषकर बड़बोले और अनुशासनहीन हुल्लड़बाजों को नियंत्रण में रखा जाना परमावश्यक है। घंटी बजने के समय सड़कों पर भीड़ लगानेवाले, ज्योति जलने के समय बम फोड़ने, मोब लॉन्चिंग करने, असहमति होने पर गाली-गुफ़्तार करनेवाले किसी भी दल के लिए हितकर नहीं हो सकते और देशभक्त तो हो ही नहीं सकते।
को विद? इस कोविद काल में यह प्रश्न हम सबको और हममें से हर एक को खुद से पूछना ही होगा। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने लिखा है-
हम कौन हैं?, क्या हो गए हैं?
और क्या होंगे अभी?
आओ! विचारें आज मिलकर
ये समस्याएँ कभी।
***
विरासत : आमिर खुसरो
ग़ज़ल : फ़ारसी + हिंदुस्तानी
ज़िहाल-ए मिस्कीं मकुन तगाफ़ुल, दुराये नैना बनाये बतियां ।
किताब-ए-हिजरां नदारम ऐ जान, न लेहो काहे लगाये छतियां ।।
शबां-ए-हिजरां दरज़ चूं ज़ुल्फ़ वा रोज़-ए-वस्लत चो उम्र कोताह,
सखि पिया को जो मैं न देखूं तो कैसे काटूं अंधेरी रतियां ।।
यकायक अज़ दिल, दो चश्म-ए-जादू ब सद फ़रेबम बाबुर्द तस्कीं,
किसे पडी है जो जा सुनावे पियारे पी को हमारी बतियां ।।
चो शमा सोज़ान, चो ज़र्रा हैरान हमेशा गिरयान, बे इश्क़ आं मेह ।
न नींद नैना, ना अंग चैना ना आप आवें, न भेजें पतियां ।।
बहक्क-ए-रोज़े, विसाल-ए-दिलबर कि दाद मारा, फरेब खुसरौ ।
सपेत मन के, दराये राखूं जो जाये पांव, पिया के खटियां ।
(स्रोत : ज़िहाल-ए मिस्कीं मकुन तगाफ़ुल -अमीर ख़ुसरो)
*
अर्थ :
मुझ गरीब की बदहाली को नज़रंदाज़ न करो - नयना चुरा के और बातें बना के अब जुदा रहने की सहन शक्ति नहीं है ( नदारम ) मेरी जान , मुझे अपने सीने से लगा क्यों नहीं लेते हो?
जुदाई की रातें लम्बी जुल्फों की तरह लम्बी हैं और मिलन का दिन उम्र की तरह छोटी सखी , प्रियतम को न देखूं तो कैसे अँधेरी रातें काटूं (मेरी जिंदगी उसी से रोशन है)
यकायक , दो जादू भरी आँखें सैकड़ों ( ब सद ) तिलिस्म ( फरेबम ) करके दिल से (अज ) सुख चैन ( तस्कीं ) ले उड़ीं ( बाबुर्द ) किसे इस बात की फ़िक्र पड़ी है कि प्यारे पिया को हमारी ये बातें ( चैन उड़ा लेने वाली ) जा के सुनाए ( ताकि उन्हें पता तो चले )
जैसे शमा जलती है जैसे हर ज़र्रा विस्मित है वैसे ही मैं भी इस चाँद (मह ) का सूरज (मेहर) आखिर बन ही गया (बगश्तम) अर्थात जैसे शमा जलती है हर जर्रा विस्मित व बेचैन है वैसी ही खुद को जला देने वाली अत्यंत तेज़ आग मुझे भी आखिर ( प्यार की ) लग ही गयी न आँखों में नींद है न अंगों को चैन , न आप आते हैं न ही आप के पत्र आते हैं
उसे ही हक है कि मिलन ( विसाल ) का दिन तय करे या फरेब करे , तब तक तक मन के भेद अन्दर ही रखूँ ( दो तरफ़ा -प्यार का या नहीं ) जब तक की दिलबर का पता नहीं मिल जाता ( खतियाँ ) .
नुसरत फ़तेह अली खान ने गाया है :
सपीत मन के, दराये राखूं, जो जाये पांव, पिया के खतियां
मन के सफ़ेद मोती , बचा के रखूं ,जब तक कि दिलबर का पता नहीं मिल जाता ( खतियाँ ) .
गुलज़ार ने चलचित्र गुलामी में लिखा है -
जिहाल-ए -मिस्कीन मकुन बरंजिश , बेहाल-ए -हिजरा बेचारा दिल है
सुनाई देती है जिसकी धड़कन, तुम्हारा दिल या हमारा दिल है
जिहाल-ए -मिस्कीन मकुन बरंजिश = गरीब की बदहाली पर रंजिश न करो
*
कोरोना की जयकार करो
*
कोरोना की जयकार करो
तुम नहीं तनिक भी कभी डरो
*
घरवाले हो घर से बाहर
तुम रहे भटकते सदा सखे!
घरवाली का कब्ज़ा घर पर
तुम रहे अटकते सदा सखे!
जीवन में पहली बार मिला
अवसर घर में तुम रह पाओ
घरवाली की तारीफ़ करो
अवसर पाकर सत्कार करो
तुम नहीं तनिक भी कभी डरो
कोरोना की जयकार करो
*
जैसी है अपनी किस्मत है
गुणगान करो यह मान सदा
झगड़े झंझट बहसें छोडो
पाई जो उस पर रहो फ़िदा
हीरोइन से ज्यादा दिलकश
बोलो उसकी हर एक अदा
हँस नखरे नाज़ उठाओ तुक
चरणों कर झुककर शीश धरो
तुम नहीं तनिक भी कभी डरो
कोरोना की जयकार करो
*
झाड़ू मारो, बर्तन धोलो
फिर चाय-नाश्ता दे बोलो
'भोजन में क्या तैयार करूँ'
जो कहें बना षडरस घोलो
भोग लगाकर ग्रहण करो
परसाद' दया निश्चय होगी
झट दबा कमर पग-सेवा कर
उनके मन की हर पीर हरो
तुम नहीं तनिक भी कभी डरो
कोरोना की जयकार करो
*
विमर्श : 'श्री'
*
'श्री' पूरे ब्रह्मांड की प्राण-शक्ति है। श्री = शोभा, लक्ष्मी और कांति।
श्रीयुत का मतलब प्राणयुक्त है। 'श्री' का शब्द का सबसे पहले उपयोग ऋग्वेद में हुआ है। जो 'श्री' युक्त है उसका निरंतर विकास होगा, वह समृद्ध और सुखी होगा। ईश्वर श्री से ओतप्रोत है। परमात्मा को वेद में अनंत श्री वाला कहा गया है।
मनुष्य अनंत-धर्मा नहीं है, वह असंख्य श्री वाला तो नहीं हो सकता है, लेकिन पुरुषार्थ से ऐश्वर्य हासिल करके वह श्रीमान बन सकता है। जो पुरुषार्थ नहीं करता, वह श्रीमान कहलाने का अधिकारी नहीं है।
वर्तमान में सम्मानित या बड़े के नाम के पूर्व श्री लगाया जाता है। यह शिष्टाचार मात्र है।
स्वर्गीय यानी जो दिवंगत हो गए, जिनकी देह नहीं है, जिनका ईश्वर में लय हो गया हो उन्हें स्वर्गीय या स्मरणीय कह सकते हैं पर उनके नाम के आगे 'श्री' लगाया जाना अनुपयुक्त है। दिवंगत का न तो विकास संभव है न वह समृद्ध या सुखी हो सकता है। इसलिए दिवंगतों के नाम के पूर्व श्री या श्रीमती नहीं लगाना चाहिए।
***
गीत गोविंद : जयदेव
*
मेघैर्मेदुरमम्बरं वनभुव: श्यामास्तमालद्रुमैर्नक्तं भीरुरयं त्वमेव तदिमं राधे ग्रहं प्रापय।
इत्थं नंदनिदेशतश्चलितयो: प्रत्यध्वकुंजद्रुमं राधमाधवयोर्जयंति यमुनाकूले रह: केलय:।।
*
नील गगन पर श्यामल बादल, वन्य भूमि पर तिमिर घना है।
संध्या समय भीति भव; राधा एकाकी; घर दूर बना है।।
नंद कहें 'घर पहुँचाओ' सुन, राधा-माधव गये कुंज में-
यमुना तट पर केलि करें, जग माया-ब्रह्म सुस्नेह सना है।।
*
वाग्देवताचरितचित्रितचित्तसद्मापद्मावतीचरणचारण चक्रवर्ती।
श्रीवासुदेवरतिकेलिकथासमेतंमेतं करोति जयदेवकवि: प्रबंधम्।।
यदिहरिस्मरणे सरसं मनो यदि विलासकलासु कुतूहलम्।
मधुरकोमलकांतपदावलीं श्रणु तदा जयदेवसरस्वतीम्।।
*
वाग्देव चित्रित करें चित लगा, कमलावती पद-दास चक्रधारी।
श्री वासुदेव की सुरति केलि कथा, जयदेव कवि प्रबंध रच बखानी।।
यदि मन में हरि सुमिरन की है चाह, यदि कौतूहल जानें कला विलास।
सुनें सुमधुरा कोमलकांत पदावलि, जयदेव सरस्वती संग लिये हुलास।।
*
भावानुवाद : संजीव
२८-४-२०२०
***
जापानी वार्णिक छंद चोका :
*
चोका एक अपेक्षाकृत लम्बा जापानी छंद है।
जापान में पहली से तेरहवीं सदी में महाकाव्य की कथा-कथन की शैली को चोका कहा जाता था।
जापान के सबसे पहले कविता-संकलन 'मान्योशू' में २६२ चोका कविताएँ संकलित हैं, जिनमें सबसे छोटी कविता ९ पंक्तियों की है। चोका कविताओं में ५ और ७ वर्णों की आवृत्ति मिलती है। अन्तिम पंक्तियों में प्रायः ५, ७, ५, ७, ७ वर्ण होते हैं
बुन्देलखण्ड के 'आल्हा' की तरह चोका का गायन या वाचन उच्च स्वर में किया जाता रहा है। यह वर्णन प्रधान छंद है।
जापानी महाकवियों ने चोका का बहुत प्रयोग किया है।
हाइकु की तरह चोका भी वार्णिक छंद है।
चोका में वर्ण (अक्षर) गिने जाते हैं, मात्राएँ नहीं।
आधे वर्ण को नहीं गिना जाता।
चोका में कुल पंक्तियों का योग सदा विषम संख्या में होता है ।
रस लीजिए कुछ चोका कविताओं का-
*
उर्वी का छौना
डॉ. सुधा गुप्ता
*
चाँद सलोना
रुपहला खिलौना
माखन लोना
माँ का बड़ा लाडला
सब का प्यारा
गोरा-गोरा मुखड़ा
बड़ा सजीला
किसी की न माने वो
पूरा हठीला
‘बुरी नज़र दूर’
करने हेतु
ममता से लगाया
काला ‘दिठौना’
माँ सँग खेल रहा
खेल पुराना
पेड़ों छिप जाता
निकल आता
किलकता, हँसता
माँ से करे ‘झा’
रूप देख परियाँ
हुईं दीवानी
आगे-पीछे डोलतीं
करे शैतानी
चाँदनी का दरिया
बहा के लाता
सबको डुबा जाता
गोल-मटोल
उजला, गदबदा
रूप सलोना
नभ का शहज़ादा
वह उर्वी का छौना
***
ये दु:ख की फ़सलें
रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
*
खुद ही काटें
ये दु:ख की फ़सलें
सुख ही बाँटें
है व्याकुल धरती
बोझ बहुत
सबके सन्तापों का
सब पापों का
दिन -रात रौंदते
इसका सीना
कर दिया दूभर
इसका जीना
शोषण ठोंके रोज़
कील नुकीली
आहत पोर-पोर
आँखें हैं गीली
मद में ऐंठे बैठे
सत्ता के हाथी
हैं पैरों तले रौंदे
सच के साथी
राहें हैं जितनी भी
सब में बिछे काँटे ।
***
पड़ोसी मोना
मनोज सोनकर
*
आँखें तो बड़ी
रंग बहुत गोरा
विदेशी घड़ी
कुत्ते बहुत पाले
पड़ोसी मोना
खुराक अच्छी डालें
आजादी प्यारी
शादी तो बंधन
कहें कुंवारी
अंग्रेज़ी फ़िल्में लाएं
हिन्दी कचरा
खूब भुनभुनाएं
ब्रिटेन भाए
बातचीत उनकी
घसीट उसे लाए
***
पेड़ निपाती
सरस्वती माथुर
*
पतझर में
उदास पुरवाई
पेड़ निपाती
उदास अकेला -सा ।
सूखे पत्ते भी
सरसराते उड़े
बिना परिन्दे
ठूँठ -सा पेड़ खड़ा
धूप छानता
किरणों से नहाता
भीगी शाम में
चाँदनी ओढ़कर
चाँद देखता
सन्नाटे से खेलता
विश्वास लिये-
हरियाली के संग
पतझर में
उदास पुरवाई
पेड़ निपाती
उदास अकेला -सा ।
सूखे पत्ते भी
सरसराते उड़े
बिना परिन्दे
ठूँठ -सा पेड़ खड़ा
धूप छानता
किरणों से नहाता
भीगी शाम में
चाँदनी ओढ़कर
चाँद देखता
सन्नाटे से खेलता
विश्वास लिये-
हरियाली के संग
पत्ते फिर फूटेंगे ।
***
विछोह घडी
भावना कुँवर
*
बिछोह -घड़ी
सँजोती जाऊँ आँसू
मन भीतर
भरी मन -गागर।
प्रतीक्षारत
निहारती हूँ पथ
सँभालूँ कैसे
उमड़ता सागर।
मिलन -घड़ी
रोके न रुक पाए
कँपकपाती
सुबकियों की छड़ी।
छलक उठा
छल-छल करके
बिन बोले ही
सदियों से जमा वो
अँखियों का सागर।
२८-४-२०१७
-0-
मुक्तिका
चाँदनी फसल..
*
इस पूर्णिमा को आसमान में खिला कमल.
संभावना की ला रही है चाँदनी फसल..
*
वो ब्यूटी पार्लर से आयी है, मैं क्या कहूँ?
है रूप छटा रूपसी की असल या नक़ल?
*
दिल में न दी जगह तो कोई बात नहीं है.
मिलने दो गले, लोगी खुदी फैसला बदल..
*
तुम 'ना' कहो मैं 'हाँ' सुनूँ तो क्यों मलाल है?
जो बात की धनी थी, है बाकी कहाँ नसल?
*
नेता औ' संत कुछ कहें न तू यकीन कर.
उपदेश रोज़ देते न करते कभी अमल..
*
मन की न कोई भी करे है फ़िक्र तनिक भी.
हर शख्स की है चाह संवारे रहे शकल..
*
ली फेर उसने आँख है क्यों ताज्जुब तुझे.?
होते हैं विदा आँख फेरकर कहे अज़ल..
*
माया न किसी की सगी थी, है, नहीं होगी.
क्यों 'सलिल' चाहता है, संग हो सके अचल?
*
द्विपदी 
शूल देकर साथ क्यों बदनाम हैं?
फूल छोड़ें साथ सुर्खरू क्यों हैं?
***
नवगीत:
.
धरती काँपी,
नभ थर्राया
महाकाल का नर्तन
.
विलग हुए भूखंड तपिश साँसों की
सही न जाती
भुज भेंटे कंपित हो भूतल
भू की फटती छाती
कहाँ भू-सुता मातृ-गोद में
जा जो पीर मिटा दे
नहीं रहे नृप जो निज पीड़ा
सहकर धीर धरा दें
योगिनियाँ बनकर
इमारतें करें
चेतना-कर्तन
धरती काँपी,
नभ थर्राया
महाकाल का नर्तन
.
पवन व्यथित नभ आर्तनाद कर
आँसू धार बहायें
देख मौत का तांडव चुप
पशु-पक्षी धैर्य धरायें
ध्वंस पीठिका निर्माणों की,
बना जयी होना है
ममता, संता, सक्षमता के
बीज अगिन बोना है
श्वास-आस-विश्वास ले बढ़े
हास, न बचे विखंडन
२८-४-२०१५
***
दोहा दुनिया
बात से बात
*
बात बात से निकलती, करती अर्थ-अनर्थ
अपनी-अपनी दृष्टि है, क्या सार्थक क्या व्यर्थ?
*
'सर! हद सरहद की कहाँ?, कैसे सकते जान?
सर! गम है किस बात का, सरगम से अनजान
*
'रमा रहा मन रमा में, बिसरे राम-रमेश.
सब चाहें गौरी मिले, हों सँग नहीं महेश.
*
राम नाम की चाह में, चाह राम की नांय.
काम राम की आड़ में, संतों को भटकाय..
*
'है सराह में, वाह में, आह छिपी- यह देख.
चाह कहाँ कितनी रही?, करले इसका लेख..
*
'गुरु कहना तो ठीक है, कहें न गुरु घंटाल.
वरना भास्कर 'सलिल' में, डूब दिखेगा लाल..'
*
'लाजवाब में भी मिला, मुझको छिपा जवाब.
जैसे काँटे छिपाए, सुन्दर लगे गुलाब'.
*
'डूबेगा तो उगेगा, भास्कर ले नव भोर.
पंछी कलरव करेंगे, मनुज मचाए शोर..'
*
'एक-एक कर बढ़ चलें, पग लें मंजिल जीत.
बाधा माने हार जग, गाये जय के गीत.'.
*
'कौन कहाँ प्रस्तुत हुआ?, और अप्रस्तुत कौन?
जब भी पूछे प्रश्न मन, उत्तर पाया मौन.'.
*
तनखा ही तन खा रही, मन को बना गुलाम.
श्रम करता गम कम 'सलिल', करो काम निष्काम.
*
२८-४-२०१४
गीत:
यह कैसा जनतंत्र...
*
यह कैसा जनतंत्र कि सहमत होना, हुआ गुनाह ?
आह भरें वे जो न और क़ी सह सकते हैं वाह...
*
सत्ता और विपक्षी दल में नेता हुए विभाजित
एक जयी तो कहे दूसरा, मैं हो गया पराजित
नूरा कुश्ती खेल-खेलकर जनगण-मन को ठगते-
स्वार्थ और सत्ता हित पल मेँ हाथ मिलाये मिलते
मेरी भी जय, तेरी भी जय, करते देश तबाह...
*
अहंकार के गुब्बारे मेँ बैठ गगन मेँ उड़ते
जड़ न जानते, चेतन जड़ के बल जमीन से जुड़ते
खुद को सही, गलत औरों को कहना- पाला शौक
आक्रामक भाषा ज्यों दौड़े सारमेय मिल-भौंक
दूर पंक से निर्मल चादर रखिए सही सलाह...
*
दुर्योधन पर विदुर नियंत्रण कर पायेगा कैसे?
शकुनी बिन सद्भाव मिटाये जी पाएगा कैसे??
धर्मराज की अनदेखी लख, पार्थ-भीम भी मौन
कृष्ण नहीं तो पीर सखा की न्यून करेगा कौन?
टल पाए विनाश, सज्जन ही सदा करें परवाह...
*
वेश भक्त का किंतु कुदृष्टि उमा पर रखे दशानन
दबे अँगूठे के नीचे तब स्तोत्र रचे मनभावन
सच जानें महेश लेकिन वे नहीं छोड़ते लीला
राम मिटाते मार, रहे फिर भी सिय-आँचल गीला
सत को क्यों वनवास? असत वाग्मी क्यों गहे पनाह?...
*
कुसुम न काँटों से उलझे, तब देव-शीश पर चढ़ता
सलिल न पत्थर से लडता तब बनकर पूजता
ढाँक हँसे घन श्याम, किन्तु राकेश न देता ध्यान
घट-बढ़कर भी बाँट चंद्रिका, जग को दे वरदान
जो गहरे वे शांत, मिले कब किसको मन की थाह...
२८-४-२०१४
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नवगीत 
झुलस रहा गाँव
*
झुलस रहा गाँव
घाम में झुलस रहा...
*
राजनीति बैर की उगा रही फसल.
मेहनती युवाओं की खो गयी नसल..
माटी मोल बिक रहा बजार में असल.
शान से सजा माल में नक़ल..
गाँव शहर से कहो
कहाँ अलग रहा?
झुलस रहा गाँव
घाम में झुलस रहा...
*
एक दूसरे की लगे जेब काटने.
रेवड़ियाँ चीन्ह-चीन्ह लगे बाँटने.
चोर-चोर के लगा है एब ढाँकने.
हाथ नाग से मिला लिया है साँप ने..
'सलिल' भले से भला ही
क्यों विलग रहा?.....
झुलस रहा गाँव
घाम में झुलस रहा...
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नवगीत:
मत हो राम अधीर.........
*
जीवन के
सुख-दुःख हँस झेलो ,
मत हो राम अधीर.....
*
भाव, अभाव, प्रभाव ज़िन्दगी.
मिलन, विरह, अलगाव जिंदगी.
अनिल अनल वसुधा नभ पानी-
पा, खो, बिसर स्वभाव ज़िन्दगी.
अवध रहो
या तजो, तुम्हें तो
सहनी होगी पीर.....
*
मत वामन हो, तुम विराट हो.
ढाबे सम्मुख बिछी खाट हो.
संग कबीरा का चाहो तो-
चरखा हो या फटा टाट हो.
सीता हो
या द्रुपद सुता हो
मैला होता चीर.....
*
विधि कुछ भी हो कुछ रच जाओ.
हरि मोहन हो नाच नचाओ.
हर हो तो विष पी मुस्काओ-
नेह नर्मदा नाद गुंजाओ.
जितना बहता
'सलिल' सदा हो
उतना निर्मल नीर.....
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कार्यशाला
काव्य प्रश्नोत्तर
संजय:
'आप तो गुरु हो.'
मैं:
'है सराह में, वाह में, आह छिपी- यह देख
चाह कहाँ कितनी रही, करले इसका लेख..'
Sanjay:
'बढ़िया'
मैं:
'गुरु कहना तो ठीक है, कहें न गुरु घंटाल।
वरना भास्कर 'सलिल' में, डूब दिखेगा लाल..'
Sanjay:
'क्या बात है लाजवाब।'
मैं:
'लाजवाब में भी मिला, मुझको छिपा जवाब।
जैसे काँटे छिपाए, सुन्दर लगे गुलाब'.
दोहा
*
तनखा तन को खा रही, मन को बना गुलाम.
श्रम करता गम कम 'सलिल', करो काम निष्काम..
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कुण्डलिनी:
*
हिन्दी की जय बोलिए, हो हिन्दीमय आप.
हिन्दी में पढ़-लिख 'सलिल', सकें विश्व में व्याप ..
नेह नर्मदा में नहा, निर्भय होकर डोल.
दिग-दिगंत को गुँजा दे, जी भर हिन्दी बोल..
जन-गण की आवाज़ है, भारत मान ता ताज.
हिन्दी नित बोले 'सलिल', माँ को होता नाज़..
२८-४-२०१०
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